Tuesday, April 29, 2014

एक सच्चे पुस्तक प्रेमी को नमन!

इस सप्ताह मुझे एक विलक्षण व्यक्तित्व और उनके प्रेरणादायी कृतित्व के बारे में जानने का मौका मिला. मैं उनसे इतना अधिक प्रभावित हुआ हूं कि इस सप्ताह का अपना यह कॉलम उन्हीं की स्मृति को समर्पित कर रहा हूं.

मुझे जयपुर लाइब्रेरी एण्ड इंफोर्मेशन सोसाइटी ने विश्व पुस्तक दिवास और किन्हीं स्वर्गीय मास्टर मोती लाल जी संघी की 139 वीं जयंती पर उनके द्वारा स्थापित श्री सन्मति पुस्तकालय में ‘पुस्तकों और सूचना स्रोतों के बदलते स्वरूप’ पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था. मैं स्वीकार करता हूं कि इस आयोजन में जाने से पहले मुझे स्व. मास्टर जी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. लेकिन वहां उनके बारे में जो जानकारी मुझे मिली, और फिर वहां से मिली पाठ्य सामग्री से उनके बारे में जो कुछ मैंने जाना, उसे आपसे साझा करना बहुत ज़रूरी लग रहा है.

मोती लाल जी का जन्म 25 अप्रेल 1876 को चौमू के एक सामान्य परिवार में हुआ था. छठी कक्षा तक की पढ़ाई करने के बाद वे जयपुर आ गए और यहां से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर इण्टरमीजिएट तक पढ़े. अपनी पढ़ाई अधबीच में छोड़ पहले तो उन्होंने जीवन निर्वाह के लिए ट्यूशनें कीं और फिर कई स्कूलों में नौकरियां कीं. साठ साल की उम्र पूरी करने पर 30 साल की सरकारी नौकरी पूरी करने के बाद जब वे रिटायर हुए तो उनकी पेंशन बीस रुपये प्रतिमाह थी.

अपनी नौकरी के दौरान ही गणित विषय के इन  मास्टर साहब को पुस्तकों से प्यार हो गया था और वे हर महीने कम से कम दस रुपये किताबों पर खर्च करने लगे थे. बहुत जल्दी उनके पास किताबों का एक अच्छा खासा संग्रह हो गया और उससे उन्होंने 1920 में अपने घर के पास सन्मति पुस्तकालय की स्थापना कर दी. अपनी नौकरी से बचे वक़्त में वे अपने दोस्तों और परिचितों के घर अपने पुस्तकालय की पुस्तकें लेकर जाते और उनसे उन्हें पढ़ने का अनुरोध करते. एक निश्चित समय के बाद वे उनके पास पहले दी गई किताब वापस लेने और नई किताब देने जाते. इस बीच अगर कोई वह किताब न पढ़ पाता तो वे उसे पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते.

अपने रिटायरमेण्ट के बाद तो वे पूरी तरह से इस पुस्तकालय के ही होकर रह गए. उनका सारा समय पुस्तकालय में ही गुज़रता,  सिर्फ भोजन करने ही अपने घर जाते. संसाधनों का अभाव था, इसलिए इस पुस्तकालय के पितु मातु सहायक स्वामी सखा सब कुछ वे ही थे. वे ही बाज़ार  जाकर किताबें खरीदते, उनको रजिस्टर में दर्ज़ करते, उनपर कवर चढ़ाते, पाठकों को इश्यू करते, और लौटी हुई किताबों को जमा करते. अगर ज़रूरत होती तो पाठक के घर किताब पहुंचाने में भी वे संकोच  नहीं करते.

उनके पास जितने साधन थे उनके अनुसार वे नई किताबें खरीदते और पाठकों को सुलभ कराते. अगर ज़रूरत पड़ती तो किसी किताब की सौ तक प्रतियां भी वे खरीदते ताकि पाठकों की मांग की पूर्ति हो सके. उनके जीवन काल में इस पुस्तकालय में तीस हज़ार किताबें हो गई थीं. पुस्तकालय के संचालन के बारे में उनका अपना मौलिक और व्यावहारिक सोच था. नियम कम से कम थे. सदस्यों से न कोई प्रवेश शुल्क लिया जाता, न कोई मासिक या वार्षिक शुल्क, यहां तक कि कोई सुरक्षा राशि भी नहीं ली जाती थी. कोई पाठक जितनी चाहे किताबें इश्यू करवा सकता था. और जैसे इतना ही काफी न हो, किताब कितने दिनों के लिए इश्यू की जाएगी, इसकी भी कोई सीमा नहीं थी. उन्हें किसी अजनबी और ग़ैर सदस्य को भी किताब देने में कोई संकोच नहीं होता था. आपको किताब पढ़नी है तो रजिस्टर में अपना नाम पता लिखवा दीजिए और किताब ले जाइये! मास्टर मोती लाल जी का निधन 1949 में हुआ. लेकिन उनका बनाया श्री सन्मति पुस्तकालय अब भी उसी शान और उसी सेवा भाव से पुस्तक प्रेमियों की सेवा कर रहा है.

निश्चय ही आज के सन्मति पुस्तकालय के पीछे राज्य सरकार का वरद हस्त है और मास्टर साहब के प्रशंसक दानियों की उदारता का भी इसमें काफी बड़ा योगदान है. पुस्तकालय एक बड़े पाठक समुदाय  की निस्वार्थ सेवा कर रहा है. समय के अनुसार इसने अपनी सेवाओं में काफी बदलाव और परिष्कार भी किया है.  लेकिन मैं तो यहां मास्टर साहब और उनके जज़्बे को सलाम करना चाहता हूं. कहने की ज़रूरत नहीं कि जिस हिन्दी पट्टी में हम पुस्तक संस्कृति के अभाव का रुदन करते नहीं थकते हैं उसी पट्टी के बीच में रहकर, अपने अत्यल्प साधनों के बल पर उस सामान्य व्यक्ति ने जो कुछ कर दिखाया वह हमें न केवल आश्वस्त करता है, प्रेरित भी करता है कि अगर हम भी ठान लें तो अपने परिवेश को बदल  सकते हैं.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार दिनांक 29 अप्रेल, 2014 को 'आधी कमाई से किताबें खरीद बनाया पुस्तकालय' शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ! 

Tuesday, April 22, 2014

क़िस्सा एक अति उत्साही शायर का

आज आपसे एक पुराना अनुभव साझा कर रहा हूं.  बात काफी पुरानी है. मैं एक कस्बाई कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था और जैसा कि हिन्दी प्राध्यापकों के साथ आम तौर पर होता है, जहां भी कोई संयोजन वगैरह करना  होता, मुझे याद कर  लिया जाता था. उस कस्बे में हर बरस शिक्षक दिवस और कौमी एकता दिवस  पर जन सम्पर्क विभाग एक छोटी-मोटी कवि गोष्ठी  आयोजित करता था, जिसे सम्मानपूर्वक कवि सम्मेलन कहकर पुकारा जाता था. कस्बे के और आस-पास के तमाम नवोदित, उभरते हुए, स्थापित और वरिष्ठ कवि-शायर वगैरह इनमें शिरकत करते. वो ज़माना टेलीविज़न के आने से पहले का था और उस छोटे कस्बे  में लोगों के पास मनोरंजन के दूसरे कोई खास विकल्प भी नहीं थे इसलिए श्रोता भी काफी  जुट जाते थे. अब कह सकता हूं कि अगर तीस  कवि-शायर इनमें सहभागिता करते तो उनमें से दो-तीन ही स्तरीय होते, शेष तो बस होते थे!

उस साल भी,  पिछले कई सालों की तरह शिक्षक दिवस पर कवि गोष्ठी का संचालन करने का दायित्व मुझे ही दिया गया था. कुछ कवि-शायरों से मैंने अनुरोध किया था कि वे अपनी रचनाएं सुनाएं, और बहुतों ने मुझसे अनुरोध किया था कि वे भी अपनी रचना सुनाना चाहते हैं. इस तरह रचना पाठ करने वालों की काफी बड़ी लिस्ट हो गई थी. छोटे कस्बों की परम्परानुसार मां सरस्वती की तस्वीर के आगे दीप प्रज्ज्वलन और मुख्य अतिथि की शान में कसीदे वगैरह पढ़ने के बाद गोष्ठी शुरु हुई. उस दिन मुख्य अतिथि को फूलों की माला नहीं पहनाई जा सकी, क्योंकि बाज़ार  में उस दिन ढूंढे से भी फूल माला नहीं मिल सकी थी. उसकी बजाय उन्हें रेशम की वो चमकीली माला पहना कर काम चलाया गया, जो आम तौर पर देवताओं की तस्वीर पर लटकाने के काम  आती है. मुख्य अतिथि जी ने उस माला को देखकर नाक भौं भी सिकोड़ी थी,  जिस पर कार्यक्रम प्रभारी स्थानीय जन सम्पर्क अधिकारी  ने उनके कान में सफाई देते हुए क्षमा याचना भी कर ली थी. 

गोष्ठी ठीक ही चल रही थी. मैं एक-एक करके कवियों-शायरों को बुलाता जा रहा था. पहले मैं कवि का नाम पुकारता, उनका संक्षिप्त परिचय देता और फिर उनसे रचना पाठ का आग्रह करता. अगर श्रोताओं को उनकी रचनाएं ज़्यादा पसन्द आतीं और वे उनसे और सुनाने  की फरमाईश करते तो मैं भी उनसे एक और रचना सुनाने का अनुरोध  कर देता, जिसे वे सहर्ष स्वीकार करते अन्यथा मैं उनकी पठित रचनाओं पर एक संक्षिप्त रस्मी प्रशंसात्मक टिप्पणी करते हुए अगले कवि का नाम पुकार लेता. 

इस बार अपनी लिस्ट में से मैंने एक नए शायर को पुकारा. मैंने उन्हें पहले कभी नहीं सुना था, हालांकि वैसे मैं उन्हें जानता था क्योंकि  उस छोटे कस्बे में सभी सबको जानते थे. वे मंच पर आए और उस ज़माने के एक लोकप्रिय फिल्मी गाने ‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’ की धुन पर कोई तुकबन्दी जैसी चीज़ उन्होंने पढ़ी. उनकी वो रचना  ख़त्म होती, उससे पहले अचानक सामने से एक नौजवान दौड़ता हुआ आया और उनके गले में ताज़ा गुलाब के फूलों की एक माला डाल कर लौट गया. श्रोताओं के एक समूह ने उनसे एक और रचना सुनाने का आग्रह किया और उन्होंने बिना संयोजक की तरफ देखे, फौरन अपनी दूसरी रचना जो शायद उससे भी बुरी थी, सुनाना शुरु कर दिया. इस रचना  पाठ के दौरान उसी तरह चार बार और उनको मालाएं पहनाई गईं.  मुख्य अतिथि जी कुपित निगाहों से पी आर ओ साहब को देख रहे थे और उनकी आंखें कह रही थीं कि तुम तो कह रहे थे कि फूलों की मालाएं नहीं मिलीं, फिर ये कहां से आ गईं? उधर मैं उन कूड़ा रचनाओं से तंग आ रहा था. लेकिन श्रोताओं के समने कोई तमाशा न करना मेरी विवशता थी. जैसे ही उन शायर महोदय ने अपनी दूसरी रचना ख़त्म की, मैंने ज़रा भी मोहलत दिए बग़ैर, एकदम से उनको धन्यवाद देकर वह प्रकरण ख़त्म करना चाहा, लेकिन उनके चाहने वाले पुरज़ोर अन्दाज़ में ‘वंस मोर’ ‘वंस मोर’ चिल्लाने लगे. बात को सम्हालने  की गरज़ से मैंने श्रोताओं  से कहा कि मैं उनकी गुणग्राहकता का आदर करता हूं और यह विश्वास दिलाता हूं कि गोष्ठी के अगले दौर में इन शायर महोदय से आपको और भी रचनाएं  सुनवाऊंगा, लेकिन अभी तो आप हमारी गोष्ठी के अगले कवि जी को सुनिये. और जैसे-तैसे करके वो गोष्ठी ख़त्म हुई.

मुझे बाद में पता चला कि उन शायर महोदय का अपने चाहने वालों से इस बात पर काफी झगड़ा हुआ कि उन्होंने पैसे तो दस मालाओं दिये थे लेकिन पांच ही मालाएं क्यों पहनाई गईं! उधर, चाहने वालों का कहना था कि उन्होंने कुछ मालाएं उनकी तीसरी रचना के लिए बचा कर रखी थी, लेकिन उनके प्रयोग का मौका ही नहीं आया.  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में  मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 अप्रेल, 2014 को फूलों की माला और वंस मोर की तुकबन्दी शीर्षक से प्रकाशित मनोरंजक संस्मरण का मूल पाठ. 

Wednesday, April 16, 2014

आंखों देखी बनाम कानों सुनी


अभी कल ही हैदराबाद से एक बहुत पुराने मित्र का बड़ा आत्मीयता भरा पत्र आया. उन्होंने एक अखबार की कतरन संलग्न करते हुए लिखा कि वे शीर्षक देख कर इस ‘आंखों देखी’ नामक फिल्म को देखने गए, लेकिन निराश हुए. निराश होने की वजह यह थी कि शीर्षक से उन्हें लगा था कि यह फिल्म मेरी इसी से मिलते-जुलते शीर्षक (आंखन देखी) वाली किताब पर आधारित होगी, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था. वैसे यह फिल्म ‘आंखों देखी’ इधर की सबसे ज़्यादा चर्चित और प्रशंसित फिल्मों में से एक है. फिल्म की प्रशंसा देश में ही नहीं विदेश में भी हुई है. इसे साउथ एशियन इण्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फीचर फिल्म का ऑडिएंस अवार्ड भी मिला है और अब इसे 12 वें एनुअल इंडियन फिल्म फेस्टिवल ऑफ लॉस एंजेलिस (आईएफएफएलए) के अंतर्गत लॉस एंजेलिस में भी दिखाया जाएगा.

फिल्म की कहानी बड़ी रोचक है. पुरानी दिल्ली की एक संकड़ी गली के दो कमरों और एक दालान वाले छोटे-से मकान में पचास पार के बाऊजी अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रहते हैं. जगह कम है लेकिन परिवार खुश है. हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि बाऊजी एक दिन अचानक यह तै कर लेते हैं कि वो सिर्फ उसी बात पर यकीन करेंगे जो उन्होंने अपनी आंखों से देखी होगी. और इसके बाद उनकी ज़िंदगी दुश्वार होने लगती है. वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भारत का प्रधान मंत्री कौन है, वे यह मानने को तैयार नहीं है कि आज कौन-सा वार है, वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि पृथ्वी गोल है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे किसी गोले पर चलें तो गिर पड़ेंगे. वे यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि शेर दहाड़ता है, क्योंकि उन्होंने उसे कभी दहाड़ते हुए नहीं सुना है. वे अपनी ट्रेवल एजेण्ट की नौकरी छोड़ देते हैं क्योंकि वे किसी को एम्सटर्डम यात्रा का प्लान इसलिए नहीं बेच पाते हैं कि वे खुद कभी वहां नहीं गए हैं. उनका परिवार उनसे तंग आने लगता है. उधर उनका छोटा भाई ऋषि जिसे वे बेहद चाहते हैं, सपरिवार उनका घर छोड़ कर दूसरी जगह रहने चल जाता है. इस बात से बाऊजी बहुत आहत होते हैं और बीमार पड़ जाते हैं. जब उनकी पत्नी यह कहती है कि उनकी असली बीमारी तो यह है कि वे बोलते बहुत ज़्यादा हैं, तो वे बोलना भी बंद कर देते हैं. लेकिन इससे उन्हें लगता है कि वे चीज़ों पर ज़्यादा अच्छी तरह ध्यान केंद्रित कर पा रहे हैं.

और इसी के साथ, कुछ लोगों को यह भी लगता है कि उनकी बात में दम है, और वे एक पहुंचे हुए इंसान हैं. वे उनके अनुयायी बन जाते हैं. फिल्म में काफी कुछ घटित होता है. उस सबकी चर्चा यहां अनावश्यक है.
मैं तो यह सोच रहा हूं कि अगर हम सब भी अपनी ज़िंदगी का मूल मंत्र इस बात को बना लें कि जो अपनी आंखों से देखेंगे उसी पर विश्वास करेंगे तो क्या होगा? क्या ऐसी कोई ज़िद करने से ज़िंदगी सहज स्वाभाविक रूप से चल सकती है? कल्पना कीजिए कि कोई आपसे पूछे कि आपके पिता कौन थे, तो आप क्या जवाब देंगे? अगर आपकी यह ज़िद आपके स्कूली जीवन में ही शुरु हो जाए तो आपकी पढ़ाई का क्या होगा? इतिहास में तो आप कभी पास हो ही नहीं सकेंगे. आपने न अकबर को देखा है न अशोक को! कमोबेश भूगोल का भी यही हाल होगा. जब इस फिल्म के बाऊजी ही पृथ्वी को गोल नहीं मानते हैं तो आप भला क्यों मानने लगे?

मज़ेदार हालात तो चुनाव के दौरान पैदा होंगे. कल्पना कीजिए कि तमाम लोग इस बात का निर्वाह कर रहे हैं जो उन्होंने अपनी आंखों से देखा है वही कहेंगे और उसी पर भरोसा करेंगे, तो हमारे चुनावों के सबसे बड़े मुद्दों में से एक, भ्रष्टाचार तो जड़-मूल से ही ख़त्म हो जाएगा. आखिर किसने किसका भ्रष्टाचार देखा है? मैं तो सोच-सोचकर हैरान और हलकान हूं कि अगर ऐसा हो जाए तो चुनाव लड़ा किन बातों पर जाएगा? इस बात पर कि दो उम्मीदवारों में से कौन ज़्यादा गोरा या कौन ज़्यादा फिट है? हो सकता है तब दो या दो से ज़्यादा उम्मीदवारों के बीच खाने-पीने की या कुश्ती की प्रतियोगिता रखी जाए और इन्हीं आधारों पर उनकी जीत-हार घोषित की जाए! वैसे, अगर ऐसा हो जाए तो बुरा भी क्या है? आज चुनावों में जो कटुता, कर्कशता, भोण्डापन, भद्दापन, बदमज़गी बढ़ते जा रहे हैं, उनसे तो निज़ात मिलेगी!

आपका क्या ख़याल है?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 15 अप्रेल, 2014 को जब ज़िद ने कर दिया जीना दुश्वार शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, April 8, 2014

जो आपकी फिक्र करते हैं उन्हें हमारा सलाम!

जयपुर ट्रैफिक पुलिस ने फेस बुक पर एक छोटी-सी वीडियो क्लिप ज़ारी की है. यह  क्लिप कहती है कि सड़क पार करने के दो तरीके होते हैं. और फिर यह  उन दो तरीकों के नमूने पेश करती है.  मात्र एक मिनिट नौ सेकण्ड की इस क्लिप में पहले एक नौजवान जयपुर के भारी ट्रैफिक के बीच अपनी बाइक पर आड़े तिरछे कट मारता हुआ सड़क पार करता है. इस तरह के जां बाजों से हम रोज़ रू-बरू होते हैं!  लेकिन जयपुर ट्रैफिक पुलिस ने इस तरह के बहादुरों की शान में यह वीडियो क्लिप जारी नहीं की है. जिनकी शान में यह क्लिप जारी की गई है उनका प्रवेश थोड़ी देर से  होता है. ये भी चार पैर वाले हैं. पहले जो वीर आए थे दो पैर उनके थे और दो उनकी बाइक के. अब इस क्लिप में जो आते हैं, चारों पैर उनके अपने हैं. नहीं समझे ना आप? जयपुर ट्रैफिक के इस नायक को हम श्वान उर्फ कुत्ते जी के नाम से जानते हैं. ये सड़क पर आते हैं, दांये-बांये देखते हैं, लाल बत्ती होने और ट्रैफिक रुकने का इंतज़ार करते हैं, फिर सावधानी  से आधी सड़क पार करते हैं, ट्रैफिक  के लिए लाइट हरी हो जाने पर ऐन चौराहे पर रुकते हैं, लाइट लाल होने का इंतज़ार  करते हैं और फिर जब लाइट लाल हो जाती है तो बची हुई आधी सड़क पार करते हैं.

इस  क्लिप में जो नौजवान है उसकी बाइक सामने से आती एक कार से टकराती है  और जिस तरह वो और उनकी बाइक उछलते हैं उससे आशंका होती है कि बाद में उनके साथ ज़रूर कुछ अघटनीय घटित हुआ होगा. हमारे यहां एक मुहावरा है ना कि कुत्ते की मौत मरना!....लेकिन इस क्लिप में जो कुत्ता है वो सुरक्षा से सड़क पार कर जाता  है और उसके साथ कुछ भी अप्रिय घटित नहीं होता है.

इस वीडियो को देखकर मुझे कई सबक मिले हैं. पहला सबक तो यह है कि अगर आप कुत्ते की मौत न मरना चाहें तो कुत्ते की तरह सड़क पार करें! दूसरा यह कि बहादुरी से सड़क इंसान ही पार कर सकता है, कुत्ता तो भीषण डरपोक प्राणी है. ऐसा जीना भी क्या जीना, लल्लू! तीसरा यह कि अगर ग़ालिब आज होते तो इस वीडियो को देखकर ज़रूर लिखते  – आदमी से बेहतर है कुत्ता बनना.... क्योंकि इसमें मिलती हैं लाइक्स ज़्यादा!

जबसे यह वीडियो देखा है, मैं गहरे विचार में डूबा हूं! आखिर जयपुर ट्रैफिक पुलिस को हमें शिक्षा देने के लिए तमाम प्राणियों में से यह श्वान ही क्यों मिला? चाहते तो हाथी को भी ले सकते थे. आपको पता ही होगा कि संस्कृत कवियों ने गज गामिनियों की शान में कितने कसीदे पढ़े हैं! अगर आपने संस्कृत राम: रामौ रामा:  से आगे न भी पढ़ी हो तो उन  विख्यात चित्रकार के बारे में तो ज़रूर पढ़ा सुना होगा जो कभी माधुरी दीक्षित पर मर मिटे थे. उन्होंने गज गामिनी नाम से एक पूरी फिल्म ही बना डाली थी! चलो, हमारी ट्रैफिक पुलिस को हाथी पसंद नहीं आया तो कोई बात नहीं! वे जंगल के राजा को ले सकते थे! अगर उन्होंने शेर को फिल्म में लेकर हमें सीख दी होती तो हम गर्व से यह तो कहते कि भाई हम शेर की तरह सड़क पार करते  हैं!  लेकिन गर्व करने का यह मौका भी उन्होंने हमसे छीन लिया. इन्होंने आदर्श बनाया भी तो उस प्राणी को जिसे प्राय: एक प्राकृतिक कृत्य के संदर्भ में दीवारों पर अमर किया जाता रहा है: देखो! अमुक यह कर रहा है! क्या अब लज्जित करने के लिए उसी तर्ज़ पर यह कहा जाएगा कि देखो आदमी सड़क पार कर रहा है?

अब आप ही बताएं कि एक श्वान को हम अपना आदर्श कैसे मान लें? क्या लोगों से जाकर यह कहें कि इंसान की तरह ज़िंदा रहने के लिए हम कुत्ते की तरह सड़क पार करते हैं? कुत्ते की तरह सड़क पार करके ज़िंदा रहने से क्या कुत्ते की मौत मर जाना बेहतर नहीं होगा? और जीकर भी क्या होगा? अगर ज़िंदा रह भी गए तो कोई यमला पगला दीवाना आकर हमारा खून ही तो पियेगा! साथ में एक दो गालियां और देगा!

लेकिन मित्रों यह सब बैठे ठाले का चिंतन था. कभी-कभार दिमाग में ख़लल आ जाता है ना! सच तो यह है कि जयपुर ट्रैफिक पुलिस की यह वीडियो हमें बेहद पसंद आई है और  हम चाहते हैं कि हर नागरिक न सिर्फ इसे देखे, बल्कि इससे सबक भी ले! इंसान की ज़िंदगी बहुत कीमती है, हमें कोई हक़ नहीं है कि हम उसे नष्ट करें! अगर जयपुर ट्रैफिक पुलिस हमारी ज़िंदगी को लेकर इतनी फिक्रमंद है तो हम उनके सोच को सलाम करते हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 08 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 1, 2014

कई रस हैं बनारस में

जबसे भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने अपना 2014 का लोकसभा का चुनाव बनारस से लड़ने की घोषणा की है,  देश के प्राचीनतम और पवित्रम नगरों में से एक यह नगर एक बार फिर से दुनिया भर के मीडिया के आकर्षण का केंद्र बन गया है. लेकिन ऐसा नहीं है कि काशी और वाराणसी  के नामों से भी जाना जाने वाला यह शहर इससे पहले कम महत्वपूर्ण था. बल्कि सच तो यह है कि राजनीति के गर्दो-गुबार ने इस शहर के समृद्ध  अतीत को थोड़ा धूमिल ही किया है. और इसी से याद आता है कि यह नगर नई कविता के बहुत महत्वपूर्ण कवि धूमिल का भी था. जी हां, वे ही धूमिल जिनके कविता संग्रह  संसद से सड़क तक के बगैर आधुनिक हिंदी कविता की कोई तस्वीर बनती ही नहीं है.  बीट जनरेशन के अमरीकी यहूदी  कवि एलेन गिंसबर्ग ने इसी शहर में रहकर अपना महत्वपूर्ण सृजन किया और साठ के दशक में यह शहर दुनिया भर के हिप्पियों वगैरह के आकर्षण का केंद्र बना रहा. इस शहर का महत्व तो इतना ज़्यादा रहा है कि इसके नाम पर लोग अपने बच्चों के नाम रखते थे जैसे- बनारसी दास या काशीनाथ.

और बात जब साहित्य की आ ही गई है तो यह भी याद कर लेना चाहिए कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपना रामचरितमानस इसी नगर में लिखा था और कबीर भी यहीं हुए थे. और ये ही क्यों, रविदास और कबीर के गुरु रामानंद भी तो यहीं के थे. हिंदी साहित्य के आधुनिक काल  की शुरुआत जिनसे होती है वे भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके लगभग समकालीन राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद, जासूसी तिलस्मी उपन्यासों के सर्जक देवकीनंदन खत्री, महान आलोचक रामचंद्र शुक्ल, कथा सम्राट प्रेमचंद, कामायनीकार जयशंकर प्रसाद और हमारे समय के एक बहुत बड़े कथाकार-निबंधकार-आलोचक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कथाकार  शिवप्रसाद सिंह और ललित निबंधकार विद्यानिवास मिश्र  उन महान साहित्यकारों में से कुछ हैं जो बनारस में हुए. 

बात अगर भारतीय शास्त्रीय संगीत की करें तो बनारस घराने के इस शहर ने पण्डित रवि शंकर और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जैसे भारत रत्नों  के अलावा  पण्डित ओंकारनाथ   ठाकुर, गिरिजादेवी, सिद्धेश्वरी देवी, अनोखे लाल, सामता प्रसाद उर्फ गुदई महाराज, कण्ठे  महाराज, राजन और साजन मिश्र, सितारा देवी, गोपीकृष्ण जैसे अनेक संगीत रत्न दिये हैं. कला प्रेमियों और इतिहास वेत्ताओं की जब भी याद आएगी, राय कृष्णदास और उनके सुयोग्य पुत्र आनंद कृष्ण के साथ-साथ बी एच यू परिसर में स्थित उनका भारत भवन याद आए बगैर नहीं रहेगा. और बी एच यू की बात करेंगे तो भला उसके निर्माता मदन मोहन मालवीय को कोई कैसे याद नहीं करेगा?

हिंदी फिल्मों और फिल्मकारों को भी इस शहर ने खूब आकर्षित किया है. अगर डॉन में अमिताभ बच्चन ने इसी शहर का पान खा कर अपनी अकल का ताला खोला तो खुल्लम खुल्ला में गोविंदा को अपनी नायिका के लिए यहां के पान की उपमा ही सबसे अच्छी लगी – ये लड़की नहीं ये बनारस का पान है. पान के अलावा, हमारे फिल्मकारों को जब भी ठगी की कोई कहानी पसंद आई तो उन्हें बनारस ही याद आया. बनारसी ठगों की कारगुज़ारियों पर आधारित 1968 की दिलीप कुमार-संजीव कुमार अभिनीत संघर्ष हो या बाद की बनारसी बाबू’, ‘बनारसी ठग या दो ठग– ये सब बनारस की एक  खास तरह की छवि सामने लाने वाली फिल्में रहीं. यमला पगला दीवाना- पार्ट 1 और पार्ट 2   के ठगों ने भी अपने उल्टे सीधे कामों के लिए बनारस की धरती को ही उपयुक्त पाया. लेकिन इधर के फिल्मकारों को इस शहर की याद प्रेम के संदर्भ में भी आने लगी  है. सुमधुर गाने बनारसिया वाली धनुष और सोनम की प्रेम कहानी रांझणा की कथा भूमि  बनारस ही है और थोड़ा समय पहले आई बनारस अ मिस्टिक लव स्टोरीऔर आने वाली इसक तेरा  के केंद्र में भी बनारस ही था और है. और हां, ‘राम तेरी गंगा मैली’, ‘लागा चुनरी में दागऔर विवादित फिल्म वॉटरकी नायिकाओं की दुर्दशा का भी कोई न कोई सम्बंध इसी शहर से जुड़ता है.

अब जबकि देश की तमाम चुनावी हलचलों के केंद्र में यह पवित्र नगर है, यह याद दिलाता चलूं कि इसी नगर के एक कथाकार शिव प्रसाद मिश्र रुद्रकाशिकेय ने अपने  एक उपन्यास बहती गंगामें  इस नगर के दो सौ बरसों के इतिहास को अनूठे अंदाज़ में समेटा है और इसी नगर के एक अन्य नामचीन कथाकार काशीनाथ सिंह  की किताब काशी का अस्सी अपने विलक्षण अंदाज़े बयां और इस  शहर को एक अलग नज़र से देखने और दिखाने के लिए चुनाव हो चुकने के बरसों बाद भी याद रखी जाएगी. फिलहाल तो देखना यह है कि क्या आने वाले चुनाव  उन हालात को थोड़ा भी बदल पाने में कामयाब होंगे, जिनसे क्षुब्ध होकर  कभी धूमिल को लिखना पड़ा था कि
क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है 
जिन्हें एक पहिया ढोता है 
या इसका कोई खास मतलब होता है?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 01 अप्रेल, 2014 को 'क्या गुल खिलाएगा 'धूमिल' का शहर बनारस'   शीर्षक से प्रकाशित आलेख  मूल पाठ.