Tuesday, July 30, 2019

इस ऑरकेस्ट्रा के वाद्य यंत्र सब्ज़ियों से बनते हैं!


ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना (जिसका जर्मन उच्चारण वीन है) जितनी अपनी खूबसूरती के लिए जानी जाती है उतनी ही अपनी सांगीतिक विरासत के लिए भी जानी जाती है. लुडविग वान बीथोवन, वोल्फ़गांक आमडेयुस मोत्सार्ट  और योहानेस  ब्राम्स जैसे शिरोमणि संगीतकारों  की यह धरती  इधर एक विलक्षण ऑरकेस्ट्रा की वजह से चर्चा में है. अपनी विलक्षणता की वजह से यह ऑरकेस्ट्रा न केवल गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में प्रवेश पा चुका है, इसके अनुकरण भी होने लगे हैं.

निश्चय ही आप यह पढ़कर चौंक उठेंगे कि इस ऑरकेस्ट्रा के वाद्य यंत्र धातु, लकड़ी  या चमड़े की बजाय ताज़ा फलों और सब्ज़ियों से बनाए जाते  हैं और इसलिए इसका नाम ही है वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा. पिछले इक्कीस बरसों से दस वाद्य यंत्रों वाला यह ऑरकेस्ट्रा दुनिया भर के संगीत रसिकों को अपना सुरीला और ताज़ा सब्ज़ियों की मोहक गंध से भरा संगीत सुना कर चमत्कृत कर रहा है. अब तक यह ऑरकेस्ट्रा करीब तीन सौ शो कर चुका है और इसका हर शो हाउस फुल रहा है. ऑरकेस्ट्रा विख्यात रॉयल एलबर्ट हॉल लंदन और शांघई आर्ट्स सेण्टर में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुका है. हाल  में इसने यूक्रेन के महल में पॉल मैकार्टनी के साठवें जन्म दिन पर भी अपनी स्वर लहरियां बिखेरीं. न सिर्फ़ इतना, इस ऑरकेस्ट्रा ने हाल ही में अपना चौथा एलबम भी ज़ारी किया है जिसे खूब सराहा जा रहा है.

वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा के संस्थापक सदस्य माथियास मायन्हार्टर बताते हैं कि इसकी शुरुआत मज़ाक-मज़ाक में हो गई. वे बताते हैं कि इस ऑरकेस्ट्रा के तीन अन्य सदस्यों के साथ वे वियना विश्वविद्यालय में आयोजित एक परफॉर्मेंस आर्ट फेस्टिवल में सहभागिता कर रहे थे. गपशप के दौरान एक सवाल यह उभरा कि किस चीज़ पर संगीत रचना सबसे ज़्यादा मुश्क़िल हो सकता है. यह एक संयोग ही था कि वे लोग उस समह सब्ज़ियों से बना सूप पी रहे थे. बात में से बात निकलती गई और इस तरह जन्म हुआ इस वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा का. इसका नाम वेजिटेबल ऑरकेस्ट्रा है तो यह आपने अनुमान लगा ही लिया होगा कि इसके तमाम वाद्य यंत्र सब्ज़ियों से निर्मित होते हैं.  और यह कहना अनावश्यक है कि धातु या लकड़ी की तुलना में सब्ज़ियों की अपनी बहुत अधिक सीमाएं हैं. पहली बात तो यह कि सब्ज़ियों से बने वाद्ययंत्रों की उम्र बहुत कम होती है. जैसे ही सब्ज़ी बासी होकर मुरझाने लगती है उसकी संगीत निर्माण की क्षमता भी ख़त्म होने लगती है. यही कारण है कि हर प्रस्तुति से पहले सुबह-सुबह इस ऑरकेस्ट्रा के तमाम सदस्य स्थानीय सब्ज़ी बाज़ार जाते हैं और बड़ी बारीकी से पड़ताल कर अपनी पसन्द व काम की सब्ज़ियां चुनते हैं. कद्दू, प्याज़, कुम्हड़े, बैंगन, खीरा, ककड़ी और भी न जाने क्या-क्या वे चुनते और खरीदते हैं. उनकी दिक्कत इस बात से और ज़्यादा बढ़ जाती है कि हर सब्ज़ी हर जगह नहीं मिलती. इतना ही नहीं एक जगह जो सब्ज़ी जैसी मिलती है, यह भी ज़रूरी नहीं कि दूसरी जगह भी वह सब्ज़ी वैसी ही मिले. और इन विभिन्नताओं की वजह से इन्हें बार-बार अपने वाद्य यंत्रों को लेकर प्रयोग करने पड़ते हैं. अब तक ये लोग कोई डेढ़ सौ वाद्य यंत्र इन किसम-किसम की सब्ज़ियों से बना चुके हैं. वाद्य यंत्रों की और उनसे उत्पन्न संगीत की निरंतर बदलती स्वर लहरियों के कारण ये लोग किसी रूढ़ किस्म के और लिपि बद्ध  संगीत को प्रस्तुत करने की बजाय हर बार नया कुछ रचते और प्रस्तुत करते हैं.

ताज़ा सब्ज़ियां खरीदने के बाद ये उन्हें लेकर  वहां आते हैं जहां शाम को इन्हें अपनी प्रस्तुति देनी होती है. वहां ये लाई गई सब्ज़ियों को विभिन्न चाकुओं और अन्य उपकरणों की मदद से छील-काट कर या खोखला कर वाद्य यंत्रों में बदलते हैं, उन्हें इस्तेमाल कर रिहर्सल जैसा कुछ करते हैं और फिर बड़ी सावधानी से उन सब्ज़ी निर्मित अनूठे वाद्य यंत्रों को गीले कपड़ों में लपेट कर सुरक्षित रखते हैं. इसके बाद शाम को ये उन्हीं वाद्य यंत्रों से सुरों का जादू जगाते हैं. लोग बड़ी उत्सुकता  से इन्हें देखते-सुनने आते हैं.  आने की पहली वजह तो इस ऑरकेस्ट्रा का अनूठापन ही होती है, लेकिन जैसे जैसे शाम आगे बढ़ती है, इन कलाकारों की साधना अपना जादू जगाने लगती है, लोग इनके सुरों के सम्मोहन में कैद हो जाते हैं. लेकिन जैसे-जैसे सुरों का यह कारवां आगे बढ़ता जाता है वैसे वैसे सब्ज़ियों से बने वे वाद्य यंत्र अपनी ताज़गी खोने लगते हैं. और तब एक-एक करके ये कलाकार अपने इन वाद्य यंत्रोंको श्रोताओं की तरफ उछालते हुए अपने कंसर्ट का रोचक समापन करने लगते हैं. कंसर्ट का यह आखिरी चरण श्रोताओं को दिलचस्प  भी लगता है और कारुणिक भी. बहुत सारे भावुक श्रोता तो कलाकारों से मांग-मांग कर इन वाद्य यंत्रों को बतौर स्मृति चिह्न अपने साथ ले जाते हैं. कभी-कभार  ऑरकेस्ट्रा के ये सदस्य अपने वाद्य यंत्रों को श्रोताओं को उपहार में देने की बजाय खुद ही उनका उपभोग कर लेते हैं – सूप बनाकर.

है ना रोचक बात!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 30 जुलाई, 2019 को किंचित परिवर्तित शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 23, 2019

ईमानदारी हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा


वर्ष 2013 से 2016 के बीच चालीस देशों के तीन सौं पैंतीस शहरों में एक ख़ास शोध परीक्षण किया गया. हर देश में पांच से आठ बड़े शहर इस परीक्षण के लिए चुने गए थे. शोध कर्ताओं ने अलग-अलग जगहों पर कुल सत्रह हज़ार वॉलेट ग़लतीसे गिरा दिये. इनमें से कुछ वॉलेट्स में लगभग साढ़े तेरह अमरीकी डॉलर की समतुल्य स्थानीय मुद्रा थी. कुछ वॉलेट्स में कोई धन राशि नहीं थी लेकिन उनके स्वामीगण के नाम पते वाले बिज़नेस कार्ड्स या अन्य कुछ दस्तावेज़ थे.

भारत में भी आठ शहरों में यह शोध परीक्षण किया गया था. यहां इसका स्वरूप यह था कि अलग-अलग शोधकर्ताओं ने यह प्रदर्शित किया कि उन्हें बैंक, थिएटर, होटल, पुलिस स्टेशन, डाकघर या अदालत जैसे सार्वजनिक भवनों में कोई चार सौ वॉलेट्स पड़े मिले हैं. इन शोधकर्ताओं ने सम्बद्ध भवनों के स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा गार्ड्स को ये वॉलेट्स सौंप दिये. इन वॉलेट्स में से कुछ में हरेक में दो सौ तीस  रुपये की करेंसी थी, तो कुछ में कोई धन राशि नहीं थी. लेकिन इन सभी वॉलेट्स में एक जैसे तीन विज़िटिंग कार्ड्स थे जिन पर सम्बद्ध व्यक्ति का नाम और उसका ईमेल  पता छपा हुआ था. इसके अलावा हर वॉलेट में एक सूची थी जिस पर खरीदी जाने वाली कुछ किराना सामग्री लिखी हुई थी और एक चाबी थी. वॉलेट्स को स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा गार्ड्स को सौंप देने के बाद शोध परीक्षण टीम के कुछ सदस्यों ने उन वॉलेट्स के स्वामियों की भूमिका निबाहते हुए यह परखा कि कितने लोग उन वॉलेट्स को लौटाने का प्रयास करते हैं.

यह सारा शोध परीक्षण इस बात की पड़ताल के लिए था कि दुनिया में ईमानदारी किस सीमा तक मौज़ूद है. सामान्यत: तो यही माना जाता है कि लोग थोड़े से फायदे के लिए अपना ईमान धर्म सब भूल जाते हैं. लेकिन इस प्रयोग के जो परिणाम साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं वे खासे चौंकाने वाले हैं. इन परिणामों से पता यह चलता है कि दुनिया में ईमानदारी हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा मात्रा में मौज़ूद है. शोधकर्ताओं का निष्कर्ष यह था कि “जैसे जैसे बेईमानी की वजह से बड़े फायदे नज़र आने लगते हैं, लोगों में ऐसा करने की आकांक्षा तीव्र होती जाती है, लेकिन इसी के साथ यह बात भी है कि लोगों में खुद को चोर के रूप में देखने का मनोवैज्ञानिक भय भी सर उठाने लगता है और बहुत बार यही भय उनकी बेईमानी करने की इच्छा पर भारी पड़ जाता है.”

अब ज़रा इस शोध के परिणामों पर भी एक नज़र डाल लेते हैं. जिन चालीस देशों में यह शोध परीक्षण किया गया उनमें से अड़तीस देशों के लोगों ने उन वॉलेट्स को लौटाने में विशेष रुचि दिखाई जिनमें पैसे थे. भारत में इस प्रयोग के तहत अहमदाबाद ,बेंगलुरु, कोयम्बटूर, हैदराबाद, जयपुर, कोलकाता, मुम्बई और दिल्ली इन आठ शहरों में तीन सौ चौदह पुरुषों और छियासी स्त्रियों ने ये वॉलेट्स विभिन्न सार्वजनिक इमारतों में स्वागतकर्ताओं या सुरक्षा कर्मियों को दिये. पाया गया कि उन लोगों ने पैसों वाले वॉलेट्स में से तियालीस प्रतिशत वॉलेट्स उनके स्वामियों को लौटा दिए, जबकि जिनमें कोई धन राशि नहीं थी उनमें से मात्र बाइस प्रतिशत वॉलेट्स ही लौटाए गए. पैसों वाले वॉलेट्स लौटाने के मामले में बेंगलुरु और हैदराबाद क्रमश: छियासठ और अट्ठाईस प्रतिशत के साथ सबसे ऊपर और सबसे नीचे रहे. बिना पैसों वाले वॉलेट्स लौटाने के मामले में कोयम्बटूर अट्ठावन  प्रतिशत के साथ अव्वल रहा. इस मामले में दिल्ली मात्र बारह प्रतिशत के साथ सबसे फिसड्डी रहा. और हां, वॉलेट्स लौटाने के मामले में स्त्रियां पुरुषों से बहुत आगे रहीं. भारत में यह प्रयोग करने वालों को कुछ रोचक अनुभव भी हुए. एक सार्वजनिक भवन के सुरक्षा प्रभारी ने यह शोध करने वाले से ही भवन में प्रवेश करने देने के लिए रिश्वत मांग ली. उस प्रभारी ने जमा कराया हुआ वॉलेट लौटाने का भी कोई प्रयास नहीं किया.

इसी प्रयोग को एक और प्रयोग से भी जोड़ कर देखा जा सकता है जिसमें एक विख्यात अमरीकी विश्वविद्यालय की डॉरमिट्री में रखे छह रेफ्रिजिरेटरों में कोका कोला के कुछ कैन रख दिये गए और कुछ रेफ्रिजिरेटरों में पेपर प्लेट्स में एक एक डॉलर के नोट रख दिये गए. बहत्तर घण्टों के बाद पाया गया कि कोका कोला की सारी कैन तो इस्तेमाल कर ली गईं लेकिन किसी ने एक भी नोट नहीं उठाया. इन प्रयोगों से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि  लोग पैसों को लेकर अधिक ईमानदार होते हैं. वैसे, यह भी सोचा जा सकता है कि जिन लोगों ने बग़ैर पैसों वाले वॉलेट्स को लौटाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई हो सकता है वे व्यस्त रहे हों, या भूल ही गए हों. फिर भी, कुल मिलाकर यह तो सही है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है, जितनी हम सोचते हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 23 जुलाई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, July 16, 2019

सोलोथर्न शहर में कभी बारह नहीं बजते!


स्विटज़रलैण्ड के उत्तर पश्चिम में आरे के किनारे और वेइसेंस्टीन ज़ुरा पहाड़ियों के तल में स्थित सोलोथर्न शहर की गिनती इस देश के सबसे खूबसूरत शहरों में होती है. इतालवी भव्यता, फ्रांसिसी सौंदर्य और जर्मन व्यावहारिकता की त्रिवेणी से सज्जित यह शहर बर्न से मात्र तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी के बीच यह शहर फ्रांसिसी राजा के राजदूत का निवास स्थान भी रहा और इसलिए आज इसे राजदूत का नगरनाम से भी जाना जाता है. ये तमाम बातें अपनी जगह, और इस शहर की एक ख़ासियत अपनी जगह. और वह ख़ासियत है इस शहर का अंक ग्यारह से ख़ास लगाव. यह लगाव इतना गहरा है कि शहर  की अधिकांश निर्मितियों  और उनके डिज़ाइन में इस अंक की उपस्थिति को देखा जा सकता है. यहां चर्चों और चैपलों की संख्या ग्यारह-ग्यारह है. इस शहर में ग्यारह ऐतिहासिक फव्वारे, ग्यारह संग्रहालय और कुल ग्यारह  ही टॉवर हैं.

करीब दो हज़ार साल पहले रोमनों द्वारा बसाए गए इस शहर का सबसे बड़ा आकर्षण है यहां का सेंट उर्सूस गिरजाघर. अगर आपको इस शहर में ग्यारह की उपस्थिति का जादू देखना हो तो इस गिरजाघर से बेहतरीन जगह और कोई नहीं हो सकती. एक इतालवी वास्तुविद गेटानो मेटियो पिसोनी द्वारा इस गिरजे का निर्माण ग्यारह वर्षों में किया गया. इसमें सीढ़ियों की ग्यारह कतारें हैं. सीढ़ियों के दोनों तरफ दो भव्य फव्वारे हैं जिनमें से हरेक में ग्यारह-ग्यारह खूबसूरत नलों से पानी की धार निकलती है. गिरजे के कुल ग्यारह द्वार हैं और इसकी ऊंचाई ग्यारह-ग्यारह मीटर के तीन हिस्सों से निर्मित है. शीर्ष पर जो गुम्बद है उसमें ग्यारह घण्टे हैं जिनकी सुमधुर ध्वनि दूर से सुनाई देती है. ऐसा माना जाता है कि वास्तुविद पिसोनी को तत्कालीन सरकार ने यह आदेश दिया था कि वह इस गिरजे के निर्माण में ग्यारह का विशेष ध्यान रखे, और उसने ऐसा ही किया. इस हद तक ऐसा किया कि इस गिरजे की एक वेदी में ग्यारह प्रकार के संगमरमर प्रयुक्त किये. गिरजे में कुल ग्यारह वेदियां हैं. वहां आराधकों के बैठने के लिए जो बेंचें लगी हुई हैं वे भी ग्यारह-ग्यारह की कतार में हैं.

जब आप यह जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर क्यों इस शहर को ग्यारह की संख्या से इतना ज़्यादा लगाव है, तो बहुत सारी व्याख्याएं सुनने को मिलती हैं. दंतकथा प्रेमी बताते हैं कि प्राचीन काल में इस शहर के निवासी बहुत कड़ी मेहनत करते थे लेकिन उन्हें उसका पुरस्कार नहीं मिलता था. तब वेइसेंस्टीन की पहाड़ियों से कुछ चमत्कारी बौने अवतरित हुए और उन्होंने इस नगर के वासियों को उनका प्राप्य दिलवाया. नगरवासियों ने उन बौनों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ग्यारह की संख्या को अपनाया. यह तो हुई दंतकथा. एक अन्य व्याख्या का सम्बंध यहां के लोगों की धार्मिक आस्थाओं से है. वे यह मानते थे कि ग्यारह की संख्या धार्मिक रूप से पवित्र है. अंक शास्त्र भी यह मानता है कि तमाम अंकों में से ग्यारह का अंक सर्वाधिक अंत: प्रज्ञाजन्य है और इसका सीधा रिश्ता  आस्था और  आध्यात्मिकता के साथ है. एक मत यह भी है कि धर्मशास्त्र के अनुसार देवदूतों की कुल संख्या बारह थी लेकिन उससे एक कम यानि  ग्यारह का सम्बंध और अधिक पाने की आकांक्षा से जुड़ता है. और शायद आज भी इस शहर के नागरिक यही मानते हैं कि ग्यारह को अपने जीवन में इतना महत्व देकर वे यह साबित कर रहे हैं कि वे जो है उससे बेहतर के आकांक्षी हैं. ग्यारह के प्रति इस लगाव की कुछ अन्य व्याख्याएं भी प्रचलित हैं. जिन्हें इतिहास में रुचि  है वे यह बताते हैं कि सन 1481 में सोलोथर्न शहर स्विस संघ का ग्यारहवां केण्टन (प्रांत) बना था और सोलहवीं शताब्दी  तक आते-आते यह केण्टन ग्यारह प्रोटेक्टोरेट्स (एक तरह से छोटे प्रांतों) में विभाजित हो गया था. और अधिक पड़ताल करने पर  यह भी पता चलता है कि शहर के इतिहास में ग्यारह की संख्या का पहला उल्लेख सन 1252 में मिलता है जब इस शहर के लिए जो पहली नगर परिषद बनी उसमें ग्यारह सदस्य चुने गए थे.

ग्यारह के प्रति लगाव के मूल में चाहे जो भी कारण हों, आज स्थिति यह है कि इस शहर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में भी ग्यारह की बहुत अधिक महत्ता है. बच्चे अपना ग्यारहवां जन्म दिन विशेष उल्लास के साथ मनाते हैं. उस दिन खास  समारोह आयोजित किया जाता है. और जब हर जगह ग्यारह का महत्व है, तो भला बाज़ार उससे कैसे अछूता रह सकता है? बीयर, चॉकलेट जैसे अनेक उत्पादों के ब्राण्ड नामों में ग्यारह की उपस्थिति देखी जा सकती है. ग्यारह वर्ष पुरानी मदिरा बहुत लोकप्रिय है. सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि यहां के टाउन स्क्वायर पर एक विशाल घड़ी लगी हुई है. उस घड़ी के डायल पर एक से ग्यारह तक की संख्याएं ही अंकित हैं. यानि यहां कभी बारह बजते ही नहीं हैं!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, दिनांक 16 जुलाई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, July 9, 2019

यंत्रणा से गुज़रने पर कानूनी लड़ाई, ताकि कोई और न झेले


पिछले बरस न्यूयॉर्क के उत्तरी इलाके ब्रॉन्क्स की एक जेल में बंद कैदी को जब प्रसव वेदना शुरु हुई तो उसे एक नज़दीकी अस्पताल ले जाया गया. यह सामान्य बात थी, लेकिन इसमें असामान्यता यह थी कि उस महिला को बाकायदा हथकड़ी और बेड़ियों में अस्पताल ले जाया गया. वैसे, न्यूयॉर्क राज्य के कानून के अनुसार  गर्भवती कैदी को प्रसव वेदना और प्रसव के समय जंजीरों में बांध  कर नहीं रखा जा सकता, लेकिन जो पुलिस कर्मी उन्हें अस्पताल  लेकर गए उन्होंने इस निषेध की परवाह नहीं की. बाद में अपने बचाव में उन्होंने कहा कि वे तो गश्त के लिए निर्धारित निर्देशों का पालन करने को विवश थे जिसके अनुसार कैदी की सुरक्षा  सर्वोपरि होती है. और इसीलिए उस महिला को प्रसव वेदना और फिर प्रसव के दौरान भी जंजीर से बांध कर रखा गया और उसके एक हाथ की हथकड़ी को पलंग से बांधे  रखा गया.  इसी अवस्था में उस महिला ने एक बेटी को जन्म दिया.

इस महिला का प्रकरण सामने आने के बाद यह खोजबीन शुरु  हुई कि पूरे अमरीका में कुल कितनी गर्भवती स्त्रियां जेलों में हैं. और तब पता चला कि इस तरह के कोई प्रामाणिक आंकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं. लेकिन स्थिति का थोड़ा अनुमान जॉन्स हॉपकिंस मेडिसिन द्वारा किए गए एक सर्वे के आंकड़ों से लगाया जा सकता है जिनके अनुसार सन 2016 व 2017 में संघीय व बाईस राज्य की जेलों में कम से कम चौदह सौ गर्भवती  स्त्रियां कैद थीं.  न्यूयॉर्क राज्य ने इस सर्वे के लिए भी जानकारियां उपलब्ध कराने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि उसके पास इसके लिए समुचित स्टाफ नहीं है. वैसे, अमरीका के ज़्यादातर  राज्यों में गर्भवती महिलाओं को जंजीर से बांधे रखना वैध है. हां, इतना ज़रूर है कि डॉक्टरों और शोधकर्ताओं की इस चेतावनी के बाद कि गर्भावस्था में इस तरह का बर्ताव स्त्री और गर्भस्थ  शिशु के लिए प्राणघातक साबित हो सकता है, बहुत सारे राज्य अपने सम्बद्ध कानूनों में सुधार की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं. पिछले बरस अमरीकी कॉंग्रेस ने संघीय जेलों और संयुक्त राज्य मार्शल सेवाओं की हिरासत में बेड़ियों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया था. इस बरस कई अन्य राज्यों ने गर्भवती महिलाओं को जंजीरों से जकड़ने पर रोक लगा दी है. कुछ राज्य (जैसे कैरोलिना) अभी भी इस रोक को लागू करने पर विचार  कर रहे हैं और कम से कम एक राज्य (टेनेसी) ऐसा भी है जिसने इस तरह की रोक लगाने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया है.

जंजीर की मुखालिफत करने वाले कुछ कानूनों में  गर्भवती स्त्रियों को केवल उनकी प्रसव वेदना अथवा  प्रसव के समय जंजीर से मुक्ति देने का प्रावधान है तो  कुछ राज्यों जैसे न्यूयॉर्क में यह व्यवस्था है कि गर्भवती होने के किसी भी समय में तथा प्रसव के बाद कुछ समय तक अगर उस कैदी महिला को एक से दूसरी जगह ले जाया जाता है तो उसे जंजीर में जकड़ कर न ले जाया जाय. लेकिन करीब करीब सारे कानून यह कहते हैं कि अगर उस महिला के कारण हवाई यात्रा में किसी खतरे की आशंका हो अथवा खुद उस महिला या अन्यों  की सुरक्षा को कोई खतरा हो तो यह निषेध अप्रभावी होगा.

हम फिर उस महिला के प्रकरण पर लौटते  हैं. अपने साथ हुए व्यवहार को उस महिला ने न्यायालय में चुनौती दी. उस 28 वर्षीया अनाम महिला ने कहा कि वह नहीं चाहती है कि जिस तरह का अमानवीय व्यवहार उसे सहना पड़ा वैसा किसी भी और महिला को सहन करना पड़े. न्यायालय ने उसको सहानुभूतिपूर्वक सुना. महिला का आरोप था कि उसके साथ  किया गया बर्ताव अमानवीय था और उस से राज्य के नियमों का उल्लंघन  हुआ है.  आखिरकार न्यूयॉर्क नगर प्रशासन को उस महिला को छह लाख दस हज़ार डॉलर की मुआवज़ा राशि देकर अपना मान बचाना पड़ा. वैसे न्यूयॉर्क नगर प्रशासन ने अपनी टांग ऊपर रखते हुए यह अवश्य कहा कि उन्होंने कुछ भी ग़लत नहीं किया है. लेकिन इसी के साथ सबसे ख़ास बात यह कि इस महिला के प्रकरण के बाद वहां का पुलिस प्रशासन अपने गश्त विषयक नियमों पर पुनर्विचार करते हुए उन्हें संशोधित करने की दिशा में सक्रिय हो गया है.

न्यायालय में अपनी विजय पर हर्षित उस महिला की प्रतिक्रिया बड़ी संज़ीदा थी. उसने कहा कि उसे इस बात की खुशी है कि उसकी इस कानूनी लड़ाई के कारण भविष्य में अन्यों को उस तरह के त्रासद अनुभव से गुज़रने की यंत्रणा से मुक्ति मिल सकेगी जिस तरह के अनुभव से उसे गुज़रना पड़ा है. उसने यह भी कहा कि वो अपने परिवार जन को या किसी भी नज़दीकी व्यक्ति को वह सब नहीं बताना चाहेगी जो उसको सहना पड़ा है. वह यह भी नहीं चाहेगी कि उसकी बेटी को कभी भी यह पता चले कि उसका जन्म किन हालात में हुआ. और यही वजह है कि उसने अपना नाम गोपनीय रखने का आग्रह किया है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 09 जुलाई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.


Tuesday, July 2, 2019

किम के 'किमोनो' ब्राण्ड से जापानी आहत !


अपने देश में हम आए दिन किसी न किसी मुद्दे पर कुछ लोगों की भावनाएं आहत होने के बारे में पढ़ते सुनते रहते हैं. कभी कोई लेख, तो कभी कोई गाना तो कभी कोई फिल्म किसी न किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा देते हैं और उसके बाद कभी धरना, तो कभी प्रदर्शन, कभी बंद तो कभी तोड़ फोड़ का सिलसिला चल निकलता है. हमें लगता था कि हमारी ही भावनाएं इतनी नाज़ुक हैं कि ज़रा-सी बात पर आहत हो जाती हैं, अब जब सुदूर जापान से वहां के निवासियों की भावनाएं आहत खोने की ख़बर आई है तो लगता है कि भावनाएं  और  जगह भी इतनी ही  नाज़ुक होती हैं.

जापानियों की भावनाएं आहत हुई हैं एक प्रख्यात अमरीकी  अभिनेत्री, मॉडल, टीवी स्टार, और व्यवसायी किम कार्दशियन की वजह से. किम को उनके एक रियलिटी शो कीपिंग अप विद द कार्दशियनस  के लिए ख़ास तौर पर जाना जाता है. किम ने हाल में भीतर पहनने वाले कपड़ों की एक बड़ी शृंखला लॉंच की है. जिस लेबल के अंतर्गत उन्होंने यह शृंखला लॉंच की है उसका नाम उन्होंने रखा है किमोनो. और यही नाम फसाद की जड़ है. असल में किमोनो एक जापानी परिधान का नाम है जिसे पारम्परिक रूप से औपचारिक अवसरों पर पहना जाता है. किमोनो एक लम्बा-सा चोगेनुमा परिधान होता है. इसकी आस्तीनें चौड़ी होती हैं और इसे  एक कमरबंद से बांधा जाता है. इसका प्रयोग प्राय: बतौर जैकेट किया जाता है. अब क्योंकि यह पारम्परिक जापानी परिधान है, बहुत सारे जापानियों को इस बात से सख़्त आपत्ति है कि एक पारम्परिक औपचारिक परिधान के नाम से भीतर पहनने वाले वस्त्र क्यों बेचे जा रहे हैं! अनेक जापानियों ने किम के इस नामकरण को उनके अज्ञान का परिचायक बताते हुए अनुपयुक्त बल्कि सांस्कृतिक रूप से अपमानजनक तक कह दिया है.

युका ओहिश नामक एक महिला ने अपनी आपत्ति इस तरह व्यक्त की है: "अपने उत्पाद/कम्पनी को एक जापानी नाम देना आपके लिए आकर्षक हो सकता है, लेकिन हम इस बात से बहुत आहत महसूस कर रहे हैं कि इस शब्द का प्रयोग एक ऐसे उत्पाद के लिए किया जा रहा है जिसका उससे कोई लेना-देना ही नहीं है. इस तरह हमारी संस्कृति को ठेस पहुंचाई जा रही है." युको कातो नामक एक जापानी पत्रकार ने लिखा कि "आपके अण्डरवियर बहुत उम्दा हैं, लेकिन पारम्परिक जापानी परिधानों से लगाव रखने वाली मुझ जैसी जापानी स्त्री के के लिए इस नामकरण का औचित्य समझ से परे है. कृपया इस नामकरण पर पुनर्विचार करें." इस पत्रकार ने अपनी आपत्ति को और स्पष्ट करते हुए आगे लिखा है, "कुल मिलाकर बात यह है कि आपने अण्डरवियरों की एक शृंखला तैयार की है और उसे 'पारम्परिक जापानी परिधान' का नाम  देकर बेच रही हैं." एक अन्य जापानी ने और उग्र होते हुए लिखा है, "जापानी संस्कृति की हत्या करने के लिए आपका आभार. लेकिन मेरी संस्कृति आपके हाथों का खिलौना नहीं है. क्या आपके मन में उन लोगों के प्रति तनिक भी  सम्मान का भाव नहीं है जो आपके परिवार के नहीं हैं? आपने इस उत्पाद को तैयार करने में पूरे पंद्रह साल लगाए हैं लेकिन इतने बरसों में आप एक भी सांस्कृतिक सलाहकार नहीं तलाश पाईं." 

इन और इस तरह की अनेक आपत्तियों का जवाब देते हुए किम ने एक बयान ज़ारी कर कहा है कि उनकी मंशा ऐसे किसी परिधान को डिज़ाइन या ज़ारी करने की नहीं है जो किसी भी तरह किसी पारम्परिक परिधान से मिलता-जुलता हो या उसका अनादर करने वाला हो. उन्होंने यह भी कहा है कि उनके मन में जापानी संस्कृति में विद्यमान किमोनो के महत्व के प्रति गहरा सम्मान है. लेकिन उन्होंने यह भी कह दिया कि अपने परिधानों की शृंखला का नाम बदलने का उनका कोई इरादा नहीं है. वैसे, जहां जापानी मूल के लोग किम की इस परिधान शृंखला के नामकरण को लेकर आहत और आक्रोशित हैं वहीं ऐसे लोग भी हैं जो खुलकर और सुविचारित तर्कों के साथ  किम का समर्थन कर रहे हैं. ऐसे लोगों में से एक हैं अमरीकी अभिनेत्री और गायिका टिया कैरेर. टिया ने लिखा है, "मैं एक फिलिपिनो हूं और मैं किमोनो पहनती हूं. मुझे यह समझ में नहीं आता कि मैं किमोनो क्यों नहीं पहन सकती? मैं जापानी कपड़े पहनती हूं, चीनी कपड़े पहनती हूं. क्या मुझे केवल फिलिपिनो वेशभूषा तक ही  सीमित रहना चाहिए? हम एक बहु-सांस्कृतिक, बहु-प्रजातीय दुनिया में जी रहे हैं. इसलिए यह बात  मेरी समझ से परे है. मैंने किम को किमोनो पहने देखा है. वो अगर अपनी कम्पनी का नाम किमोनो रखती है तो इसमें क्या ग़लत है?" टिया ने बहुत तल्ख़ होते हुए पूछा है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? क्या हमें हर बात के लिए सांस्कृतिक पुलिस से इजाज़त लेनी होगी?"

उनके सवाल में दम तो है!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत  मंगलवार, दिनांक  02 जुलाई, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.