जॉसेट ऑडिन की उम्र अब 87
वर्ष है लेकिन उन्हें पचास के दशक की वे तमाम घटनाएं जस की तस याद हैं. एक लम्बी
लड़ाई लड़ी है उन्होंने, और अब जब वह लड़ाई एक सार्थक परिणति तक पहुंच गई है तो उन्हें
गहरा संतोष है कि उनके प्रयत्न व्यर्थ नहीं गए. क्या और क्यों थी उनकी लड़ाई? पचास के दशक में
जॉसेट अल्जीयर्स विश्वविद्यालय में गणित
की पढ़ाई कर रही थीं. एक लेक्चर के दौरान उनकी नज़रें मॉरिस से मिलीं, पहली नज़र में
प्यार हुआ और अंतत: उन्होंने शादी कर ली. उनकी खुशियों भरी ज़िंदगी में तीन नन्हें फूल खिले और सब कुछ बहुत खुशनुमा था. यह वह समय
था जब उनका देश अल्जीरिया फ्रांसिसी शासन से
अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था. जॉसेट और मॉरिस भी अपनी तरह से इस संघर्ष में योग दे रहे थे. लेकिन
इनका योगदान सशस्त्र संघर्ष के रूप में न
होकर वैचारिक और प्रचार के स्तर तक सीमित था. ये दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से
जुड़े थे. 1957 में मॉरिस विश्वविद्यालय में गणित पढ़ा रहा था और जॉसेट घर पर रहकर
बच्चों का लालन-पालन कर रही थी. तभी स्थानीय पुलिस को पता चला कि ऑडिन दम्पती ने अपने घर में एक ऐसे कम्युनिस्ट नेता को शरण
दे रखी है जिसकी पुलिस को तलाश है.
एक रात पुलिस ने ऑडिन
दम्पती के घर का दरवाज़ा खटखटाया और मॉरिस को, जिनकी उम्र तब मात्र
पच्चीस बरस थी,
अपने
साथ ले गई. उनकी पत्नी ने जब यह पूछा कि मॉरिस को कब तक छोड़ दिया जाएगा, तो उन्हें बताया
गया कि अगर सब कुछ ठीक पाया गया तो उन्हें
आधे घण्टे में मुक्त कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. करीब दो या तीन
सप्ताहों के बाद जॉसेट को सूचित किया गया कि उनके पति फरार हो गए हैं. विडम्बना यह
कि उन्हें यह सूचना ‘अच्छी ख़बर’ कहकर दी गई. जॉसेट भी समझ गई थी कि इस ख़बर का असल
अर्थ क्या है. बाद में उन्हें एक नज़दीकी दोस्त से, जो कि मॉरिस से अगले दिन
गिरफ्तार किया गया था पता चला कि मॉरिस को एक टेबल पर बांधकर भयंकर यंत्रणा दी गई थी. जॉसेट जानती थी कि उनका
मॉरिस अब कभी नहीं लौटेगा, लेकिन वे यह बात आधिकारिक रूप से जानना चाहती थीं.
यही उनका संघर्ष था.
जॉसेट के पास न धन बल था, न और कोई ताकत.
उनके पास बस थी कलम और लड़ते रहने का जज़्बा. जिस किसी को वे लिख सकती थीं, उसे उन्होंने
लिखकर गुहार की. पत्रकारों को, राजनेताओं को सबको उन्होंने लिखा, लिखती रहीं. इसी
बीच 1962 में अल्जीरिया को फ्रांसिसी दासता से मुक्ति भी मिल गई. कुछ बरसों बाद जॉसेट भी
अपने बच्चों को लेकर पेरिस चली गईं. लेकिन उन्होंने अपना संघर्ष ज़ारी रखा. इसी बीच उन्हें टुकड़ों टुकड़ों में यह जानकारी
मिली कि किस तरह मॉरिस को यातनाएं दी गईं. एक वरिष्ठ गुप्तचर अधिकारी ने तो यहां
तक स्वीकार कर लिया कि उन्होंने ही मॉरिस को मारने का आदेश दिया था. लेकिन जॉसेट
तो इस बात की आधिकारिक स्वीकृति की तलबगार थीं. उनकी बेटी मिशेल ने कहा, “मेरी मां किसी से
यह नहीं चाह रही थी कि वो क्षमा याचना करे. वे तो बस सच्चाई जानना और इस बात को
स्वीकार करवाना चाहती थी कि इस सबके लिए फ्रांसिसी निज़ाम उत्तरदायी था.” जॉसेट का
पत्र लिखना ज़ारी रहा. अधिकांश पत्र अनुत्तरित रहे, बहुत कम का उन्हें जवाब
मिला. लेकिन आखिरकार उनके प्रयत्नों की जीत हुई. सन 2014 में फ्रांस के राष्ट्रपति
फ्रांसुआ होलांद ने पहली बार आधिकारिक रूप से इस बात को स्वीकार किया कि मॉरिस की मृत्यु हिरासत में हुई थी.
लेकिन होलांद के बाद
राष्ट्रपति बने इमैनुएल मैक्रों ने तो कमाल ही
कर दिया. मॉरिस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा होगा. जॉसेट उन्हें कोई
पत्र लिखती उससे पहले ही उन्होंने खुद पहल करते हुए जॉसेट से सम्पर्क किया और उसे
एक पत्र लिखा. बात यहीं ख़त्म नहीं हो गई. कुछ समय बाद बाकायदा एक सरकारी घोषणा
पत्र ज़ारी किया गया जिसमें मॉरिस की मृत्यु के लिए फ्रांसिसी सरकार के उत्तरदायित्व
को स्वीकार किया गया. उन्होने कहा कि एक ऐसी व्यवस्था बना ली गई थी जिसमें किसी भी
संदिग्ध घोषित किये गए व्यक्ति को पकड़ कर उससे पूछताछ करने के नाम पर उसे भयंकर
यातनाएं दी जाती थीं. राष्ट्रपति खुद
जॉसेट के घर गए और उन्होंने यह कहते हुए कि मॉरिस को यातनाएं देने के बाद मारा गया
अथवा उन्हें इतनी यातनाएं दी गईं कि उनकी मृत्य हो गई, जॉसेट व उनके परिवार के
लोगों से माफ़ी मांगी.
बेशक जॉसेट ने जीवन में जो
खोया वह उन्हें नहीं मिला, लेकिन यह बात भी कम महत्व की नहीं है कि उनका अनवरत
संघर्ष अकारथ नहीं गया और एक शक्तिशाली राष्ट्र के मुखिया ने उनसे सार्वजनिक क्षमा
याचना की.
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टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 जनवरी, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.