Tuesday, August 30, 2016

माता-पिता और बच्चों के रिश्तों में दूरी लाता होमवर्क

उस हर घर परिवार में जहां स्कूल जाने वाले छोटे बच्चे होते हैं शाम होते-होते मां-बाप और बच्चों के बीच संघर्ष शुरु हो जाता है. मां-बाप चाहते हैं कि बच्चा स्कूल से मिला होमवर्क कर ले और बच्चा चाहता है कि वह खेले-कूदे, मस्ती करे और फिर सो जाए! इस संघर्ष का पटाक्षेप  कभी आंसुओं में होता  है तो कभी हिंसा में. यह घर-घर  की कहानी है. मां-बाप सोचते हैं कि अगर बच्चे ने होमवर्क नहीं किया तो वो पढ़ाई में पीछे रह जाएगा! बच्चा क्या सोचता है, पता नहीं. लेकिन इधर अमरीका में ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक होमवर्क रिसर्च गुरु हैरिस कूपर ने खासे लम्बे शोध कार्य के बाद जो कुछ कहा है वह इन सभी मां-बापों के लिए विचारणीय है. कूपर ने कोई 180 अध्ययनों के बाद यह निष्कर्ष दिया है कि “ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि होमवर्क से प्राथमिक कक्षाओं  के बच्चों की पढ़ाई लिखाई में कुछ फायदा होता है.” कूपर का यह कहना  है कि हां, होमवर्क के फायदे हैं लेकिन उन फायदों का सीधा रिश्ता होमवर्क करने वालों की उम्र के साथ है. इस बात को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि उनकी शोध के अनुसार प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए कक्षा में पढ़ लेना पर्याप्त है और उन्हें घर पर करने के लिए दिया गया होमवर्क उन पर अतिरिक्त बोझ मात्र है. मिडिल स्कूल के विद्यार्थियों के मामले में भी होमवर्क और अकादमिक कामयाबी का रिश्ता न्यूनतम है. हां, जब बच्चा हाई स्कूल तक पहुंच जाए तब होमवर्क उसके लिए लाभप्रद होता है. लेकिन इसकी भी अति नहीं होनी चाहिए. हर रोज़ दो घण्टे का होमवर्क पर्याप्त है. अगर इससे ज़्यादा दिया  जाएगा तो उससे होने वाला लाभ घटने लगेगा.


कूपर की इस शोध की  पुष्टि अमरीका की लोकप्रिय ब्लॉगर और छह वर्षीय बच्चे की मां ने भी की है.  हीथर शुमाकर नामक इस युवती की एक किताब ‘इट्स ओके नोट टू शेयर’ पहले प्रकाशित हो चुकी है और इनकी हालिया प्रकाशित किताब ‘इट्स ओके टू गो अप द स्लाइड’ खूब चर्चा में है. हीथर  का कहना है कि छोटे बच्चों की सबसे बड़ी ज़रूरत यह होती है कि वे खेले-कूदें और परिवार के साथ समय बितायें, जिस काम में उनका मन लगे वह करें, और जल्दी सो जाएं ताकि उन्हें दस ग्यारह घण्टों की भरी-पूरी नींद मिल सके. अगर ऐसा होगा तो वे स्कूल में भी बेहतर प्रदर्शन करेंगे. करीब सात  घण्टे स्कूल में बिताकर उन्हें उतनी अकादमिक खुराक पहले ही मिल चुकी होती है जितनी की उन्हें ज़रूरत होती है. इसके बाद उन पर होमवर्क  का बोझ लादना अनुचित है. अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए हीथर कहती हैं कि होमवर्क की वजह से बच्चों की घर पर होने वाली शिक्षा में बाधा पहुंचती है. बहुत कम उम्र में दिये जाने वाले होमवर्क की वजह से बच्चों के मन में स्कूल और शिक्षा के प्रति अरुचि का भाव घर करने लगता है. वे उसकी महत्ता समझने की बजाय उसके प्रति अवमानना पालने लग जाते हैं. इसके अलावा, अगर बहुत छोटी उम्र में बच्चों को होमवर्क दिया जाने लगता है तो उनमें विकसित होने वाली ज़िम्मेदारी की भावना भी अवरुद्ध होती है. इसलिए होती है कि उस उम्र में तो मां-बाप ही उनसे होमवर्क करवाते हैं. और यह बात उनकी आदत में शुमार होने लगती है. बच्चों  को आदत पड़ जाती है कि उनके मां-बाप उनसे होमवर्क करवाएं और कई मामलों में तो खुद मां-बाप ही उनका होमवर्क कर देते हैं. जबकि  होना यह चाहिये कि जब बच्चों में पर्याप्त ज़िम्मेदारी का भाव विकसित हो जाए तब उन्हें होमवर्क दिया जाने लगे.  अभी तो यह हो रहा है कि बच्चों से होमवर्क करवाते हुए हम उसके मुख्य उद्देश्य, कि बच्चों में ज़िम्मेदारी का भाव विकसित  हो, को ही पराजित किये दे रहे हैं. हीथर का कहना है कि वे बच्चों के लिए सिर्फ एक होमवर्क का समर्थन करती हैं और वह है रीडिंग यानि पठन.


इन शिक्षाविदों ने एक और बेहद महत्वपूर्ण बात की तरफ इशारा किया है. इनका कहना है कि कम आयु के बच्चों को  दिया गया होमवर्क उनके और उनके मां-बाप के बीच के रिश्तों को भी प्रतिकूलत: प्रभावित करता है. ये कहते हैं कि हर शाम हज़ारों घरों में मां-बाप अपने बच्चों को होमवर्क करने के लिए डांटते-फटकारते-मारते-पीटते हैं और बेचारे थके-मांदे  बच्चे अपनी तरह से उनका प्रतिरोध करते हुए रोते-झींकते हैं. इस तरह जो शामें जो बच्चों के साथ हंसते-खेलते बीतनी चाहिए थीं वे गुस्से और अवसाद में खत्म होती हैं.


इन शोधकर्ताओं की बातें तर्क संगत तो लगती हैं! देखना है कि हमारे शिक्षण संस्थानों का और मां-बापों का ध्यान इस तरफ़ जाता है या नहीं!    


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 अगस्त, 2016 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, August 23, 2016

दास्तान एक अजीब लड़ाई की

अपनी इस अजूबों भरी दुनिया में बहुत सारी लड़ाइयां ऐसी भी चलती रहती हैं जिनका असर तो हम पर होता है, लेकिन जिनकी कोई ख़बर हमें नहीं होती. ऐसी ही एक रोचक लड़ाई इन दिनों दुनिया के सबसे बड़े सोशल नेटवर्क अड्डे फेसबुक और ऑनलाइन विज्ञापन ब्लॉक करने वाले एक ऐप एडब्लॉक के निर्माताओं के बीच चल रही है. फेसबुक के साम्राज्य की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी हैसियत साढ़े तीन सौ बिलियन डॉलर (भारतीय मुद्रा में लगभग पैंतीस हज़ार करोड़)  की है. जिस अड्डे पर जाकर आप-हम जैसे साधारण जन अपने हाल-चाल, पसन्द नापसन्द साझा करते हैं उसकी इतनी बड़ी आर्थिक हैसियत के मूल में हैं वे विज्ञापन जो हमें अपने और अपने दोस्तों के हाल-चाल के बीच दिखा दिये जाते हैं. इन विज्ञापनों का दिखाया जाना आकस्मिक नहीं होता है. इनका सीधा रिश्ता हमारी दिलचस्पियों, जिज्ञासाओं, टिप्पणियों आदि और हमारी वेब ब्राउज़िंग आदतों के साथ होता है और इसी कारण ये हमारे लिए प्रासंगिक भी होते हैं. ऐसा भी नहीं है कि विज्ञापन दिखाने का यह काम केवल फेसबुक ही करती है. ऑनलाइन सेवा देने वाली अधिकांश सेवाएं, जिनमें गूगल भी शामिल है, अपने उपयोगकर्ताओं को किसम-किसम के विज्ञापन दिखाती हैं. इन तमाम कम्पनियों का सोच यही है कि उपयोग कर्ता उनकी सेवाओं का बिना कोई मोल चुकाये उपयोग करता है तो उसे  उन सेवाओं का व्यय भार वहन करने वालों  के विज्ञापन देखने पर कोई आपत्ति  नहीं होनी चाहिए. ऑनलाइन के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा होता है. हम लगभग मुफ़्त में जो टीवी चैनल देखते हैं उनका व्यय भार विज्ञापन देने वाले ही उठाते हैं और अपनी मूल लागत से काफी कम में जो समाचार पत्र हमें मिल पाता है उसके पीछे भी विज्ञापन दाताओं का ही आर्थिक सम्बल होता है.

ऑनलाइन सामग्री में विज्ञापन प्रदर्शित करने का मामला केवल अनचाही सामग्री हम पर आरोपित करने का मामला ही न होकर हमारी निजता के हनन  का मामला ही हो जाता है और इसलिए जागरूक ऑनलाइन सामग्री उपयोगकर्ता अनेक फिल्टर्स और ऐप्स की मदद से इन विज्ञापनों से बचने के रास्ते तलाश करते रहते हैं. ऐसे मददगारों में एडब्लॉक का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. बहुत सारे लोग अपने वेब ब्राउज़र में एक्स्टेंशन के रूप में एडब्लॉकर जोड़कर अनचाहे विज्ञापनों से मुक्ति पाने का प्रयास करते रहे हैं. लेकिन ज़ाहिर है कि यह बात फेसबुक को रास नहीं आई और उसने कुछ ऐसी तकनीकी जुगत की कि एडब्लॉक को ही ब्लॉक कर दिया. यानि एडब्लॉक इस्तेमाल करने वाले उपयोगकर्ताओं को भी विज्ञापन दिखाये जाने लगे. फेसबुक की इस कार्यवाही का जवाब उसी दिन दिया एडब्लॉक ने, यह कहते हुए कि उनका एडब्लॉक प्लस ऐप फेसबुक की कार्यवाही को नाकाम साबित कर देगा. यानि जो विज्ञापन नहीं देखना चाहते उन्हें विज्ञापन नहीं दिखाये जा सकेंगे. बहुत  रोचक बात यह कि इस कार्यवाही के तुरंत बाद फेसबुक ने फिर एक जवाबी कार्यवाही करते हुए एडब्लॉक प्लस को भी अप्रभावी कर डाला. और इस बार फेसबुक की तरफ से एक बयान भी ज़ारी किया गया जिसमें एडब्लॉक वालों पर यह आरोप लगाया गया कि वे फेसबुक उपयोगकर्ताओं को उनके मित्रों की पोस्ट्स और पेज देखने से भी वंचित कर रहे हैं. फेसबुक ने एडब्लॉक और इस तरह के टूल निर्माताओं पर यह भी इलज़ाम लगाया कि वे अपने इन प्रयासों से पैसा कमा रहे हैं. यानि यह उनकी निस्वार्थ सेवा नहीं है. फेसबुक का यह आरोप खारिज़ इसलिए नहीं किया जा सकता कि एडब्लॉक को गूगल जैसी बड़ी कम्पनियों से ‘स्वीकार्य विज्ञापनों’ को दिखाये जा सकने की अनुमति देने वाली श्वेत सूची में शामिल करने की एवज़ में धन मिलता है.

यह लड़ाई अभी ज़ारी है. दोनों ही पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं. एडब्लॉक वालों का तर्क यह है कि वे सारे विज्ञापन बाधित न करके केवल उन लोगों को अपनी सुविधा प्रदान कर रहे हैं  जो विज्ञापनों से मुक्ति चाहते हैं, जबकि फेसबुक ने थोड़ी उदारता दिखाते हुए यह कहा है कि वे भी अपने उपयोगकर्ताओं को अधिक निर्णयाधिकार प्रदान कर रहे हैं ताकि वे उन विषयों के विज्ञापन न देखें जिनमें उनकी रुचि नहीं है. तकनीकी जानकारों का खयाल है कि बावज़ूद इस बात के कि दोनों ही पक्ष अपने अपने मोर्चों पर डटे हुए हैं, इस लड़ाई में फेसबुक का पलड़ा भारी है. पलड़ा भारी होने की वजह शुद्ध तकनीकी है. असल में फेसबुक के हाथों में अपनी साइट पर दिखाई जाने वाली सारी सामग्री के तमाम सूत्र हैं इसलिए किसी भी ब्लॉकर को उन्हीं से गुज़र कर अपनी कार्यवाही करनी होगी.  लेकिन आज की तकनीकी दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं रह गया है. इसलिए यह देखना रोचक होगा कि इस लड़ाई का परिणाम क्या होता है!           


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत सोशल मीडिया v/s विज्ञापन : दास्तान एक अजीब लड़ाई की शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

Tuesday, August 16, 2016

एक तस्वीर जो झकझोरती है रूढ़ मान्यताओं को

इधर रियो ओलम्पिक की एक तस्वीर बहुत चर्चा में है. रायटर की फोटोग़्राफर लूसी निकल्सन द्वारा ली गई इस तस्वीर में कोपाकबाना बीच पर जर्मनी की किरा वॉकेनहर्स्ट और मिश्र की डोआ एलघोबाशी बीच वॉलीबॉल खेल रही हैं. तस्वीर में नेट के बांयी तरफ़ हैं एलघोबाशी जिन्होंने अपनी देह को पूरी तरह ढकने वाले वस्त्र पहन रखे हैं – पूरी बांहों का शर्ट जैसा कुछ और फुल पैण्ट, तथा अपने केशों को हिजाब से ढक रखा है. नेट की दूसरी तरफ हैं वॉकेनहर्स्ट, बीच की चिर परिचित वेशभूषा यानि टू पीस बिकिनी में. कहा जा रहा है कि यह तस्वीर ओलम्पिक की खेलों को संस्कृति और शिक्षा के साथ एकाकार करने वाली  विचारधारा की नुमाइन्दगी  करती है. बीबीसी अफ्रीका ने इस तस्वीर को दुनिया की विविध संस्कृतियों और देशों को निकट लाने वाली ओलम्पिक संस्कृति की प्रतिनिधि बताते हुए इसकी सराहना करने के अतिरिक्त उत्साह में इसे ‘बिकिनी बनाम बुर्क़ा’  कहकर एक छोटी-सी ग़लतबयानी तक कर डाली. बुर्क़ा वह होता है जिससे पूरे शरीर को ढका जाता है, जबकि एलघोबाशी ने हिजाब पहना है. यहीं यह बता देना भी उचित होगा कि इस तस्वीर में दिखाई दे रही एलघोबाशी और उनकी एक साथिन नाडा मीवाड का नाम इतिहास की किताबों में मिश्र की पहली बीच ओलम्पियन्स  के रूप में दर्ज़ हो गया है. असल में 2012 के लन्दन ओलम्पिक्स के समय नियमों में बदलाव करके स्विमसूट्स के विकल्प के रूप में पूरी देह को ढकने वाले  पूरी बाहों के ऊपरी वस्त्र और फुल पैंट वाली इस वेशभूषा को बीच वॉलीबॉल की पोशाक के रूप में स्वीकृति दी गई थी.

जो तस्वीर चर्चा में है उस मैच के तुरंत बाद एक बयान में डोआ एलघोबाशी ने कहा कि मैं पिछले दस बरसों से हिजाब पहन रही हूं और अब जबकि खेलों के अंतर्राष्ट्रीय संघ ने हमें अपनी वेशभूषा के साथ खेलने की इजाज़त दे दी है, मैं बेहद खुश हूं. उन्होंने यह भी कहा कि हिजाब मुझे वे सारे काम करने से रोकता नहीं है जिन्हें करना मुझे बेहद पसन्द है और  जिनमें बीच वॉलीबॉल भी एक है. डोआ एलघोबाशी ही की तरह अमरीका की फेन्सर (तलवारबाज) इतिहाज मुहम्मद का नाम भी इतिहास की  किताबों में इसी वजह से अंकित हुआ है. उन्होंने भी हिजाब पहन कर इस स्पर्धा  में हिस्सा लिया, और बाद में कहा कि बहुत सारे लोग सोचते हैं कि मुस्लिम महिलाओं की अपनी कोई आवाज़ नहीं है और हम खेलों में शिरकत नहीं करती हैं. लेकिन मेरी यह शिरकत बाहरी दुनिया की इस ग़लत धारणा को चुनौती  है.

असल में पश्चिम वाले इसी तरह की छवियों का हवाला देकर खुद को आज़ाद और मुस्लिम स्त्रियों को पराधीन रूप में चित्रित करने के आदी रहे हैं. इन दो छवियों के बीच सामान्यत: न तो कोई संवाद है न एक दूसरे को समझने की कोशिश और इसी वजह से कई दफ़ा दोनों के रिश्ते हिंसक भी हो  जाते हैं. इसी बात से फिक्रमंद होकर न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तम्भकार रोजर कोहेन ने इस तस्वीर के सन्दर्भ में दो स्त्रियों के वृत्तांत प्रस्तुत किये हैं. इनमें से एक हैं नीदरलैण्ड्स में पली-बढ़ी मिश्री मां और डच पिता की बेटी चडीड्जा बुइज्स जो अपनी  आध्यात्मिक ज़रूरतों से प्रेरित होकर इबादत करती हैं, व्यसनों से दूरी बरतती हैं और हिजाब पहनती हैं. अपनी वेशभूषा की वजह से  वे कई दफा मुश्क़िलों में भी पड़ चुकी हैं और इसलिए उनकी यह शिकायत वाज़िब लगती है कि सेक्युलर पश्चिमी देशों में धार्मिक साक्षरता की बहुत कमी है. हालांकि वे यह भी कहती-मानती हैं कि खुद इस्लाम के भीतर भी इस वजह से बड़े संकट मौज़ूद हैं कि इराक़ और सीरिया में इस्लाम जैसा दीखता है उस पर पूरी तरह आईएसआईएस का नियंत्रण है. दूसरी स्त्री हैं नोरमा मूर जो खुद को बेहद धार्मिक मानती हैं और काफी समय तक इस्लामी पारम्परिक वेशभूषा में रहने के बाद अरब देशों की बेपनाह गरमी में अपने हिजाब को उतार फेंकने को मज़बूर हुईं. अब वे कहती हैं कि मेरे केश, मेरी देह के उभार सब कुछ खुदा की ही तो देन हैं. अपने केशों को ढक कर और बेढंगे कपड़े पहन कर जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को ही नकारती हूं. 

इन दोनों स्त्रियों के वृत्तांत देने के बाद रोजर कोहेन बहुत महत्व की बात कहते हैं. वे कहते हैं कि पाश्चात्य संवेदनाओं के लिए पारम्परिक कपड़ों में ढकी मुस्लिम स्त्रियां ऐसी पराधीनता की प्रतीक है जिन्हें  मुक्ति मिलनी चाहिए. लेकिन यथार्थ के अनेक रंग होते हैं. यह कह सकना बहुत मुश्क़िल है कि कौन स्त्री अधिक रूढिवादी है, कौन ज़्यादा फेमिनिस्ट है और कौन ज़्यादा आज़ाद  है. हम तो बस यह जानते हैं कि ओलम्पिक जैसे अवसर और ज़्यादा आएं ताकि हम ये सवाल पूछने को और अपनी जड़, रूढ़  मान्यताओं से मुक्ति पाने को प्रेरित हों.

रोजर कोहेन की बात है तो विचारणीय!  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 अगस्त, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, August 10, 2016

अगर बुद्धिमान बनना है तो आलसी हो जाओ!

शायद आपने भी कभी यह बात पढ़ी-सुनी हो कि सुबह जल्दी उठने वालों ने दुनिया में कोई तरक्की नहीं की है. तरक्की तो उन आलसियों ने की है जो कुछ करने के आसान तरीके तलाश करने में जुटे रहे हैं. अगर यह बात कभी आपने न भी सुनी हो तो यह ज़रूर सुनी होगी कि बिल गेट्स अपने  प्रोजेक्ट्स हमेशा उन्हीं इंजीनियरों को सौंपा करते थे जो सबसे ज़्यादा आलसी माने जाते थे. ऐसा वह जानबूझ कर करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि वे आलसी लोग ही अपने काम को सबसे ज़्यादा तेज़ गति और बेहतर तरीके से पूरा कर सकने की काबिलियत रखते हैं.  शायद यही वजह हो कि यह कथन प्रचलित हो गया है कि दक्षता बुद्धिमत्तापूर्ण आलसीपन का ही दूसरा नाम है!

और अब तो एक ताज़ा शोध ने इस बात पर प्रमाणिकता की एक और मुहर भी लगा दी है. यह शोध हुई है अमरीका की  फ्लोरिडा गल्फ़ कोस्ट यूनिवर्सिटी में. इसका बड़ा निष्कर्ष यह है कि ज़्यादा सोचने वाले लोग कम सोचने वालों की तुलना में अधिक आलसी होते हैं. इसे यों भी कहा जा सकता है कि बुद्धिमान लोग शारीरिक रूप से सक्रिय  लोगों की तुलना में आलसी होते हैं. इस शोध ने प्रकारांतर से इस बात  को ही पुष्ट किया है कि जिन लोगों का आईक्यू (बौद्धिक स्तर)  ज़्यादा होता है वे बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं और इस वजह से वे अपना अधिक समय चिंतन में व्यतीत करते हैं. और इसके विपरीत वे लोग जो अधिक सक्रिय होते हैं, वे अपने दिमागों को उद्दीप्त करने के लिए बाह्य गतिविधियों में अधिक लिप्त होते हैं. ऐसा वे कदाचित अपने विचारों से पलायन के लिए भी करते हैं और या फिर इसलिए करते हैं कि वे बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं.

टॉड मैकएलरॉय के निर्देशन में की गई इस शोध में शोधार्थियों को ‘संज्ञान की ज़रूरत’ शीर्षक वाली एक प्रश्नावली दी गई और चाहा गया कि वे “मुझे वाकई ऐसे काम करने में आनंद मिलता है जिनमें समस्याओं के नए समाधान तलाशे जाते हैं” और “मैं बस उतना सोचता हूं जितना सोचना मेरे लिए ज़रूरी होता है” जैसे कथनों पर यह अंकित करें कि वे उनसे किस हद तक सहमत या असहमत हैं. प्रश्नावली पर प्राप्त उत्तरों के आधार पर शोध निदेशक महोदय ने तीस ‘चिंतक’ और तीस ही ‘ग़ैर चिंतक’ शोधार्थियों को चुना. इसके बाद की शोध इन्हीं साठ शोधार्थियों पर की गई. इन साठों शोधार्थियों की कलाई पर घड़ी जैसा एक उपकरण पहना दिया गया जो उनकी सारी हलचलों को अंकित करते हुए ये सूचनाएं संकलित करता रहता था कि वे शारीरिक  रूप से कितने सक्रिय हैं. एक सप्ताह के अंकन ने यह प्रदर्शित किया कि ‘चिंतक’ समूह वाले ‘ग़ैर चिंतक’  समूह वालों की तुलना में कम सक्रिय थे.

इस अध्ययन के निष्कर्ष जर्नल ऑफ हेल्थ साइकोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं और आंकड़ों के लिहाज़ से इन्हें अत्यधिक महत्वपूर्ण और तगड़ा माना जा रहा है. ब्रिटिश साइकोलॉजिकल सोसाइटी ने भी इस शोध को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे इस टिप्पणी के साथ उद्धृत किया है: “अंतत: एक ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी  सामने आई है जो अधिक चिंतनशील व्यक्तियों को उनकी बहुत कम औसत सक्रियता पर नियंत्रण करने में मददगार साबित होगी.” इसी टिप्पणी में आगे यह भी कहा गया है कि जब इन समझदार लोगों को अपनी कम सक्रियता की जानकारी होगी और उन्हें यह पता चलेगा कि इस कम सक्रियता का कितना ज़्यादा मोल उन्हें चुकाना पड़ सकता है, तो वे अधिक सक्रिय होने की कोशिश करेंगे. खुद शोध निदेशक टॉड मैकएलरॉय ने भी चेतावनी भरे शब्दों में कहा है कि जो लोग कम सक्रिय हैं, भले ही वे कितने भी बुद्धिमान क्यों न हों, उन्हें अपनी सेहत को मद्देनज़र रखकर अपनी शारीरिक सक्रियता में वृद्धि करनी चाहिए.  

लेकिन इन बातों से यह न समझ लिया जाए कि यह शोध अंतिम और निर्णायक है. खुद इसी शोध के दौरान यह बात भी सामने आई कि हालांकि पूरे सप्ताह तो इन दोनों समूहों की गतिविधियों में भारी अंतर पाया गया लेकिन सप्ताहांत के दौरान दोनों समूहों की गतिविधियां एक जैसी पाई गईं. जिन्होंने यह शोध की है वे इस फ़र्क के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाये हैं. दूसरी बात यह कि क्या महज़ साठ लोगों पर की गई शोध को पूरी मनुष्य जाति पर लागू कर लेना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा? क्या जिन पर यह शोध की गई उनकी संख्या अत्यल्प नहीं है? हमारा तो यही कहना है कि इस तरह की शोधों को सिर्फ इस नज़र से देखना चाहिए कि शोध की दुनिया में भी क्या-क्या अजूबे होते हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 09 अगस्त, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 2, 2016

ईरानी महिलाओं ने हिजाब को बदला परचम में

हमारा समय बड़ा दिलचस्प है. बहुत सारे आन्दोलन सोशल मीडिया के मंचों पर ही चला लिए जाते हैं. इन दिनों एक रोचक मुहिम चल रही है जिसे चुनौती स्वीकार का नाम दिया गया है. चुनौती यह है कि फ़ेसबुक पर अपना डिस्प्ले पिक्चर (डीपी) श्वेत श्याम लगाएं! जहां सारी दुनिया रंगों की तरफ़ बढ़ रही हो और अपने देश में भी रंगों की ऐसी हवा चल रही हो कि पुरानी  क्लासिक श्वेत श्याम फिल्मों को रंगीन बनाया जा रहा हो वहां धार के विपरीत बहने की इस कोशिश को चैलेंज  कहा गया है.  कुछ समय पहले एक और मुहिम सोशल मीडिया के मैदान  में चलाई गई थी. उस मुहिम के तहत बहुत सारे लोगों ने अपनी डिस्प्ले पिक्चर्स को सतरंगी बना दिया था. लेकिन यहीं यह याद दिला देना भी उचित होगा कि उस मुहिम का एक ज़ाहिर मक़सद था. मक़सद था एलजीबीटी समुदाय के प्रति अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करना. यह बात अलहदा है कि अपनी तस्वीर को सतरंगी बनाने  वालों में से बहुतों को इस समुदाय के बारे में कोई  जानकारी नहीं थी, इसको समर्थन  देना तो बहुत दूर की बात है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि सामाजिक मीडिया के मंचों पर होने वाली सारी मुहिमें तस्वीरों से रंग चुरा लेने जैसी ही होती हैं. इधर ईरान में सामाजिक मीडिया के मंचों पर बहुत ज़ोर-शोर से एक  मुहिम चल रही है.  वह इस तरह की बहुत सारी मुहिमों से अलहदा है. वहां चल रही इस मुहिम के तहत पुरुष अपना सर ढककर ली गई तस्वीरों को सामाजिक मीडिया पर साझा कर रहे हैं. इसी मुहिम के विस्तार के रूप में वहां की स्त्रियां बिना हिजाब के यानि सर ढके बिना ली गई तस्वीरें सामाजिक मीडिया पर साझा  कर रही हैं. कुछ महिलाएं मुण्डवाए हुए सरों की छवियां भी पोस्ट कर रही हैं.  असल में यह ईरान के स्त्री विरोधी कानूनों के खिलाफ़ चलाया जा रहा एक प्रतिरोधी अभियान है. 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से ईरान में एक कानून के तहत महिलाओं को अपना पूरा सर ढकना होता है. अगर उनके केश भी दिखाई दे जाएं तो इसे अवांछित हरक़त माना जाता है. सरकार के खर्चे से लगाए गए बड़े-बड़े होर्डिंग्स में यह कहा जाता है कि जो महिलाएं अपना सर नहीं ढकती हैं या जिनके केश दिखाई देते हैं वे बिगड़ैल और ग़ैर इज़्ज़तदार हैं.  वहां इस क़ानून का सख़्ती से पालन कराने के लिए ‘गश्ते इरशाद’ नामक संगठन के हज़ारों पुलिसवाले नियमित रूप से  सड़कों पर गश्त करते हैं. इस क़ानून का उल्लंघन करने पर जुर्माने  के साथ जेल भी हो सकती है. मई में ईरान की पुलिस ने बिना हिजाब पहने इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया वेबसाइटों पर तस्वीर पोस्ट करने पर आठ महिलाओं को हिरासत में ले लिया था. वहां की सरकार इस कानून  को लेकर इतनी गम्भीर है कि उसकी मंशा को समझ कर एयर फ़्रांस ने हाल ही में अपनी महिलाकर्मियों से कहा था कि ईरान की राजधानी तेहरान जानी वाली फ़्लाइटों के दौरान वे हिजाब पहनें. लेकिन एयर फ्रांस की इस सलाह ने ही इस प्रतिरोधी अभियान  को भी प्रेरित कर डाला.

प्रतिरोध स्वरूप न्यूयॉर्क में रह रहीं ईरान की जानी-मानी पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मसीह अलीनेजाद ने अपने लोकप्रिय फ़ेसबुक पृष्ठ ‘माई स्टेल्थी फ़्रीडम’ (मेरी गुप्त आज़ादी) के माध्यम से यह अभियान शुरु किया. मसीह अलीनेजाद के इस पृष्ठ  से दस लाख से भी  ज़्यादा लोग जुड़े हुए हैं. इस पृष्ठ एक पोस्ट किए गए एक वीडियो पर आई फ़ातेनाह अंसारी की एक टिप्पणी में इस मुहिम की महत्ता को इस तरह प्रकट किया गया है:  “महिलाओं को हिजाब लगाने के लिए मज़बूर किए जाने के छत्तीस बरस बाद आखिरकार पुरुष भी महिलाओं के समर्थन में आने लगे हैं.” एक अन्य व्यक्ति ने इस मुहिम को इन शब्दों में और अधिक स्पष्ट किया है: “मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी एक ऐसे ईरान में रह सके जहां सिर्फ़ वो तै करे कि उसे क्या पहनना है. ईरान में पड़ने वाली भीषण गर्मी के बावज़ूद महिलाओं के लिए ऐसे कपड़े पहन पाना बहुत मुश्क़िल है.”  ख़ुद मसीह अलीनेजा ने बड़े तल्ख़ शब्दों में कहा है कि “हमारे समाज में किसी स्त्री के अस्तित्व और उसकी पहचान की कसौटी  पुरुष का नज़रिया  है और बहुत सारे मामलों में किसी धार्मिक सत्ता या सरकारी अफसर के उपदेश ही पुरुष के स्त्री पर स्वामित्व के भ्रामक  सोच को निर्धारित कर डालते  हैं. इसलिए मैंने सोचा  कि क्यों न स्त्री अधिकारों का समर्थन करने के लिए पुरुषों को आमंत्रित किया जाए.”
यह माना जाता है कि इस्लाम स्त्री और पुरुषों की समानता का पक्षधर है, लेकिन ईरानी कट्टरपंथियों द्वारा सिर्फ आधी आबादी की स्वाधीनता पर लगाए प्रतिबंध के विरुद्ध यह अभियान हमें मजाज़ की इन पंक्तियों की याद दिलाता है: तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन/ तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।           


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 02 अगस्त, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.