Tuesday, January 30, 2018

बदलाव आ तो रहा है लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता!

भारत की तरह दुनिया के बहुत सारे देशों में यह रिवाज़ है कि शादी के बाद पत्नी पति का उपनाम अपना लेती है. मेरी शादी हुई तो मेरी पत्नी गुप्ता से अग्रवाल हो गई. लेकिन इधर के बरसों में जब से स्त्री अस्मिता विषयक चेतना प्रबल होने लगी है, बहुत सारी स्त्रियां शादी के बाद भी अपने पुराने उपनाम के साथ ही जीने लगी हैं. कला-संस्कृति वगैरह की दुनिया में तो यह रिवायत पहले से थी, हालांकि इसके कारण दूसरे थे. इधर एक नया चलन यह भी देखने में आया है शादी के बाद पति-पत्नी दोनों के नामों को मिलाकर एक नया नाम रचा जाने लगा है. हाल में हमने देखा कि मीडिया में विराट कोहली और अनुष्का शर्मा को विरुष्का नाम से सम्बोधित किया गया. लेकिन इधर लंदन से एक रोचक ख़बर आई है जहां दक्षिण पूर्वी लंदन के एक प्राइमरी स्कूल शिक्षक मिस्टर रोरी कुक ने शादी के बाद अपना नाम बदलकर रोरी डियरलव कर लिया. कहना अनावश्यक है कि डियरलव उनकी पत्नी का उपनाम है. जब वे शादी के लिए ली गई छुट्टियां बिताकर स्कूल पहुंचे और उनके स्कूल की एक छात्रा ने उनसे नाम में किये गए इस बदलाव की वजह जाननी चाही तो उन्होंने अपनी शादी की अंगूठी दिखाते हुए सहज भाव से उत्तर दिया कि उन्होंने शादी के कारण अपना नाम बदला है. अपनी बात को और साफ़ करते हुए उन्होंने उस छात्रा से कहा, “देखो, जब आप शादी करते हो तो आपको यह चुनाव करना होता है कि आप कौन-सा नाम रक्खोगे. आप अपना नाम रख सकते हो, आप और आपकी जीवन साथी एक-सा नाम रख सकते हैं, आप कोई नया नाम रख सकते हो, वगैरह. मैंने अपनी पत्नी वाला नाम रखना पसंद किया है.” इतने विस्तृत उत्तर का औचित्य बताते हुए श्री डियरलव ने कहा कि बच्चे अपने स्कूल में जो देखते हैं उसे वे सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं. अपने नाम के बदलाव के बारे में उन्हें बताकर मैंने उन्हें नए विचार से परिचित कराने का प्रयास किया है. मिस्टर डियरलव के स्कूल के विद्यार्थियों ने उनके नाम के इस बदलाव को सहज रूप से स्वीकार कर लिया लेकिन उनके कई सहकर्मियों की प्रतिक्रियाओं से लगा कि वे इस बात को पचा नहीं सके हैं. किसी ने कहा कि यह बहुत अजीब है, तो किसी और ने व्यंग्य करते हुए कहा कि मिस्टर डियरलव बहुत मॉडर्न है. लेकिन मिस्टर डियरलव ने इस तमाम प्रतिक्रियाओं को बहुत सहजता से ग्रहण किया. शायद उन्हें इन मिली-जुली प्रतिक्रियाओं का पहले से अनुमान था.  

इन सज्जन के जीवन में तो इस कदम से कोई ज़्यादा दिक्कतें नहीं आईं, उन्हीं के देश में ऐसा ही करने के इच्छुक एक युवक के मां-बाप ने तो उनकी शादी में शामिल होने से ही मना  कर दिया. उनकी बेबाक प्रतिक्रिया वही थी जो ऐसे मामलों में सामान्यत: अपने देश में भी होती है. उन्हें लगा कि उनका बेटा जोरू का ग़ुलाम हो गया है. वैसे भी, ब्रिटिश समाज अपेक्षाकृत परम्परा-प्रेमी समाज माना जाता है. इंगलैण्ड और वेल्स में आज भी जो विवाह प्रमाण पत्र ज़ारी किये जाते हैं, उनमें युगल के पिता का ही नाम अंकित होता है, मां का नहीं. वहां कुछ सांसदों ने पिछले साल एक विधेयक प्रस्तुत कर यह आग्रह किया भी था कि विवाह के प्रमाण पत्रों में वर-वधू के माता और पिता दोनों के नाम अंकित किये जाने चाहियें. वैसे, बदलाव की बयार बहने तो वहां भी लगी है, तभी तो सन 2014 में समान सेक्स के विवाह को वैधता प्रदान कर दी गई थी.

बावज़ूद इन सारी बातों के, यह भी एक तथ्य है कि कम से कम इंगलैण्ड में तो ऐसे पुरुषों  की संख्या बढ़ती जा रही है जो विवाह के बाद अपनी पत्नी का उपनाम अंगीकार करते हैं. पिछले ही बरस किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार अब हर दस में से एक युवा ऐसा कर रहा है. ऐसा करने वालों में से एक, एक तिब्बती बौद्ध मेडिटेशन इंस्ट्रक्टर चार्ली शॉ का कहना है कि आज के समय में यह मानकर चलना कि शादी के बाद पत्नी अनिवार्यत: पति का उपनाम धारण करने लगेगी, निहायत ही बेहूदा बात है. लेकिन खुद अपने बारे में उनका यह भी कहना था कि उनके ऐसा  करने के मूल में कोई फेमिनिस्ट सोच नहीं था. उन्होंने तो ऐसा करके अपनी पत्नी के प्रति अपने लगाव को रेखांकित किया और साथ ही यह संदेश भी देना चाहा कि हमारे समाज में अभी भी पितृसत्तात्मक रुझान मौज़ूद हैं और अगर हम चाहें तो अपने स्तर पर उसके आगे घुटने टेकने से मना कर सकते हैं. यह देखना दिलचस्प होगा कि अभी छिटपुट स्तर पर होने वाले इन बदलावों को व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिलने में कितना समय  लगता है.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 23, 2018

परेशानियों में भी तलाश की जा सकती हैं खुशियां

यह कितनी रोचक बात है कि चट मंगनी पट ब्याह  की देशी कहावत चरितार्थ हुई सात समुद्र पार अमरीका के न्यूयॉर्क शहर में. वहां के एक संवेदनशील युवा, डैनी रॉस ने मात्र दो घण्टे से भी कम की अवधि में अपनी प्रेयसी निकोल से मंगनी और ब्याह दोनों ही कर डाले, और वो भी बाकायदा और परिवारजन की उपस्थिति में. असल में निकोल डैनी से अक्सर यह कहा करती थी कि “काश! ऐसा हो कि हम मेहमानों को सगाई की पार्टी के लिए आमंत्रित करें और फिर उन्हें यह कहकर अचम्भे में डाल दें कि हम अभी शादी भी कर रहे हैं.”  यह जैसे निकोल का एक ख़्वाब था, और उससे बेहद प्रेम करने वाले डैनी ने ठान लिया कि वह अपनी प्रेयसी के इस ख़्वाब को पूरा करके ही रहेगा, चाहे उसे इसके लिए कितनी भी परेशानियां क्यों न उठानी पड़ें. डैनी के इस संकल्प की एक और भी वजह थी. उसे यह बात मालूम थी कि उसकी प्रिया निकोल ल्यूपस नामक एक लाइलाज़ रोग से पीड़ित है. इस रोग में शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र ग़लती से स्वस्थ कोशिकाओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट करने लगता है और इस वजह से रोगी को अनेक व्याधियां अपनी जकड़न में लेने लगती हैं. इस रोग की एक ख़ास बात यह है कि तनिक भी  चिंता अथवा तनाव से यह उग्र रूप धारण करने लगता है, इसलिए चिकित्सक लोग पहली सलाह यही देते हैं कि इसके मरीज़ को हर तरह की चिंता और तनाव से मुक्त रखा जाए.

डैनी ने तै कर लिया कि वह न केवल निकोल की अचानक शादी करने की तमन्ना को पूरा करेगा, उसे शादी की तैयारियों के हर तनाव से भी पूरी तरह मुक्त रखेगा. अपने इरादे को उसने पूरी सावधानी और गोपनीयता से साथ साकार करने की योजना तैयार की. पूरे पांच महीनों के अनथक श्रम और परिवार के कुछ बेहद नज़दीकी लोगों के सहयोग से उसने निकोल के सपने और अपनी योजना को मूर्त रूप देकर प्रेम की एक मिसाल कायम की. उसने सगाई की अंगूठियों  के चयन से लगाकर शादी के जोड़ों के चुनाव तक में निकोल को शामिल किए बग़ैर भी उसकी पसंद का पूरा ध्यान रखा. निकोल के लिए उसके माप का शादी का गाऊन खरीदने के लिए उसने निकोल की मां की मदद ली, जो संयोग से देहाकार में निकोल जैसी ही हैं. शादी की सारी खरीददारी कर वो एक जगह गोपनीय रूप से जमा करता रहा. और जब सारी तैयारियां पूरी हो गईं, तो निकोल को घुमाने के लिए शहर से बाहर ले गया.

लेकिन असल में घुमाने के लिए बाहर ले जाना उसकी योजना का एक हिस्सा था. उनकी अनुपस्थिति में डैनी के मां-बाप उनके घर में आ गए. मां-बाप के लिए  डैनी ने बहुत विस्तृत निर्देश लिख कर रख छोड़े थे कि उन्हें कैसे क्या-क्या तैयारियां करनी हैं. अपनी योजना को लेकर डैनी इतना आग्रहशील था कि उसने अपने मां-बाप के लिए यह भी लिख छोड़ा था कि उन्हें हर हालत में उसके लिखित निर्देशों का अक्षरश: पालन करना है और किसी भी स्थिति में उन निर्देशों से ज़रा भी इधर उधर नहीं होना है. जब निर्धारित कार्यक्रमानुसार डैनी और निकोल घूम कर लौटे तो निकोल को मात्र यह अनुमान था कि उसके प्रिय ने उसके लिए एक सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी आयोजित की होगी. घर के पिछवाड़े में कुछ रोशनी वगैरह देखकर उसका यह  अनुमान और पुख़्ता हो गया. लेकिन शादी तो दूर, सगाई की बात भी  उसके जेह्न में दूर-दूर तक नहीं थी. लेकिन कुछ ही मिनिटों के बाद निकटस्थ परिवार जन की उपस्थिति में उसका प्रिय डैनी उसके सामने घुटनों के बल बैठ कर प्रोपोज़ कर रहा था. चकित निकोल ने जैसे ही उसका प्रस्ताव स्वीकार किया, डैनी ने उसके ताज़्ज़ुब को और बढ़ाते हुए कहा, “तुम जानती ही हो कि मैं तुमसे कितनी मुहब्बत करता हूं! अगर तुम चाहो तो हम लोग अभी शादी भी कर लें. हमारे सारे प्रियजन यहां मौज़ूद हैं ही!” और यह कहते-कहते उसने निकोल को पीछे घुमाया तो उसकी नज़र पड़ी वहां सजे अपने वेडिंग गाउन और डैनी के टक्सेडो पर. यानि तैयारियां पूरी थीं.

कहना अनावश्यक है कि अधिकांश चकित परिजनों की उपस्थिति में निकोल और डैनी विवाह के पवित्र बंधन में बंध गए. अधिकांश इसलिए कि कुछ बेहद नज़दीकी परिजन डैनी की इस योजना से परिचित थे और उन्हीं के सक्रिय सहयोग से यह विवाह इस सुव्यवस्था के साथ सम्पन्न हो पाया था. इस अनुभव से अभिभूत निकोल ने बाद में कहा कि मैं ऐसा ही विवाह चाहती थी. डैनी से विवाह का इससे बेहतर रूप कोई और हो ही नहीं सकता था. डैनी का कहना था कि उसे बहुत खुशी होगी अगर ल्यूपस से ग्रस्त कोई व्यक्ति इस विवाह के बारे में जानेगा और यह समझेगा कि परेशानियों में भी खुशियां तलाश की जा सकती हैं!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 23 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 16, 2018

अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारियों से काम लेना भी आसान नहीं है!

भारत जैसे देश में जहां बेरोज़गारी की समस्या बहुत विकट है, समस्या का  एक आयाम यह भी है कि बहुत सारे ऐसे लोगों को जिनके पास खूब सारी डिग्रियां या योग्यताएं हैं, मज़बूरी के चलते ऐसी नौकरियां स्वीकार कर लेनी पड़ती हैं जिनमें उतनी योग्यता की कोई ज़रूरत नहीं होती है. इस बात के लिए सिर्फ एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा. अभी हाल में राजस्थान विधान सभा में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मात्र बारह पदों के लिए जिन अठारह हज़ार आशार्थियों ने आवेदन किया उनमें से सात हज़ार से अधिक स्नातक उपाधि धारी थे और लगभग साढ़े नौ सौ आशार्थी ऐसे थे जिनके पास स्नातकोत्तर या बी. टेक, एम. टेक अथवा एमबीए जैसी डिग्रियां थीं. वैसे, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के इस पद के लिए न्यूनतम निर्धारित योग्यता थी पांचवीं पास होना. कल्पना की जा सकती है कि अगर किसी एम. टेक या एमबीए को इस पद के लिए चुन लिया जाता तो अपनी नौकरी करते हुए उसकी  मानसिक दशा क्या और कैसी होगी.

मैं इस बात पर विचार कर ही रहा था कि मुझे दुनिया के कुछ तथाकथित उन्नत और समृद्ध देशों में भी मौज़ूद ऐसी ही समस्या के बारे में पढ़ने को मिला. शायद आपके लिए भी यह बात चौंकाने वाली हो कि संयुक्त राज्य अमरीका में भी हर चार स्नातक उपधि धारी कर्मचारियों में से कम से कम एक तो ऐसा होता है जिसकी नौकरी के लिए उतनी योग्यता की ज़रूरत नहीं होती है.  उधर ब्रिटेन में हर छह स्नातक कर्मचारियों में से कम से कम एक ऐसा होता  है जो अपने काम की ज़रूरत के हिसाब से अधिक योग्यता धारी होता है. यही नहीं, वहां करीब अट्ठावन प्रतिशत स्नातक कर्मचारी ऐसे हैं जिनके काम के लिए इतनी योग्यता की कोई ज़रूरत नहीं है. बहुत सारे युवा कम योग्यता चाहने वाली ऐसी नौकरियां इस कारण भी स्वीकार कर लेते हैं कि या तो उन्हें अच्छा वेतन मिलता है या फिर किसी बड़ी कम्पनी से जुड़ने का मोह उन्हें अपनी तरफ खींच लेता है. इन देशों में ऐसा होने की एक वजह यह भी है कि यहां के रोज़गार देने वालों ने  करीब-करीब उन सारी नौकरियों के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक की उपाधि तै कर दी है जिन पर पहले ग़ैर-स्नातकों  को रख लिया जाता था. शायद रोज़गार देने वाले यह सोचते हैं कि जिन कामों के लिए कम योग्यता से काम चल सकता है उन कामों को करने के लिए अधिक योग्यता धारी कार्मिकों को भर्ती कर वे अपने संस्थान का भला कर रहे हैं.

लेकिन हाल में जो अध्ययन हुए हैं वे परिणामों की एक दूसरी ही छवि प्रस्तुत करते हैं. जिन कामों के लिए कम योग्यता की ज़रूरत होती है उनको करते हुए ऐसे अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारियों में कुण्ठा जड़ें जमाने लगती है और उन्हें लगने लगता है कि उनका काम चुनौतीपूर्ण नहीं है, बोरिंग है और वे व्यर्थ में अपनी प्रतिभा नष्ट  कर रहे हैं. आहिस्ता-आहिस्ता इस तरह के कर्मचारियों में एक नकारात्मक रवैया घर करने लगता है और उनका बर्ताव विद्रोही होने लगता है. वे देर से आने और जल्दी जाने लग जाते हैं और अपने साथी कर्मचारियों को बिना वजह परेशान करने लग जाते हैं. इस तरह की प्रवृत्तियां युवतर कर्मचारियों और उनमें ज़्यादा देखने को मिलती हैं जो किसी टीम के सदस्य के रूप में काम कर रहे होते हैं. उन्हें बार-बार यह बात सालती है कि वे औरों से अधिक काबिल हैं और उन्हें कम योग्यता वालों के साथ काम करना पड़ रहा है. 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सभी अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारी अपने संस्थानों के लिए हानिप्रद ही साबित होते हों. ऐसे कर्मचारियों में से वे जिनमें अधिक संवेदनशीलता होती है और जो अंतर्वैयक्तिक दक्षता सम्पन्न होते हैं वे अपने सहकर्मियों के साथ न केवल उपयुक्त बर्ताव करते हैं और  उनके साथ सहजता से  घुल मिल जाते हैं, अपनी दक्षता के दम पर उन्हें बेहतर कार्य निष्पादन के लिए भी प्रेरित कर देते  हैं.  अपनी शिक्षा की वजह से उनका व्यवहार संतुलित होता है और वे दूसरों के साथ आत्मीयता कायम कर बेहतर कार्य माहौल तैयार करने में मददगार साबित होते हैं. यहीं टीम के नेतृत्व की भूमिका भी  बहुत महत्वपूर्ण साबित होती है. अगर टीम लीडर समझदार होता है तो वो इस तरह के अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारियों का प्रयोग टीम में अच्छा माहौल बनाये रखने और उसकी उत्पादकता बढ़ाने में कर लेता है. टीम लीडर इस तरह के कर्मचारियों को उनकी योग्यता के अनुरूप काम देकर और अनेक प्रकार से पुरस्कृत व प्रोत्साहित कर उनकी कार्यक्षमता से अपने संस्थान को लाभान्वित करवा पाने में भी कामयाब रहता है. 


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर  के अंतर्गत मंगलवार, 16 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 9, 2018

आत्मीय रिश्तों के बीच क्या काम कोर्ट कचहरी का?

हिंदी की अनेक कहानियों  में वृद्धजन की उपेक्षा और बदहाली बयां हुई है. उषा प्रियम्वदा की वापसीमें गजाधर बाबू लम्बी नौकरी के दौरान घर से दूर रहने के बाद यह अभिलाषा लिए घर लौटते हैं कि अब उन्हें परिवार  का संग-साथ मयस्सर होगा, लेकिन वे पाते हैं कि घर और परिवार में अब उनके लिए कोई जगह नहीं है. भीष्म साहनी की कहानी चीफ़ की दावतमें मिस्टर शामनाथ और उनकी पत्नी के लिए बूढ़ी मां एक ऐसी अनावश्यक वस्तु है जिसे मेहमानों की नज़र से बचाने के लिए कमरे में बंद करना ज़रूरी होता है. लेकिन उसी मां की फुलकारी जब अतिथि चीफ़ साहब को भा जाती है तो मां के प्रति उनका बर्ताव तुरंत बदल जाता है. गौरतलब यह बात है कि इन कहानियों में वृद्धों के प्रति उपेक्षा तो है,  अमानवीयता अधिक नहीं है और हिंसा तो कतई नहीं. लेकिन तब यानि सत्तर के दशक से  अब तक आते-आते हालात बहुत बदल चुके हैं.

हाल में भीलवाड़ा से यह खबर आई कि वहां कलक्टर  के यहां होने वाली जन-सुनवाई में छह महीनों में 29 ऐसे मामले दर्ज़ हुए हैं जिनमें बुज़ुर्ग मां-बाप ने यह शिकायत  करते हुए कि उनके बेटे-बहू उनकी समुचित देखभाल नहीं करते हैं, कलक्टर से सहायता की याचना की है. बुज़ुर्गों  की पीड़ा यह है कि उनके वारिसों ने उनसे उनकी पूरी सम्पत्ति ले ली और जब वे भरण पोषण का खर्चा मांगते हैं तो वे उनके साथ मार-पीट करते हैं. वृद्ध मां-बापों  ने ये मामले वरिष्ठ नागरिकों का भरण पोषण तथा कल्याण अधिनियम 2007 के तहत दर्ज़ करवाए हैं. बात केवल भीलवाड़ा की ही नहीं है. देश के हर शहर और गांव से आए दिन इस तरह की खबरें आती ही रहती हैं. लेकिन अभी कुछ दिन पहले गुजरात के राजकोट से तो और भी बुरी खबर आई है. इस खबर के अनुसार वहां एक बेटे ने अपनी बीमार वृद्धा मां को छत से फेंककर मार ही डाला. हुआ यह कि राजकोट में रहने वाली एक सेवानिवृत्त शिक्षिका जयश्रीबेन विनोदभाई नाथवानी की मृत्यु जिस बिल्डिंग में वे रहती थीं उसकी  छत से गिरने से हो गई. तफ्तीश के बाद पुलिस ने इसे आत्महत्या मानकर केस बंद कर दिया. लेकिन घटना के दो माह बाद पुलिस को एक गुमनाम चिट्ठी मिली और तब सोसाइटी में लगे सीसीटीवी के फुटेज खंगाले गए तो मामला कुछ और ही निकला. इस फुटेज में बेटा अपनी मां को लिफ्ट से छत की तरफ ले जाता दिखाई दिया. बेटे ने पहले तो इस मृत्यु में अपनी किसी भूमिका से इंकार किया, लेकिन जब पुलिस ने सख्ती से पूछताछ की तो उसने मां को छत से नीचे फेंकने की बात कबूल कर ली. उसने कहा कि वो मां की तीमारदारी से परेशान हो गया था. 

बूढे और असहाय मां-बाप की उपेक्षा और उनके साथ दुर्व्यवहार के मामले दुनिया के और देशों में भी सामने आ रहे हैं. हाल में ताइवान से  भी ऐसा ही एक मामला  सामने आया है. लेकिन यहां किस्सा कुछ और है. वहां की शीर्ष अदालत ने मां की इस गुहार पर कि उसने अपने बेटे को डेंटिस्ट बनाने पर भारी खर्च किया, अत: अब वो तब किये गए कॉण्ट्रेक्ट के अनुसार एक बड़ी रकम की हक़दार है, उस बेटे को आदेश दिया है कि वो अपनी मां को करीब छह करोड़ दस लाख रुपये दे. इस मां का कहना है कि उसने अपने दो बेटों को  डेंटिस्ट बनाने पर बहुत भारी रकम खर्च की, लेकिन उसे पहले ही यह आशंका हो गई इसलिए उसने तभी अपने बेटों से एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करवा लिए थे कि जब वे कमाने लगेंगे तो उन्हें अपनी कमाई का एक हिस्सा देंगे. गौरतलब है कि अपने पति से तलाकशुदा लुओ ने अकेले दम अपने बेटों को पाला-पोसा था. लुओ के बड़े बेटे ने तो कुछ धनराशि  देकर मां से समझौता कर लिया लेकिन छोटे बेटे चू ने यह कहते हुए मां की याचिका का विरोध किया कि जब उन्होंने यह कॉण्ट्रेक्ट साइन किया था तब उनकी उम्र बहुत कम थी, इस कारण अब इस कॉण्ट्रेक्ट को अवैध  मान लिया जाना चाहिए. अदालत ने बेटे की आपत्ति को अस्वीकार कर दिया है.

अब एक और मामले के बारे में जान लें. अपने ही  मुल्क के शहर इटावा का एक वीडियो इन दिनों वायरल हो रहा है जिसमें यह बताया गया है कि अपने पिता के सख़्त रवैये से परेशान हो एक बच्चा सीधे थाने पहुंच गया है और पुलिसवालों से गुज़ारिश कर रहा है कि वे उसके पिता को सबक सिखाएं. इस प्रसंग में अपने मुल्क की बात मैंने जानबूझकर की है. इसलिए कि पश्चिम में तो बच्चों द्वारा अपने मां-बाप की शिकायत बहुत आम है. लेकिन अपने यहां यह बात  नई है. विचारणीय यह है कि क्या रिश्ते अब इस मुकाम तक आ पहुंचे हैं कि उन्हें सुलझाने के लिए कोर्ट कचहरी की मदद लेनी पड़ रही है!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 09 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 2, 2018

जीवन रक्षक भूमिका भी है सोशल मीडिया की!

सोशल मीडिया हमारी ज़िंदगी में बहुत गहरे उतर चुका है. हममें से ज़्यादातर लोग उसे बरतते हैं, और साथ ही उसकी बुराइयों का रोना भी रोते रहते हैं. बहुतों को यह समय बर्बाद करने वाला शगल लगता है और समय-समय पर कुछ लोग इससे कुछ समय का अवकाश लेने और कुछ इसे सदा के लिए अलविदा कह देने की घोषणाएं करते रहते हैं. कुछ और ऐसे भी हैं जो इसके हानिप्रद  प्रभावों से तो पूरी तरह वाक़िफ़ हैं, लेकिन फिर भी इसे छोड़ नहीं पाते हैं. लेकिन वो कहते हैं ना कि हर बुराई के पीछे कोई  न कोई अच्छाई भी ज़रूर छिपी रहती है, तो ऐसा ही एक वाकया सामने आया है सात समुद्र पार ब्रिटेन  से. लंकास्टर की 33 वर्षीया गृहिणी शॉर्लट सॉल्सबरी  ने जब फ़ेसबुक पर अपनी बिटिया फेलिसिटी की रेटिनोब्लास्टोमा नाम नेत्र व्याधि से ग्रस्त एक आंख की ऐसी तस्वीर पोस्ट  की जिसमें उसकी  आंख की पुतली में एक असामान्य सफेद धब्बा नज़र आ रहा है, तो उन्हें सपने में भी इस बात का अनुमान नहीं था कि उनके द्वारा पोस्ट की गई यह तस्वीर एक और बच्ची के लिए जीवन–रक्षक साबित हो जाएगी.

हुआ यह कि शॉर्लट द्वारा पोस्ट की गई इस तस्वीर पर एक अन्य शहर की निवासी बीस वर्षीया ताओमी की नज़र पड़ी तो यकायक उनका ध्यान इस बात पर गया कि उनकी बीस माह की बेटी लीडिया की आंखें भी कुछ-कुछ ऐसी ही दिखाई देती हैं. ताओमी उन दिनों घर से बाहर रहकर छुट्टियां मना रही थीं. करीब दो सप्ताह बाद जब वे घर लौटीं तो वे अपनी बेटी को एक डॉक्टर के पास ले गईं, और डॉक्टर ने जांच करने के बाद जो बताया उससे उनके पैरों के नीचे की ज़मीन ही खिसक गई. डॉक्टर के अनुसार उनकी इस  नन्हीं बिटिया की बांयी आंख इण्ट्राओक्युलर रेटिनोब्लास्टोमा के सबसे भीषण प्रकार, जिसे टाइप ई कहा जाता है,  से ग्रस्त थी. सरल भाषा में इसे यों समझा जा सकता है कि उसकी आंख के भीतर का ट्यूमर या तो बहुत बड़ा है और या इस तरह का है कि उसका कोई इलाज़ मुमकिन ही नहीं है और न ही उस आंख को बचाया जा सकता है. रोग और ज़्यादा न फैले, इसके लिए यह ज़रूरी है कि उस आंख को जल्दी से जल्दी निकाल दिया जाए. ताओमी के पास और कोई विकल्प था भी नहीं. डॉक्टरों ने भी  यही किया. इस बुराई में भी अच्छी बात यही थी कि रोग दूसरी आंख को अपनी गिरफ़्त में नहीं ले पाया था. अन्य कई जांचों के परिणाम अभी आने शेष हैं, लेकिन डॉक्टर आश्वस्त हैं कि उनके उपचार कारगर साबित होंग़े यह नन्हीं बच्ची सामान्य रूप से बड़ी होने लगेगी.

उधर फेलिसिटी भी, जो अब एक बरस की हो चुकी है धीरे-धीरे सामान्य होती जा रही है.  उसे कीमोथैरेपी दी जा रही है. जब वह मात्र नौ माह की थी तब उसके मां-बाप को पता चला कि वो रेटिनोब्लास्टोमा से ग्रस्त है. असल में यह रोग उसे जन्म से ही था, लेकिन मां-बाप इस बात से अनजान थे. एक दिन उनकी एक पारिवारिक मित्र लॉरा पॉवर  जो कि एक नर्स है, का ध्यान उसकी आंखों की असामान्यता पर गया और उसने शॉर्लट सॉल्सबरी  को किसी डॉक्टर से परामर्श लेने की सलाह दी. बाद में शॉर्लट ने बताया कि उन्हें कोई अंदाज़ ही नहीं था कि उनकी बेटी किसी रोग से पीड़ित भी हो सकती है. उनके लेखे तो वह एकदम सामान्य थी. हां, इस बात पर ज़रूर उनका ध्यान गया था  कि जब फेलिसिटी घुटनों के बल रेंगने लगी तो कई बार वह किसी चीज़ से टकरा जाया करती थी. लेकिन उन्हें यह बात असामान्य नहीं लगी. बाद में जब लॉरा की सलाह पर वे डॉक्टरों के पास गई तो अनेक जांचों के बाद उन्हें पता चला कि उनकी इस नन्हीं बिटिया की दोनों आंखों में तीन-तीन बेहद आक्रामक ट्यूमर्स हैं.

बिटिया का इलाज़ करा  चुकने के बाद शॉर्लट सॉल्सबरी ने महसूस किया कि उनका फर्ज़ बनता है कि वे अन्य मां-बापों को भी इस गम्भीर रोग के बारे में जानकारी दें. वैसे, जब शुरु-शुरु में फेलिसिटी की इस बीमारी का पता चला तो वे इसे गोपनीय रखती रहीं थी, लेकिन बाद में उन्हें लगा कि ऐसा करना उचित नहीं है. और तब उन्होंने फेसबुक पर इस रोग के बारे में पूरी जानकारी पोस्ट की. उनका खयाल था कि वहां उनके जो दोस्त हैं वे इस पोस्ट को पढ़कर सचेत होंग़े, लेकिन देखते ही देखते उनकी इस पोस्ट को दुनियाभर में पैंसठ हज़ार लोगों ने साझा कर दिया. ज़ाहिर है इस पोस्ट से जो लोग लाभान्वित हुए उनमें से ताओमी भी एक हैं. ताओमी ने शॉर्लट  के प्रति  अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा भी कि अगर आपने यह पोस्ट नहीं लिखी होती तो मैं अपनी बिटिया के इस रोग से अनजान ही रह गई होती.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित अलेख का मूल पाठ.