Tuesday, June 25, 2019

लड़कियां शादी के बाद सरनेम नहीं बदलना चाहती हैं !


दुनिया के ज़्यादातर समाजों और देशों में यह चलन है कि विवाह के बाद लड़की अपना कुलनाम (सरनेम)  बदल कर अपने पति का कुलनाम अपना लेती है. उदाहरण के लिए मेरी पत्नी विवाह पूर्व अपने पिता का कुलनाम गुप्ता प्रयुक्त करती थीं,  विवाहोपरान्त वे गुप्ता नहीं, अग्रवाल कुलनाम काम में लेने लगीं. भारत जैसे परम्परा प्रधान देश में इस बात का अपवाद वे लोग रहे जो कला संस्कृति आदि के ऐसे क्षेत्रों में कार्यरत थे या हैं जहां कुलनाम बदलने से पहचान का संकट पैदा हो सकता था. यही कारण है  कि कथाकार मन्नू भण्डारी (राजेंद्र यादव से विवाह के बाद भी) मन्नू यादव नहीं हुईं या सुधा अरोड़ा सुधा भाटिया नहीं हुईं. वैसे सबने ऐसा नहीं किया. बहुतों ने परम्परा का अनुसरण भी किया. लेकिन जैसे-जैसे नया सोच प्रमुखता पाने लगा, इस बात पर सवाल उठाये जाने लगे कि आखिर लड़की ही क्यों अपना कुलनाम बदले? इस सवाल का  सकारात्मक जवाब देते हुए कुछ पुरुषों ने भी विवाहोपरान्त अपना कुलनाम  बदल पत्नी का कुलनाम अंगीकार किया, और कुछ स्त्रियों ने समझौते का मार्ग अपनाते हुए अपना विवाहपूर्व का कुलनाम बरक़रार रखते हुए उसके साथ पति का कुलनाम भी जोड़ लिया. इस तरह कुछ स्त्रियों ने एक की बजाय दो कुलनाम धारण कर अपने विवाह पूर्व  के कुलनाम को भी अपने साथ जोड़े रखा. इसका एक उदाहरण अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी कुंद्रा के नाम में देखा जा सकता है. लेकिन बहुतों के लिए दो कुलनाम  अपना लेना भी स्त्री पुरुष समानता का परिचायक नहीं है. यहां एक सवाल यह भी उठता है कि पुरुष और स्त्री में से किसका कुलनाम पहले प्रयुक्त किया  जाए, और क्यों! एक व्यावहारिक दिक्कत भी इसमें है  और वह यह कि जैसे जैसे वंश आगे बढ़ता जाएगा, नाम के साथ और कुलनाम  जुड़ते जाएंगे और पांच सात पीढ़ियों के बाद तो नाम इतना लम्बा हो जाएगा कि लेख जैसा लगने लगेगा.

भारत में भले ही यह सवाल बहुत अहम न हो, पश्चिम में, जहां से स्त्री मुक्ति और स्त्री समानता का वर्तमान  विमर्श सारी दुनिया में फैला है वहां इस समस्या के नए नए समाधान खोजे जा रहे हैं और उन पर चर्चाएं भी खूब हो रही हैं. हाल में वाशिंगटन डी.सी. अमरीका की एक बत्तीस वर्षीया चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव शैरॉन गोल्डबर्ग ने जब योनाथन क्विक से विवाह करने का निर्णय किया तो उन दोनों ने इस मसले पर खूब गहनता से विचार विमर्श किया. उनके इस विमर्श की परिणति  इस बात में हुई कि विवाह के बाद वे दोनों अपने-अपने वर्तमान कुलनाम त्याग कर एक नए कुलनाम गोल्डक्विक का प्रयोग करने लगेंगे. ज़ाहिर है कि यह नया कुलनाम उन दोनों के वर्तमान कुलनामों का मिश्रण है. उनका सोच यह है कि अंतत: विवाह भी तो एक नए परिवार  का सृजन है, तो फिर नया कुलनाम भी क्यों न सृजित कर लिया जाए! वैसे विवाह के बाद स्त्री पति का नाम अपनाये या नहीं, इस बात को लेकर अमरीकी समाज में पर्याप्त खुलापन पहले से विद्यमान रहा है लेकिन यह खुलापन कुलनाम को अपनाने या न अपनाने तक ही सीमित रहा है. दो कुलनामों को मिलाकर नया कुलनाम रचने का यह सिलसिला अपेक्षाकृत नया है. इस बदलाव को एक और नव विवाहित युगल ने कुछ दूसरे अंदाज़ में अपनाया है. रैचेल एकॉफ ने जब ली लेविटर से विवाह किया तो उन दोनों ने अपने-अपने कुलनाम बरक़रार रखे, लेकिन यह तै किया कि उनके बच्चे एक नए कुलनाम का प्रयोग करेंगे. यह कुलनाम होगा – लेविकॉफ जो ज़ाहिर है कि इन दोनों के कुलनामों को मिलाकर बनाया गया है.

मां-बाप के कुलनाम बाद वाली पीढ़ियां भी काम में लें, यह रिवायत इंगलैण्ड में बारहवीं शताब्दी के आसपास चलन में आई थी. असल में तब वहां बहुत थोड़े से नाम चलन में थे और इस कारण किसी छोटे-से गांव में पंद्रह बीस रॉबर्ट और तीस-चालीस जेम्स मिल जाया करते थे. एक रॉबर्ट को दूसरे से अलग करके पहचानने और सम्पत्ति का सही उत्तराधिकारी निर्धारित करने के लिए कुलनाम की ज़रूरत पड़ी. अब क्योंकि स्त्रियों  को भी सम्पत्ति ही माना जाता था, वे भी पति का कुलनाम धारण करने लगीं.

लेकिन दो कुलनामों को मिलाकर नया कुलनाम बनाने से भी समस्या का समाधान नहीं हो रहा है. इसलिए नहीं हो रहा है कि बहुत सारे पुरुष (और स्त्रियां  भी) अपने वर्तमान कुलनाम से इतना गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं कि वे उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. जो लोग बहुत सम्पन्न या अत्यधिक प्रतिष्ठित हैं वे भी इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि जिस कुलनाम से उनकी प्रतिष्ठा प्रदर्शित  होती है उसे छोड़ दें. भला कोई टाटा-बिड़ला-अम्बानी-बच्चन अपना कुलनाम कैसे छोड़ सकता है? फिर नया कुलनाम अपनाने की एक व्यावहारिक कठिनाई भी नज़र अंदाज़  नहीं की जा सकती है. कठिनाई यह कि अमरीका जैसे देशों में एक कुलनाम को त्याग कर दूसरा कुलनाम अपनाना खासा झंझट का और खर्चीला काम है.

लेकिन इन तमाम उलझनों  और असुविधाओं के बावज़ूद स्त्री समानता के पक्षधर पुरानी रिवायत को ज़ारी रखने को तैयार नहीं हैं. वैसे भी, बदलाव तो आहिस्ता-आहिस्ता ही होता है. क्या पता दो-चार सौ बरसों बाद कुलनाम लुप्त ही हो जाएं!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गगत मंगलवार, 25 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 18, 2019

उनके लिए तो किसी की मृत्यु भी एक व्यवसाय है!

लीजिए साहबकैलिफोर्निया की एक स्टार्ट अप कम्पनी ने लोगों के  समग्र जीवनानंत  अनुभव को नया आकार  देने का बीड़ा उठाया है. बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स नामक इस कम्पनी ने दावा किया है कि वह जीवन के अंत के सम्पूर्ण अनुभव को पूरी तरह बदल देगी. अभी तक तो होता यह रहा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति आखिरी सांस  लेता है उसके परिजन पारम्परिक विधि से उसके अंतिम संस्कार की तैयारियों में जुट जाते हैं. विभिन्न समाजों में  इन अंतिम संस्कारों के रूप अलग-अलग हैं. मसलन कहीं देह को सुपुर्दे  ख़ाक किया जाता है तो कहीं उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है. पश्चिम में जहां ईसाई धर्म के मानने वाले अधिक हैंसामान्यत: शव को ताबूत में रखकर पृथ्वी को समर्पित कर दिया जाता है.

अमरीका जैसे हर चीज़ में व्यावसायिक सम्भावनाएं तलाश कर लेने वाले समाज में मृत्यु को भी एक बड़े उद्यम और व्यवसाय के रूप में स्थापित कर लिया गया है. और जब जीवन में सब कुछ पर महंगाई की मार पड़ रही है तो भला मौत पर उसका असर कैसे न हो! एक मोटे अनुमान के अनुसार हाल के बरसों में अमरीका में अंतिम संस्कार की लागत में दुगुनी वृद्धि हो चुकी है. ऐसा बताया जाता है कि अब अमरीका में एक शव के  अंतिम संस्कार की लागत सामान्यत: पंद्रह से बीस हज़ार डॉलर के आसपास होने लगी है. और जैसे इतना ही काफ़ी न होबढ़ते शहरीकरण के कारण कब्रस्तानों के लिए ज़मीन का टोटा भी होता जा रहा है. इन बातों का एक असर यह भी हुआ है कि अब बहुत सारे अमरीकी भी पारम्परिक अंतिम  संस्कार की बजाय दाह संस्कार का वरण करने लगे हैं. इस बदलाव के बावज़ूद अमरीका में अंतिम संस्कार का बाज़ार काफ़ी बड़ा है. लगभग 20 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष. इसी बड़े बाज़ार और घटती ज़मीन ने बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स जैसे स्टार्ट अप को इस नवाचार के लिए प्रेरित किया है.

बैटर प्लेस फॉरेस्ट्स वाले अलग-अलग जगहों पर खूब सारी ज़मीन खरीद रहे हैं  और उस ज़मीन के छोटे-छोटे  हिस्से लोगों को इस आश्वासन के साथ बेच रहे हैं  कि उसे यथावत रखा जाएगाउसका कोई विकास नहीं किया जाएगा. विकास से यहां आशय आधुनिक निर्माण आदि से है. हांइस ज़मीन पर तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं और ऐसे हज़ारों पेड़ भावी मृतकों को बेचे जा चुके हैं. मौत के बाद के जीवन’  के लिए चिंतित लोग वहां जाते हैंअपनी पसंद का पेड़ चुनते  हैं और उनके नाम की एक पट्टिका वहां लगा दी जाती है. बहुत सारे लोग पेड़ विहीन ज़मीन भी चुनते हैं. ऐसे लोगों में से जब किसी का निधन होता है तो उसकी राख व अस्थियां खाद आदि के साथ मिश्रित कर उस ज़मीन में या उस पेड़ की जड़ों में डाल दी जाती है. कम्पनी का वादा है कि अगर कभी ऐसा कोई पेड़ मर गया तो उसकी जगह उसी प्रजाति का नया पेड़ लगा दिया जाएगा. कम्पनी का करोबार ठीक चल रहा है. अभी उसमें पैंतालीस लोग काम कर रहे हैं और अगर कम्पनी के दावों पर विश्वास करें तो हज़ारों लोगों ने वहां अपने अंतिम संस्कार के लिए पेड़ खरीद लिये हैं.

इस तरह अपने अंतिम संस्कार के लिए ज़मीन और पेड़ आरक्षित करने का न्यूनतम खर्च तीन हज़ार डॉलर है. इस राशि में किसी सामान्य प्रजाति का नया लगाया पौधा मिलता हैजबकि जो लोग तीस हज़ार डॉलर तक खर्च करने की हैसियत रखते हैं उन्हें दुर्लभ और महंगी  प्रजाति का  विकसित पेड़ मिल जाता है. और हांजो लोग और भी कम खर्च करना चाहते हैं वे मात्र नौ सौ सत्तर डॉलर खर्च कर किसी सामुदायिक वृक्ष की जड़ों में अपना डेरा डालने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं. कुछ लोग अपने लिए कोई अकेला खड़ा पेड़ चुनते हैं तो कोई मौत के बाद भी समूह में रहने की ललक के साथ समूह में लगाए गए पेड़ों में से एक का चुनाव कर लेते हैं. एक और बात. क्योंकि ज़माना तकनीक का है तो मौत के बाद भी तकनीक का दामन थामे रहा जा सकता है. जो लोग अपनी जेब थोड़ी और ढीली कर सकते हैं वे अपना एक डिजिटल मेमोरियल वीडियो भी बनवा सकते हैं ताकि जब कोई उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने आए तो वो बारह मिनिट का यह वीडियो देख उनकी यादों में डूब सके. 

स्टार्ट अप की इस योजना की कामयाबी पर बहुतों को संशय भी है. उन्हें लगता है कि जब रात को चुपचाप जाकर किसी खाली पड़ी ज़मीन पर अपने प्रियजन के अंतिम अवशेष को निशुल्क विसर्जित किया जा सकता है तो भला इतनी बड़ी राशि कोई क्यों खर्च करेगायह देखना दिलचस्प  होगा कि मृत्यु के इस कारोबार की परिणति क्या होती है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के  अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 18 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Wednesday, June 12, 2019

अब विवाद फ्रेंच फ्राइ के जन्म स्थान का


अपने देश में रसगुल्ले की व्युत्पत्ति को लेकर चले विवाद से हम सब भली भांति परिचित हैं. सामान्यत: यह माना जाता रहा है कि इसका जन्म बंगाल में हुआ, और हममें से बहुत सारे लोग बंगाली मिठाईके प्रतिनिधि के तौर पर रसगुल्ले को ही जानते हैं.  लेकिन इस धारणा को चुनौती  दी उड़ीसा ने. कहते हैं कि इस मिठाई का जन्म पुरी के जगन्नाथ मंदिर में हुआ था. एक प्रचलित कहानी के मुताबिक रथयात्रा के बाद जब भगवान जगन्नाथ वापस लौटे तो उन्होंने दरवाजा बंद पाया क्योंकि देवी लक्ष्मी उनसे नाराज थीं. उनकी नाराजगी इस वजह से थी कि जगन्नाथ उन्हें अपने साथ नहीं ले गए थे. रूठी देवी को मनाने के लिए जगन्नाथ ने उन्हें रसगुल्ला पेश किया और इसे पाकर देवी प्रसन्न हो गईं. रसगुल्ला उड़ीसा में 13वीं शताब्दी से बन रहा है. अभी भी रथयात्रा के बाद जब भगवान वापस मंदिर पहुंचते हैं तो रसगुल्ले ही उन्हें देवी के क्रोध से बचाते हैं. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उड़ीसा के इन तमाम तर्कों को नकार दिया गया और पश्चिम बंगाल को जीआई टैग यानि जियोग्राफिकल इंडिकेशन दे दिया गया. यानि अब आधिकारिक रूप से यह  माना जा चुका है कि रसगुल्ले की उत्पत्ति बंगाल में हुई थी. 
हमारे रसगुल्ला विवाद का तो पटाक्षेप हो गया, लेकिन अब दुनिया के दूसरे छोर पर एक अन्य खाद्य पदार्थ को लेकर कई देश अपने-अपने दावे प्रस्तुत कर रहे हैं. यह खाद्य पदार्थ है फ्रेंच फ्राइ. जी बिल्कुल वही फ्रेंच  फ्राई जो आलू के लम्बे लम्बे टुकड़ों को तलकर तैयार की जाती है. आम तौर पर हम लोग इसे एक अमरीकी उत्पाद मानते हैं क्योंकि हमारे पास तो यह लोकप्रिय अमरीकी फास्ट फूड रेस्तराओं की श्रंखलाओं के माध्यम  से ही पहुंचा है. लेकिन इसकी वंशावली का मामला बहुत पेचीदा है. हाल में बेल्जियम ने यूनेस्को के दरबार में एक गुहार लगाई है कि फ्रेंच फ्राइ को बेल्जियन सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता प्रदान  की जाए. ज़ाहिर है कि जब गुहार लगाई है तो पर्याप्त प्रमाण और तर्क भी प्रस्तुत किए ही होंगे. इसके नाम में भले ही फ्रांस  शामिल हो, फ्राइ के इतिहास के विशेषज्ञ  बेल्जियम के एक नामी शेफ़ एल्बर्ट वर्डेयेन का कहना है कि “अमरीकी लोग इसे फ्रेंच फ्राइ कहते हैं, लेकिन यह फ्रेंच फ्राइ नहीं है. असल में तो यह फ्रेंचभाषी (बेल्जियम की) फ्राइ है.” आम धारणा भी यही है कि अपने मूल रूप में फ्राइ का जन्म फ्रेंचभाषी बेल्जियम के नामुर नगर में हुआ. असल में वहां के  निवासी तली हुई मछली के शौकीन थे. लेकिन जब 1680 की सर्दियों में वहां की मीयूज़ नामक प्रमुख नदी जम गई तो लोगों ने अपनी तली हुई मछली खाने की तलब को तले हुए आलू खाकर पूरा किया. और इस तरह इस व्यंजन का जन्म हुआ. जहां तक इसके वर्तमान नाम का सवाल है, माना जाता है कि प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रेंचभाषी बेल्जियम में तैनात अमरीकी सैनिकों ने इन तले हुए आलुओं को फ्रेंच फ्राइ कहना शुरु किया और अब यही  नाम सर्व स्वीकृत है.
लेकिन पाक कला के बहुत सारे इतिहासकार इस धारणा से सहमत नहीं हैं. पियरे लेकलर्क उनमें से एक हैं. वे इस धारणा को अस्वीकार करते हुए  कहते हैं कि चाहे आप यह मान भी लें कि इस व्यंजन का जन्म नामुर में हुआ, 1680 की बात गले नहीं उतरती है क्योंकि उस इलाके में आलू 1735 से पहले होते ही नहीं थे. उनकी दूसरी असहमति तलने को लेकर है. उनका तर्क है कि अठारहवीं शताब्दी में तेल वगैरह वसा पदार्थ सामान्य जन के लिए विलासिता माने जाते थे. मक्खन बहुत महंगा था, पशु वसा दुर्लभ  थी और वनस्पतिजन्य वसा भी बड़ी कंजूसी से काम में ली  जाती थी. किसान लोग इस बेशकीमती वसा को तलने जैसे काम में बर्बाद करने की बजाय ब्रेड पर लगाकर या सूप में डालकर सीधे ही खाना ज़्यादा उपयुक्त समझते थे. पियरे लेकलर्क का कहना है कि यह बात शायद ही कभी पता चल सके कि तले हुए आलू के इस व्यंजन का आविष्कार किसने और कहां किया. लेकिन इतना निश्चित है कि यह उत्पाद फेरीवालों की देन है. और शायद  इसी वजह से इसका जन्म प्रमाण पत्र हासिल कर सकना लगभग असम्भव है.
अब बहुत सारे लोग इस पचड़े में न पड़कर मात्र यह स्वीकार कर संतुष्ट  हो जाना चाहते हैं कि जन्म इसका चाहे जहां हुआ हो, आज प्रमुखत: यह एक अमरीकी व्यंजन है क्योंकि औसतन एक अमरीकी साल में 29 पाउण्ड फ्रेंच फ्राइ उदरस्थ कर लेता है. अमरीका के पड़ोसी देश कनाडा का भी  इसकी लोकप्रियता के प्रसार में बड़ा योगदान है. वहां की एक कम्पनी फ्रोज़न फ्रेंच फ्राइ की दुनिया की सबसे बड़ी निर्मात्री है. शुक्र है कि अब तक अमरीका या  कनाड़ा से इस व्यंजन पर अपनी दावेदारी नहीं ठोकी है.
वैसे, जो फ्रेंच फ्राइ के स्वाद के दीवाने हैं उन्हें इस बात से फर्क़ भी क्या पड़ने वाला है कि इसका जन्म किस देश में हुआ! 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत बुधवार, दिनांक 12 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 4, 2019

किस्सा तस्वीरें बनाकर गांव को बचा लेने वाले रेनबो ग्रैण्डपा का


उस गांव को अब सारी दुनिया रेनबो विलेज यानि इंद्रधनुषी गांव के नाम से जानने लगी है. ज़्यादा बड़ा नहीं है यह गांव, लेकिन आप इसकी किसी भी गली में निकल जाएं, वहां की हर दीवार पर कोई न कोई आकृति अंकित है. कहीं किसी दीवार से शेर झांक रहे हैं तो किसी और दीवाल पर बिल्लियां चुहल करती नज़र आ रही हैं. कहीं बड़ी-बड़ी आंखों वाले पाण्डा खिलवाड़ कर रहे हैं  तो तो कहीं मोर नाच रहे हैं. किसी दरवाज़े से कोई वृद्ध पुरुष (यानि उसकी तस्वीर) झांक रहा होगा तो कहीं सामुराई नृत्य मुद्रा में होंगे. कहीं अंतरिक्ष यात्री हवा में तैरते नज़र आएंगे तो कहीं एक दूसरे की आंखों की गहराई में डूबे प्रेमीजन आपको लुभा रहे होंगे. और यह सब किया-धरा है उस बूढ़े बाबा का जिसे अब ग्रैण्डपा रेनबो यानि इंद्रधनुष वाले दादाजी के नाम से जाना जाता है. इस अजीबो ग़रीब गांव को देखने हर बरस पूरी दुनिया से कोई दसेक लाख लोग आते हैं. ‌

इन इंद्रधनुष वाले दादा जी का असल नाम है ह्युआंग युंग फू और अभी इनकी उम्र मात्र 86 बरस है.  अभी  भी, जब सारा गांव नींद के आगोश में बेसुध पड़ा होता है, बाबाजी अपना पेण्टिंग का साजो सामान लेकर गली में निकल पड़ते हैं और जो भी जगह खाली नज़र आती है उसे अपनी सतरंगी कलाकृति से सजा डालते हैं. इन बाबाजी की कथा बड़ी अजीब है. अजीब भी और प्रेरक भी.  इनका जन्म हुआ था चीन में, और चीन-जापान युद्ध तथा द्वितीय विश्व युद्ध में में सहभागिता करने के अलावा इन्होंने चीन के राष्ट्रवादी दल की गतिविधियों में भी हिस्सा लिया था. लेकिन जब इस दल को पराजय का सामना करना पड़ा तो चीन से भाग कर ताइवान आए बीस लाख लोगों में से एक ये ह्युआंग युंग फू भी थे. इन लोगों को बसाने के लिए ताइवान की तत्कालीन सरकार ने तुरत फुरत कुछ  काम चलाऊ गांव बना डाले, और आहिस्ता आहिस्ता ऐसा ही एक गांव हमारे ह्युआंग युंग फू का स्थायी निवास बन गया.

काल का पहिया घूमता रहा, उनके बहुत सारे साथी विभिन्न कारणों से गांव छोड़ कर अन्यत्र जा बसे और अनेक इस लोक को छोड़  कर उस लोक में चले गए, जहां से कोई वापस नहीं आता है. और आखिर में हुआ यह कि 1200 परिवारों वाले केंद्रीय ताइवान  के उस गांव में जिसे अब रेनबो विलेज के नाम से जाना जाता है, अकेले ह्युआंग युंग बच रहे. सरकार ने गांव की उस ज़मीन पर एक आधुनिक सर्व सुविधा सम्पन्न अपार्टमेण्ट कॉम्प्लेक्स बनाने की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की और गांव में बचे इकलौते निवासी ह्युआंग युंग फू के सामने प्रस्ताव रखा कि वो सरकार से मुआवज़ा राशि लेकर कहीं और चला जाए. जो प्रस्ताव सरकार के लिए उसकी उदारता का परिचायक था वही इस बूढ़े के लिए हृदय विदारक और स्तब्ध कर देने वाला था. उसने तो अपनी पूरी ज़िंदगी में इस गांव और अपने दो कमरों के इस मामूली-से घर को ही अपना जाना-समझा था. भला अब इस पकी उम्र में वह कहां जाकर नया घर बसाये, और क्यों?  और उसकी हताशा अभिव्यक्त हुई उसकी कला में. जब कुछ न सूझा तो उसने अपने घर की दीवारों पर तस्वीरें बनाने में अपने को डुबो कर जैसे इस आसन्न खतरे की अनदेखी करने की चेष्टा  की. सबसे पहले उसने बनाई एक चिड़िया, फिर आई कुछ बिल्लियां और इस तरह उसने अपने कला कर्म में खुद को भुलावा देना ज़ारी रखा. अपने घर की दीवारों  को आकृतियों से सजा डालने के बाद उसने गांव के अन्य खाली पड़े घरों की दीवारों पर तस्वीरें बनाना शुरु कर दिया. संयोग यह बना कि जिन दिनों वह  यह काम करने लगा था, उन्हीं दिनों निकटवर्ती लिंग तुंग  विश्वविद्यालय का एक  छात्र उस गांव में आया और जब उसने ह्युआंग युंग फू की व्यथा-कथा जानी तो उसे लगा कि इस आदमी की तो मदद करनी चाहिए. उसने गांव में बनी पेण्टिंग्स की कुछ तस्वीरें खींची और उनको लेकर इस अनाम कलाकार के रंगों वगैरह के लिए पैसे जुटाने और गांव के मूल स्वरूप को बचाने का एक अभियान शुरु कर दिया.

बहुत जल्दी यह अभियान वायरल हो गया और यह मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया. कुछ ही माह में मेयर के पास अस्सी  हज़ार ई मेल पहुंच गई जिनमें  यह अनुरोध था कि गांव के मूल स्वरूप को नष्ट न किया जाए. अंतत: सरकार को भी  अपना इरादा बदलना पड़ा. गांव में बची हुई ग्यारह इमारतों, गलियों और आस पास के क्षेत्र को एक सार्वजनिक पार्क के रूप में संरक्षित कर लिया गया.  हालांकि अब उसकी सेहत ठीक  नहीं रहती  है फिर भी बूढ़ा ह्युआंग युंग फू हर सुबह अपना साजो सामान लेकर पेण्टिंग्स बनाने निकल पड़ता है. उसने अपने घर के बाहर एक डॉनेशन बॉक्स रख रखा है जिसमें लोग स्वेच्छा से पैसे डाल जाते हैं और उनसे वह रंग वगैरह खरीद लाता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.