उस गांव को अब सारी दुनिया रेनबो विलेज
यानि इंद्रधनुषी गांव के नाम से जानने लगी है. ज़्यादा बड़ा नहीं है यह गांव, लेकिन आप इसकी किसी भी गली में निकल जाएं, वहां की हर दीवार
पर कोई न कोई आकृति अंकित है. कहीं किसी दीवार से शेर झांक रहे हैं तो किसी और
दीवाल पर बिल्लियां चुहल करती नज़र आ रही हैं. कहीं बड़ी-बड़ी आंखों वाले पाण्डा
खिलवाड़ कर रहे हैं तो तो कहीं मोर नाच रहे
हैं. किसी दरवाज़े से कोई वृद्ध पुरुष (यानि उसकी तस्वीर) झांक रहा होगा तो कहीं
सामुराई नृत्य मुद्रा में होंगे. कहीं अंतरिक्ष यात्री हवा में तैरते नज़र आएंगे तो
कहीं एक दूसरे की आंखों की गहराई में डूबे प्रेमीजन आपको लुभा रहे होंगे. और यह सब
किया-धरा है उस बूढ़े बाबा का जिसे अब ग्रैण्डपा रेनबो यानि इंद्रधनुष वाले दादाजी
के नाम से जाना जाता है. इस अजीबो ग़रीब गांव को देखने हर बरस पूरी दुनिया से कोई
दसेक लाख लोग आते हैं.
इन इंद्रधनुष वाले दादा जी
का असल नाम है ह्युआंग युंग फू और अभी इनकी उम्र मात्र 86 बरस है. अभी भी, जब सारा गांव नींद
के आगोश में बेसुध पड़ा होता है, बाबाजी अपना पेण्टिंग का साजो सामान लेकर गली में
निकल पड़ते हैं और जो भी जगह खाली नज़र आती है उसे अपनी सतरंगी कलाकृति से सजा डालते
हैं. इन बाबाजी की कथा बड़ी अजीब है. अजीब भी और प्रेरक भी. इनका जन्म हुआ था चीन में, और चीन-जापान
युद्ध तथा द्वितीय विश्व युद्ध में में सहभागिता करने के अलावा इन्होंने चीन के
राष्ट्रवादी दल की गतिविधियों में भी हिस्सा लिया था. लेकिन जब इस दल को पराजय का
सामना करना पड़ा तो चीन से भाग कर ताइवान आए बीस लाख लोगों में से एक ये ह्युआंग
युंग फू भी थे. इन लोगों को बसाने के लिए ताइवान की तत्कालीन सरकार ने तुरत फुरत
कुछ काम चलाऊ गांव बना डाले, और आहिस्ता
आहिस्ता ऐसा ही एक गांव हमारे ह्युआंग युंग फू का स्थायी निवास बन गया.
काल का पहिया घूमता रहा, उनके बहुत सारे
साथी विभिन्न कारणों से गांव छोड़ कर अन्यत्र जा बसे और अनेक इस लोक को छोड़ कर उस लोक में चले गए, जहां से कोई
वापस नहीं आता है. और आखिर में हुआ यह कि 1200 परिवारों वाले केंद्रीय ताइवान के उस गांव में जिसे अब रेनबो विलेज के नाम से जाना जाता है, अकेले ह्युआंग
युंग बच रहे. सरकार ने गांव की उस ज़मीन पर एक आधुनिक सर्व सुविधा सम्पन्न
अपार्टमेण्ट कॉम्प्लेक्स बनाने की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की और गांव में बचे
इकलौते निवासी ह्युआंग युंग फू के सामने प्रस्ताव रखा कि वो
सरकार से मुआवज़ा राशि लेकर कहीं और चला जाए. जो प्रस्ताव सरकार के लिए उसकी उदारता
का परिचायक था वही इस बूढ़े के लिए हृदय विदारक और स्तब्ध कर देने वाला था. उसने तो
अपनी पूरी ज़िंदगी में इस गांव और अपने दो कमरों के इस मामूली-से घर को ही अपना
जाना-समझा था. भला अब इस पकी उम्र में वह कहां जाकर नया घर बसाये, और क्यों? और उसकी हताशा अभिव्यक्त हुई
उसकी कला में. जब कुछ न सूझा तो उसने अपने घर की दीवारों पर तस्वीरें बनाने में
अपने को डुबो कर जैसे इस आसन्न खतरे की अनदेखी करने की चेष्टा की. सबसे पहले उसने बनाई एक चिड़िया, फिर आई कुछ बिल्लियां और इस तरह उसने अपने कला कर्म में खुद
को भुलावा देना ज़ारी रखा. अपने घर की दीवारों
को आकृतियों से सजा डालने के बाद उसने गांव के अन्य खाली पड़े घरों की
दीवारों पर तस्वीरें बनाना शुरु कर दिया. संयोग यह बना कि जिन दिनों वह यह काम करने लगा था, उन्हीं दिनों निकटवर्ती लिंग तुंग
विश्वविद्यालय का एक छात्र उस गांव
में आया और जब उसने ह्युआंग युंग फू की व्यथा-कथा जानी तो उसे लगा
कि इस आदमी की तो मदद करनी चाहिए. उसने गांव में बनी पेण्टिंग्स की कुछ तस्वीरें
खींची और उनको लेकर इस अनाम कलाकार के रंगों वगैरह के लिए पैसे जुटाने और गांव के
मूल स्वरूप को बचाने का एक अभियान शुरु कर दिया.
बहुत जल्दी यह अभियान
वायरल हो गया और यह मुद्दा राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया. कुछ ही माह में मेयर
के पास अस्सी हज़ार ई मेल पहुंच गई
जिनमें यह अनुरोध था कि गांव के मूल
स्वरूप को नष्ट न किया जाए. अंतत: सरकार को भी
अपना इरादा बदलना पड़ा. गांव में बची हुई ग्यारह इमारतों, गलियों और आस पास के क्षेत्र को एक सार्वजनिक पार्क के रूप
में संरक्षित कर लिया गया. हालांकि अब
उसकी सेहत ठीक नहीं रहती है फिर भी बूढ़ा ह्युआंग युंग फू हर सुबह अपना साजो सामान लेकर पेण्टिंग्स बनाने निकल पड़ता है. उसने अपने घर के
बाहर एक डॉनेशन बॉक्स रख रखा है जिसमें लोग स्वेच्छा से पैसे डाल जाते हैं और उनसे
वह रंग वगैरह खरीद लाता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 जून, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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