हरिवंश राय बच्चन के एक बहुत प्रसिद्ध गीत
का मुखड़ा है: जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं बैठ कभी यह सोच
सकूं/ जीवन में जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला! बच्चन जी ने जब यह
गीत लिखा होगा तब से अब तक आते-आते जीवन की आपाधापी और बढ़ गई है. ‘सुबह होती
है, शाम होती है उम्र यूं ही तमाम होती है’ की ताल पर समय मार्च पास्ट करता है और दीवारों पर
लटकाया गया नया कैलेण्डर देखते ही देखते कचरे के डिब्बे में डाला जाने काबिल बन
जाता है. एक और साल बीत रहा है और हम नए साल के स्वागत के लिए प्रस्तुत हैं. पता नहीं जीवन की आपाधापी में हम कितना
विचार कर पाए कि एक साल में हमने क्या खोया और क्या पाया, और अगर विचार किया तो
उसका कुल जमा हासिल क्या रहा!
वैसे, मुझे लगता है कि आप जहां भी जाएं,
एक गिलास कभी आपका पीछा नहीं छोड़ता है! अरे, वही गिलास, जो किसी को आधा भरा तो किसी को आधा
खाली नज़र आता है! आप पूछेंगे कि यह आधा का क्या चक्कर है भाई? और मैं फौरन अपने
निदा फाज़ली साहब को ला खड़ा करूंगा. उन्हीं
ने तो कहा था:
कभी किसी को मुकम्मिल जहां नहीं मिलता/ कभी ज़मीन तो कभी आसमां नहीं
मिलता. तो शायद यह हमारी नियति ही है कि हमें मुकम्मिल जहां न मिले, और यह भी
हो सकता है कि असंतोष हमारी फितरत में ही शुमार हो. ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर
समझ लिया’ कहने वाले सिर्फ फिल्मों में ही होते हों और फिल्मों से बाहर असल
ज़िन्दगी में ‘और ज़रा-सी दे दे साक़ी’ कहने वाले ही रहते हों! बहरहाल. समय का
चक्र हर हाल में घूमता रहता है. ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम’.
और हम चलते चले जा रहे हैं. उस साल का
आकलन तमाम अखबार और संचार साधन कर रहे हैं जो हमारी मुट्ठी से बस फिसलने ही वाला
है. और अपने-अपने साल का आकलन हम अपनी-अपनी तरह से कर रहे हैं. अगर अब तक नहीं कर
सके तो अब जो समय शेष बचा है उसमें ज़रूर कर लेंगे.
हम सब चाहते हैं कि जो साल बीत रहा है आने
वाला साल उससे बेहतर साबित हो. ग़ालिब बहुत पहले ही हमें एक जुमला थमा गए हैं- ‘एक बिरहमन ने कहा
है कि ये साल अच्छा है...’ और फिर उन्हीं के नक्शे क़दम पर चलते हुए उनके
वंशजों यानि बाद के कवियों ने भी ऐसी ही शुभ कामनाएं की हैं. इन कामनाओं में शुभ
और कामना दोनों शामिल हैं. अब देखिये ना,
रूस में रह रहे हिन्दी कवि अनिल जनविजय ने
नए साल के शुभ को किस तरह शब्दों में संजोया है:
नया वर्ष: संगीत की
बहती नदी हो
गेहूँ की बाली दूध से भरी हो
अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो
खेलते
हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष.
नया वर्ष: सुबह का
उगता सूरज हो
हर्षोल्लास में चहकता पाखी
नन्हे बच्चों की पाठशाला हो
निराला-नागार्जुन
की कविता
नया वर्ष: चकनाचूर
होता हिमखंड हो
धरती पर जीवन अनंत हो
रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद
हर कोंपल, हर कली पर छाया वसंत
हो.
भला ऐसा नया साल कौन नहीं चाहेगा? और क्या
यह सपना इतना बड़ा है कि पूरा ही न हो सके? शायद सारे स्वप्नदृष्टा ऐसे ही सपने
देखते हैं. दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिए, राजनीतिज्ञों ने, दार्शनिकों ने,
कलाकारों ने, आध्यात्मिक गुरुओं ने – सभी ने इसी तरह के सपने देखे हैं. लेकिन जैसा
टी एस एलियट ने कहा है, बिटवीन द आइडिया एंड द रियलिटी.... फॉल्स द शैडो!
सोच जब तक कर्म में रूपांतरित होता है, बहुत कुछ
बदल जाता है. सारी दुनिया में यही हुआ है. विचार बहुत अच्छा होता है, सोच जनमंगलकारी होता
है, रूपरेखा आदर्श होती है लेकिन ये जब क्रियारूप में परिणत होते हैं तब हम पाते
हैं कि ‘क्या से क्या हो गया...’
तो क्या ऐसा सपना नहीं देखा जाना चाहिए कि
जो अब तक होता रहा है वो आइन्दा न हो! हिन्दी के महान कवि मुक्तिबोध ने भी तो यही
कहा था, कि जो है उससे बेहतर चाहिये!
जैसी दुनिया हमें मिली है, उसे बेहतर भी तो हम ही बनायेंगे! तो आइये, वर्ष
2015 के आगाज़ पर हम संकल्प करें कि जैसी दुनिया हमें मिली है उससे बेहतर दुनिया
आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाएंगे. मैंने बात बच्चन की पंक्तियों से शुरू की थी,
तो उपयुक्त होगा कि उन्हीं की पंक्तियों से आपको नव वर्ष की मंगल कामनाएं भी दूं:
वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।
गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 दिसम्बर, 2014 को वर्ष नव हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.