Tuesday, July 21, 2015

रफ़्तार-ए-उम्र पर ब्रेक

वैसे तो फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों की शादी की खबरें समाचार माध्यमों को कुछ ज़्यादा ही आकर्षित करती हैं, लेकिन हाल ही में जब यह खबर आई कि ‘दिल चाहता है’  और ‘लगान’  जैसी फिल्मों में काम कर चुकीं अभिनेत्री सुहासिनी मुले ने 2011 में मुम्बई के एक फिजिसिस्ट अतुल गुर्टू से शादी कर ली थी तो तमाम माध्यम यह बताना नहीं भूले कि उस समय सुहासिनी  साठ की और अतुल पैंसठ के हो चुके थे. बल्कि ख़ास  खबर ही यह थी कि साठ बरस की एक स्त्री ने पैंसठ  बरस के एक पुरुष से विवाह किया है. दरअसल हम सब बुढापे को लेकर कुछ ज़्यादा ही आक्रांत रहते हैं. हिन्दी के एक बड़े कवि हुए हैं केशवदास. उनके बारे में यह बात विख्यात है कि अपनी वृद्धावस्था में एक बार वे किसी कुएं पर बैठे हुए थे. तभी कुछ स्त्रियां वहां पानी भरने के लिए आईं और उन्हें ‘बाबा’ कह दिया. इस पर व्यथित होकर उन्होंने यह  दोहा कहा:  

केशव केसनि असि करी, बैरिहु जस न कराहिं।
चंद्रवदन  मृगलोचनी  बाबा कहि कहि जाहिं।।

इसे गद्य में कहें तो यह कि केशव दास कहते हैं कि मेरे साथ मेरे केशों (यानि सफेद बालों) ने जैसा  दुर्व्यवहार किया है वैसा तो शत्रु भी नहीं करते हैं. और यह दुर्व्यवहार क्या है? चांद जैसे चेहरे और हिरनी जैसी आंखों वालियां मुझे बाबा कहकर सम्बोधित कर रही हैं! ज़ाहिर है कि या तो उस ज़माने में बाल काला करने वाले रसायन सुलभ नहीं थे या केशव उनका प्रयोग नहीं करते थे! लेकिन बाल रंगने से भी क्या हो जाता है? काले बालों वाले क्या बूढ़े नहीं  होते? बुढ़ापा भी तो कई तरह से आता है! मिर्ज़ा ग़ालिब का एक बहुत मशहूर शे’र है: ग़ो हाथ को नहीं ज़ुम्बिश, आंखों में तो दम है/ रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे! शायर वृद्ध हो गया है, उसके हाथ अशक्त हो गए हैं, लेकिन मन की लालसाएं अभी भी बरक़रार हैं. वो यह कहते हुए मदिरा पात्र सामने रखे रहने  देने का अनुरोध कर रहा है कि उसकी आंखें अभी भी मदिरा पान  करने में समर्थ  हैं!

केशव और बिहारी दोनों मुझे याद इसलिए आए कि एक अंतर्राष्ट्रीय शोध समूह ने न्यूज़ीलैण्ड के एक ही शहर में 1972-73 में जन्मे 954 लोगों का अध्ययन कर प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंसेज़ में एक रिपोर्ट प्रकाशित कराई है जिसके अनुसार एक ही साल में जन्म लेने वाले लोगों की बायोलॉजिकल उम्र अलग-अलग हो सकती है और होती है. आपको वो विज्ञापन तो ज़रूर याद होगा – साठ साल के बूढ़े या साठ साल के जवान! ठीक वही बात  कि साठ साल का एक व्यक्ति बूढ़ा हो सकता है और साठ ही साल का दूसरा व्यक्ति जवान भी  हो सकता है. इस अध्ययन के दौरान पाया गया कि  कुछ लोगों की उम्र थम गई थी जबकि कुछ की उम्र तीन गुना तेज़ रफ्तार से बढ़ रही  थी यानि वे एक साल में तीन साल आगे जा रहे थे.

इस बात  को ठीक से समझने के लिए यह जानना उपयोगी होगा कि विशेषज्ञ हमारी उम्र को चार अलग-अलग तरहों से आंकते और मापते हैं. सबसे पहला और सुपरिचित तरीका वो है जिसे क्रोनॉलोजिकल (कैलेण्डर के मुताबिक बढ़ने वाली) उम्र कहते हैं. हमारी आम बातचीत इसी आधार पर होती है और तमाम जगहों पर हम इसी उम्र को दर्ज़ भी करते हैं.  लेकिन अब यह माना जाने लगा है कि उम्र की यह गणना दोषपूर्ण है. उम्र को मापने का दूसरा तरीका है बायोलॉजिकल उम्र या जैविक उम्र, जिसकी गणना कुछ ख़ास बायोमार्कर्स के आधार पर की जाती है और जिसमें शरीर के साथ-साथ मानसिक विकास और बदलाव को भी मद्देनज़र रखा जाता है. उक्त अध्ययन में इसी बायोलॉजिकल उम्र को आधार बनाया गया है. तीसरा तरीका है मनोवैज्ञानिक उम्र, जिसकी गणना का आधार मनुष्य के सोचने, तर्क करने और उसकी भावनात्मक परिपक्वता जैसी गैर शारीरिक विशेषताएं होती हैं. और चौथा तरीका  है फंक्शनल उम्र जो इन तीनों प्रकारों का मिश्रित रूप है.

ऊपर मैंने जिस रिपोर्ट का ज़िक्र किया उसमें एक ही साल में पैदा हुए लोगों के वज़न, उनके गुर्दों के काम करने के तरीके और मसूढों की तन्दुरुस्ती को परखा गया था. लेकिन इस रिपोर्ट का ज़्यादा महत्व इस बात में है कि अगर उम्र बढ़ने की रफ्तार के बारे में और अधिक अध्ययन हुआ तो बहुत मुमकिन है उम्र को बढ़ाने वाले कारणों का भी पता चल जाए और फिर उन कारणों पर नियंत्रण कर उम्र के बढ़ने की रफ्तार को कम भी कर लिया जाए! जिस तरह हमने रोगों पर काबू पाया है और बहुत सारे प्राणघातक रोगों से बिल्कुल मुक्ति   पा ली है उसे देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि अगर उम्र की रफ्तार पूरी तरह थम न भी जाए तो धीमी तो हो ही जाएगी.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 जुलाई, 2015 को रफ़्तारे उम्र पर ब्रेक, साठ साल का बूढ़ा या साठ साल का जवान शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ.    

Tuesday, July 14, 2015

काश! बूढ़ा पादरी फ्रांस में हुआ होता!

दो समाचार एक साथ पढ़ने को मिले. हाल ही में जर्मनी के बोन शहर में हुई यूनेस्को की 39 वीं सालाना बैठक में दुनिया की जिन 24 जगहों को विश्व विरासत की सूची में शामिल किया गया, उनमें से दो फ्रांस से हैं. आपको याद ही होगा कि सन 2010  में इस सूची में हमारे अपने जंतर मंतर को भी शामिल किया गया था. लेकिन पहले बात फ्रांस की. फ्रांस की जिन दो जगहों और चीज़ों को इस बार विश्व विरासत का दर्ज़ा प्रदान किया गया है उनमें से एक है वहां की शैम्पेन इण्डस्ट्री से जुड़ी जगहें और दूसरी है वहां की विख्यात रेड वाइन के लिए अंगूर उगाने वाला इलाका बरगण्डी. यूनेस्को ने कहा है कि जिस शैम्पेन इण्डस्ट्री को वे विरासत का दर्ज़ा दे रहे हैं वह एक बहुत ही विशिष्ट कलात्मक गतिविधि है जो कि अब एक कृषि-औद्योगिक उद्यम में रूपांतरित हो चुकी है. आगे बढ़ने से पहले बताता चलूं कि दुनिया में कुल 1031 जगहों और चीज़ों को वर्ल्ड हेरिटेज का दर्जा दिया जा चुका है, जिनमें से मात्र 32 भारत में हैं. यूनेस्को दस घोषित मानदण्डों की कसौटी पर इन विरासत स्थलों का चुनाव करता है. ये मानदण्ड  समय-समय पर संशोधित होते रहते हैं.  यूनेस्को जब किसी जगह आदि को विश्व विरासत घोषित करता  है तो उसको संरक्षित करने की पूरी ज़िम्मेदारी भी अपने ऊपर ले लेता है. इसके अलावा भी, किसी जगह के साथ विश्व विरासत स्थल होने का तमगा जुड़ जाने से उसकी लोकप्रियता और ख्याति में वृद्धि  होती  है और इस तरह उसके विकास के अनेक मार्ग खुल जाते हैं. यहीं यह बात भी स्मरणीय  है कि यूनेस्को की इस  सूची में 48 स्थल खतरे में  बताए गए हैं. सुखद बात यह कि भारत का एक भी विरासत  स्थल खतरे में नहीं है.

आगे बढ़ने से पहले दूसरे समाचार की चर्चा कर लूं. भारत में एक बहुत लोकप्रिय श्यामवर्णी  पेय पदार्थ रहा है जिसे उसके हिन्दी-प्रेमी कद्रदां बूढ़ा पादरी के नाम से जानते हैं. कहना अनावश्यक है कि यह उसके ब्राण्ड के नाम का हिन्दी अनुवाद है. सेना में, बुद्धिजीवियों और कलाकारों में और आम लोगों में भी इस पदार्थ के प्रति क्रेज़ रहा है. इस पेय-विधा विशेष के विशेषज्ञों का कहना है कि कदाचित इस श्रेणी में यही एक पेय है जिसे पूरी तरह जेन्युइन  यानि खरा कहा और  माना जा सकता है, शेष सभी में जो कहा जाता है वो होता नहीं है बल्कि  सुगन्ध और रंग के इस्तेमाल से वैसा दिखाने का प्रयत्न मात्र होता है. बहरहाल, बहुत लम्बे समय तक लोकप्रियता की शीर्ष पायदान पर टिके रहने के बाद अब यह पदार्थ बिक्री के  मामले में बहुत तेज़ी से पिछड़ता जा रहा है. अगर आंकड़ों की बात करें तो यह कि 2010 से अब तक आते-आते इसकी बिक्री में लगभग 55 प्रतिशत की कमी आ चुकी है. और अगर यही हाल रहा, जो कि रहेगा ही, तो वो दिन दूर नहीं है जब यह पेय केवल उल्लेखों में बच रहेगा. अब आप इसके पराभव की वजह भी जान लीजिए. एक ज़माने में अस्सी लाख बोतलें हर साल तक बिक जाने वाली यह डार्क रम अपनी मर्दाना गुणवत्ता के लिए विख्यात थी. गुणवत्ता इसकी अब भी जस की तस है, लेकिन इस बीच बाज़ार में इसके बहुत सारे प्रतिस्पर्धी और आ गए, जिनका रंग रूप तो अलहदा था  ही, जिनके पीछे बड़े मल्टी नेशनल घरानों की बहुत बड़ी प्रचार-प्रसार की ताकत भी थी. तो इस दुनिया में भी दीये और तूफान की कहानी शुरु हुई, और अब हम कहानी के उस मुकाम पर हैं जहां बस तूफान के एक तेज़ झोंके की ज़रूरत है इस दीये की लौ को सदा-सदा  के लिए बुझा डालने के लिए.


तो एक तरफ फ्रांस की स्पार्कलिंग शैम्पेन जिसकी निर्माता कम्पनी दुनिया के लक्ज़री गुड्स की सबसे बड़ी कम्पनियों में शुमार है, और कहा जाता है कि जिसकी आर्थिक हैसियत अकूत है, और इस सबके ऊपर यह बात कि यूनेस्को ने भी अब इसी शैम्पेन के लिए ख़ास अंगूर पैदा करने वाले बागानों, तैयार शैम्पेन  को रखने वाले भूमिगत सुरागारों, शैम्पेन निर्माण स्थलों और इनका विपणन करने वाली जगहों यानि शैम्पेन  हाउसेस को विश्व विरासत सूची में शामिल करके और भी ज़्यादा मज़बूती प्रदान की है, और दूसरी तरह अन्तिम सांसें लेती हुई हमारी अपनी श्यामवर्णी ओल्ड मोंक. जिस दिन इसकी लौ बुझेगी वह दिन महज़ एक उत्पाद  के खत्म हो जाने की तारीख नहीं होगा. उस दिन एक परम्परा, एक विरासत, एक गाथा भी ख़त्म होगी. लेकिन क्या यह चिंता और अफसोस की बात नहीं होगी कि शैम्पेन और वाइन जैसी समृद्ध इण्डस्ट्रियों की तरफ अपना वरद हस्त बढ़ाने वाली संस्था की नज़र इस बेचारे दरिद्र पेय पर नहीं पड़ी!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 जुलाई, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 7, 2015

विज्ञापन में प्रतिरोध की अनुगूंज

इधर दो बातें  ऐसी हुईं जिनका परस्पर सम्बन्ध न होते हुए भी है. हम सबने लक्षित किया कि फेसबुक पर बहुत सारे मित्रों की प्रोफाइल छवियां सतरंगी हो गईं. पता चला कि अमरीका में सेम सेक्स विवाह का रास्ता साफ करने वाले सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का स्वागत और अभिनंदन करने के लिए फेसबुक ने यह इन्द्रधनुषी फिल्टर टूल उपलब्ध कराया था. दूसरी बात अपने देश में हुई. एक भारतीय एथनिक पोशाक कम्पनी ने ‘द विज़िट’ नामक  तीन मिनिट इक्कीस सेकण्ड की  एक विज्ञापन फिल्म जारी की जिसे अकेले यू ट्यूब पर दस दिनों में दो लाख से ज़्यादा लोगों ने और विविध सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर तीस लाख से ज़्यादा लोगों ने देखा. इस फिल्म में एक खूबसूरत अपार्टमेण्ट में दो युवतियों को दिखाया गया है. इनमें से एक के मां-बाप आने वाले हैं और उनके स्वागत में दोनों तैयार हो रही हैं. एक उत्तर भारतीय है, दूसरी दक्षिण भारतीय. एक लम्बी है दूसरी नाटी. एक गोरी है दूसरी कृष्णवर्णा. लेकिन हाव-भाव से दोनों के बीच का गहरा अनुराग अच्छी तरह व्यक्त हो जाता है. फिल्म ख़त्म होते-होते आप समझ जाते हैं कि यह भी सेम सेक्स के बीच के रिश्ते का मामला है, दोनों लिव इन जैसे रिश्ते में हैं और एक लड़की इसी रूप में दूसरी को अपने मां-बाप से मिलाने वाली है. इस बात को लेकर थोड़ी हिचकिचाहट भी सामने आती है लेकिन तब वह जिसके मां-बाप आ रहे हैं दो-टूक लफ्ज़ों में कह देती है कि ‘आई एम श्योर अबाउट अस एण्ड आई डोण्ट वॉण्ट टू हाइड इट एनीमोर’. और इसके बाद दोनों मुस्कुराते हुए लिपट जाती हैं. 

कहा गया है कि यह भारत की पहली ऐसी विज्ञापन फिल्म है जिसमें एक लेस्बियन कपल को दिखाया गया है. यहीं यह भी याद किया जा सकता है कि 1983 की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के आलीशान नाव वाले एक दृश्य में हेमा मालिनी और परवीन बाबी के बीच भी ऐसे ही रिश्ते का संकेत था. इसी सिलसिले में  दीपा मेहता की 1996 की फिल्म ‘फायर’ को भी याद किया जा सकता है. जानकार पाठकों के लिए इतना संकेत पर्याप्त होगा कि शबाना आज़मी नन्दिता दास अभिनीत यह फिल्म इस्मत चुगताई की 1942 की बहु चर्चित कहानी ‘लिहाफ़’ पर आधारित थी.  और बात जब साहित्य की आ ही गई है तो राजकमल चौधरी के एक क्षीणकाय उपन्यास ‘मछली मरी हुई’ को भी याद करना होगा. लेकिन ‘द विज़िट’ इस विवादास्पद विषय पर आधारित पहली विज्ञापन फिल्म है.

हम सभी जानते हैं कि विज्ञापनों की, और खास तौर पर भारतीय विज्ञापनों की दुनिया खासी पारम्परिक और एक हद तक प्रतिगामी भी है. यहां बेटी के लिए दहेज जमा करने वाले और काले रंग को गोरे में तब्दील करने का वादा करने वाले विज्ञापन आम हैं. लेकिन इधर विज्ञापनों की दुनिया में बड़े बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं. आपको हाल के ऐसे बहुत सारे विज्ञापन  याद आ जाएंगे जिनमें काफी कुछ गैर पारम्परिक और लीक से हटकर है, मसलन एक आभूषण कम्पनी का वो विज्ञापन जिसमें एक मां अपनी बेटी की उपस्थिति में पुनर्विवाह करती दिखाई गई थी, या एक साबुन कम्पनी की ‘रियल वुमन’ विज्ञापन श्रंखला... 

लेकिन ‘द विज़िट’ निस्संदेह इन सबसे आगे है. असल में यह विज्ञापन अपनी तमाम खूबसूरती और कलात्मक कोमलता के बावज़ूद एक कठोर प्रतिरोधात्मक वक्तव्य के रूप में सामने आया है. सन्दर्भ यह है कि 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता के समलैंगिकता को अपराध  करार देने वाले खण्ड 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया  था, लेकिन माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में इस फैसले को उलट दिया. अब स्थिति यह है कि भारतीय कानून की इस धारा के तहत जेल भी हो सकती है. यहीं यह भी याद किया जा सकता है कि ब्रितानी शासन के खिलाफ़ हुए 1857 के विद्रोह  के दमन के बाद 1861 में हमारे देश में एक नई भारतीय दण्ड संहिता लागू हुई थी और वही अब तक चली आ रही है. इस दंड संहिता की बहुत सारी बातें क्वीन विक्टोरिया के  रूढ़िवादी सोच की भी परिणति थीं,  अन्यथा इससे बहुत पहले यानि करीब दो हज़ार साल पहले की मनु की संहिता में समलैंगिकता के दण्ड के लिए मात्र कपड़े पहले हुए स्नान का प्रावधान है, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उस पर मामूली आर्थिक दण्ड का प्रावधान है और इन सबसे बढ़कर है 600 ईसा पूर्व रचित सुश्रुत संहिता जिसमें समलैंगिकता को जन्मजात प्रवृत्ति बताया गया था.

तो यह ‘द विज़िट’ विज्ञापन एक उत्पाद का प्रचार मात्र न होकर एक बोल्ड स्टेटेमेण्ट भी है. और इसका यह पक्ष ही इसे फेसबुक के उस इन्द्रधनुषी फिल्टर टूल से जोड़ता है.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम  कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 जुलाई, 2015 को 'द विज़िट'  विज्ञापन फिल्म में प्रतिरोध की अनुगूंज शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.