Tuesday, January 31, 2017

विचलित कर देने वाले समय में भी जल रही है साहित्य की मशाल

कथा सम्राट प्रेमचंद ने 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के उद्घाटन के अवसर पर अपने व्याख्यान में कहा था कि साहित्य “देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.” प्रेमचंद के इस कथन की बहुत ज़्यादा याद मुझे यह समाचार पढ़ते हुए आई कि हाल में सम्पन्न हुए अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव अभियान में डोनाल्ड ट्रम्प के कुछ भाषणों के स्वर ने अमरीकी जन मानस को इतना चिंतित कर दिया कि उनकी दिलचस्पी अचानक डिस्टोपियन (मनहूसियत भरे) उपन्यासों में बहुत ज़्यादा बढ़ गई. अमरीकी जनता शायद काफी पहले लिखे गए भविष्य का चित्रण करने वाले इस तरह के उपन्यासों को पढ़कर वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश कर रही है. ऐसे में एक डिस्टोपियन उपन्यास सुपर सैड ट्रु लव स्टोरीके रचनाकार गैरी श्टाइन्गार्ट  का यह कथन तर्क संगत प्रतीत होता है कि “एक औसत अमरीकी के वास्ते इनमें से बहुत सारी किताबें इसलिए महत्वपूर्ण हो गई है कि वह यह जानना चाहता है कि अब आगे क्या होगा.” स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी  के एक प्रोफ़ेसर अलेक्स वॉलॉच ने कहा कि अमरीकी प्रशासन के कुछ कृत्यों से लोगों के जेह्न  में खतरे की घण्टियां बजने लगी हैं और वे इस नए यथार्थ को समझने के लिए इन कृतियों का रुख कर रहे हैं.

जानी-मानी उपन्यासकार मार्गरेट एटवुड के कोई तीन दशक पहले आए उपन्यास द हैण्डमेडस टेलजिसके अब तक 52 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं,  की बिक्री 2016 में तीस प्रतिशत बढ़ गई और पिछले तीन महीनों में तो इसके प्रकाशक को इसकी एक लाख अतिरिक्त प्रतियां छपवानी पड़ीं, क्योंकि लोगों को नए  रिपब्लिकन निज़ाम की सम्भावित रीति नीतियों और इस उपन्यास में वर्णित दमनात्मक समाज में बहुत सारे साम्य दिखाई दिये थे. इधर हाल के दिनों में राष्ट्रपति ट्रम्प, उनके प्रेस सेक्रेटरी सीन स्पाइसर और उनकी  सलाहकार कॉनवे ने जब राष्ट्रपति  के पदग्रहण समारोह में उपस्थित लोगों की संख्या को लेकर समाचार माध्यमों के आकलन पर प्रतिकूल  टिप्पणियां कीं तो इस पर काफी बावेला मचा और तब कॉनवे को यह सफाई देने पर मज़बूर होना पड़ा कि वे तो महज़ वैकल्पिक तथ्यप्रस्तुत कर रही थीं. लेकिन उनकी इस टिप्पणी ने बहुतों को जॉर्ज ऑरवेल के प्रख्यात उपन्यास ‘1984’ के उस सर्वसत्तावादी समाज की याद दिला दी जिसमें भाषा एक राजनीतिक अस्त्र बन जाती है और यथार्थ को सत्ताधारियों के नज़रिये से व्याख्यायित किया जाने लगता है. आसानी से पुष्टि किये जा सकने काबिल तथ्यों को भी संदेह के घेरे में लाने की यह प्रवृत्ति अमरीकी समाज के लिए नई और चौंकाने वाली थी. शायद यह भी एक  कारण रहा होगा कि अकेले इस एक सप्ताह में ट्विटर पर लगभग तीन लाख बार इस उपन्यास का ज़िक्र किया गया. यह उपन्यास अमेज़ॉन की बेस्ट सेलर सूची में तेज़ी से ऊपर चढ़ता जा रहा है. हमें यह बात चकित करने वाली लग सकती है कि राष्ट्रपति ट्रम्प के शपथ  लेने के बाद इस उपन्यास की बिक्री में 9500 गुना इज़ाफा हुआ है और अनेक बेस्ट  सेलर सूचियों में यह निरंतर ऊपर चढ़ता जा रहा है. वैसे यह उपन्यास सदा से ही बेस्ट सेलर रहा है. 1949 में अपने प्रकाशन के बाद से अमरीका में हर बरस इसकी चार लाख प्रतियां बिकती रही हैं, लेकिन हाल में इसकी मांग इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि प्रकाशक को  न सिर्फ इसकी दो लाख अतिरिक्त प्रतियां छपवानी पड़ीं, जॉर्ज ऑरवेल के ही एक अन्य उपन्यास एनिमल फार्मकी भी एक लाख अतिरिक्त प्रतियां छपवानी पड़ीं.

अमरीका में इस तरह के उपन्यासों में तेज़ी से बढ़ी दिलचस्पी का आकलन दो-तीन तरह से किया जा रहा है. कनेक्टिकट यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर माइकल मेयेर का कहना है कि वैसे तो ये किताबें पहले भी पढ़ी जाती थीं, लेकिन अब इनमें बढ़ी हुई दिलचस्पी की वजह यह है कि लोग इनमें  वर्तमान से काफी पीड़ादायक समानता  पा रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि इन उपन्यासों में पाठकों को न सिर्फ अपने समय का प्रतिबिम्ब देखने को मिल रहा है इनसे उन्हें वो नैतिक स्पष्टता भी प्राप्त हो रही है जो ख़बरों और सूचनाओं के घटाटोप में खो-सी गई है. कथाकार गैरी श्टाइन्गार्ट का यह कथन उपयुक्त प्रतीत होता है कि कदाचित नॉन फिक्शन हमारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है और पत्रकारिता समय के साथ तालमेल बनाये रख पाने में असफल हो रही है. इस पूरे परिदृश्य पर सबसे मार्मिक टिप्पणी तो यह है कि लोग इन डिस्टोपियन उपन्यासों को इसलिए पढ़ रहे हैं कि यह एहसास उन्हें सुखद लगता है कि जो हो रहा है, उससे भी बुरा हो सकता था.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 31 जंवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 24, 2017

काम करने के लिए जिएं या जीने के लिए काम करें?

हाल में स्वीडन  के गोथनबर्ग शहर में स्थित नगरपालिका रिटायरमेण्ट होम के कर्मचारियों पर एक अभिनव प्रयोग किया गया. अब तक आठ घण्टे प्रतिदिन काम करने वाले इन कर्मचारियों के काम के घण्टों में कटौती कर इनसे पूरे दो बरस तक प्रतिदिन छह घण्टे काम लिया गयाऔर काम के घण्टों की इस कटौती का कोई प्रभाव इनके वेतन पर नहीं पड़ा. सिर्फ इतना ही नहीं, इन कर्मचारियों द्वारा किये जाने वाले काम में कटौती की क्षति पूर्ति के लिए सत्रह नए कर्मचारी नियुक्त किये गए जिन पर सालाना सात लाख यूरो का खर्चा आया. एक देश के लिहाज़ से यह प्रयोग भले ही आकार में बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन इसने एक व्यापक बहस के सिलसिले की शुरुआत कर दी है, जिसका  असर काम की भावी नीतियों पर पड़ना अवश्यम्भावी है. इस प्रयोग के बाद इस बात पर बहुत गम्भीरता से विचार किया जाने लगा है कि कर्मचारियों को उनके काम और उनके जीवन के बीच बेहतर संतुलन सुलभ कराने की कितनी अहमियत है, और कर्मचारियों को निचोड़ लेने की बनिस्पत उनसे बेहतर सुलूक करते हुए उनसे काम लेने की नीति कम्पनियों और अर्थ व्यवस्था के लिए कितनी लाभप्रद साबित हो सकती है. इस प्रयोग के बाद गोथनबर्ग सिटी काउंसिल में वाम दल के नेता डेनियल बर्नमार ने कहा कि कि इस परीक्षण से यह बात साबित हो गई है कि कर्मचारियों के काम के घण्टे कम होने के बहुत सारे फायदे  हैं. इनमें स्टाफ का स्वास्थ्य, बेहतर काम का माहौल और अपेक्षाकृत कम बेरोज़गारी शामिल हैं. यहीं यह भी बता  देना ज़रूरी है कि वाम दल ने ही इस प्रयोग के लिए सर्वाधिक आग्रह किया था. लेकिन जैसा सर्वत्र होता है, स्वीडन की सरकार ने कुछ तो इसकी व्यवहारिकता को लेकर राजनीतिक संदेहों की वजह से और कुछ इस तरह के प्रयासों पर होने वाले खर्च को मद्दे नज़र रखते  हुए इस प्रयोग को और बड़े स्तर पर आज़माने में कोई उत्साह नहीं दिखाया है. यही कारण है कि डेनियल बर्नमार को कहना पड़ा है कि सरकार तो इस मुद्दे पर बात ही नहीं करना चाह रही है. वह  व्यापक परिप्रेक्ष्य में इस पर नज़र डालने में कोई रुचि नहीं दिखा रही है.

यहीं यह भी याद दिलाया जा सकता है कि बहुत सारे देश और कम्पनियां अपने कर्मचारियों की खुशियों में वृद्धि करने के लिहाज़ से उनके काम के घण्टों में कटौती करने पर विचार तो करती रही  हैं लेकिन इस विचार को व्यापक स्वीकृति कहीं नहीं मिल पाई. फ्रांस में वहां की समाजवादी सरकार की पहल पर पिछले पंद्रह बरसों से चले आ रहे पैंतीस घण्टों  के कार्य सप्ताह को अभी भी खासा विवादास्पद ही माना जाता है. अपने कर्मचारियों  से बहुत ज़्यादा काम लेने के लिए कुख्यात अमेज़ॉन तक ने पिछले बरस यह घोषणा की थी कि वह बतौर परीक्षण अपने कर्मचारियों के एक छोटे समूह से सप्ताह में मात्र तीस घण्ट काम करवाएगी और उनके अन्य सारे लाभ बरक़रार रखते हुए उन्हें वर्तमान वेतन का तीन चौथाई देगी. गूगल और डेलॉयट ने भी इसी तरह यह प्रयोग किया कि चालीस घण्टों का काम  चार दिनों में करवा कर कर्मचारियों को तीन दिन का अवकाश दे दिया जाए. यानि इस तरह के प्रयोग जगह-जगह किये जा रहे हैं. हालांकि यह भी सच है कि ये प्रयोग बहुत छोटे पैमाने पर हो रहे हैं और इक्का दुक्का कस्बों तक सीमित हैं. 

गोथनबर्ग वाले इस प्रयोग में हालांकि लागत में बाईस प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन उसमें से दस प्रतिशत को कम माना जा सकता है. इसलिए कि ऐसे कुछ लोग जिन्हें बेरोज़गारी भत्ता दिया जा रहा था, वे काम पा गये और उन्हें दिया जाने वाला भत्ता बच गया. इसके अलावा कर्मचारियों के स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण सुधार पाया गया, उनके रक्तचाप में कमी देखी गई, और उनकी कार्यक्षमता भी बढ़ी हुई पाई गई. लेकिन इसके बावज़ूद गोथनबर्ग में वहां की कंज़र्वेटिव विपक्षी पार्टियों ने  इस प्रयोग को कल्पना की उड़ान करार देते हुए इसे खत्म कर देने का पुरज़ोर आग्रह किया. उनका कहना था कि एक तो इससे बेवजह करदाताओं का करभार बढ़ेगा, और दूसरे यह कि सरकार को कार्यस्थलों में बिना वजह अपनी नाक नहीं घुसेड़नी चाहिए. वहां की सरकार भी  इस प्रयोग की मुखालफत कर रही है.

लेकिन इस प्रयोग ने अंतत: सारी दुनिया को यह सोचने को विवश किया है कि अब समय आ गया है कि कर्मचारियों की उत्पादकता और उनकी सेहत और उनकी प्रसन्नता के बीच के अंत:सम्बंधों  की गहराई से पड़ताल की जाए. यानि यह कि लोग काम करने के लिए ज़िंदा रहें या ज़िंदा रहने के लिए काम करें! दुनिया के कुछ देशों जैसे इटली, जापान और क़तर में ऐसा होने भी लगा है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम  कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 जनवरी, 2017  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 17, 2017

उनके भीतर छिपी हुई थी दुर्वासा और परशुराम की टू-इन-वन आत्मा

हाल में राजस्थान की राजधानी में आयोजित हुए रुक्टा (राजस्थान यूनिवर्सिटी एण्ड कॉलेज टीचर्स असोसिएशन) राष्ट्रीय के अधिवेशन में प्रांत की मुख्य मंत्री जी ने कॉलेज शिक्षकों को भी विश्वविद्यालय शिक्षकों के समान पदनाम देने की घोषणा कर लम्बे समय से की जा रही मांग को पूरा कर दिया. विश्वविद्यालय में जहां असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसर, असोसिएट प्रोफ़ेसर और प्रोफ़ेसर पदनाम होते हैं वहीं कॉलेज शिक्षकों के लिए मात्र एक पदनाम हुआ करता था – लेक्चरर यानि व्याख्याता. जब मैंने अपनी नौकरी की शुरुआत की तब राज्य में कॉलेज शिक्षकों के लिए विश्वविद्यालय शिक्षकों से भिन्न और उनसे न्यून वेतनमान हुआ करते थे. फिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की  अनुशंसानुसार हमें भी उनके समान वेतनमान तो मिलने लग गए लेकिन पदनाम उनसे भिन्न बना रहा, और यह बात सबको चुभती भी रही. सरकार के दरवाज़े पर बार-बार गुहार लगाई जाती  रही, और सरकार भी सैद्धांतिक रूप से सहमत होती  रही. लेकिन बात उससे आगे नहीं बढ़ सकी. कोई चार दशकों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद मुख्य मंत्री जी की घोषणा से यह आस बंधी है कि कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षकों के बीच का यह पदनाम गत भेद-भाव अब ख़त्म हो जाएगा.

यह तो हुई औपचारिक और आधिकारिक बात! लेकिन इसी के साथ एक मज़ेदार हक़ीक़त यह भी है कि हममें से बहुत सारे कॉलेज शिक्षक अपनी नौकरी के पहले दिन से ही स्वयं को प्रोफ़ेसर कहते और कहलाते रहे हैं. इतना ही नहीं, राज्य और केंद्र के अब भूतपूर्व हो चुके एक मंत्री जी और राज्य के एक वर्तमान मंत्री जी को सरकारी लिखत-पढ़त में भी  प्रोफ़ेसर ही सम्बोधित किया जाता है, भले ही उन्होंने किसी विश्वविद्यालय में कभी नहीं पढ़ाया. एक समय था जब शिक्षक संगठन  ने भी अपने सदस्यों को सलाह दी थी कि सरकार की घोषणा का इंतज़ार किये बिना वे खुद को विश्वविद्यालय वाले पदनामों से विभूषित कर लें. इन तमाम बातों का ज़िक्र करते हुए मुझे अनायास अपनी नौकरी के पहले कुछ  महीनों में मिले एक ऐसे अनूठे व्यक्तित्व की याद आ गई है जिन्हें विस्मृत कर पाना नामुमकिन है. वे संस्कृत के व्याख्याता थे और हम लोगों की तुलना में ख़ासे वरिष्ठ थे. कोढ़ में खाज यह कि वे पी-एच.डी भी थे. वे हम सबको प्रो. साहब कहकर सम्बोधित करते थे और अपनी वरिष्ठता के रुतबे का पूरा प्रयोग करते हुए यह अपेक्षा करते थे कि हम सब भी एक दूसरे को प्रो. साहब कहकर ही सम्बोधित करें. अगर हममें से कोई किसी को नाम लेकर सम्बोधित कर देता या अपना परिचय व्याख्याता (जो हमारा वैध पदनाम था) के रूप में दे देता तो उनके कोप का भाजन बने बगैर नहीं रहता. उनके कोप की बात एक और चर्चा के बिना अधूरी रहेगी. वे पी-एच.डी. थे और हमेशा चाहते थे कि हम उनको न तो उनके जाति सूचक नाम से सम्बोधित करें, प्रथम नाम से सम्बोधन का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था, न प्रोफ़ेसर साहब कह कर सम्बोधित करें. उन्हें केवल और केवल डॉ साहब सम्बोधन स्वीकार्य था. कई बार असावधानीवश इससे इतर सम्बोधन कर उनके कोप भाजन  बन चुके हम लोगों को धीरे-धीरे इसमें एक दुष्टतापूर्ण आनंद मिलने लगा था और आए दिन हममें से कोई न कोई उन्हें उनके जाति सूचक उपनाम से सम्बोधित कर देता. इधर हममें से किसी के भी मुंह से यह सम्बोधन निकलता और उधर उनके भीतर बिराजमान दुर्वासा और परशुराम की  टू-इन-वन आत्मा हुंकार भर कर उठ खड़ी होती. अब यह बात तो याद नहीं कि अपने विषय में उनकी पैठ कितनी गहरी थी, लेकिन यह बात अच्छी तरह याद है कि हिंदी और अंग्रेज़ी इन दोनों भाषाओं में उनकी लेखन क्षमता अद्भुत थी. उनके भीतर अवस्थित दुर्वासा और परशुराम उनकी कलम की नोक से कागज़ों पर उतरते और पापियों-अपराधियों को क्षत-विक्षत करने में  जुट जाते. उनके सारे प्रहार लिखित रूप में होते. अपना सारा गुस्सा वे पत्रों में व्यक्त करते. जिस किसी ने भी उन्हें डॉ साहब से भिन्न सम्बोधन से अपमानित किया होता उसके  नाम वे पोस्टकार्ड लिखते और जितनी अप्रिय बातें वे लिख सकते उसमें लिख डालते. ज़ाहिर है कि अगले दिन वो पोस्टकार्ड कॉलेज के स्टाफ रूम में रखे डाक के डिब्बे में प्रकट  होता और  जिसके नाम वह प्रेषित किया गया होता उससे पहले अन्य सारे लोग उसे पढ़ चुके होते. यही तो वे डॉ साहब चाहते भी थे. लेकिन ख़ास बात यह कि जितनी जल्दी वे नाराज़ होते उतनी ही जल्दी प्रसन्न भी हो जाते. नाराज़ करने वाला विनम्रतापूर्वक उनसे क्षमा मांगता, उनकी विद्वत्ता की प्रशंसा करता और तीन मिनिट की वार्ता में पाँच दफ़ा उन्हें डॉ साहब कहकर सम्बोधित करता तो वे पिघलने में भी  देर नहीं करते. लेकिन क्योंकि हम लोगों के लिए तो यह एक कौतुक मात्र था, कुछ ही देर बाद हममें से कोई और उन्हें डॉ साहब से इतर कोई और सम्बोधन देकर फिर उनके दुर्वासा-सह-परशुराम को काम पर लगा देता. पता नहीं अब वे डॉ साहब कहां हैं!  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 17 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.


Tuesday, January 10, 2017

एक पुरुष ने जीती महिलाओं की साइक्लिंग प्रतिस्पर्धा

कुछ बातें असल में उतनी अजीब और चौंकाने वाली होती नहीं हैं, जितनी वे पहली नज़र में प्रतीत होती हैं. अब इसी वृत्तांत को लीजिए जिसके लिए मेरा विश्वास है कि शीर्षक पढ़ते ही आप चौंक गए होंगे! भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई पुरुष महिलाओं की प्रतिस्पर्धा में विजयी हो जाए?  लेकिन हुआ तो है ही. हांयह ज़रूर है कि जब आप पूरी बात जान लेंगे तो आपका आश्चर्य उतना नहीं रह जाएगा, जितना इस वृत्तांत को पढ़ना शुरु करते समय था. आपके धैर्य की अधिक परीक्षा लेने से बचते हुए मैं सीधे इस घटना पर  ही आ जाता हूं.

घटना यह है कि अमरीका में जिलियन बियर्डन नामक एक छत्तीस वर्षीय जन्मना पुरुष ने महिलाओं की एक बड़ी साइक्लिंग प्रतिस्पर्धा में जीत हासिल कर ली है.  उन्होंने अपनी निकटतम महिला प्रतिस्पर्धी अन्ना स्पार्क्स से महज़ एक सेकण्ड के अंतराल से यह प्रतिस्पर्धा जीती है. तीसरे स्थान पर रहने वाली सुज़ैन सोन्ये इनसे पूरे बाईस मिनिट पीछे रही. यह प्रतिस्पर्धा थी एरिज़ोना में आयोजित हुई 106 मील वाली एल टुअर डी टस्कन. इस प्रतिस्पर्धा में बियर्डन ने 4 घण्टे 36 मिनिट का समय लगाया. इसी मुकाबले में पुरुषों के वर्ग में जीत हासिल करने वाले मेक्सिको के ओलम्पिक साइक्लिस्ट   ह्युगो रेंजल ने यह दूरी उनसे 25 मिनिट कम समय में तै की.

अब आप इससे आगे की बात भी जान लें. इन जिलियन बियर्डन का जन्म तो एक पुरुष के रूप में हुआ था लेकिन वे खुद को एक ट्रांसजेण्डर स्त्री ही मानते थे.  इस मामले में बहुत बड़ी बात यह रही कि बग़ैर वह  शल्य क्रिया (सेक्स रिअसाइनमेण्ट सर्जरी) करवाये  जिसके द्वारा उनके यौनांगों को स्त्री स्वरूप प्रदान किया जाता, उन्होंने इस मुकाबले में एक स्त्री के रूप में हिस्सा लिया और जीत हासिल की. यह करिश्मा सम्भव हुआ इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल के एक ताज़ा तरीन फैसले के कारण. काउंसिल ने अपने इस फैसले में यह व्यवस्था दी थी कि नेशनल फेडरेशन सभी ट्रांसजेण्डर एथलीटों को इस बात की अनुमति प्रदान करेगा  कि वे बगैर सेक्स रिअसाइनमेण्ट सर्जरी करवाये ही ओलम्पिक और अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में अपने चाहे गए वर्ग (पुरुष या स्त्री) में हिस्सेदारी कर सकेंगे. इस फैसले में यह व्यवस्था की गई कि वे एथलीट जिनका जन्म स्त्री के रूप में हुआ है लेकिन जो खुद को पुरुष मानते  हैं वे बिना किसी अवरोध के पुरुषों की प्रतिस्पर्धाओं में भागीदारी कर सकेंगे. और  इसी तरह वे ट्रांसजेण्डर एथलीट जिनका जन्म पुरुष के रूप में हुआ लेकिन जो स्वयं को स्त्री मानते हैं वे स्त्रियों वाली प्रतिस्पर्धाओं में भाग ले सकेंगी. लेकिन इसके साथ एक शर्त भी रख दी गई. शर्त यह कि ऐसे प्रतिस्पर्धियों को सम्बद्ध मुकाबले से पहले एक बरस तक निर्धारित टेस्टास्टरोन का निर्वहन  करना होगा, यानि वे उस स्पर्धा में तभी हिस्सा ले सकेंगी जब उक्त अवधि में उनका टेस्टास्टरोन स्तर मानक से नीचे रहेगा. इसी नए नियम के कारण जिलियन बियर्डन यह करिश्मा कर सकीं.

यहीं यह भी जान लेना उपयुक्त होगा कि इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल के इस नए फैसले से पहले तक 2003 में ज़ारी गई गाइडलाइन्स प्रभावी थीं जिनके अनुसार किसी भी ट्रांसजेण्डर एथलीट के लिए अपने जन्म से भिन्न लिंग वाली स्पर्धा में भाग लेने के लिए  सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी करवाना ज़रूरी था. लेकिन अब इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल ने यह कहते हुए कि ट्रांसजेण्डर एथलीट्स को उनके मनचीते वर्ग की स्पर्धाओं में भाग लेने से वंचित नहीं रखा जा सकता, वाज़िब प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के लिए यह नई व्यवस्था लागू की है. अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए काउंसिल ने कहा है कि वाज़िब प्रतिस्पर्धा के लिहाज़ से यह उचित नहीं लगता कि एथलीटों पर सर्जिकल एनाटॉमिकल बदलावों की पूर्व शर्त लादी जाए. विकासमान कानूनों और मानवाधिकारों की अवधारणा के लिहाज़ से भी ऐसा करना अनुचित होगा.

ज़ाहिर है कि इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल का यह फैसला ट्रांसजेण्डर लोगों के प्रति तेज़ी से बदलते  जा रहे  सामाजिक और विधिक सोच की परिणति है. सारी दुनिया में बहुत तेज़ी से ट्रांसजेण्डर जन के प्रति सहानुभूति और सद्भाव की जो बयार बह रही है, इस फैसले को उसी के संदर्भ  में देखा जाना चाहिए.  खुद जिलियन बियर्डन जो कि ट्रांसजेण्डर अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों में अग्रणी हैं और जिन्होंने दुनिया के पहले ट्रांसजेण्डर साइक्लिंग समूह की स्थापना भी की है,  ने भी इस नई व्यवस्था और इसके तहत हुई अपनी जीत का स्वागत करते हुए यह उम्मीद ज़ाहिर की है कि स्त्री वर्ग में हुई उनकी इस जीत से अन्य ट्रांसजेण्डर्स एथलीटों को भरपूर प्रोत्साहन मिलेगा. भले ही इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल का यह फैसला अनिवार्यत: मान्य नियम न होकर राष्ट्रीय और खेल विषयक संस्थाओं के लिए अनुशंसा मात्र है, फिर भी इसके दूरगामी परिणामों से इंकार नहीं किया जा सकता.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत  मंगलवार, 10 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 3, 2017

खो कर फिर से पाई ज़िंदगी की सबसे अनमोल धरोहर!

ब्रिटेन की एक युवती एलोईस डेकर को क्या मालूम था कि किरगिज़स्तान की पहाड़ियों की रोमांचक यात्रा उनके जीवन का एक बेहद रोचक अध्याय भी लिख जाएगी! अपनी यात्रा के दूसरे दिन यकायक उन्हें पता चला कि उनकी दिवंगत मां का जो ब्रेसलेट वे पहने रहती थींवो कहीं गुम हो गया है. पुरानी अंगूठियों के सोने को गलाकर बनवाया गया यह ब्रेसलेट एलोईस की मां को उनकी मां से विरासत में मिला था और  जहां तक एलोईस की स्मृति जाती थी, उन्होंने हमेशा ही अपनी मां की कलाई में यह ब्रेसलेट देखा था. लेकिन ज़िंदगी के आखिरी बरसों में जब वे बहुत कमज़ोर हो गई थीं, यह ब्रेसलेट बार-बार उनकी कलाई से उतर जाता था और आखिर तंग आकर उन्होंने इसे उतार कर रख दिया था. कमरा साफ़ करते हुए अचानक एक दिन एलोईस ने इस ब्रेसलेट को देखा और अपनी कलाई में पहन लिया. उनकी मां ने यह देख अपनी खुशी ज़ाहिर की और यह उम्मीद भी जताई कि किसी दिन एलोईस भी इसे अपनी संतान को हस्तांतरित कर देगी. इसके कुछ ही महीनों बाद एलोईस की मां रोज़मरी का देहांत हो गया. लेकिन उस ब्रेसलेट में जाने क्या कशिश थी कि तब से कभी भी एलोईस ने उसे अपनी कलाई से नहीं उतारा. शायद आभूषण भी हमें अपनों से जोड़े रखने का एक सशक्त माध्यम होते हैं. ख़ास तौर से वे आभूषण जो हमें विरासत में प्राप्त होते हैं.

तो, जैसे ही एलोईस को यह भान हुआ कि वह बेशकीमती ब्रेसलेट उनसे ज़ुदा हो गया है, उनके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गई. हॉंग कॉंग में जन्मीं मां से  ब्रिटेन में पली बढ़ी उसकी बेटी को जो ब्रेसलेट प्राप्त हुआ था वह किरगिज़स्तान के बियाबान में कहीं खो गया था. वे अपनी सूनी कलाई को बार-बार देखतीं और महसूस करतीं कि उनके अस्तित्व का एक भाग उनसे ज़ुदा हो गया है. असल में वह ब्रेसलेट उनकी उस मां की एक और अंतिम  भौतिक निशानी था जो अब केवल स्मृतियों में शेष  रह गई  थीं. लेकिन अनहोनी तो हो ही चुकी थी. जितना वे खोज सकती थीं, उतना खोजा भी, लेकिन ब्रेसलेट नहीं मिला. बहुत भारी और उदास मन से जैसे-तैसे उन्होंने अपनी यात्रा पूरी की. और फिर लौट आईं अपने देश में अपने घर.

कुछ सप्ताह बाद अप्रत्याशित कुछ हुआ. उन्हें फेसबुक पर एलामान असानबेव का एक संदेश मिला. एलामान किरगिज़स्तान में उनके कई गाइडों में से एक था. उसने अपने संदेश के साथ एक तस्वीर संलग्न की थी, और बस इतना ही लिखा था: “मैं नहीं जानता कि यह वही है भी या नहीं!” लेकिन एलोईस उस तस्वीर को देखते ही जान गई थीं कि यह वही है. वही, यानि उनका खोया हुआ ब्रेसलेट! और जैसे मुर्दे में जान आ जाए, वे एकदम से खिल उठीं. लेकिन अब एक और बड़ा सवाल उनके सामने था. सुदूर किरगिज़स्तान से वो ब्रेसलेट मंगवाया कैसे जाए? डाक सेवाओं पर उनको ज़्यादा भरोसा नहीं था, और जब उन्होंने  कूरियर से मंग़वाने के बारे में सोचा तो यह बात याद आई कि तमाम कूरियर कम्पनियां यह हिदायत देती हैं  कि उनके माध्यम से कीमती आभूषण आदि न भेजे जाएं. उन्होंने इस सम्भावना को भी खंगाला कि कोई परिचित मिल जाए जो किरगिज़स्तान से आ रहा हो तो उसे यह कष्ट दे दिया जाए, लेकिन ऐसी कोई सम्भावना बनी नहीं. फिर तो एक ही विकल्प बचा था, कि वे खुद वहां जाकर उस ब्रेसलेट को लातीं. एक सुखद संयोग यह और बन गया कि नवम्बर में फ्लाइट्स सस्ती हो जाती हैं, तो इसका फायदा  उठाकर  वे खुद ही लंदन से मॉस्को होती हुईं किरगिज़स्तान की राजधानी जा पहुंची और वहां से छह घण्टे की सड़क यात्रा कर उस कम्पनी के दफ्तर में पहुंच गई जिसने उसे वो गाइड उपलब्ध कराया था. कम्पनी के मैनेजर ने उक्त एलामान असानबेव को बुलवा भेजा, और जैसे ही वह आया, उसने यह कहते हुए कि “यह रहा” एलोईस को  वो ब्रेसलेट थमा दिया! एलामान उस मैनेजर को अपनी स्थनीय बोली  में कुछ बता रहा था, जिसमें से एलोईस को सिर्फ एक शब्द समझ में आया था‌ टॉयलेट! यानि वो ब्रेसलेट उसे टॉयलेट के आस-पास से मिला था.

कल्पना कीजिए कि कैसा रहा होगा वह क्षण एलोईस के लिए! वे बार-बार उस ब्रेसलेट को देख रही थीं,  छू रही थीं और फिर हाथ में पहन कर महसूस कर रही थीं जैसे उनकी अपूर्णता पूर्णता में तबदील हो गई है. इक्कीस घण्टों का सफ़र तै कर जब एलोईस अपने घर लौटीं तो उनका ध्यान इस बात पर गया कि वहां मां की हर तस्वीर में उनकी कलाई में यह ब्रेसलेट मौज़ूद था. उन्हें लगा कि जीवन की सबसे मूल्यवान वस्तु अब उनके पास है! और वे सोच रही थीं कि जब अगली किसी यात्रा पर निकलेंगी तो इस ब्रेसलेट को पहन कर जाएं या नहीं?  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.