साहित्य की दुनिया की अपनी विलक्षणताएं हैं. जो लोग इस दुनिया के
तौर-तरीकों से वाक़िफ नहीं हैं उन्हें इस बात से बड़ी उलझन होती है कि कैसे दो
विद्वान एक ही कृति के बारे में परस्पर विपरीत राय व्यक्त कर देते हैं! उन्हें यह
समझाने में बहुत ज़ोर पड़ता है कि साहित्य में दो और दो का जोड़ सदा चार ही नहीं होता
है. एक ही कृति किसी को बहुत अच्छी लग सकती है और किसी दूसरे को बहुत सामान्य! कई
बार मानदण्ड भिन्न होते हैं और कई बार
देखने का कोण अलग होता है. और अगर आप भी उस रचना को पढ़ चुके हैं तो एक पाठक के रूप में आपके पास भी अपना किया हुआ एक
मूल्यांकन हो सकता है. स्वाभाविक है कि आप अपने किए मूल्यांकन से दूसरे के
मूल्यांकन की तुलना करेंगे और अगर दोनों में बहुत बड़ा फर्क़ पाएंगे तो हो सकता है कि
आप दूसरे मूल्यांकन कर्ता, जिसे आलोचक या समीक्षक के नाम से भी जाना जाता है, की
नीयत पर शक कर लें.
नीयत वाली यह बात एक दूसरे
स्तर पर भी उभर कर सामने आती है. जब कोई समीक्षक किसी रचना या कृति पर अपनी
टिप्पणी करता है और अगर वह टिप्पणी प्रशंसात्मक
होती है तो लेखक कहता है कि यह समीक्षक बहुत समझदार और ईमानदार है. लेकिन अगर कोई समीक्षा
रचनाकार के अनुकूल नहीं होती है तो अक्सर यह होता है कि या तो रचनाकार यह कहता है
कि समीक्षक उसकी रचना को समझ नहीं पाया है और या फिर वो उसकी नीयत पर सन्देह करता
है. तब गुटबाजी, पक्षपात, बेईमानी, वैचारिक कट्टरता आदि जैसे विशेषण भी बाहर निकल
आते हैं.
मेरा क्षेत्र क्योंकि आलोचना रहा है मुझे इस तरह के अनेक अनुभव हुए
हैं और अब तो निस्संकोच यह बात कह सकता हूं कि अपनी आलोचना के लिहाज़ से हिन्दी के
अधिकांश रचनाकारों की पाचन शक्ति बहुत कमज़ोर है. यह लिखते हुए मुझे बरसों पहले का
एक प्रसंग याद आ रहा है. हुआ यह कि जोधपुर के हमारे एक कथाकार मित्र ने अपनी कथा
कृतियों पर एक गोष्ठी का आयोजन किया और उन्होंने मुझसे भी अनुरोध किया कि मैं उस
गोष्ठी में पहुंचकर उनके रचनाकर्म पर कुछ कहूं. मैं तब जोधपुर से 200 किलोमीटर दूर
सिरोही में कार्यरत था. कुछ युवकोचित उत्साह और कुछ उन रचनाकार मित्र के प्रति
आत्मीयता – मैं जोधपुर चला गया. शाम को गोष्ठी थी. उस गोष्ठी में उनके दो और
मित्र, नामी रचनाकार – एक दिल्ली से और एक मुम्बई से भी बुलाए गए थे. वैसे तो हम
तीनों परस्पर परिचित थे, लेकिन गोष्ठी से पहले न तो हमारी कोई बातचीत हुई और न
पत्र व्यवहार. फिर भी संयोग यह रहा कि हम तीनों ने उन रचनाकार मित्र के कृतित्व की
विशेषताओं के साथ-साथ कमियों की भी करीब-करीब एक जैसी चर्चा की. वैसे भी वो चर्चा
गोष्ठी थी, अत: यह बात अनुचित नहीं थी. गोष्ठी ख़त्म होते-होते मुझे लग गया कि वे
रचनाकार मित्र बहुत क्षुब्ध हैं. शायद इसी क्षोभ की वजह से उन्होंने सिरोही से
जोधपुर आने के लिए मेरे प्रति आभार व्यक्त करने का सामान्य सौजन्य भी नहीं बरता. आवास
की मेरी अपनी परिवारिक व्यवस्था थी. मैं वहां चला आया और अगली सुबह सिरोही लौट
आया. बाद में टुकड़ों-टुकड़ों में वहां के अन्य साहित्यकार मित्रों से जो बातें पता
चली उन्हें जोड़ने पर तस्वीर यह बनी कि उन दोनों मित्रों को एक होटल में ठहराया
गया था और गोष्ठी के बाद उनके आतिथ्य
सत्कार का ‘समुचित’ प्रबन्ध भी था. समुचित का अभिप्राय आप अपने आप समझ लें. उस
सत्कार-समागम के दौरान हमारे उन रचनाकार
मित्र ने उन अतिथियों की जमकर ख़बर ली और इस बात पर न केवल शाब्दिक बल्कि
शारीरिक नाराज़गी भी व्यक्त की कि इतना पैसा खर्च करके तुम्हें इसलिए थोड़े ही
बुलाया था कि तुम यह सब कहो! मेरा तो यह सौभाग्य रहा कि मैंने अपने पर उनका एक
पैसा भी खर्चा नहीं कराया और न उनका आतिथ्य ग्रहण किया, उलटे यात्रा व्यय भी अपना
ही किया. लेकिन इसके बावज़ूद उनकी नाराज़गी
इस रूप में ज़रूर प्रकट हुई कि उस गोष्ठी से पहले हमारे बीच जो आत्मीयता का सूत्र
था, वह टूट गया और ऐसा टूटा कि फिर जुड़ ही नहीं सका. और ऐसा तो मेरे साथ बहुत बार हुआ है कि किसी रचनाकार की
किसी रचना की प्रशंसा की तब उन्होंने कहा कि मुझ जैसा आलोचक कोई और है ही नहीं,
लेकिन जब उनकी किसी रचना की किसी कमी पर उंगली
रखी तो पता चला कि उन्हें मेरी साहित्यिक समझ पर गहरा संशय है.
लेकिन वो अंग्रेज़ी में कहते
हैं ना कि इट्स ऑल पार्ट ऑफ द गेम!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार दिनांक 15 जुलाई, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.