Tuesday, October 30, 2007

दर्शक दीर्घा में बैठकर न देखें प्रजातंत्र का खेला

अब तक महिला विषयक लेखन के लिए सुपरिचित बेस्ट सेलर लेखिका नाओमी वुल्फ अपनी नई किताब ‘द एण्ड ऑफ अमरीका: लेटर ऑफ वार्निंग टू अ यंग पैट्रिअट’ के माध्यम से अपने देशवासियों को आगाह करती हैं कि उनके देश में प्रजातंत्र का बने रहना इस बात पर निर्भर है कि वे उसमें कितनी भागीदारी निबाहते हैं. यूरोपीय व अन्य देशों के सत्तावादी उभारों के इतिहास का स्मरण करते हुए वह भयावह आशंका जताती है कि अमरीका में भी ऐसा हो सकता है. वुल्फ बताती हैं कि किस तरह दुनिया के तमाम निरंकुश अत्याचारी शासक एक खास क्रम में उठाये गए दस कदमों से प्रजातंत्र को कुचलते रहे हैं. ये दस कदम हैं : सबसे पहले आंतरिक और बाह्य संकट का हौव्वा खडा किया जाए, गुप्त कारागार स्थापित किए जाएं, एक पैरा मिलिट्री फोर्स बनाई जाए, आम नागरिकों की निगरानी शुरू की जाए, नागरिक समूहों में घुसपैठ की जाए, मनमाने तरीके से नागरिकों की पकड-धकड की जाए और बिना किसी तर्क के उन्हें छोड भी दिया जाए, मुख्य व्यक्तियों को निशाना बनाया जाए, प्रेस को नियंत्रित किया जाए, आलोचना को ‘जासूसी’ का और असहमति को ‘देशद्रोह’ का नाम दिया जाए, और न्याय पूर्ण व्यवस्था को नष्ट किया जाए. सारी दुनिया में इन कदमों का प्रयोग खुले समाजों को बर्बाद करने में किया जाता रहा है.
नाओमी वुल्फ की यह किताब भयावह है क्योंकि यह अमरीका के आज के घटनाक्रम और बीसवीं शताब्दी के मध्य के उस घटनाक्रम में साम्य दर्शाती है जिसकी परिणति फासीवाद और द्वितीय विश्व युद्ध में हुई थी. वुल्फ ज़ोर देकर कहती हैं कि समाज तानाशाही की तरफ यकायक नहीं मुड जाया करते. प्राय: होता यह है कि ज़्यादातर लोगों की सामान्य नियमित दिनचर्या अप्रभावित रहती है. हो सकता है कि हम ‘अमरीकन आइडल’ देखते रहें, मॉल में जाकर पिज़्ज़ा ऑर्डर करते रहें और उसी वक़्त हमारी आज़ादी हमसे छीनी जाती रहे. इसीलिए वे कहती हैं कि अमरीका आज जिस रास्ते पर चल रहा है वह डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि आज़ादी का लोप तो सबको ही प्रभावित करेगा.
वुल्फ पूरी ऊर्जा और शिद्दत से यह एहसास कराती है कि बुश प्रशासन की नीतियों की वजह से उनका देश एक खतरनाक फासिस्ट शिफ्ट से गुज़र रहा है. वे कहती हैं कि फासीवाद तानाशाही के बगैर भी पनप सकता है.
हालांकि आम अमरीकी यह मानने को तैयार नहीं होता कि 9/11 के बाद उसका देश किसी भी तरह नाज़ी जर्मनी और चिली के फासीवाद और सर्वसत्तावादी कालखण्ड के समकक्ष बनता जा रहा है, लेकिन एक बहुत छोटे किंतु प्रतिबद्ध प्रकाशक के यहां से प्रकाशित वुल्फ की महज़ 192 पृष्ठों की किताब यह स्थापित करने में पूरी तरह कामयाब है कि उन समाजों और आज के अमरीकी समाज के बीच की समानांतरता और समानताओं या कि अनुगूंजों को अनसुना नहीं किया जा सकता. इस तरह यह किताब एक साथ ही चौंकाती है, डराती है और हमारी संवेदनाओं को झकझोरती है.
नोआमी वुल्फ इस किताब में 30 के दशक के जर्मनी, 40 के दशक के रूस, 50 के दशक के पूर्वी जर्मनी, 60 के दशक के चेकोस्लोवाकिया, 70 के दशक के चिली और 80 के दशक के चीन के परिदृश्य से 2000 के बाद के अमरीका की समानताएं दिखाकर प्रजातंत्र के सम्भावित पटाक्षेप के खिलाफ जनमत जगाने का मूल्यवान प्रयास करती हैं. वे साफ शब्दों में कहती हैं कि प्रजातंत्र ऐसा तमाशा नहीं है जिसे दर्शक दीर्घा में बैठकर देख जाए. अमरीका के संस्थापकों ने ऐसे देश की कल्पना नहीं की थी जहां वकील, स्कॉलर, राजनीतिज्ञ जैसे प्रोफेशनल ही संविधान की व्याख्या और जनाधिकारों की चिंता करें. उन लोगों ने यह कभी नहीं चाहा था कि आम लोगों से अलग ताकतवर लोग आज़ादी की रक्षा करें. उन्होंने तो यह चाहा था कि आम लोग ही अपनी आज़ादी की रक्षा करें. अमरीका के संस्थापकों ने आज़ादी को नैसर्गिक, ईश्वर प्रदत्त और ऐसी व्यवस्था कभी नहीं कहा-समझा जिसमें सभ्यता स्वत: बनी रहेगी. बल्कि उन्होंने तो अत्याचार और दमन को यथास्थिति तथा स्वाधीनता को अपवाद माना. ऐसा अपवाद जिसको पाने के लिए संघर्ष किया जाए और जो अगर मिल जाए तो उसे सीने से लगाकर रखा जाए. नोआमी वुल्फ को शिकायत है कि अमरीकियों ने प्रजातंत्र को बहुत अगम्भीरता से लिया है, जबकि इसका तो अस्तित्व ही नागरिकों की सहभागिता और सक्रियता पर निर्भर है.
किताब अमरीका को सम्बोधित है, लेकिन हम भारतीयों के लिए भी इसकी प्रासंगिकता कम नहीं है. आज अमरीका इतनी बडी वैश्विक शक्ति बन चुका है कि वहां की हर छोटी-बडी हलचल शेष विश्व को भी प्रभावित करती है. अगर वहां प्रजातंत्र का क्षरण होता है तो उसका असर हम सब पर भी पडेगा. इस बात के अतिरिक्त भी, जो बातें नोआमी अमरीका को सम्बोधित कर कह रही हैं, उन्हें हमें भी सुनना और गुनना चाहिए. कभी पण्डित नेहरु ने भी तो कहा था : एटर्नल विजिलेंस इज़ द प्राइस ऑफ लिबर्टी.
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चर्चित पुस्तक :

The End of America: Letter of Warning To A Young Patriot
By Naomi Wolf
Publisher: Chelsea Green Publishing; White River Jct., VT 05001,USA
Pages: 192
US $ 13.95

[राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में दिनांक 30 अक्टूबर 2007 को मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' के अंतर्गत प्रकाशित.]

Tuesday, October 23, 2007

महान भारतीय गणितज्ञ के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास

जनवरी 1913 की एक सुबह. अपने समय के एक बहुत बडे ब्रिटिश गणितज्ञ जी. एच. हार्डी को भारतीय डाक टिकिट लगा एक रहस्यमय लिफाफा मिलता है. लिफाफे में है नौ पन्नों का एक बिखरा-बिखरा–सा पत्र. 23 साल के एक स्व-घोषित गणितीय जीनियस ने लिखा है कि उसने एक सार्वकालिक गणितीय गुत्थी को करीब-करीब सुलझा लिया है. हार्डी के कैम्ब्रिज के अनेक साथी कहते हैं कि यह पत्र फर्जी है, इसे गम्भीरता से लेने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन न जाने क्यों हार्डी को लगता है कि पत्र लेखक, भारतीय क्लर्क श्रीनिवास रामानुजन की बातों में दम है. वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर इस रहस्यमय रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उसे कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं. हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली.
एक जाने-माने ब्रिटिश गणितज्ञ और एक अनजान तथा औपचारिक शिक्षा से लगभग वंचित गणितीय जीनियस की विस्मयकारी लेकिन त्रासद अंत वाली सत्य कथा पर आधारित डेविड लीविट्ट का ताज़ा उपन्यास ‘द इण्डियन क्लर्क’ इतिहास के एक छोटे-से अंश को एक भावपूर्ण, मंत्रमुग्धकारी कथा में रूपांतरित करने का रोचक प्रयास है. इससे पहले डेविड लीविट्ट के ग्यारह उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें ‘द बॉडी जोनाह बॉय्ड’, ‘व्हाइल इंग्लैण्ड स्लीप्स’ और ‘ईक्वल अफेक्शन’ खासे चर्चित भी रहे हैं. ‘व्हाइल इंग्लैण्ड स्लीप्स’ एक गलत वजह से भी चर्चित रहा था. जाने-माने लेखक स्टीफेन स्पेण्डर ने इस पर नकल का आरोप लगाते हुए मुक़दमा ठोक दिया था और लीविट्ट को इसके कुछ अंश हटाने पडे थे.
ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ‘द इण्डियन क्लर्क’ का आरम्भ 1936 की एक घटना से होता है. एक बूढे प्रोफेसर, जाने-माने गणितज्ञ जी. एच. हार्डी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने उनके मित्र श्रीनिवास रामानुजन के जीवन और कार्यों पर व्याख्यान देने के लिए बुलाया है. रामानुजन को एक ऐसी विलक्षण गणितीय प्रतिभा के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है जिसका सानी कई शताब्दियों में भी नहीं है. हार्डी से दस साल छोटे रामानुजन मद्रास में गरीबी और गुमनामी की ज़िन्दगी जी रहे थे. उपनिवेशी शासन भला उनकी तरफ ध्यान क्यों देता? लेकिन हार्डी और उनके मित्रों के प्रयास से रामानुजन को यह अवसर मिला कि स्वदेश में उनकी जिस प्रतिभा को अनदेखा किया गया, उसका लोहा वे सारी दुनिया से मनवा सके. रामानुजन 1914 से 1919 के जिस काल खण्ड में इंग्लैण्ड में रहे वही इस उपन्यास का सबसे बडा हिस्सा है.
उपन्यास का नायक तमिल ब्राह्मण श्रीनिवास रामानुजन इंग्लैण्ड को बहुत रुचिकर और ऊष्मापूर्ण नहीं पाता. उसे वहां की सब्ज़ियां और मसाला रहित खाना बेस्वाद लगता है. लेकिन गणित उसके लिए आध्यात्म है, गणित के समीकरण मानो दैवीय अभिव्यक्ति हैं. हार्डी का सोच उससे भिन्न है. वे मानते हैं कि गणित और ईश्वर दो अलग-अलग सत्ताएं हैं. इन हाड-मांस के वास्तविक चरित्रों के साथ ही हैं दो और चरित्र जिनके सृजन में रचनाकार ज़्यादा छूट ले सका है. लेविस की पत्नी एलिस और हार्डी की विरूपित बहन गरट्रूड. एलिस रामानुजन से प्यार करने लगती है और गरट्रूड अपने विख्यात भाई की छाया और स्त्री होने के अभिशाप के घेरे में सिमट कर रह जाती है.
पहला विश्वयुद्ध न केवल बाह्य साम्राज्य की चूलें हिलाता है, वह इन चरित्रों के पारस्परिक रिश्तों की नीवों की नज़ाकत को भी उजागर करता है. युद्ध के कारण कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय न केवल अस्पताल में तब्दील हो जाता है, उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता पर प्रचार-तंत्र कब्ज़ा भी कर लेता है. विख्यात दार्शनिक बरट्रैण्ड रसेल को उनके शांतिमय विचारों के कारण जेल भेज दिया जाता है और हमारे जी. एच. हार्डी समझौता परस्ती का रास्ता अख्तियार कर अपनी प्रोफेसरशिप बचा पाते हैं. कहना अनावश्यक है कि डेविड लीविट्ट ने एक ऐसा विषय चुनने का दुस्साहस किया है जो उपन्यास की विधा के लिए उपयुक्त नहीं कहा जा सकता. उपन्यास की कथा बार-बार शिथिल पडती है. ऊपर से उनका विपुल शोध, जिसकी वजह से उपन्यास कभी-कभी जीवनी का आभास देने लगता है. लेकिन बावज़ूद इन बातों के, जब लीविट्ट गणित और उसके विरोधाभासों को मानवीय रिश्तों के सामने रखते हैं तो एक मार्मिक रूपक यह उभरता है कि कैसे अत्यंत सशक्त रिश्ते तर्क और कल्पना का अतिक्रमण कर जाया करते हैं.

इस उपन्यास का जितना महत्व अब अफसाना बन चुके श्रीनिवास रामानुजन के जीवन, संघर्ष और योगदान को उभारने में है, उतना ही बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इंग्लैण्ड के जीवन की बारीक पडताल में भी है. हम भारतीयों को तो लीविट्ट का विशेष रूप से आभार मानना चाहिए कि उन्होंने इस विलक्षण गणितीय प्रतिभा के जीवन पर इतने गहन शोध के साथ यह उपन्यास रचा है.



Discussed book:
The Indian Clerk: A Novel
By David Leavitt
Published By Bloomsbury USA
Pages 496
US $ 24.95

यह आलेख दिनांक 23 अक्टूबर 2007 को 'राजस्थान पत्रिका' के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम 'वर्ल्ड ऑफ बुक्स' में प्रकाशित हुआ.

Saturday, October 20, 2007

दुनिया हमारे बगैर

तेज़ी से बढती दुनिया की आबादी और तकनीक का कल्पनातीत प्रसार. कहीं ऐसा तो नहीं कि मनुष्य प्रकृति से भी ज़्यादा शक्तिशाली बन गया है? हम बहुत तेज़ी से, हालांकि अनचाहे ही, मौसम को बदल रहे हैं, पारिस्थितिकी को बदल, प्रदूषित और यहां तक कि नष्ट कर रहे हैं, और अपने तथाकथित विकास को कुछ इस तरह धकिया रहे हैं कि इस पृथ्वी के अन्य जीवों को भी एक नए मानव-निर्मित विश्व से तालमेल बिठाने को मज़बूर होना पड रहा है.
ऐसे में, यह कल्पना कि अगर अचानक पूरी मानव-जाति लुप्त हो जाए तो क्या होगा?

यह दुष्टतापूर्ण कल्पना की है ‘ईको इन माय ब्लड’ (1999) पुस्तक के लेखक, जाने-माने और बहु पुरस्कृत पत्रकार एलन वाइज़मैन ने अपनी सद्य प्रकाशित किताब ‘द वर्ल्ड विदाउट अस’ में. वाइज़मैन ने सवाल किया है कि अगर कोई विषैला वायरस या किसी भी तरह की कोई हलचल रातों-रात हमारी इस पृथ्वी को जन-विहीन कर दे तो जो कुछ मानव ने अब तक बनाया-संजोया है वह और कब तक बचा रह सकेगा. बेशक वाइज़मैन की यह कल्पना शरारती है, एक हद तक रुग्ण भी, लेकिन है विचारोत्तेजक. और यह भी कि किताब इस सवाल पर ही खत्म नहीं हो जाती, इससे आगे भी जाती है. किताब की उपादेयता इस बात से और बढती है कि अपने इस सवाल का जवाब पाने के लिए लेखक ने सॉलिड साइंस और कल्पना का जो मिश्रण तैयार किया है वह हमें बहुत कुछ सोचने को विवश करता है.

वाइज़मैन कहते हैं कि मानव जाति के विलुप्त हो जाने के दो दिन बाद ही मैनहट्टन के सबवे’ज़ को सूखा रखने वाले पम्प काम करना बन्द कर देंगे, कुछ ही दिनों बाद टनल्स में पानी भर जाएगा, सडकों के नीचे की सारी मिट्टी बह जाएगी और सदियों तक बने रहने के लिए निर्मित गगन चुम्बी अट्टालिकाओं की नींवें ढहने लगेंगी. रोज़मर्रा काम में आने वाली चीज़ें फॉसिल बन जायेंगी और सारी धातुएं गल-पिघलकर लाल रंग की चट्टानों जैसी दीखने लगेंगी. हो सकता है कि मनुष्य के शुरुआती दौर की कुछ इमारतें ही स्थापत्य के अवशेष के बतौर बची रह जाएं. यह सारी कल्पना वाइज़मैन ने बगैर किसी आधार के नहीं कर डाली है. इसके लिए उन्होंने दुनिया भर के विशेषज्ञों से चर्चा की, पर्यावरण वैज्ञानिकों, कला संरक्षकों, प्राणी वैज्ञानिकों, तेल शोधकों, यहां तक कि धर्म गुरुओं से भी गम्भीर विमर्श किया और विश्व भर के महत्वपूर्ण स्थलों की यात्रा की. तब जाकर तैयार हुई है यह 336 पन्नों की रोमांचक, उत्तेजक, अवसादक और सम्मोहक किताब. किताब के पन्नों से गुज़रते हुए वाइज़मैन की नीयत साफ हो जाती है. हालांकि वे एक भयावह तस्वीर उकेरकर आगत से हमें डराते हैं लेकिन उनका मक़सद है हमें अपने अंधाधुंध विकास के खतरों के प्रति सजग करना.

वाइज़मैन ने अपने वृत्तांत को इस सोच के साथ बुना है कि अगर पृथ्वी पर से सारा मानवीय दबाव एकबारगी ही खत्म हो जाए तो उस की प्रतिक्रिया क्या और कैसी होगी ! हमने जबसे और जो-जो ज़्यादतियां उस पर की हैं, उनसे पहले का महौल पुनर्स्थापित होने में कितना समय लगेगा. मानव-निर्मित कंकरीट का जंगल नष्ट हो जाने के बाद असली जंगल कितने समय में उग सकेगा? और, आदम के इस धरा पर अवतरित होने से पहले के हालात और स्वर्गोपम धरा की वापसी होगी भी या नहीं. क्या प्रकृति मनुष्य के सारे पद चिह्न मिटा पायेगी?
पर्यावरण के बारे में ज़्यादातर समकालीन किताबें स्यापा करके खत्म हो जाती हैं. वे यह बताने के लिए कि हम उसे कैसे और कितना बरबाद कर रहे, प्राकृतिक विश्व का गुणगान करती हैं. निश्चय ही उनका उद्देश्य तो परिवर्तन होता है पर उस उद्देश्य में वे प्राय: कामयाब नहीं हो पातीं, बल्कि कभी-कभी तो होता यह है कि ऐसी किताबें नींद की गोली बन कर रह जाती हैं. ऐसे में वाइज़मैन की इस किताब का महत्व और भी अधिक है . यह हमारे समय की सबसे बडी समस्या पर सर्जनात्मक और दिलचस्प तरीके से विचार करती है. किताब इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से वाइज़मैन ने खुद का इलाज़ करने की पृथ्वी और मानवता की अद्भुत क्षमता को उजागर किया है. जब वे चेर्नोबिल की चर्चा करते हुए बताते हैं कि 1986 के भीषण विकीरण रिसाव के बाद अब वहां जंतुओं की वापसी होने लगी है, या उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच के असैन्यीकृत क्षेत्र में लगभग विलुप्त हो चुके पहाडी बकरे और चीते 1953 से ही दिखाई देने लगे हैं, तो अन्धेरे में प्रकाश की किरण नज़र आती है. इसी तरह जब वे यह कहते हैं कि मानवीकृत विनाश के बावज़ूद हमारी कला-संस्कृति के कुछ उत्कृष्ट नमूने तो बचे ही रहेंगे तो वे बहुत बारीकी से विनाश की विभीषिका के खिलाफ एक ऐसा मूलभूत और कारगर विकल्प सुझाते हैं जो हमारे अपने विलोपन पर निर्भर नहीं है. इस तरह यह किताब हमारे अपने चतुर्दिक के बारे में सार्थक चिंता के उम्दा प्रयास के रूप में सामने आती है.

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Friday, October 19, 2007

जो चाहोगे वही मिलेगा

माइकेल जे. लोज़ियर की ताज़ा किताब लॉ ऑफ अट्रेक्शन: द साइंस ऑफ अट्रेक्टिंग मोर ऑफ व्हाट यू वाण्ट एण्ड लेस ऑफ व्हाट यू डोण्ट जीवन की एक महत्वपूर्ण गुत्थी को सुलझाने और जीवन पथ को सुगम बनने का एक दिलचस्प प्रयास है. जीवन में कई बार ऐसा होता है कि आप किसी चीज़ के बारे में शिद्दत से सोचते हैं और अनायास वह आपको मिल जाती है, आप अपने किसी प्रिय को याद करते हैं और अचानक वह आपके सामने आ जाता है. आप सोचते हैं कि यह या तो संयोग है या भाग्य. लेकिन लोज़ियर कहते हैं कि यह लॉ ऑफ अट्रेक्शन का परिणाम है.
अपनी लॉ ऑफ अट्रेक्शन की अवधारणा को समझाते हुए लोज़ियर बताते हैं कि आप अपने जीवन में उसी को अपनी तरफ खींचते और प्राप्त करते हैं जिस पर आप अपनी ऊर्जा और ध्यान केन्द्रित करते हैं. कभी ऐसा आपके चाहने से, आपके जाने में होता है, कभी अनजाने में. बकौल लोज़ियर, हमारे जीवन में सब कुछ ऐसी ऊर्जा से निर्मित है जो एक खास स्तर पर कम्पायमान होती रहती है. जब किसी के मन में कुविचार आते हैं तो नकारात्मक ऊर्जा का संचार भी होता है. अधिकांश भाषाओं में ऐसे अनेक मुहावरें और कहावतें पाई जाती हैं जिनसे इस लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन की पुष्टि होती है, जैसे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे, बर्ड्स ऑफ द सेम फेदर फ्लॉक टुगेदर आदि.

लोज़ियर अपनी बात को और साफ करते हुए कहते हैं कि हम जिस तरह के भाव अपने मन में संचारित करते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन की वजह से वैसे ही और भाव उनके पास आते हैं. हमारी देह में भावों का यही कम्पन अनुभूतियों में तब्दील होता चलता है. उदाहरणार्थ, जब हम उत्साह, प्रेम, आत्म विश्वास या संतोष का अनुभव करते हैं तो यह कम्पन सकारात्मक होता है. इसके विपरीत, जब हम उदास, तनावग्रस्त, क्रुद्ध या लज्जित अनुभव करते हैं तब हमारा कम्पन नकारात्मक होता है. यही कारण है कि सुन्दर या प्रीतिकर को देखकर हम अच्छा अनुभव करते हैं और कुरूप या अप्रीतिकर को देखकर बुरा अनुभव करते हैं.
कहा भी जाता है कि हम अपना यथार्थ खुद रचते हैं. चाहे हम जान-बूझ्कर ऐसा करें या अनजाने में, हम सदा ही अपनी अनुभूतियों के अनुरूप ही व्यक्तियों और स्थितियों को आकृष्ट करते हैं. हम लगातार जैसा सोचते हैं, लॉ ऑफ अट्रेक्शन वैसी ही अनुभूतियों को उपजाकर तदनुरूप स्थितियां निर्मित कर देता है. और इसीलिए लॉज़ियर इस लॉ के ज़रिये हमें यह सिखाते हैं कि हम किस तरह उसे अपनी तरफ आकृष्ट कर सकते हैं जो हमें वांछित है और कैसे उसे दूर रख सकते हैं जिसे हम नहीं चाहते.

लॉज़ियर ऐसा करने के लिए एक त्रि-सूत्रीय फॉर्मूला सुझाते हैं. फॉर्मूला बहुत सरल है.
1. अपनी आकांक्षाओं को पहचानें अर्थात अपने जीवन के तमाम क्षेत्रों की विषमताओं को सीमित करें,
2. अपनी अनुभूतियों को उसके अनुरूप ढालें, अर्थात जो आप चाहते हैं उसी पर ध्यान केन्द्रित करें और जो नहीं चाहते हैं, उसकी तरफ से ध्यान हटायें, और
3. इसे विकसित होने दें, यानि ऐसा करने में जो मानसिक रुकावटें हैं , उन पर काबू पाएं.

इन तीन सूत्रों की क्रियान्विति के लिए लॉज़ियर कुछ व्यावहारिक तकनीकें भी सुझाते हैं और कहते हैं कि इनके सतत प्रयोग और अभ्यास से आप अपने सपनों को हक़ीक़त में बदल सकते हैं.

किताब रोचक तो है ही, सकारात्मक सोच का सहज विकास कर आपके जीवन को बेहतर बनाने के लिहाज़ से उपयोगी भी है. लोज़ियर कोई नई बात तो नहीं करते, लेकिन हमारी जानी हुई बात को नए, विश्वसनीय और प्रभावशाली तरीके से पेश ज़रूर करते हैं. लोज़ियर खुद कहते हैं कि वे अपने पाठक को यह नहीं सिखा रहे कि वे जीवन में कुछ कैसे हासिल करें, क्योंकि इस किताब को पढे बिना भी हम में से हरेक कुछ न कुछ तो हासिल करता ही रहता है. लोज़ियर तो बहुत सहज और सम्प्रेषणीय भाषा और शिल्प में केवल यह बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं उसे और बेहतर तरीके से कैसे करें. कैसे प्रयत्न पूर्वक कुछ हासिल करें, कैसे जीवन में जो काम्य है उसे अपनी ओर खींचने में सक्षम बनें और कैसे प्रयत्नपूर्वक उसे दूर रखें जिसे हम पास नहीं आने देना चाहते. अंतर केवल प्रयत्न का है. जो हम अनायासम, बिना प्रयत्न के हासिल कर रहे हैं, अगर समझ कर, प्रयत्न कर उसे हासिल करना चाहेंगे तो अधिक सफलता मिलना निश्चित है. इस तरह, लॉ ऑफ अट्रेक्शन हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को बेहतर बनाने में मददगार होने का प्रयास करती है. किताब हमें अपने शब्दों और विचारों के बारे में और अधिक सजग होने के लिए प्रेरित करती है और कम से कम इस बात के महत्व पर कोई असहमति नहीं हो सकती.
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भारत और चीन में आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में

दो बडे देश – चीन और भारत. दोनों ही एक अरब से ऊपर आबादी वाले और दोनों ही पारम्परिक. अब ये दोनों देश विश्व व्यापार जगत में पहले से जमे हुए देशों के लिए कडी चुनौती पेश कर रहे हैं. हांग कांग में रह रहीं, फॉर्ब्स पत्रिका की एशिया सम्पादक, बहु-पुरस्कृत पत्रकार रॉबिन मेरेडिथ ने अपनी 256 पन्नों की 16 जुलाई 2007 को प्रकाशित किताब ‘द एलीफेण्ट एण्ड द ड्रेगन : द राइज़ ऑफ इण्डिया एण्ड चाइना एण्ड व्हाट इट मीन्स फॉर ऑल ऑफ अस’ में इन दोनों देशों के इसी बदलाव की पश्चिमी और पूंजीवादी नज़रिये से पडताल की है.
रॉबिन मेरेडिथ कहती हैं कि अब ऐसा उत्पाद ढूंढना जो चीन में न बना हो और ऐसा तकनीकी सहयोग प्राप्त करना जिसका उद्गम भारत में न हो, क्रमश:कठिनतर होता जा रहा है. भारत में तेज़ी से पैर पसार रहे कॉल सेंटर व्यवसाय के बारे में वैसे भी बहुत कहा-लिखा जाता है. बकौल मेरेडिथ, इस बदलते परिदृश्य की परिणति कई रूपों में दिखाई देती है. वे बताती हैं कि 1978 में जहां शंघाई में मात्र 15 स्काई स्क्रेपर (गगन चुम्बी भवन) थे, अब उनकी संख्या 3800 हो गई है. इतने स्काई स्क्रेपर तो शिकागो और लॉस एंजिलस में मिलाकर भी नहीं हैं. इधर दुनिया की सबसे बडी दस सूचना प्रौद्योगिकी कम्पनियों में से तीन भारत में अवस्थित हैं. इतना ही नहीं, अकेले आई बी एम में 53 हज़ार लोग काम करते हैं जबकि 1992 तक यह कम्पनी भारत में थी ही नहीं.
लेकिन सब कुछ इतना अच्छा भी नहीं है. दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से बीस चीन में हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि चीन इस पर्यावरणीय विभीषिका से तो बच भी जाए, आर्थिक विनाश से नहीं बच सकेगा क्योंकि वहां की सत्तर प्रतिशत सार्वजनिक कम्पनियां बेकार हैं. खुद चीनी प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं कि वहां की अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित और असमन्वित है. यह भी अनुमान है कि चीन की बैंक व्यवस्था चरमरा रही है. भारत के बारे में भी कई बातें चिंताजनक हैं. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी अभी भी निरक्षर है, यहां के साठ प्रतिशत लोग अभी भी कृषि पर निर्भर हैं और बमुश्किल दो वक़्त की रोटी जुटा पाते हैं क्योंकि खेती करने के उनके तौर-तरीके बेहद पुराने हैं. अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के बारे में जितना अच्छा कहा जाता है, उसका उलट भी उतना ही सही होता है.

मेरेडिथ ने दोनों देशों में आये बदलाव की विवेचना करते हुए बताया है कि चीन में बाज़ार केन्द्रित आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1978 में और भारत में 1991 में हुई. इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि अकेले नब्बे के दशक में दोनों देशों में कुल मिलाकर बीस करोड लोग गरीबी से निज़ात पा सके. अगर दोनों देशों की आर्थिक प्रगति की रफ्तार पर एक नज़र डालें तो पाते हैं कि 1980 में जहां चीन और भारत जीडीपी और पर केपिटा इन्कम के मामले में समान धरातल पर थे, 2000 तक आते-आते चीन का जीडीपी भारत से दुगुना हो गया और निर्यात के मामले में उसकी रफ्तार भारत से आठ गुना ज़्यादा हो गई. आखिर ऐसा कैसे हुआ? मेरेडिथ के अनुसर, चीन ने भारत से तेईस साल पहले माओवादी बन्द अर्थव्यवस्था को तिलांजलि देकर मुक्त बाज़ार केन्द्रित अर्थ व्यवस्था को अपना लिया. मेरेडिथ बताती हैं कि चीन में माओ की सामूहिक कृषि नीति की वजह से 1959 से 1962 तक तीन से चार करोड लोग भुखमरी के शिकार हुए थे. सांस्कृतिक क्रांति के दौर में वहां की लगभग सारी यूनिवर्सिटियां बन्द हो गई थीं. भारत में भी, आज़ादी के बाद के समाजवादी रुझान और केन्द्रीय योजना के कारण आर्थिक विकास की दर बहुत धीमी रही. निकम्मी, संरक्षणवादी उद्यमी नीतियों ने गरीबी का उन्मूलन नहीं, उसका संरक्षण किया. मेरेडिथ ने भारत के एक पूर्व वित्त मंत्री को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि हमने कुछ बरस पहले प्रतिस्पर्धी एजेण्डा अपना कर गरीबों के लिए जितना कर दिया उतना तो हम कई दशकों के गरीबी हटाओ एजेण्डा के माध्यम से भी नहीं कर पाये थे.

जैसा मैंने प्रारम्भ में इंगित किया, किताब पश्चिमी नज़रिये को केन्द्र में रखती है. इसीलिए मेरेडिथ इस बात की भी चर्चा करना नहीं भूलती कि इन दोनों देशों में जो हो रहा है उससे अमरीका का रोज़गार (आउट सोर्सिंग और ऑफ शोरिंग की वजह से) इन दोनों देशों में स्थानांतरित होता जा रहा है. लेकिन, यह चर्चा करने के बाद वे अपने अमरीकी पाठकों को सांत्वना देना भी नहीं भूलतीं कि उन्हें दुखी नहीं होना चाहिये क्योंकि सस्ते उत्पाद और सस्ती सेवाओं का फायदा भी तो उन्हीं को मिल रहा है. और यही अमरीकी पक्षधरता और पूंजीवाद की एक तरफा हिमायत इस किताब की सबसे बडी सीमा है. मेरेडिथ तस्वीर का एक ही रुख सामने लाती हैं. मुक्तबाज़ार व्यवस्था कैसे इन दोनों देशों के जीवन में बहुत सारी विकृतियां ला रही हैं, अगर मेरेडिथ उन पर भी कुछ कहतीं तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगता. लेकिन वे क्यों कहतीं? तब मुक्त बाज़ार और पूंजीवाद की तस्वीर इतनी उजली कैसे प्रस्तुत हो पाती?


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लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना

कुछ असफ़लताओं की परिणति इतनी सुखद होती है कि उन्हें असफ़लता कहते भी संकोच होता है। 49 वर्षीय अमरीकी पर्वतारोही ग्रेग मोर्टेन्सन की असफ़लता का किस्सा कुछ ऐसा ही है। मिरगी ने ग्रेग की 23 वर्षीया बहिन क्रिस्टी को उससे जुदा कर दिया तो ग्रेग ने 1993 में एक पर्वतारोहण अभियान के द्वारा दुनिया की दूसरी सबसे ऊंची चोटी, काराकोरम श्रंखला की के-2 पर विजय प्राप्त कर उसका नेकलेस वहां स्थापित करने की ठानी। दुर्भाग्य (या इसे सौभाग्य कहा जाए!) से ग्रेग अभियान में नाकामयाब रहे। इतना ही नहीं, इस जोखिम भरे अभियान से लौटते हुए वे अपने समूह से बिछड़ कर भटकते हुए उत्तरी पाकिस्तान के ऐसे दुर्गम क्षेत्र में जा पहुंचे जहां न पानी था, न खाना और न कोई आश्रय। तब उन्हें सात सप्ताह तक शरण और मदद देकर उनकी जान बचाई उस छोटे-से गांव के भोले-भाले बाशिन्दों ने। उसी दौरान ग्रेग ने देखा कि गांव इतना दरिद्र है कि एक शिक्षक का वेतन तक नहीं जुटा सकता और वहां के 84 बच्चे रेत पर लकड़ी की डंडियों से लिखने का प्रयास करते हैं। गांव वालों के प्रति प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ग्रेग ने वादा किया कि वे उस गांव का पहला स्कूल बनवायेंगे। और ग्रेग का यही वादा बन गया हमारे वक़्त की निहायत अविश्वसनीय मानवीय महागाथा जहां मात्र एक आदमी अपने विश्वास के बल पर ऐन तालिबान पैदा करने वाली धरती पर आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई में स्कूल और शिक्षा को हथियार बनाने में कामयाब होता है। ग्रेग खुद कोई अमीर नहीं थे। उन्होंने अपने घर सेन फ़्रांसिसको लौट कर अमरीका के 580 धनी मानी लोगों को खत लिखे। एन बी सी के टॉम ब्रोकॉ एकमात्र ऐसे सज्जन थे जिन्होंने जवाब में सौ डॉलर का चैक भेजा। ग्रेग ने अपना सब कुछ भी बेच डाला, लेकिन इससे भी महज़ दो सौ डॉलर ही जुट पाए। वे हताश होने ही को थे कि विस्कान्सिन के स्कूली बच्चों ने पेनी-पेनी जोड़कर 623 डॉलर उन्हें भेजे। इस बात से औरों को भी प्रेरणा मिली, अभियान ने गति पकड़ी और ग्रेग ने अगले एक दशक में सेण्ट्रल एशिया इन्स्टीट्यूट नामक अपने संगठन के माध्यम से पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के उस निहायत दुरूह, दुर्गम, दरिद्र और खतरनाक इलाके में खास तौर पर लड़कियों के लिए 58 स्कूल बनवा डाले। इस साल ये स्कूल कुल मिलाकर 24,000 बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं जिनमें से 14,000 लड़कियां हैं।
तो, एक असफ़ल पर्वतारोहण अभियान के सफ़ल शिक्षादान अभियान में परिणत होने की रोचक, रोमांचक और प्रेरक गाथा है ग्रेग मोर्टेन्सन की किताब ‘थ्री कप्स ऑफ़ टी : वन मेन्स मिशन टू प्रोमोट पीस……वन स्कूल एट अ टाइम’ । 6 मार्च 2006 को हार्ड कवर में प्रकाशित इस किताब का पेपर बैक संस्करण हाल ही में आया है। इस बीच इस किताब को किरियामा प्राइज़ फ़ॉर नॉन फ़िक्शन, न्यूयॉर्क टाइम्स का बेस्ट सेलर सम्मान, टाइम मैगज़ीन की ओर से एशियन बुक ऑफ़ द ईयर, मोण्टाना ऑनर बुक अवार्ड आदि मिल चुके हैं। मोर्टेन्सन के सह लेखक हैं डेविड ऑलिवर रेलिन। रेलिन विस्तार से ग्रेग के प्रयत्नों का वर्णन करते हैं, गांव के प्रेरक चेहरों को उकेरते हैं और मुज़ाहिदीन, तालिबान अफ़सरों तथा महत्वाकांक्षी लड़कियों से हमारी मुलाक़ात कराते हैं। जिन इलाकों में ये लोग काम कर रहे थे वहां अमरीकियों को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता। मोर्टेन्सन को भी अगवा करने की कोशिशें हुईं, नाराज़ मुल्लाओं ने दो बार उनके खिलाफ़ फ़तवे जारी किए, 9/11 के बाद अमरीकियों ने उन्हें मुस्लिमों के बीच काम करने के लिए डराया धमकाया, लेकिन वे अपने मिशन से नहीं डिगे। नेल्सन मण्डेला ने कहा था कि दुनिया को बदलने के लिए शिक्षा से अधिक कारगर कोई हथियार नहीं है। अपने अनुभवों ने मोर्टेन्सन को भी यही सिखाया है कि आतंकवाद से लड़ाई बमों से नहीं किताबों से ही लड़ी जा सकती है। उन्होंने कहा भी है कि आप कण्डोम बांट सकते हैं, बम गिरा सकते हैं, सड़कें बना सकते हैं, बिजली ला सकते हैं, लेकिन लड़कियों को शिक्षित किए बगैर समाज को नहीं बदल सकते।
368 पन्नों की यह किताब दिलचस्प होने के साथ ही प्रेरक भी है। कुछ समीक्षकों ने इसे अपने समय की महत्वपूर्ण साहस गाथा कहा है तो कुछ ने कहा है कि यह हमारे समय को जानने-समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ‘तालिबान : मिलिटेण्ट इस्लाम, ऑयल एण्ड फ़ण्डामेण्टलिज़्म इन सेण्ट्रल एशिया’ नामक चर्चित किताब के लेखक अहमद रशीद ने तो यहां तक कहा है कि मोर्टेन्सन जो काम कर रहे हैं –निर्धनतम बच्चों को सन्तुलित शिक्षा देने का– उसकी वजह से अतिवादी मदरसों के लिए नए रंगरूट जुटाना मुश्क़िल होता जा रहा है। मुझे इस सन्दर्भ में अल्बेयर कामू याद आते हैं जिन्होंने कहा था कि लेखक का काम है सभ्यताओं को नष्ट होने से बचाना। यह किताब इस कथन की पुष्टि करती है।

आतंकवाद का अंतरंग

न्यूयॉर्कर के स्टाफ राइटर और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ के सेंटर ऑन लॉ एण्ड सिक्यूरिटी के फैलो लॉरेंस राइट की नई किताब ‘द लूमिंग टावर : अल क़ायदा एण्ड द रोड टू 9/11’ आतंकवाद के इतिहास पर एक सुचिंतित और विचारोत्तेजक रचना है. मध्यपूर्व मामलों में राइट की गहरी दिलचस्पी रही है और 11 सितम्बर (अमरीका में इसे 9/11 लिखा जाता है) की घटना के तुरंत बाद वे अल-क़ायदा की बीट पर भी रहे हैं. यह किताब लिखने के लिए उन्होंने पांच साल मेहनत की और मिश्र, सऊदी अरब, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सूडान, इंगलैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पैन और अमरीका में 560 इण्टरव्यू किए. जिनसे उन्होंने इण्टरव्यू किए उनमें बिन लादेन के कॉलेज के ज़माने के अंतरंग मित्र, रिचार्ड ए. क्लार्क, सऊदी राजपरिवार के सदस्य, अफगानी मुज़ाहिदीन और अल जज़ीरा के सम्वाददाता भी शामिल हैं. तब जाकर तैयार हुई यह किताब जो 11 सितम्बर की घटना के ठीक पहले के घटनाचक्र का सरसरी तौर पर हवाला देते हुए व्यक्तियों और विचारों, आतंकवादी योजनाओं और पश्चिमी खुफिया तंत्र की उस असफलता पर रोशनी डालती है जिसके कारण 11 सितम्बर घटित हुआ. द लूमिंग टॉवर पुस्तक का महत्व इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि इसे वर्ष 2007 में जनरल नॉन फिक्शन श्रेणी में प्रतिष्ठित पुलित्ज़र पुरस्कार प्रदान किया गया है.

द लूमिंग टावर का वृत्तांत चार लोगों की ज़िन्दगियों के सहारे आगे बढता है. ये चार हैं अल-क़ायदा के दो नेता ओसामा बिन लादेन और अयमान अल जवाहिरि, एफ बी आई के आतंकवाद निरोधी मुखिया जॉन ओ नील और सऊदी खुफिया विभाग के पूर्व हेड प्रिंस तुर्की अल फैज़ल. जैसे-जैसे इन चारों की ज़िन्दगी की परतें खुलती चलती हैं, हम आधुनिक इस्लाम की उन परस्पर विरोधी धाराओं से परिचित होते जाते हैं जिन्होंने जवाहिरि और बिन लादेन में आमूल-चूल परिवर्तन किया; हम यह भी जान पाते हैं कि अल-क़ायदा का जन्म और ऐसा विकास कैसे हुआ कि यह संगठन केन्या और तांजानिया में अमरीकी दूतावासों पर बमबारी करवा पाया, और ओ नील ने 11 सितम्बर से पहले अल क़ायदा की पडताल के लिए कैसे दुर्धर्ष प्रयास किए और कैसे वह बेचारा वर्ल्ड ट्रेड टॉवर्स में मौत का शिकार हुआ. किताब यह भी बताती है कि कैसे प्रिंस तुर्की बिन लादेन के साथी से उसका दुश्मन बना और कैसे एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए अपनी-अपनी सूचनाओं का साझा करने में नाकामयाब रहे.

यह सब समझाने के लिए लूमिंग टॉवर हमें अंतरंग वृत्तान्त देता है. यहां हम आधुनिक इस्लामी मूवमेण्ट के संस्थापक सईद कुत्ब से मिलते हैं जो 1940 के अमरीका में तन्हा और हताश हैं. हम बिन लादेन और जवाहिरि के शानदार बचपन की छवियां देखते हैं और परिचित होते हैं सूडान और अफगानिस्तान में अल-क़ायदा के अड्डों के पारिवारिक जीवन से. इन सबसे ज़्यादा दिलचस्प है ओ नील का रोमांचक-उत्तेजक व्यवसायी जीवन और उससे भी ज़्यादा दिलचस्प है उसकी निजी ज़िन्दगी जो वह तीन औरतों के साथ गुज़ारता है. मज़े की बात कि ये तीनों ही औरतें एक दूसरे के अस्तित्व से अनजान रहती हैं. कम दिलचस्प तो अमरीकी गुप्तचर एजेंसियों की पारस्परिक लडाइयां भी नहीं हैं.

किताब की शुरुआत राइट के इस विचार से होती है कि आतंक और हत्याओं के ‘उम्दा’ रिकॉर्ड के बावज़ूद द्वितीय महायुद्धोत्तर इस्लामी सैन्यवाद किसी भी अरब देश में मज़हबी निज़ाम कायम नहीं कर सका. इनमें से कईयों ने 1979 के रूसी हमले का प्रतिकार करने में अफगानिस्तान की मदद की. फिर इसके बेरोज़गार योद्धा अपने घर में सक्रिय हुए. 1988 में अफगानिस्तान में गठित अल-क़ायदा ने ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में एक अलग ही राह चुनी. यह राह थी इस्लाम की समस्याओं का ठीकरा अमरीका के सर फोडने की. राइट बताते हैं कि लादेन उतने अमीर नहीं हैं जितना उन्हें माना जाता है, लेकिन वे संगठन और जन सम्पर्क के माहिर हैं. दस साल बाद लादेन अफ्रीका में अमरीकी दूतावास उडाकर धन और रंगरूटों को अपनी तरफ आकर्षित करने की शानदार शुरुआत कर पाते हैं. अल-क़ायदा के कई अभियानों का विस्तृत ब्यौरा देते हुए राइट बताते हैं कि आतंक की योजना बनाना कितना जटिल और जोखिम भरा होता है. यहीं वे इस तरफ भी इशारा करते हैं कि 11 सितम्बर की दुर्भाग्यपूर्ण घटना नहीं घटती, अगर एफ बी आई, सी आई ए और एन एस ए ने तालमेल से काम किया होता.
पीटर बर्गेन की बहुचर्चित किताब ‘द ओसामा बिन लादेन आई नो’ (2006) को पढने के बाद यह किताब पढी जाए तो और भी अधिक महत्वपूर्ण लगेगी.
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Discussed book:
Title: The Looming Tower: Al-Qaeda and the Road to 9/11
Writer: Lawrence Wright
Page: 480
Publisher: Knopf

शीशे के दुर्ग से पीछे देखते हुए

न्यूयॉर्क शहर के पॉश इलाके से एक युवती टैक्सी से गुज़र रही है. अचानक उसकी नज़र एक औरत पर पडती है जो कचरे के डिब्बे में से कुछ बीन रही है. दोनों के बीच बमुश्किल पन्द्रह फुट का फासला है. युवती कार में नीचे झुक जाती है जिससे कि उस औरत की नज़र से बच जाए. वह घर पहुंचती है लेकिन सहज नहीं रह पाती. कारण? वह कचरा खंगालती औरत उसकी मां थी. पार्क एवेन्यू का महंगा अपार्टमेण्ट, मोतियों का बेशकीमती हार, कमरे में सजी बहुमूल्य कलाकृतियां और कचरे के ढेर में से खाने को कुछ ढूंढते और जैसे-तैसे ठण्ड से बचने का जुगाड करते मां-बाप! ये परस्पर विपरीत छवियां उसे बेचैन करती हैं.
कुछ दिनों बाद यही युवती मां को सन्देश भेजती है कि वह उसके घर आए. लेकिन मां रेस्तरां में मिलना पसन्द करती है क्योंकि उसे बाहर खाना ज़्यादा अच्छा लगता है. रेस्तरां में पहुंच कर मां आहिस्ता-आहिस्ता नमक-मिर्च-सॉस-शक्कर वगैरह की पुडियाएं अपने पर्स में खिसकाती रहती है, कुछ सूखे नूडल्स भी पर्स में डाल लेती है, ताकि “बाद में भी कुछ नाश्ता हो सके.” और यह करते हुए बेटी से पिकासो की चित्रकला पर गम्भीर चर्चा भी करती रहती है. बेटी के यह कहने पर कि वह मां की कुछ मदद करना चाहती है, मां किसी ब्यूटी पार्लर में जाने की तमन्ना का इज़हार करती है. ज़ाहिर है, बेटी को यह जंचता नहीं. वह कहती है कि वह तो मां की कोई ऐसी मदद करना चाहती है जिससे उसकी ज़िन्दगी बदल सके. मां जवाब देती है कि बदलाव की ज़रूरत उसे नहीं, बेटी को है क्योंकि उसका मूल्यबोध गडबड है. थोडी बहस होती है, और उसी दौरान बेटी मां को उस घटना की याद दिलाती है जिससे मैंने इस आलेख की शुरुआत की है. मां को ज़रा भी संकोच नहीं होता. वह पूरे आत्मविश्वास से कहती है कि इस देश के लोग बहुत अपव्यय करते हैं, वह तो उसी को दुरुस्त कर रही है. यानि मां (रोज़ मेरी) अपनी स्थिति से ज़रा भी दुखी नहीं है. यह मां एक कलाकार बनते-बनते रह गई थी. पिता रेक्स भी उससे अलग नहीं हैं. वे बहुत प्रबुद्ध हैं. दोनों जैसे एक दूसरे के लिए बने हैं : राम मिलाई जोडी. दोनों के गैर ज़िम्मेदाराना, झक्की और घुमक्कड जीवन ने चार बच्चों पर क्या क़हर बरपा किया होगा, इसका कुछ अन्दाज़ा उन्हीं चार में से एक, जीनेट वाल्स की इस संस्मरणात्मक किताब को पढकर लगाया जा सकता है.
कैसा होता है अपने त्रासद अतीत को आत्मीयता से याद करना? जीवन की जिन कटु, अप्रिय स्थितियों को आप पीछे छोड आए हैं, क्या उन्हें भी बगैर कडुआहट के पेश किया जा सकता है? जिन मां-बाप ने आपके प्रति अपने कर्तव्य निर्वहन की ज़रा भी चेष्टा नहीं की हो, उनको आखिर कितने अपनेपन से याद किया जा सकता है? इन और ऐसे अनेक सवालों के जवाब मिलते हैं फ्री- लांस लेखिका जीनेट वाल्स की संस्मरण पुस्तक ‘द ग्लास कासल’ को पढते हुए. जीनेट को उसके पिता पहाडी बकरी कहा करते थे. जीनेट ने अनायास ही अपने इस नाम को सार्थक कर दिया है. किताब में वह एक ऐसी लडकी के रूप में सामने आती है जिसने बहुत हिम्मत और कुशलता से अपने बाल्य-काल की ऊबड-खाबड और सीधी चढाई वाली ज़िन्दगी का सामना किया, जैसे पहाडी बकरियां किया करती हैं.
किताब में जीनेट बहुत मर्मस्पर्शी तरीके से अपने उस बचपन को सामने लाती है जहां उसे सेफ्टी पिन से जुडे जूते पहनने पडते थे और पैण्ट के छेदों को छिपाने के लिए अपनी त्वचा को मार्कर से रंगना पडता था. एक कामुक अंकल के यौनिक दुराचरण पर उसे यह शिक्षा दी गई कि ये सारी बातें मनगढंत हैं, और बाप ने तो हद्द ही कर दी, एक मदिरालय में उसी की दलाली कर डाली.. उसका बाप था तो बहुत बुद्धिमान, लेकिन कोई भी काम टिक कर करना उसकी फितरत में नहीं था. मां-बाप दोनों ही का खयाल था कि बच्चों को अपनी गलती से सीखने देना चाहिये, हालांकि खुद उन्होंने कभी कुछ नहीं सीखा और अंतत: सडक पर जा पहुंचे. लेकिन एक बात ज़रूर थी. वे अपने अभावों को लेकर कभी दुखी नहीं हुए. मां के पास तो हर बात के लिए सकारात्मक व्याख्या मौज़ूद थी. अगर फ्लैट की दीवारें बहुत ही पतली हैं तो क्या हुआ? पडौस की बातचीत सुन-सुनकर बच्चे बगैर ट्यूटर के थोडी बहुत स्पैनिश ही सीख लेंगे. पालतू जानवरों को खिलाने के लिए कुछ नहीं है तो क्या हुआ? वे अपने आप कुछ जुगाड करेंगे, उनमें आत्मनिर्भरता का गुण विकसित होगा. इतना ही नहीं, बेघरबार मां-बाप आत्मदया या हीनभाव से ग्रस्त नहीं हैं, इसमें उन्हें एडवेंचर नज़र आता है.
किताब की खासियत इस बात में है कि यहां लेखिका अपने मां-बाप के गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार की भर्त्सना करने की बजाय इस बात को अधिक उभारती है कि कैसे उन्होंने एक गैर-पारम्परिक जीवन जिया, वह भी अपनी शर्तों पर, और कैसे उस जीवन को जीते हुए वे गर्व से सर उठाये रहे. निश्चय ही जेनेट के मां-बाप का जीवन आदर्श जीवन नहीं था, लेकिन वह आम जीवन भी नहीं था. अपने कष्टों को नेपथ्य में कर जेनेट उन्हें इतनी आत्मीयता से याद करती है, यही बात इस किताब को भीड से अलग और महत्वपूर्ण बनाती है.
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Tuesday, October 16, 2007

लेखक का मनोजगत

साहित्य के लिए वर्ष 2006 का नोबल पुरस्कार पाने वाले, 1952 में जन्मे तुर्की लेखक ओरहान पामुक के निबन्धों और कहानी की नई किताब “अदर कलर्स : एस्सेज़ एण्ड अ स्टोरी” हमें एक बडे लेखक के मनोजगत में झांकने का विरल अवसर प्रदान करती है. पामुक पिछले तीन दशकों से साहित्य की दुनिया में सक्रिय हैं. उनके सात उपन्यास और अनेक निजी, चिंतनपरक और आलोचनात्मक निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं. नोबल पुरस्कार मिलने के बाद प्रकाशित इस पहली किताब में उनके इसी लेखन का एक उत्कृष्ट चयन संजोया गया है.

इस किताब में वे जैसे एक खिडकी खोलकर अपने जीवन की कुछ झांकियां हमें दिखाते हैं. बचपन में स्कूल के प्रति उनकी अरुचि, उनकी बेटी का अकाल अवसाद, धूम्रपान छोडने का उनका सफल संघर्ष, न्यूयॉर्क में अनायास टकरा गए एक फटीचर-से लुटेरे के खिलाफ बयान देने की आशंका से उपजा त्रास ऐसी ही कुछ झांकियां हैं. लेकिन वे केवल झांकियां ही नहीं देते. पासपोर्ट के लिए आवेदन करने या रिश्तेदारों के साथ किसी भोज में सहभागिता करने का विवरण देते-देते वे बहुत सहजता से आपको कल्पना की अद्भुत उडान पर भी ले जाते हैं. इसी तरह इस्ताम्बुल में आए एक भीषण भूकम्प के बाद के दिनों के हालात का वर्णन करते-करते वे हमें मनुष्य के मन के आदिम भय और उम्मीद के विशाल आकाश के सामने भी ले जाकर खडा करते हैं. पामुक ने खुद लिखा है कि “इस किताब में मेरे विचार, बिम्ब और जीवनांश हैं जो अब तक मेरे उपन्यासों में रूपायित नहीं हो पाये हैं”. लेकिन, इन सारे अंशों को एक साथ पढकर हम बहुत सघनता से जान पाते हैं कि उनके उपन्यासों की रचना किस गारे-मिट्टी से और किस चाक पर हुई है. अपने इस गैर-कथात्मक लेखन की अहमियत से पामुक अपरिचित नहीं हैं. तभी तो उन्होंने लिखा है, “इन अंशों को मैंने एक आत्मकथात्मक परिप्रेक्ष्य को केन्द्र में रखते हुए एक नई किताब के रूप में संजोया है.”
वैसे, पामुक बार-बार कथा की सामर्थ्य का बखान करते हैं, लॉरेंस स्टर्न और फ्योदोर दॉस्ताएवस्की जसे पुरोधाओं के लेखन के हवाले देते हैं, अपनी लिखी डायरियों से अंश उद्धृत करते हैं और खुद के उपन्यासों पर भी टिप्पणियां करते हैं. पामुक ने इस किताब में उपन्यास के महत्व पर बहुत बढिया टिप्पणी की है: “उपन्यास, कहानियां और मिथक पढकर हम उन विचारो से परिचित होते हैं जो हमारी दुनिया को संचालित करते हैं. कथा साहित्य हमें उन सच्चाइयों तक पहुंचाता है जिन्हें हमारे परिवार, हमारा स्कूल और हमारा समाज हमसे छिपाता रहा है. और, उपन्यास कला हमें खुद से यह पूछने की इज़ाजत देती है कि असल में हम कौन हैं?”

किताब के 75 से ज़्यादा अंशों में जो “जीना और सोचना”, “राजनीति, यूरोप और स्व की अन्य समस्याएं” जैसे खण्डों में विभक्त हैं, आत्म निरीक्षण और सांस्कृतिक विकास ये दो बिन्दु केन्द्रीय चिंता के रूप में उभरते हैं. उदाहरण के लिए, सहस्र रजनी चरित पर विचार करते हुए वे कहते हैं, “उन दिनों खुद को आधुनिक समझने वाले मुझ जैसे तुर्की पूर्वी साहित्य के क्लैसिक्स को एक गहन और अभेद्य जंगल की मानिन्द देखते थे.” पामुक का यह सोच उन्हें अंतत: राजनीतिक चिंताओं से जोडता है. एक जगह वे लिखते हैं, ”इराक में युद्ध के बारे में झूठी बातों और गुप्त सीआईए(CIA) कारागारों ने तुर्की में पश्चिम की विश्वसनीयता को इतना आहत किया है कि...देश के इस भाग में अब मुझ जैसे लोगों के लिए सही पश्चिमी जनतंत्र के लिए समर्थन जुटाना भी मुश्किल होता जा रहा है.”
जगहों, परिवार-जन और मिलने-जुलने वालों, लेखकों, संस्कृति, कला और राजनीति पर केन्द्रित ये लेख स्वतंत्र रूप से तो पठनीय और मननीय हैं ही, अपनी समष्टि में ये एक रचनाकार के रूप में पामुक की मानसिक संरचना से परिचित कराते हैं. पामुक बार-बार पढने और लिखने के समृद्धि कारक अनुभवों का गुणानुवाद करते हैं और अपनी इस पसन्द का ज़िक्र करते हैं कि टेबल के सामने अकेले बैठ कर सोचा जाए. उनके अनुसार लेखक का निर्माण एकांत, कल्पना और परकाया प्रवेश से होता है. पामुक के शब्द हैं, “ जब मैं लिखने की बात करता हूं तो सबसे पहले मेरे जेहन में कोई उपन्यास, कविता या साहित्यिक परम्परा नहीं आते, बल्कि एक ऐसा आदमी आता है जिसने खुद को एक कमरे में बन्द कर लिया है, वह टेबल के सामने बैठ गया है और अपने में डूब गया है. अनेकानेक छायाओं के बीच वह शब्दों से एक नई दुनिया रचता है...धैर्य से, ज़िद से, और उल्लास से.” और जब वह यह नई दुनिया रचता है तो उसके मन में यह खयाल बराबर बना रहता है कि उसकी अपनी जडें कहां हैं! जहां जडें हैं, वहां पूर्व और पश्चिम के बीच गहन संघर्ष है. यही कारण है कि प्रबुद्ध पाठक को पामुक के लेखन में ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ की अनुगूंजें सुनाई पडती हैं. पश्चिम की साहित्यिक परम्पराओं से भली-भांति परिचित पामुक अपने देश की साहित्य धारा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि “तुर्की को दो प्रवृत्तियों, दो भिन्न संस्कृतियों, दो आत्माओं से व्यथित नहीं होना चाहिए. खण्डित मानसिकता (स्किज़ोफ्रेनिया) तो आपको बुद्धिमान ही बनाती है”. क्या पामुक का यह सम्बोधन भारत में भी नहीं सुना और गुना जाना चाहिए?


Discussed book:
Other Colors: Essays and a Story
By Orhan Pamuk
Translated by: Maureen Freely
Publisher: Knopf

यह आलेख राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ठ ' जस्ट जयपुर' में दिनांक 16 अक्टूबर 2007 को प्रकाशित हुआ है.

Wednesday, October 10, 2007

भाषा के बारे में नया चिंतन

भाषिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में सुविख्यात और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को अक्सर झकझोरते रहने वाले 52 वर्षीय संज्ञानात्मक वैज्ञानिक स्टीवेन पिंकर ने अपनी नई किताब ‘द स्टफ़ ऑफ थॉट : लैंग्वेज एज़ अ विण्डो इण्टू ह्यूमन नेचर’ से एक बार फिर वैचारिक उत्तेजना का वातावरण उत्पन्न किया है. पिंकर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं और टाइम पत्रिका वर्ष 2006 में उन्हें विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल कर चुकी है. करीब पांच साल पहले प्रकाशित उन की किताब ‘द ब्लैक स्लेट : द मॉडर्न डिनायल ऑफ ह्यूमन नेचर’ बहु चर्चित रही है. अपनी इस नई किताब में उन्होंने अपने प्रिय दो क्षेत्रों – भाषा और मानव प्रकृति की अनूठी जुगलबन्दी प्रस्तुत की है. यहां पिंकर ने यह पडताल करने की कोशिश की है कि हमारे शब्द किस तरह हमारी प्रकृति (या स्वभाव) को उजागर करते हैं. अगर हम किसी को गाली भी देते हैं तो उससे हमारी भावनाएं अभिव्यक्त हो जाती हैं. हमारी वक्रोक्तियां हमारे रिश्तों को प्रकट कर डालती हैं. पिंकर कहते हैं कि हमारी भाषा के छोटे-से-छोटे उपकरण हमारे मनोभावों का परिचय दे देते हैं. यहां तक कि हम अपने बच्चों के जो नाम रखते हैं उनसे भी उनसे तथा समाज से हमारे रिश्ते प्रकट हो जाते हैं. पिंकर यहां एक शास्त्रीय प्रश्न से भी जूझते हैं कि क्या हमारी भाषा हमारे विचारों को प्रभावित करती है?पिंकर बताते हैं कि भाषा हमारे मस्तिष्क की संरचना का प्रतिरूप होती है. जब हम किसी चीज़ के बारे में बात करते हैं तो उसके पीछे हमारी मानसिक बनावट की बडी भूमिका होती है. यही कारण है कि हम एक ही बात को अलहदा-अलहदा स्थितियों में अलग-अलग तरह से कहते हैं. कभी हम कहते हैं कि मैं पानी पी रहा हूं, कभी – मैं गिलास से पानी पी रहा हूं, और कभी- मोहन मुझे पानी पिला रहा है. पिंकर कहते हैं कि मानव मस्तिष्क एक ही बात को अनेक तरह से अभिव्यक्त करने की क्षमता रखता है.
किताब के अलग-अलग अध्यायों में वे कार्य-कारण सम्बन्ध, नामकरण, गाली देना, और विनम्रता प्रदर्शन की उन उपकरणों के रूप में विशद व्याख्या करते हैं जिनके द्वारा हमारा मस्तिष्क सूचनाओं के प्रवाह को व्यवस्थित करता है. इसी सन्दर्भ में वे भाषा के लाक्षणिक और आलंकारिक प्रयोग पर विशेष बल देते हैं. पिंकर बताते हैं कि हम भाषा से दो काम लेते हैं. एक तो यह कि हम कोई सन्देश या सूचना देते हैं, और दूसरा यह कि उसी के द्वारा अपनी सामाजिक अवस्थिति की भी अभिव्यक्ति करते हैं. इस बात को वे एक उदाहरण से और स्पष्ट करते हैं. मान लीजिये आप डाइनिंग टेबल पर बैठे हैं और अपने पास बैठे व्यक्ति से कहते हैं : “क्या आप वह नमकदानी मुझे देने का कष्ट करेंगे?” पिंकर समझाते हैं कि यह वाक्य बोलकर आप न केवल नमकदानी मांग रहे हैं, आप यह भी जता रहे हैं कि आप दूसरे को ऐरा-गैरा नहीं मानते हैं, और आपका स्वभाव आदेश देने का नहीं है. इसलिए यह वाक्य बेवजह विनम्र और औपचारिक नहीं है, बल्कि आपके स्वभाव का द्योतक भी है.

किताब का एक रोचक अंश मनुष्य की गाली देने की प्रवृत्ति पर केन्द्रित है. पिंकर बताते हैं कि हम अपना गुस्सा पांच तरह से व्यक्त करते हैं : सेक्स, धर्म, मल-मूत्र त्याग, तिरस्कृत समूहों, और बीमारी-अपंगता विषयक अभिव्यक्तियों से. इन अभिव्यक्तियों में भी समय और समाज के अनुरूप परिवर्तन होता रहता है. मसलन कभी अंग्रेज़ी में अभिशाप के लिए ‘तुझे चेचक हो जाए’ जैसी अभिव्यक्ति प्रचलित थी. अब यह अभिव्यक्ति गायब हो गई है. कारण ज़ाहिर है. पिंकर यह भी बताते हैं कि गुस्से या शाप के लिए वर्जित शब्दों का प्रयोग तीव्र नकारात्मक भाव उपजाता है. इन शब्दों को पढने-सुनने से हमरे मस्तिष्क के बादाम के आकार वाले एक हिस्से जिसे एमिग्डाला के नाम से जाना जाता है में हलचल होती है. मस्तिष्क के इसी भाग में आक्रामकता, भय आदि नकारात्मक भावों की अवस्थितित मानी जाती है.
किताब का बहुत रोचक भाग है भाषा में आलंकारिकता या लाक्षणिकता के विश्लेषण वाला. जी नहीं, कवियों-लेखकों वाली आलंकारिक भाषा नहीं, बल्कि हमारी, आम आदमी की रोज़मर्रा की भाषा. भला इस भाषा में भी कोई आलंकरिकता हो सकती है? पिंकर ध्यान दिलाते हैं कि आप एक बार अपना बोला-लिखा एक पैरेग्राफ पढकर तो देखिए. आप पाएंगे कि उसमें पांच छह उपमा रूपक वगैरह मौज़ूद हैं. अगर आप गहराई से पडताल करें तो पाएंगे कि हमारा बोला हुआ 95% अलंकार ही है. ऐसा क्यों है? इसका जवाब भी पिंकर के पास है. वे कहते हैं कि मेटाफर यानि अलंकार नए विचारों को प्रकट करने का सरलतम तरीका है, क्योंकि इस तरह आप नई अभिव्यक्ति गढने के श्रम से बच जाते हैं. वे यह भी कहते हैं कि हमारा मस्तिष्क काम ही इसी तरह से करता है, यानि हम साम्यों के रूप में ही सोचते हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि हमारी भाषा में भी साम्य (अलंकार) खुद-ब-खुद चले आते हैं. पिंकर यह भी कहते हैं कि आलंकारिकता का प्रयोग संवाद के लिए नहीं होता, बल्कि आलंकरिकता तो खुद ही संवाद है.
तो, अगली बार जब भी कुछ बोलें, ध्यान रखें कि आप महज़ एक सूचना ही नहीं दे रहे हैं, अपना परिचय भी दे रहे हैं.
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Discussed book:
The Stuff of Thought: Language as a Window Into Human Nature
By: Steven Pinker
Publisher: Viking Adult
Page: 512
$ 29.95