Tuesday, May 12, 2015

परिवर्तन लाने वाली औरतों को सलाम

‘मिल्क एण्ड हनी’ पुस्तक के बारे में भले ही आप कुछ न जानते हों, इसकी लेखिका का नाम आपने ज़रूर सुन रखा होगा. रूपी कौर. वही रूपी कौर  जिनकी पोस्ट की हुई तस्वीर को इंस्टाग्राम ने अपनी कम्युनिटी गाइडलान का उल्लंघन करने वाली मान कर एक नहीं दो बार  हटा दिया था लेकिन जब रूपी कौर ने इस निर्णय को चुनौती दी तो इंस्टाग्राम ने यह स्वीकार करते हुए कि उनकी तस्वीर से किसी गाइडलाइन का उल्लंघन नहीं होता है, उनसे माफी मांगी. तस्वीर आपने भी देखी होगी. जीन्स और टी शर्ट पहने एक लड़की आपकी तरफ पीठ किये सो रही है. जीन्स और बिस्तर पर लाल रंग के धब्बे हैं जो ‘उन’ दिनों के सूचक हैं.

और जिन दिनों रूपी कौर की पोस्ट की  हुई इस तस्वीर पर उत्तेजक चर्चाएं हुईं लगभग उन्हीं दिनों दीपिका पादुकोण का ‘माय चॉइस’  नामक वीडियो भी खासा चर्चित हुआ. असल में ये दोनों प्रसंग एक ही  बात कहते हैं और वह यह कि स्त्रियां पुरज़ोर तरीके से अपनी देह पर अपना हक ज़ाहिर करने लगी हैं और उसे लेकर किसी भी तरह की लज्जा या संकोच का भाव वे मन में नहीं रखना चाहती हैं. अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह उस भेदभाव की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो स्त्री को लगातार सहन करना पड़ता है. तमाम कला माध्यमों में, जिनमें फिल्मों जैसा लोकप्रिय माध्यम भी शामिल है, पुरुष देह के वस्त्रहीन प्रदर्शन को निस्संकोच भाव से न केवल स्वीकार किया जाता है, माचो जैसे शब्दों से सराहा भी जाता है. हमारे अपने देश में कई अभिनेताओं के लिए तो उनकी करीब-करीब हर फिल्म में कमीज़ उतारना ज़रूरी ही मान लिया गया है. उसे कभी कोई अश्लील नहीं कहता है. लेकिन इससे मिलता-जुलता कृत्य अगर कोई अभिनेत्री करती है, और वह भी किसी फिल्म में, तो उसे बदनाम होते देर नहीं लगती. सवाल वही कि स्त्री और पुरुष की देह को लेकर यह भिन्न नज़रिया क्यों?

और शायद इसी सवाल ने प्रेरित किया उस सिलसिले को भी जो दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से शुरु हुआ और कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय तक जा पहुंचा. यह सिलसिला अधिक तीक्ष्ण और स्वभावत: अधिक चौंकाने वाला है, हालांकि इसका मकसद चौंकाना नहीं, अपना प्रतिवाद दर्ज़ करना है. मैं यहां जिस सिलसिले का ज़िक्र कर रहा हूं – सेनेटरी पैड्स पर लिखकर  विरोध करने के सिलसिले का, उसके पीछे एक परम्परा  है. असल में पिछले साल चार्ली नाम की एक लड़की ने एक ट्वीट किया था जिसमें उसने लिखा था – “पुरुष जिस तरह लड़कियों के ऋतुस्राव  से घृणा करते हैं, अगर उसी तरह वे बलात्कार से भी घृणा करते तो!” चार्ली के इस ट्वीट ने एलोने कास्त्रतिया नामक एक जर्मन कलाकार को इतना अधिक प्रेरित किया कि उसने इस इबारत को चालीस सेनेटरी पैड्स पर लिखकर शहर की दीवारों पर चस्पां कर डाला. इस कृत्य के लिए एलोने की खूब तारीफ हुई हालांकि  उसकी आलोचना भी कम नहीं हुई. लेकिन इस तरह एलोने लोगों की चेतना को झकझोरने में कामयाब रही. वैसे सेनेटरी नैपकिन्स को  शिल्प का सम्मान देने के एलोना के इस कृत्य से पहले भी अनेक महिलाएं इस तरह के उद्देश्यपूर्ण प्रयोग कर चुकी थीं. मसलन, ट्रेसी एमिन ने प्रेग्नैंसी किट के साथ एक जार में पुराना इस्तेमाल किया हुआ टेम्पून रखकर उसे ‘पेण्टिंग का इतिहास-1’ नाम दिया तो चिली की एक कलाकार ने पांच साल से जमा  किए  हुए मासिक धर्म के रक्त की एक प्रदर्शनी की जिस पर किसी ने एक बहुत अर्थपूर्ण टिप्पणी की थी कि “पुरुष के खून को वीरता कहा जाता है और हम लड़कियों के रक्त को हमेशा से शर्म की चीज़ कहकर चिह्नित किया जाता है.”

असल में ये सारे कृत्य जिन्हें देखकर या जिनके बारे में पढ़ सुनकर हम विचलित होते हैं, क्षुब्ध होते हैं और जिन्हें हम सुरुचिपूर्ण नहीं मानते हैं, चीख-चीखकर यही पूछते  हैं कि अगर यौन शोषण, बलात्कार, घरेलू हिंसा वगैरह सुरुचिपूर्ण नहीं हैं तो इनके  विरोध में किए गए आंदोलन भला कैसे सुरुचिपूर्ण हो सकते हैं? इस पूरे परिदृश्य पर तसलीमा नसरीन की टिप्पणी मुझे बहुत सार्थक लगती है. वे कहती हैं, “अगर औरतें पुरुषों की सिखाई भाषा में न लिखें, कितना कहना है, कहां तक कहना है, कहां त्तक सीमा खींचनी है – ये रूल्स न मानें, तो पुरुषतांत्रिक लोगों को बड़ा गुस्सा आता है. इस समाज में जो महिलाएं नारी विरोधी लोगों को नाराज़ नहीं कर पातीं, उन महिलाओं को नारी विरोधियों से खराब, स्लट, वेश्या इत्यादि का तमगा नहीं मिलता है – ऐसी औरतों को लेकर ज़्यादा कुछ उम्मीद भी नहीं की जा सकती है. जो नारी विरोधी समाज के साथ समझौता नहीं करतीं, जो ज़िद्दी हैं, नियम तोड़ती हैं, वे ही समाज बदलती हैं. वे ही परिवर्तन  लाती हैं. मैं उन्हें सैल्यूट करती हूं.”  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 मई, 2015 को दुनिया में परिवर्तन लाने वाली औरतों को सलाम शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.