Tuesday, December 30, 2014

नव वर्ष मंगलमय हो!

हरिवंश राय बच्चन के एक बहुत प्रसिद्ध गीत का मुखड़ा है: जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं बैठ कभी यह सोच सकूं/ जीवन में जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा-भला! बच्चन जी ने जब यह गीत लिखा होगा तब से अब तक आते-आते जीवन की आपाधापी और बढ़ गई है. ‘सुबह होती है, शाम होती है उम्र यूं ही तमाम होती है’  की ताल   पर समय मार्च पास्ट करता है और दीवारों पर लटकाया गया नया कैलेण्डर देखते ही देखते कचरे के डिब्बे में डाला जाने काबिल बन जाता है. एक और साल बीत रहा है और हम नए साल के स्वागत के लिए प्रस्तुत  हैं. पता नहीं जीवन की आपाधापी में हम कितना विचार कर पाए कि एक साल में हमने क्या खोया और क्या पाया, और अगर विचार किया तो उसका कुल जमा हासिल क्या रहा!

वैसे, मुझे लगता है कि आप जहां भी जाएं, एक गिलास कभी आपका पीछा नहीं छोड़ता है! अरे,  वही गिलास, जो किसी को आधा भरा तो किसी को आधा खाली नज़र आता है! आप पूछेंगे कि यह आधा का क्या चक्कर है भाई? और मैं फौरन अपने निदा फाज़ली साहब को ला खड़ा  करूंगा. उन्हीं ने तो कहा  था:   कभी किसी को मुकम्मिल जहां नहीं मिलता/ कभी ज़मीन तो कभी आसमां नहीं मिलता. तो शायद यह हमारी नियति ही है कि हमें मुकम्मिल जहां न मिले, और यह भी हो सकता है कि असंतोष हमारी फितरत में ही शुमार हो. ‘जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया’ कहने वाले सिर्फ फिल्मों में ही होते हों और फिल्मों से बाहर असल ज़िन्दगी में ‘और ज़रा-सी दे दे साक़ी’ कहने वाले ही रहते हों! बहरहाल. समय का चक्र हर हाल में घूमता रहता है. ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ-शाम’. और हम चलते  चले जा रहे हैं. उस साल का आकलन तमाम अखबार और संचार साधन कर रहे हैं जो हमारी मुट्ठी से बस फिसलने ही वाला है. और अपने-अपने साल का आकलन हम अपनी-अपनी तरह से कर रहे हैं. अगर अब तक नहीं कर सके तो अब जो समय शेष बचा है उसमें ज़रूर कर लेंगे.

हम सब चाहते हैं कि जो साल बीत रहा है आने वाला साल उससे बेहतर साबित हो. ग़ालिब बहुत पहले ही  हमें एक जुमला थमा गए हैं- ‘एक बिरहमन ने कहा है कि ये  साल अच्छा है...’  और फिर उन्हीं के नक्शे क़दम पर चलते हुए उनके वंशजों यानि बाद के कवियों ने भी ऐसी ही शुभ कामनाएं की हैं. इन कामनाओं में शुभ और कामना  दोनों शामिल हैं. अब देखिये ना, रूस  में रह रहे हिन्दी कवि अनिल जनविजय ने नए साल के शुभ को किस तरह शब्दों में संजोया है: 

नया वर्ष: संगीत की बहती नदी हो 
गेहूँ की बाली दूध से भरी हो 
अमरूद की टहनी फूलों से लदी हो  
खेलते हुए बच्चों की किलकारी हो नया वर्ष.

नया वर्ष: सुबह का उगता सूरज हो
हर्षोल्लास में चहकता पाखी
नन्हे बच्चों की पाठशाला हो
निराला-नागार्जुन की कविता

नया वर्ष: चकनाचूर होता हिमखंड हो
धरती पर जीवन अनंत हो
रक्तस्नात भीषण दिनों के बाद
हर कोंपल, हर कली पर छाया वसंत हो.

भला ऐसा नया साल कौन नहीं चाहेगा? और क्या यह सपना इतना बड़ा है कि पूरा ही न हो सके? शायद सारे स्वप्नदृष्टा ऐसे ही सपने देखते हैं. दुनिया का इतिहास उठाकर देख लीजिए, राजनीतिज्ञों ने, दार्शनिकों ने, कलाकारों ने, आध्यात्मिक गुरुओं ने – सभी ने इसी तरह के सपने देखे हैं. लेकिन जैसा टी एस एलियट ने कहा है, बिटवीन द आइडिया एंड द रियलिटी.... फॉल्स द शैडो! सोच जब तक कर्म में रूपांतरित होता है, बहुत कुछ  बदल जाता है. सारी दुनिया में यही  हुआ है.  विचार बहुत अच्छा होता है, सोच जनमंगलकारी होता है, रूपरेखा आदर्श होती है लेकिन ये जब क्रियारूप में परिणत होते हैं तब हम पाते हैं कि ‘क्या से क्या हो गया...’ 

तो क्या ऐसा सपना नहीं देखा जाना चाहिए कि जो अब तक होता रहा है वो आइन्दा न हो! हिन्दी के महान कवि मुक्तिबोध ने भी तो यही कहा था, कि जो है उससे बेहतर चाहिये!  जैसी दुनिया हमें मिली है, उसे बेहतर भी तो हम ही बनायेंगे! तो आइये, वर्ष 2015 के आगाज़ पर हम संकल्प करें कि जैसी दुनिया हमें मिली है उससे बेहतर दुनिया आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ कर जाएंगे. मैंने बात बच्चन की पंक्तियों से शुरू की थी, तो उपयुक्त होगा कि उन्हीं की पंक्तियों से आपको नव वर्ष की मंगल कामनाएं भी दूं:

वर्ष नव,
हर्ष नव
,
जीवन उत्कर्ष नव।

नव उमंग
,
नव तरंग
,
जीवन का नव प्रसंग।

नवल चाह
,
नवल राह
,
जीवन का नव प्रवाह।

गीत नवल
,
प्रीत नवल
,
जीवन की रीति नवल
,
जीवन की नीति नवल
,
जीवन की जीत नवल!

•••
लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 दिसम्बर, 2014 को वर्ष नव हर्ष नव, जीवन उत्कर्ष नव शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल  पाठ.  

Tuesday, December 23, 2014

तालाब गन्दा है या मछली?

अपने लगभग पौने चार दशकों में फैले सेवा काल में मुझे बहुत सारे जन प्रतिनिधियों के सम्पर्क में आने का अवसर मिला. 1967 से शुरु हुए मेरे सेवाकाल के प्रारम्भ में न तो मेरे काम की प्रकृति इस बात की ज़रूरत पैदा करती थी कि किसी जन प्रतिनिधि से सम्पर्क करना पड़े और न राज्य कर्मचारियों की आचार संहिता इस बात की अनुमति देती थी कि हम उनसे सम्पर्क साधें. बहुत लम्बे समय तक तबादलों वगैरह के लिए जन प्रतिनिधियों या राजनीतिक दलों से सम्पर्क करना निषिद्ध था. लेकिन धीरे-धीरे हालात बदले और आज स्थिति यह है कि बिना जन प्रतिनिधिगण की ‘डिज़ायर’ के किसी तबादले की कल्पना ही नहीं की जा सकती.

अपनी नौकरी के उत्तर काल में, जब मैं शिक्षक से पदोन्नत होकर अधिकारी बना तो जन प्रतिनिधिगण से सम्पर्क के अवसर भी बढ़े. लेकिन इनके साथ सम्पर्क के मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे. मैं अब भी कृतज्ञतापूर्वक इस बात को स्मरण करता हूं कि जब मैं एक कॉलेज का प्राचार्य था तो स्थानीय विधायक प्राय: मुझे किसी न किसी के प्रवेश की अनुशंसा में फोन करती थीं. लेकिन उनकी भाषा आदेशात्मक न होकर अनुरोधात्मक होती थी:  ‘देखिये, अगर ऐसा हो सके...’. एक दिन जब किसी सामाजिक आयोजन में उनसे मुलाकात हुई तो मैंने उनसे कहा कि हमारे यहां प्रवेश के नियम इतने सख़्त हैं कि प्राचार्य अपने स्तर पर कुछ भी नहीं कर सकता है. वे बोलीं, “मैं इस बात को जानती हूं. लेकिन क्या करें! हम जन प्रतिनिधियों को भी तो अपने समर्थकों के सामने अपनी छवि बनाये रखनी पड़ती है. इसीलिए मैं आपको फोन करती हूं. लेकिन आप तनिक भी फिक्र न करें, और जो आपके नियमानुसार सम्भव हो वो ही करें.” 

जिस कॉलेज का यह प्रसंग है, उसी नगर के एक अन्य कॉलेज में पदोन्नत होकर जब मैं प्राचार्य के रूप में पहुंचा तो दूसरे तीसरे दिन किसी काम से स्थानीय विधायक को फोन करना पड़ा. वे छूटते ही बोले कि “देखिये आप मेरी इच्छा के विरुद्ध इस कॉलेज में आ तो गए हैं, लेकिन मैं आपको यहां रहने नहीं दूंगा.” उनके इस कोप की पृष्ठभूमि यह थी कि जब मैंने उनसे उस कॉलेज में पदस्थापित होने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी तो उन्होंने यह कहते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त की थी कि वे पहले से किसी और से वचनबद्ध हो चुके हैं. लेकिन मैंने फिर भी प्रयास किये और संयोग से मैं अपने प्रयासों में कामयाब भी हो गया. अपने कोप को उन्होंने बहुत जल्दी साकार भी कर  दिया, लेकिन हम दोनों की पारस्परिक सद्भावना को कोई आंच नहीं आई और इस प्रसंग के लगभग पन्द्रह बरस बाद भी हमारे रिश्ते जस के तस हैं.

राज्य की राजधानी में उच्च प्रशासनिक पद पर रहते हुए तीन बरसों में तो शायद ही कोई  दिन ऐसा बीता हो जब किसी जन प्रतिनिधि से भेंट न हुई हो. विभागीय मंत्रीगण से तो खैर दिन में एकाधिक बार भी सम्पर्क होता रहा, और कभी कोई बदमज़गी नहीं हुई, हालांकि बहुत बार उनकी इच्छा के अनुरूप काम न करने की विवशता भी रही. जन प्रतिनिधिगण मेरे ऑफिस में आते या फोन करते, सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह होता, और बस. वे अपना काम लेकर आते और हम यथानियम काम करते या नहीं भी कर पाते.  बल्कि सच तो यह है कि सामान्य और हो जाने वाले काम के लिए तो शायद ही कोई आता. वे आते ही ऐसे कामों के लिए जो किसी न किसी वजह से नहीं हो पाते, और उनके आने या कहने के बाद भी नहीं ही होते. लेकिन  मज़ाल है जो  किसी ने कभी ऊंची आवाज़ में भी बात की हो. हां, इतना ज़रूर कि अगर उनका काम न होने योग्य होता तो मैं स्पष्ट रूप से अपनी मज़बूरी बता देने में कोई संकोच नहीं करता.

पीछे मुड़ कर देखता हूं तो बस एक प्रसंग याद आता है जब किसी जन प्रतिनिधि ने मेरे साथ नाराज़गी भरा बर्ताव किया. इतना लम्बा अर्सा बीत गया है लेकिन वो मंज़र अभी भी मेरी यादों में सजीव है. मैं अपने ट्रांसफर के लिए स्थानीय विधायक के पास जयपुर आया था. हम लोग सचिवालय में मिले, जो करणीय था वह किया गया और मैं उनके साथ ऑटो में सर्किट  हाउस –जहां वे ठहरे थे-  लौटा. जैसे ही हम उतरने को हुए, मैंने ऑटोवाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला. विधायक जी ने फौरन मेरा हाथ पकड़ा और गुस्से से बोले, “उतर जाइये आप. चले जाइये.” मुझे समझ में नहीं आया कि क्या ग़लती हो गई? बोले, “आप पैसे क्यों देंगे?” ओह! तो यह बात थी!  मैंने क्षमा याचना की. उन्होंने पैसे चुकाये, अपने कमरे में मुझे लेकर गये, चाय पिलाई और प्यार से विदा किया.

क्या इतनी जल्दी हालात इतने बिगड़ गये हैं? या फिर कुछ मछलियों की वजह से पूरा तालाब बदनाम हो  रहा है?

•••
लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 23 दिसम्बर, 2014 को हालात बिगड़े या कुछ की वजह से माहौल खराब हुआ शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 16, 2014

हनीमून और पुरुष मानसिकता

कुछ बातें ऐसी हैं जो एकबारगी तो चौंकाती हैं लेकिन जब उन पर तसल्ली से विचार करते हैं तो आपकी प्रतिक्रिया बदल जाती है. मेरे साथ ऐसा ही हुआ. हाल ही में जब मधु चन्द्रिका यानि हनीमून के बारे में किए गए एक सर्वे के परिणामों  के बारे में पढ़ा तो बहुत अजीब लगा. सर्वे ने बताया कि ज़्यादातर भारतीय पुरुष हनीमून पर किसी या किन्हीं और युगलों के साथ जाना पसन्द करते हैं और इस दौरान ली गई अपनी अंतरंग छवियों को सोशल मीडिया पर साझा करना भी उन्हें अच्छा लगता है. ये दोनों ही बातें खासी चौंकाने वाली हैं. विवाह के बाद का यह रिवाज़, जो हमने पश्चिम से आयात किया है अब हमारे रीतिरिवाज़ों का भी उसी तरह एक अभिन्न अंग बन चुका है जैसे ‘हम आपके हैं कौन’ के बाद जूता चुराई हमारी रस्मों की लिस्ट में शामिल हो गई है. और इसमें चौंकने, दुखी होने या खुश होने जैसी कोई बात नहीं है. वो गाना है ना, ‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुब-हो  शाम...’  यानि जीवन में एक ही चीज़ स्थिर है और वो है परिवर्तन. आदि मानव के जीवन में तो विवाह  भी नहीं था, बल्कि परिवार भी नहीं था. ये सब बाद में ही तो आए. संयुक्त परिवार सिमट कर बहुत छोटे हो गए, और विवाह के रीति रिवाज़ भी काफी बदल गए. अलबत्ता, बहुत सारी चीज़ें अवशेष के रूप में बची हुई भी हैं जैसे वर का योद्धा वाला रूप, अश्वारोहण और  तलवार, कमरबन्द वगैरह और बारात के रूप में साथ चलती सेना. लेकिन इनका केवल प्रतीकात्मक रूप ही बचा है और पता नहीं कब वो भी लुप्त हो जाए. वैसे भी असल विवाह पर बहुत कम बल रह गया है, उससे ज्यादा महत्व तो वरमाला वाली रस्म का हो गया है और अधिकतर मेहमान तो उसके बाद खा-पीकर और वर वधू को आशीर्वाद देकर, जो कि एक लिफाफे के रूप में होता है, चले ही जाते हैं.

हां,  तो बात कर रहा था हनीमून की. इस प्रथा के मूल में यह भाव रहा होगा कि परिवार की भीड़-भाड़  से दूर नव युगल एक दूसरे को अच्छी तरह से जान समझ कर नव जीवन का शुभारम्भ करें. लेकिन जिस सर्वे की मैं बात कर रहा हूं वह तो इस प्रथा का यह रूप नहीं रहने दे रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सामाजिकता की जड़ें हमारे जीवन में इतने गहरे तक उतरी हुई हैं कि हम उससे दूर जाना ही नहीं चाहते हैं, अपने बहुत अन्तरंग पलों  में भी! लेकिन तस्वीरों को साझा करने की इच्छा को आप क्या कहेंगे? कुछ समय पहले मैं ऐसे ही एक प्रकरण का एक किरदार बन गया. फेसबुक पर मेरे एक युवा मित्र ने अपने हनीमून की कुछ ऐसी तस्वीरें पोस्ट कीं, जो कुछ ज्यादा ही निजी थीं. मैंने उन्हें इनबॉक्स में एक सन्देश भेज कर बहुत विनम्रता से यह अनुरोध किया कि वे उन तस्वीरों को हटा  दें, और आपको यह जानकर  आश्चर्य  होगा कि वे मुझ पर नाराज़ हो गए  और लगे पूछने कि मैंने उन्हें ऐसी सलाह क्यों दी? ज़ाहिर है कि मैंने क्षमा याचना करते हुए अपनी सलाह वापस लेने में ही कुशल समझी. शायद बदले वक़्त और बदली पीढ़ी का यही तकाज़ा हो! कहीं  ऐसा तो नहीं है कि ये तस्वीरें साझा करके हम इस बात का विज्ञापन करते हैं कि देखो, यह मेरी ‘उपलब्धि’  है (पुरुष वर्चस्व!) या मैं इतना समृद्ध  हूं कि अमुक जगह पर हनीमून मना रहा हूं!   

लेकिन जिस सर्वे की मैं बात कर रहा हूं उसमें एक बात अवश्य ऐसी हैं जो चौंकाती हैं. यह सर्वे कहता है कि विवाह के बाद हनीमून के लिए कहां जाया जाए, इस बात का फैसला प्राय: वर ही करता है और इस फैसले में वधू की भूमिका शून्य या नगण्य होती है. यह बात मुझे चौंकाने वाली इसलिए लगी कि सारे बदलावों के बावज़ूद जिन परिवारों में हनीमून पर जाने का रिवाज़ बढ़ा है वे ऐसे हैं जहां वर और वधू खासे शिक्षित हैं, और बहुत सारी वधुएं बारोज़गार यानि आर्थिक रूप से आत्म निर्भर भी होती हैं. लेकिन जब यह सर्वे कहता है कि अधिकांश वधुएं भी इस बात को स्वीकार करती हैं कि हनीमून के लिए कहां जाना है इसका निर्णय करने का हक़ पुरुष को है क्योंकि वही पैसा खर्च कर रहा है, और रिश्तों के निर्वहन में पुरुष की ज़िम्मेदारी ज़्यादा है, तो न केवल चौंकना पड़ता है, दिल में दर्द भी होता है. इस उल्लास यात्रा की प्लानिंग में उनकी आवाज़ का न होना न सिर्फ चौंकाता है, हमारे पारम्परिक पारिवारिक ढांचे में स्त्री की हैसियत पर भी एक टिप्पणी करता है.  लेकिन इस हालत में बदलाव आएगा, यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए. 
•••

लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मंगलवार, दिनांक 16 दिसम्बर 2014 को मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में शुभचिंतक बनकर सलाह दी तो मांगनी पड़ी माफ़ी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 9, 2014

किस तरफ हो तुम

जिन्होंने कभी भी, किसी भी स्तर पर हिंदी साहित्य पढ़ा है वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के नाम से अपरिचित  नहीं हो सकते हैं. आचार्य शुक्ल बहुत बड़े निबन्धकार भी थे. आज इनकी चर्चा से अपनी बात इसलिए शुरु कर रहा हूं कि इनके एक बहुत प्रसिद्ध निबन्ध ‘कविता क्या है’ की एक बात मुझे बहुत याद आ रही है. शुक्ल जी ने कविता की ज़रूरत क्यों है यह बताने के लिए कहा है कि सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ  मनुष्य के आचरण इतने जटिल हो गए हैं कि वे सीधे-सीधे तो समझ में नहीं आते हैं. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अनेक उदाहरण भी दिए हैं. लेकिन मैं यहां उनकी चर्चा नहीं करूंगा. असल में आचार्य शुक्ल जी की यह बात मेरे जेह्न पर इसलिए दस्तक दे रही है कि आज के समय में यह तै करना मुश्क़िल होता जा रहा है कि क्या सच है और क्या झूठ, कौन सही है और कौन ग़लत! 

वैसे यह एक शाश्वत  मुश्क़िल है. हमारे समय के एक बड़े राजनेता राममनोहर लोहिया ने यह कहने के लिए कि जीवन में तटस्थता जैसी कोई चीज़ नहीं होती है, एक प्राचीन कथन ‘देह धरे का दण्ड’ का सहारा लिया था. आप जब भी किसी चीज़ को देखते हैं, एक ख़ास कोण से ही उसे देख सकते  हैं. जब मैं आपके सामने खड़ा होकर आपको देखता हूं तो मुझे आपका चेहरा नज़र आता है, और जब मैं आपके पीछे जाकर आपको देखता हूं तो मुझे आपकी पीठ नज़र आती है. मैं पेट और पीठ दोनों को एक साथ देख ही नहीं सकता. यही तो देह धरे का दण्ड है. और यही बात हम जीवन में भी देखते हैं. मेरी सहानुभूति जिसके साथ होती है मैं उसी के नज़रिये से चीज़ों को देखता हूं, दावा भले ही तटस्थता का करूं. हो सकता है मेरा  झुकाव कभी कम और कभी ज़्यादा हो, लेकिन यह स्थिति शायद ही कभी आ पाती हो कि झुकाव हो ही नहीं. और यह झुकाव, यह अपने नज़रिये से चीज़ों को देखना इतना सहज-स्वाभाविक होता है कि हमें उसका एहसास तक नहीं होता.

ये सारी बातें मुझे उस रोहतक काण्ड के सन्दर्भ में याद आई जिस पर पिछले सप्ताह मैंने अपने इस कॉलम में चर्चा की थी. इस बीच  अलग-अलग संचार माध्यमों पर उस प्रकरण पर इतनी अधिक चर्चाएं हुई हैं और हो रही हैं कि अब यह कहना बहुत कठिन हो गया है कि असल में हुआ क्या था! कोई एक पक्ष पर आरोप लगा रहा है तो कोई दूसरे पक्ष पर. और ऐसा अन्य बहुत सारे मामलों में भी हम देखते रहते हैं. कभी यह सब इतने बेबाक तरीके से होता है कि बहुत आसानी से यह बात समझ में आ जाती है कि अगर कुछ कहा जा रहा है तो क्यों कहा जा रहा है, उससे किसको लाभ होगा और किसकी हानि होगी; और कभी यह काम इतनी बारीकी से किया जाता है कि आपको तनिक भी सन्देह नहीं होता कि सच बयान करने के आवरण में कोई खेल खेला जा रहा है. इधर के बरसों में बहुत सारे मामलों में हमने यह देखा है कि आज जिसे महान कहकर प्रचारित और स्थापित किया गया, उसकी हक़ीक़त तो कुछ और ही थी. इधर जैसे-जैसे संचार माध्यमों की संख्या और सक्रियता बढ़ी है छवि निर्माण और छवि विध्वंस ने बाकायदा एक व्यवस्थित व्यवसाय का रूप ले लिया है.  लेकिन मैं इसे पूरी तरह माध्यम का दुरुपयोग भी नहीं कह सकता. इसलिए नहीं कह सकता कि अभी कुछ क्षण पहले ही तो मैंने दृष्टिकोण की बात की है, और मैं उस बात में पूरा विश्वास रखता हूं. जब मेरा अपना कोई दृष्टिकोण होगा तो बहुत स्वाभाविक है कि मैं चीज़ों को उसी की मार्फत देखूंगा. और जब मैं किसी चीज़ को अपने कोण से देखता हूं तो फिर बस इतना-सा काम और रह जाता है कि उसका वर्णन करते हुए किसी चीज़ को थोड़ा हलका कर दूं और किसी चीज़ पर कुछ अतिरिक्त बल दे दूं. यही हम आजकल  अपने चारों तरफ घटित होते देख रहे हैं. 

एक व्यक्ति कुछ ग़लत करता है और बाद में क्षमा याचना कर लेता है. अब यह आप पर निर्भर है, यानि आपके नज़रिये पर कि आप उसके ग़लत किए पर बल देते हैं या क्षमा याचना पर! लेकिन इतना सब कह चुकने के बाद भी बात जब निष्कर्ष की आती है तो मुझे अपने समय के एक प्रखर रचनाकार बल्ली सिंह चीमा के ये शब्द  याद आ जाते हैं:   
तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी   के  पक्ष  में हो  या कि आदमखोर हो ।।
क्या आपको नहीं लगता कि अगर कोई आदमी के पक्ष में है तो फिर उसकी पक्षधरता का स्वागत ही होना चाहिए?
•••

जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे सात्पाहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 09 दिसम्बर 2014 को 'देह धरे का दण्ड: अपना-अपना नज़रिया'  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, December 2, 2014

कितनी गिरहें अब बाकी हैं!

हरियाणा के सोनीपत ज़िले की दो लड़कियों की खूब चर्चा हो रही है. मैं सोच रहा हूं कि आखिर हम कैसे समय और समाज में जी रहे हैं कि लड़कियों को यह सब करना पड़ रहा है! क्या उनकी ज़िन्दगी सतत संघर्ष का ही पर्याय नहीं है? कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए? दो लड़कियां कहीं जाने के लिए बस अड्डे पर पहुंचती हैं और तीन लड़के उनके साथ बदतमीज़ी करना शुरु कर देते हैं. लड़कियां मना करती हैं तो उनकी बदतमीज़ी और बढ़ जाती है. चलती बस में भी यह बदसुलूकी जारी रहती है. सब मूक दर्शक बने रहते हैं. बस, एक लड़की विरोध करने की कोशिश करती है तो लड़के उसके साथ भी बतदमीज़ी से पेश आते हैं. इन दोनों लड़कियों के साथ वे लड़के मारपीट भी करते हैं. लेकिन बस का कोई यात्री उन्हें नहीं रोकता! आखिर इन लड़कियों में से ही एक अपना बेल्ट खोल कर उनको मारती और अपनी रक्षा करती है.

इस प्रकरण की कोई बहुत बुरी परिणति भी हो सकती थी. निर्भया  प्रकरण अभी भी हमारी यादों में ताज़ा है. अब इन लड़कियों और इनके परिवार वालों पर दबाव पड़ रहा है कि ये उन लड़कों को ‘माफ़’ कर दें! पंचायत भी बीच में आ गई है. वही सब जीवन नष्ट हो जाने वगैरह  की बातें. जीवन लड़कों का ही तो होता है! लड़कियों का भला क्या जीवन? वे पैदा ही क्यों होती हैं? दूधों नहाओ पूतों फलो वाले देश में भला लड़कियों की क्या ज़रूरत है? ये इतने सारे सोनोग्राफी केन्द्र आखिर किस दिन काम आएंगे? लिंग परीक्षण पर सरकारी रोक है तो क्या हुआ? चांदी का जूता है न अपने पास! और सोनोग्राफी नहीं तो और बहुत सारे तरीके भी हैं... और फिर भी बेशर्म अगर इस दुनिया में आ जाए तो उसका जीना मुहाल करने के अनगिनत तरीके हैं हमारे पास. घर में उसके साथ भेद भाव, स्कूल में भेद भाव और फिर सार्वजनिक जगहों पर यह सब. शादी के लिए दहेज की लम्बी चौड़ी मांग और फिर ससुराल में प्रताड़नाओं और यातनाओं का अंतहीन सिलसिला. बेशक इनके अपवाद भी हैं, लेकिन अपवादों के बावज़ूद यह एक बड़ा यथार्थ है. ठीक ही तो लिखा था राष्ट्रकवि ने – अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी! आंचल में है दूध और आंखों में पानी! और महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी तो उसे ‘केवल श्रद्धा’ कहकर अलमारी में ही सजाया था, ठीक वैसे ही जैसे बहुत पहले का मनु स्मृति का एक आप्त वाक्य हमने आड़े वक्त काम आने के लिए संजो रखा है – यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते  तत्र देवता:
शायद कुछ लोगों की आत्मा को इस बात से बड़ी शांति मिले कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले में हम अकेले नहीं हैं. हाल ही में सुदूर जर्मनी में भी एक लड़की को लड़कों की बदतमीज़ी का विरोध करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इस 23 साल की लड़की टुगसी अलबायर्क ने फ्रैंकफर्ट के पास ऑफनबाख में एक रेस्टोरेंट के शौचालय से लड़कियों के चिल्लाने की आवाज़ें सुनीं. उसने जाकर देखा कि वहां कुछ लोग दो लड़कियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. टुगसी ने  इनका विरोध किया. बाद में इनमें से एक आदमी ने कार पार्किंग में टुगसी अलबायर्क के सिर पर पत्थर या बल्ले से हमला कर दिया. इस हमले के बाद वो अचेत हो गईं. डॉक्टरों ने उनके दिमाग को मृत घोषित कर दिया और कहा कि अब वो भी नहीं उठेंगी. कुछ समय उन्हें जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया लेकिन फिर उनके परिवार वालों की इच्छा पर उन उपकरणों को हटा  लिया गया और अब टुगसी इस दुनिया में नहीं हैं. जर्मनी के राष्ट्रपति योआखिम गाउक ने इस छात्रा को औरों के लिए आदर्श बताया है.
इससे मेरा ध्यान इस बात की तरफ जाए बग़ैर नहीं रह रहा है कि हर छोटी बड़ी बात पर अपने मुखारविंद से कुछ न कुछ उवाचने वाले हमारे नेतागण हरियाणा की इन लड़कियों की बहादुरी पर मौन क्यों हैं? क्या इसलिए कि वे एक वर्चस्ववादी और रूढिबद्ध समाज को नाराज़ करने का ख़तरा नहीं उठाना चाहते? ये वे ही लोग हैं जो किसी न किसी बहाने से महिला आरक्षण बिल को रोके हुए हैं! ये वे ही लोग हैं जो आए दिन महिला विरोधी अटपटे बयान देते रहते हैं. कभी इन्हें उनके वस्त्रों से आपत्ति होती है कभी उनके बाहर निकलकर नौकरी करने से और कभी समानता की मांग से.

लेकिन इन सबके बावज़ूद, यह भी एक यथार्थ है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में औरत हमारे समाज में संघर्ष करती हुई आगे बढ़ रही है. गुलज़ार ने ठीक ही तो लिखा है: कितनी गिरहें खोली हैं मैने/ कितनी गिरहें अब बाकी हैं.

•••

जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 दिसम्बर, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.