Wednesday, March 30, 2022

 

नए माध्यमों पर हमारी उपस्थिति 

सन 2005 में आई और बाद में बहुत चर्चा में रही अपनी किताब द वर्ल्ड इज़ फ्लैट: अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ द ट्वंटी फर्स्ट  सेंचुरी में थॉमस एल. फ्रीडमैन ने दुनिया की शक्ल बदलने वाले तीन नवाचारों की चर्चा की है: 1.पर्सनल कंप्यूटर , जिसने हमें डिजिटल कण्टेण्ट का सर्जक बनाया, 2. इण्टरनेट और वर्ल्ड वाइड वेब (www) जिसने हमें यह सुविधा दी कि हम अपनी विषय वस्तु को पूरी दुनिया में निशुल्क कहीं भी ले जा सकते हैंऔर 3. नब्बे के दशक में हुई सॉफ्टवेयर क्रांति जिसने सारे कम्प्यूटरों को एक-रूप किया. फ्रीडमैन की इस किताब के आने के बाद दुनिया में बदलाव की गति बहुत ज़्यादा तेज़ रही है, और इसी तेज़ गति के कारण अब कंप्यूटर  और इण्टरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं.  लम्बे समय तक यह माना जाता रहा कि कंप्यूटर  का  प्रयोग करने और उस पर काम करने के लिए अंग्रेज़ी आना ज़रूरी है, और एक हद तक यह बात सही भी थी. लेकिन अहिस्ता-आहिस्ता यह बाधा भी दूर हो गई और आज स्थिति यह है कि कंप्यूटर पर हिंदी में भी सब कुछ किया जा सकता है. इस स्थिति को लाने में विभिन्न कंप्यूटर  सॉफ्ट्वेयर कम्पनियों की बहुत बड़ी भूमिका तो है ही, यूनीकोड को भी कम श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए. इनके कारण काम करना बहुत सुगम हो गया है.  यूनीकोड ने भाषा की दीवारें जैसे पूरी तरह ध्वस्त कर दी हैं.  बिना सम्बद्ध भाषा का फॉण्ट इन्स्टाल किये किसी भी कंप्यूटर पर (बशर्ते वह बहुत पुराना और धीमा न हो) किसी भी भाषा की सामग्री देखी-पढ़ी या लिखी-भेजी जा सकती है. निश्चय ही यह बात हिन्दी के लिए एक वरदान है. और हिन्दी जगत ने इसका लाभ भी भरपूर उठाया है.

 

हिंदी की दुनिया में बहुत लम्बे समय तक नई तकनीक को लेकर दुविधा का भाव रहा है. दुविधा पूरी तरह तो अब भी दूर नहीं हुई है, लेकिन निश्चय ही इसमें बहुत कमी आई है और नई तकनीक की स्वीकार्यता खूब बढ़ी है. न केवल युवा और युवतर लोग इस तकनीक को अपना चुके हैं वयोवृद्ध लोग भी अब इससे अपनी दूरी कम करने में जुटे हैं. बेशक नई तकनीक को लेकर अब अन्य अनेक प्रकार की शंकाएं-आशंकाएं सामने आ रही हैं और उन पर गम्भीर विमर्श भी ज़ारी है, लेकिन वह अलग मुद्दा है. मूल बात तो यहां यह है कि हमारे हिंदी समाज ने इस तकनीक को अब बहुत अच्छी तरह अपना बना लिया है. यह कहते हुए मुझे अनायास ही इस शताब्दी के पहले दशक  के वे दिन याद आते हैं जब मैंने जयपुर से अपनी एक मित्र अंजली सहाय के साथ मिलकर एक बेब पत्रिका - इंद्रधनुष इण्डिया शुरू की थी. मैं इस पत्रिका के लिए जब अपने लेखक मित्रों से रचनात्मक सहयोग मांगता  था तो उनमें से बहुत  ही कम मित्र उत्साहित होते थे. उस समय जिन लोगों ने मुझे सहयोग दिया वह सहयोग उनसे मेरे आत्मीय रिश्तों के कारण ही मिल सका था. अधिकांश साथी हस्तलिखित या टंकित रचनाएं देते और हम उन्हें फिर से टाइप करवा के अपनी पत्रिका में प्रकाशित करते. यह काम ख़ासा असुविधाजनक और श्रमसाध्य था, लेकिन हमने किया. जब मैं अपने किसी मित्र को यह सूचना देता कि इंद्रधनुष इण्डिया में उनकी रचना प्रकाशित हो गई है तो उनमें से करीब-करीब सभी का आग्रह यह होता कि मैं उनकी प्रकाशित रचना का प्रिण्ट आउट उन्हें भेजूं, और मैंने ऐसा किया भी. बहुत कम रचनाकार साथी थे जो खुद कंप्यूटर  खोलकर पत्रिका में अपनी रचना देखने के लिए प्रेरित या उत्साहित होते. हमने  कोई छह सात बरस इस पत्रिका को चलाया, और आज इस बात पर गर्व भी होता है कि हमारी यह पत्रिका राजस्थान से निकलने वाली पहली ई पत्रिका थी. बाद में कुछ व्यावहारिक दिक्कतों के कारण इसका प्रकाशन अवरुद्ध हुआ. जब वे दिक्कतें दूर हुईं तब तक हिंदी में इतनी ज़्यादा वेब पत्रिकाएं आ चुकी थीं कि एक और पत्रिका निकालना हमें ग़ैर ज़रूरी लगा. 

 

आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि राजस्थान में भी हिंदी साहित्य के संदर्भ में ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स का चलन खूब बढ़ा है और इस क्षेत्र में काफी काम हुआ है.  वृहत्तर हिंदी क्षेत्र में तो बहुत ज़्यादा काम हुआ ही है और हर रोज़ उसमें नई चीज़ें जुड़ रही हैं. मेरी इंद्रधनुष  इण्डिया के अलावा मुझे सबसे पहले नाम याद आता है हिंदी नेस्ट का. इसका संचालन मनीषा कुलश्रेष्ठ करती हैं. यह हिंदी के  शुरुआती ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स में से है, हालांकि तब मनीषा जी राजस्थान से बाहर रहती थीं. हिंदी नेस्ट ने इण्टरनेट पर हिंदी को विस्तार देने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है. खुशी की बात यह है कि अब राजस्थान लौट आने के बाद मनीषा जी ने इस प्लेटफॉर्म को एक नया आकार और नई पहचान दी है. हिंदी नेस्ट के अलावा, आश्चर्य की बात है कि चित्तौड़गढ़ जैसी बहुत छोटी जगह से एक उत्साही युवा माणक सोनी ने बहुत लम्बे समय तक अपनी माटी नाम से एक  वेब पत्रिका निकाली और इसमें विविध प्रकार की सामग्री प्रकाशित की. बाद के दिनों में  जयपुर से कथाकार रमेश खत्री ने साहित्य दर्शन नाम से काफी समय तक वेब पत्रिका निकाली. इधर  हमारी बहुत सारी पत्रिकाएं विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रही हैं. इनमें से अग्रणी है राजस्थान मूल के युवा आलोचक पल्लव संपादित बनास जन, जिसके करीब-करीब सारे अंक नॉट नल  पर  उपलब्ध हैं. मुझे आश्चर्य और क्षोभ इस बात का है कि हमारे यहां की पत्रिकाओं के अधिकांश संपादक अपनी पत्रिकाओं को ऑनलाइन सुलभ कराने के मामले में उदासीन, बल्कि इसके लिए अनिच्छुक हैं.  मेरा तो मानना है कि अगर कोई पत्रिका आपने भौतिक रूप के साथ-साथ ऑनलाइन भी उपलब्ध होती है तो उसका प्रसार बढ़ता ही है. इस मामले में मैं मधुमती  की विशेष रूप से सराहना करना चाहता हूं जिसका हर अंक राजस्थान  साहित्य अकादमी की वेबसाइट पर उपलब्ध रहता है और दुनिया भर में कहीं से कोई भी उसे पढ़ सकता है. मैं यह सपना देखता हूं कि हमारे प्रांत से जितनी भी सहित्यिक पत्रिकाएं निकल रही हैं वे ऑनलाइन भी उपलब्ध  हों. 

 

यह लेख तैयार करने के सिलसिले में, बिना इस बात का विस्तृत उल्लेख किए जब फ़ेसबुक पर एक पोस्ट लगा कर यह जानने का प्रयास किया कि साहित्यिक दुनिया के हमारे कौन कौन साथी इण्टरनेट के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर सक्रिय हैं, तो मुझे इतने ज़्यादा उत्तर मिले कि मैं स्वयं चकित रह गया. मैं यह भी जानता हूं कि जितने साथियों के बारे में मुझे सूचना मिली उनसे बहुत अधिक इस आभासी दुनिया में सक्रिय हैं. लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि अधिकांश साथियों की सक्रियता फ़ेसबुक पर अपनी रचनाएं पोस्ट करने या बहुत हुआ तो औरों की रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रियाएं देने तक सीमित है. जब हम इससे आगे की स्थिति की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि इण्टरनेट के अन्य प्लेटफॉर्म्स पर हमारी सक्रियता बहुत ज़्यादा नहीं है. इनमें से बहुत थोड़े ही हैं जो अन्यत्र भी खूब सक्रिय हैं. और यह बात तब है जब हिंदी में इण्टरनेट के तीन बड़े पुरोधा राजस्थान से ही हैं. यशवंत व्यास और पवन झा उस समय से इण्टरनेट पर सक्रिय  हैं जब हममें से अधिकांश के लिए यह दुनिया अनजानी थी. इन्हीं के साथ एक और नाम लेना ज़रूरी है. वे हैं बालेंदु शर्मा दाधीच. इन्होंने हालांकि साहित्यिक काम बहुत कम किया है, कंप्यूटर  और इंटरनेट पर हिंदी को सक्षम करने में इनकी भूमिका बहुत बड़ी है और अब भी ये इसी काम में जी-जान से जुटे हैं. हाल के वर्षों में गिरिराज किराड़ू ने भी हिंदी साहित्य को विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर, विशेष रूप से स्टोरी टेल के माध्यम सेलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. इनके साथ-साथ पीयूष दइया के अवदान को भी स्मरण किया जाना ज़रूरी है जो समग्र हिंदी साहित्य  को  अपने प्लेटफॉर्म हिंदवी  पर लाने के काम में लगे हुए हैं. इधर राजस्थान मूल के प्रवासी साहित्य सेवी अनूप भार्गव एक बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना का संचालन कर रहे हैं. इस योजना का नाम है हिंदी से प्यार है’. अभी इस योजना के तहत साहित्यकार तिथिवारनाम  से एक परियोजना चल रही है जिसमें हर रोज़ उस दिन जिस साहित्यकार का जन्म दिन होता है उस पर एक सुविचारित आलेख पोस्ट किया जाता है. मेरे यह लेख लिखने तक इस योजना में लगभग एक सौ लेख पोस्ट किए  जा चुके हैं. अनूप भार्गव जी अब इसी योजना के तहत  दूसरा उपक्रम शुरू करने की तैयारी में हैं  जिसका शीर्षक है सौ कालजयी पुस्तकें. इस उपक्रम में हिंदी की सार्वकालिक एक सौ कालजयी कृतियों का चयन कर उनमें से हरेक  पर लगभग पंद्रह मिनिट की अवधि के वीडियो तैयार करके साझा किए जाएंगे. ख़ास बात यह है कि हिंदी से प्यार है की यह सारी योजना पूर्णत: अव्यावसायिक आधार पर संचालित की जा रही है और दुनिया भर  में फैले हिंदी साहित्य प्रेमी इसमें सहयोग कर रहे हैं.

 

राजस्थान के हमारे बहुत सारे मित्रों ने अपने यू ट्यूब चैनल चला रखे हैं जिन पर वे लगातार नई सामग्री अपलोड करके हम तक पहुंचाते रहते हैं. व्यंग्यकार संपत सरल, व्यंग्यकार अनुराग वाजपेयी, गीतकार बनज कुमार बनज, कहानीकार योगेश कानवा के यू ट्यूब चैनल खूब देखे जाते हैं. हिमांशु पण्ड्या के विद्यार्थियों के लिए दिए हुए लेक्चर्स ग़ैर विद्यार्थियों में भी बहुत लोकप्रिय हैं. राजस्थान के कॉलेज शिक्षा विभाग ने एक अलग मंच बनाकर अपने प्राध्यापकों के जो लेक्चर्स अपलोड किये हैं उनमें साहित्य विषयक लेक्चर खूब हैं. मेरा भी एक यू ट्यूब चैनल है. हाल में बोधि स्टूडियो के बैनर तले 'कुछ क़िस्से कुछ कहानियां' नाम  से एक आकर्षक कार्यक्रम शुरू किया गया है. व्यंग्यकार संपत सरल ने अपने व्यंग्य  और गीतकार दिनेश सिंदल ने अपनी कविताओं के पाठ की सीडी भी निकाल रखी है. कभी लोक कला मर्मज्ञ विजय वर्मा जी ने भी अपने  लिखे गीतों की एक सीडी  निकाली थी. निश्चय ही इसी तरह के काम अन्य कई मित्रों ने भी किए होंगे. इधर नई तकनीक के रूप में ऑडियो बुक्स का चलन बढ़ रहा है और हमारे कई युवा रचनाकार इस क्षेत्र में भी सक्रिय हैं. इरा टाक की ऑडियो बुक्स बहुत लोकप्रिय हुई हैं. इरा टाक एक साथ बहुत सारे प्लेट्फॉर्म्स पर सक्रिय हैं. उनकी रचनाओं की ई बुक्स भी खूब पढ़ी गई हैं. मातृ भारती डॉट कॉम और प्रतिलिपि डॉट कॉम पर हमारे प्रांत के बहुत सारे कथाकारों की रचनाएं नियमित रूप से अपलोड होती हैं और खूब पढ़ी जाती हैं. इस संदर्भ में बहुत रोचक और सराहनीय बात यह है कि युवा कथाकारों के साथ-साथ यशवंत कोठारी और एस भाग्यम  शर्मा जैसे बड़ी उम्र वाले  कथाकार भी इन  माध्यमों का जमकर उपयोग कर रहे हैं. नॉट नल, स्टोरी टेल, बिंज हिंदी, रेख़्ता और हिंदवी पर हमारे प्रांत के अनेक रचनाकारों का सृजन अपनी उपस्थिति अंकित करवा चुका है और ऐसे रचनाकारों की संख्या निरंतर बढ़ती  जा रही है. हमारी नई पीढ़ी के अनेक रचनाकार इन विभिन्न प्लेटफॉर्म्स का सूझबूझ पूर्ण प्रयोग कर अपने लेखन को बड़े पाठक वर्ग तक पहुंचाने की दिशा में भी सक्रिय हैं. इनमें कथाकार नवीन चौधरी का नाम मैं ख़ास तौर पर लेना चाहता हूं. वे इन माध्यमों का बहुत  सर्जनात्मक उपयोग अपनी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के लिए भी करते हैं. 

 

अशोक आत्रेय और हेमंत शेष जैसे रचनाकार शब्दों के अलावा रंगों और रेखाओं के साथ इन माध्यमों को उत्साहपूर्वक बरत और समृद्ध कर रहे हैं. प्रांत के कई रचनाकारों ने अपनी वेबसाइट्स भी बनवा रखी है जहां वे नियमित रूप से अपने बारे में जानकारियां और अपने सृजन की बानगियां साझा करते हैं. जयपुर की एक कम्पनी मार्क माय बुक इस दिशा में बहुत बढ़िया काम कर रही है. राजस्थान साहित्य अकादमी की अपनी वेबसाइट है और इसी तरह प्रभा खेतान फाउण्डेशन की विभिन्न  परियोजनाओं की न केवल वेबसाइट्स हैं, वे इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक, ट्विटर, वॉट्सएप आदि पर भी अपनी गतिविधियों की सूचनाएं नियमित रूप से देते हैं. राजस्थान मूल की किंतु अब केरल में रह रहीं रति सक्सेना कविता केंद्रित  अपनी संस्था कृत्या के कारण पूरी दुनिया में जानी जाती हैं और उनकी ऑनलाइन उपस्थिति प्रशंसनीय है. 

 

प्रांत की कई संस्थाओं ने कोरोना महामारी के समय में, जब हमारा घरों से बाहर निकलना बहुत सीमित हो गया था, वेबिनार्स के माध्यम  से साहित्यिक सक्रियता  बनाए रखी. राजस्थान साहित्य अकादमी, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ, जवाहर कला केंद्र जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के साथ-साथ अनेक सीमित साधनों वाली संस्थाओं ने भी इस विकट समय में साहित्यिक आयोजनों के क्रम को बनाए रखा. राजस्थान के ही एक निजी यू ट्यूब चैनल क्रेडेण्ट टीवी ने डियर साहित्यकार नाम से एक साप्ताहिक शृंखला चला रखी है जिसमें हर सप्ताह किसी साहित्यकार से संवाद किया जाता है. इसी चैनल ने हाल में डियर साहित्यकार सम्मेलन का आयोजन कर एक नई पहल की है. यहां यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान की राजधानी में होने वाला दुनिया का सबसे बड़ा निशुल्क साहित्य  उत्सव जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल भी कोरोना के कारण आभासी अवतार में आने को विवश हुआ है. इस बार यह आयोजन वास्तविक और आभासी दोनों रूपों में होगा. 

 

ग़ौर तलब बात यह है कि आरम्भिक हिचकिचाहट के बाद अब हिंदी समुदाय ने कंप्यूटर  और इण्टरनेट को अपना लिया है और इसका बहुत अच्छी  तरह से उपयोग किया जा रहा है. कंप्यूटर  पर हिंदी में काम करना आसान हो जाने से और तकनीक के विकास से यह काम और ज़्यादा तेज़ हो गया  है. इधर आने वाले नए कंप्यूटर्स में बोलकर लिखने की सुविधा मिल जाने से ऐसे लोग भी इनका इस्तेमाल करने लगे हैं जिन्हें टाइप करने में असुविधा होती थी. यह सुविधा न केवल लैप टॉप वगैरह में सुलभ हो गई है, मोबाइल फोन तक में आ गई है. मोबाइल फोन और उसके बड़े भाई टैबलेट ने कहीं से भी अपना काम करना सम्भव बना दिया है और इस सुविधा का लाभ उठाते हुए हमारे कई लेखक मित्रों ने अपनी पूरी की पूरी किताब ही इन उपकरणों पर लिख डाली है. तकनीक और विशेष रूप से सोशल मीडिया पर उसके उपयोग ने साहित्यिक वातावरण बनाने में भी बहुत बड़ी भूमिका निबाही है. यह आकस्मिक नहीं है कि कुछ बरस पहले राजस्थान निवासी  सुपरिचित कथाकार लक्ष्मी शर्मा ने सोशल मीडिया पर आई कविताओं का एक संकलन 'स्त्री होकर सवाल करती है' तैयार किया था. इस संकलन में अधिकांश रचनाकार ऐसी थीं जिन्होंने सोशल मीडिया पर ही लिखना शुरु किया था. उनमें से कई अब साहित्य की दुनिया में अपनी जगह बना चुकी हैं.  सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स ने एक पूरी पीढ़ी को लेखन की तरफ उन्मुख किया है, यह बात विशेष रूप से रेखांकनीय है. इनमें से ज़्यादातर प्लेटफॉर्म्स पर कोई संपादन-चयन व्यवस्था नहीं है, इसलिए अभिव्यक्ति में प्रयोग भी खूब होते हैं और बहुत बार अपरिपक्व रचनाएं भी सामने आ जाती हैं. लेकिन यह सब विकास की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है. इस बात से दुखी नहीं होना चाहिए. 

 

मुझे यह देखकर  बहुत खुशी होती है कि अब पुरानी और नई पीढ़ी एक साथ विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर एक साथ सक्रिय है. उनमें परस्पर  संवाद भी होता है, और स्वाभाविक है कि विवाद भी होता है. इन प्लेटफॉर्म्स पर जो प्रकाशित हो रहा है उसकी एक सीमा यह है कि रचनाकारों का बहुलांश लाइक्स को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत देने लग जाता है और बहुत बार लाइक्स की बड़ी संख्या को देखकर आत्म मुग्धता का शिकार भी हो जाता है. लाइक्स का मिलना रचना की गुणवत्ता से अधिक रचनाकार की सामाजिकता का परिणाम होता  है, लेकिन रचनाकारों का एक वर्ग  इस बात को समझने को तैयार नहीं है. यह ग़लत फहमी खुद उनके विकास के लिए हानिकारक है. एक और प्रवृत्ति इन प्लेटफॉर्म्स पर देखने को मिलती है, हालांकि सौभाग्य से यह बहुत अधिक व्यापक  नहीं है. प्रवृत्ति यह कि कुछ अत्यधिक उत्साही लोग दूसरों की रचना को कॉपी पेस्ट कर यह भ्रम पैदा करने लग गए हैं कि यह उन्हीं की रचना है. सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म की एक बहुत बड़ी सीमा यह है कि यह त्वरित माध्यम है, और यहां ठहरकर, सोच समझकर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति बहुत सीमित है. यहां तो आपकी रचना सामने आते ही तुरंत उस पर सराहना भरी प्रतिक्रियाएं आने लगती हैं. बहुत सारी प्रतिक्रियाएं तो शायद पढ़े बिना ही दे दी जाती हैं. रचना को पढ़कर उस पर सुविचारित प्रतिक्रिया देने का चलन इन माध्यमों पर बहुत कम है, और यह बात रचनाकार के हित में नहीं जाती है. 

 

कुल मिलाकर सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर राजस्थान के साहित्यकार पहले से काफी अधिक सक्रिय हैं और इनकी सक्रियता निरंतर बढ़ती जा रही है. यह शुभ है. जैसे-जैसे तकनीक विकास के नए क्षितिजों की तरफ बढ़ रही है वैसे वैसे इस बढ़ी हुई सक्रियता का लाभ सर्जनात्मकता को मिल रहा है. ने केवल रचनाकारों की सर्जनात्मकता इससे लाभान्वित हो रही है, उनकी सर्जनात्मकता के गुण ग्राहक भी बढ़ रहे हैं और इस तरह एक ऐसा माहौल  तैयार होता जा रहा है जो साहित्यिक गतिविधियों के पल्लवन के लिए बहुत अनुकूल और उत्प्रेरक साबित होने वाला है. 

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राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका 'मधुमती' के मार्च, 2022 अंक में प्रकाशित.