Tuesday, September 27, 2016

बहुत नाज़ुक होती है रिश्तों की डोर

विवाह को पवित्र और जन्म जन्मांतर का सम्बन्ध मानने वाले हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत कुछ चौंकाने और कुछ आहत करने वाला हो सकता है. हममें से कुछ को इस बात का संतोष भी हो सकता है कि उन्हें तो पहले से यह बात मालूम थी कि भौतिकवादी पश्चिम में रिश्ते क्षणभंगुर और स्वार्थ आधारित होते हैं. लेकिन इन बातों के बावज़ूद मैं यह वृत्तांत आपके सामने रख रहा हूं. क्यों? आप खुद समझ जाएंगे.

यह वृत्तांत मेक्सिको के एक युगल का है. लम्बी दोस्ती और अनगिनत मेल मुलाकातों के बाद उन्होंने शादी की और वे सुख पूर्वक अपना जीवन बिता रहे थे. इन्हीं मेल मुलाकातों के बीच लड़के ने मोनिका को यह भी बता दिया था कि उसकी देह में कुछ विकार है जिसकी वजह से भविष्य में कभी गम्भीर उपचार की भी ज़रूरत पड़ सकती है. खैर. उन्होंने शादी कर ली और सब कुछ ठीक चल रहा था. प्राय: वे बातें करते कि उनकी मुहब्बत औरों की मुहब्बत की तरह  कमज़ोर नींव पर नहीं टिकी थी. न उनमें कभी कोई गलतफहमी हुई और न कभी वे किसी बात को लेकर झगड़े. ज़रूरत पड़ने पर पति उपचार भी कराता रहा.  और तभी हुआ एक वज्रपात. डॉक्टरों ने बताया कि पति का रोग अब उस मुकाम तक पहुंच चुका है जहां डबल लंग ट्रांसप्लाण्ट ही एकमात्र विकल्प है. और यह ट्रांसप्लाण्ट मेक्सिको में मुमकिन नहीं है इसलिए उन्हें अमरीका जाना और काफी समय वहीं रहना भी पड़ेगा.
 
डॉक्टरों ने उन्हें इस उपचार के दौरान होने वाली तमाम  परेशानियों और इसके सम्भावित खतरों के बारे में भी विस्तार से बता दिया. डॉक्टरों ने यह बात भी उनसे छिपाई नहीं कि उपचार के दौरान या उसके बाद रोगी की  जान को भी खतरा हो सकता है. लेकिन इलाज तो करवाना ही था. वे दोनों अमरीका के स्टैनफोर्ड  शहर चले गए, सात माह के इंतज़ार के बाद सूचित किया गया कि नज़दीक ही एक व्यक्ति की मौत हुई है जिसके फेफड़े प्रत्यारोपित कर दिए जाएंगे. और सात घण्टे चले ऑपरेशन के बाद सफलतापूर्वक उस मृतक के फेफड़े प्रत्यारोपित कर भी दिए गए. हमारा कथानायक काफी  तेज़ी से स्वास्थ्य लाभ करने लगा. 

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मोनिका ने पूरी निष्ठा से उसकी सेवा की. यह समझा जा सकता है कि बेचारी उस युवती को किन तनावों, उलझनों, समस्याओं और तक़लीफों से गुज़रना पड़ा होगा. डॉक्टर और अस्पताल समस्याओं की चाहे जितनी  विस्तृत जानकारी दे दें, असल समस्याएं उनसे बहुत ज़्यादा ही होती हैं. और फिर देह और जेब की समस्याएं ही तो सब कुछ नहीं होती हैं. मन की समस्याएं तो इन सबसे परे और अधिक होती हैं. रोगी जिन तक़लीफों से गुज़रता है उसकी देखभाल करने वाला उनसे कई गुना ज़्यादा तक़लीफें झेलता है. हरेक की सहन करनी एक सीमा होती है. शायद मोनिका उस सीमा तक पहुंच चुकी थी. फेफड़ा  प्रत्यारोपण को मात्र दो माह बीते थे कि एक दिन अपनी डबडबाई आंखों को अपने पति की आंखों से मिलने से बचाते हुए उसने कह ही दिया कि अब उसके लिए और अधिक सहना मुश्क़िल है, इसलिए वह उसे छोड़ कर जा रही है. उसने वापसी के लिए हवाई टिकिट भी खरीद लिया था.

आसानी  से सोचा जा सकता है कि इस बात की उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी जो अभी-अभी मौत के मुंह से निकल कर आया था और सामान्य होने की कोशिश कर रहा था. उसे लगा जैसे सब कुछ ढह गया है. सारी दुनिया थम गई है. लेकिन दुनिया थमती कहां है? दुनिया अपनी गति से चलती रही. मोनिका गई तो उसे सम्हालने मां आ गई. अपने घावों को सहलाता हुआ वह ठीक होने की राह पर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता रहा. अलबत्ता कभी-कभी यह खयाल ज़रूर उसके मन में आ जाता कि आखिर मोनिका उसे छोड़कर गई क्यों? क्या यही प्यार है? क्या रिश्ते  इतने नाज़ुक होते हैं?

और जैसे यकायक मोनिका उसे छोड़कर गई वैसे ही अचानक एक दिन उसने बताया कि वो वापस आ रही है. उसकी ज़िन्दगी में भी. और वो लौट आई. आहिस्ता-आहिस्ता बहुत सारी बातें  हुईं उन दोनों में. गिले-शिकवे और एक दूसरे को समझने की कोशिशें!

और तब हमारे नायक को समझ में आया कि मोनिका का उसकी ज़िन्दगी से चला जाना विश्वासघात नहीं था. यह उसकी हार थी. वह मुश्क़िलों, उलझनों और तनावों के आगे हथियार डालने को मज़बूर हो गई थी. लेकिन जाने के बाद उसे महसूस हुआ कि इस पराजय में तो वह और भी ज़्यादा टूट और बिखर रही है. और इसलिए उसने लौट आने का फैसला किया. उसे लगा कि टूटने से बेहतर है जूझना. अब सब कुछ ठीक है. बस, इतना फर्क़ पड़ा है कि अब ये दोनों अपनी मुहब्बत को लेकर पहले जैसा गुमान नहीं करते हैं. इन्हें समझ में आ गया है कि रिश्तों की  डोर बहुत नाज़ुक होती है.

(ऐरिक गुमेनी के प्रति आभार के साथ.)               

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 सितम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.