समाज और इसके मीडिया यानी सोशल मीडिया में इन दिनों एक और उफान आया हुआ है। हालांकि यह उफान अभी सोशल
मीडिया की दीवारों से टकरा कर अपने जोर की आजमाइश ही कर रहा है, पर नई पीढ़ी की मानसिकता के बदलाव की तेज़
गति को देखते हुए लगता नहीं कि यह उफान उन दीवारों को तोड़ कर वास्तविक सोशल लाइफ
तक पहुंचने में बहुत देर लगाएगा। दरअसल यह उफान बहुत सारे मुद्दों से बन कर अपनी
गति पकड़ रहा है। अगर आप यह अनुमान लगा रहे हैं कि इन में पहला मुद्दा माई चॉइस
वीडियो के जरिए दिए जा रहे संदेश का है, तो आपका अनुमान सही है। यह संदेश कई
मायनों में आजादी की बात कर रहा है। वैसे हमारे समाज के कुछ विद्रोही लोग अर्से से
इस आजादी का उपभोग करते और इसे सम्मान देते रहे हैं। देह को आधार बना कर बनाए गए
इस वीडियो पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई हैं, पर एक तथ्य यह भी है कि आधुनिकतम समाज
का तमगा हासिल किए पश्चिम में भी अभी विवाहेतर संबधों को स्वीकृति का सम्मान नहीं
दिया गया है।
माई चॉइस को फाइनली माई चॉइस ही रहने दिया जाए तो बेहतर है। इसके बाद एक और
मुद्दा है जिसे संसार भर की आधी आबादी अपनी आधी उम्र तक झेलती है और जिसके बारे में
लगभग सभी वयस्कों को पता होता है पर सार्वजनिक रूप से जिसकी चर्चा करना लगभग
शर्मिंदगी वाला मामला माना जाता है। यह मुद्दा भी आजकल सोशल मीडिया की दीवारों से
टकरा रहा है। महिलाओं के ‘उन दिनों’ का। हालांकि फेसबुक पर पिछले काफी समय से इस
दौरान महिलाओं को होने वाली तकलीफों और
इसके प्रति सामाजिक नजरिए को कई महिलाओं ने अपनी कविताओं और अन्य पोस्ट्स के
माध्यम से उठाया है। पर हाल ही में भारतीय मूल की एक कनाडाई लेखिका रूपी कौर ने इस अनुभव से संबंधित एक फोटो इन्स्टाग्राम पर
शेयर किया लेकिन इस साइट ने इस फोटो को पॉलिसी विरुद्ध बता कर दो बार हटा दिया। इस पर रुपी
कौर ने बहुत जायज सवाल उठाया कि आखिर इसमें शर्मिन्दगी की क्या बात है? और अंतत:
साइट को भी रूपी कौर से क्षमा याचना करने और इस फोटो को फिर से स्वीकृति देने को
विवश होना पड़ा.
और इन बातों के बाद एक समाचार जिसने बरबस ही हमारे चेहरों पर एक मुस्कुराहट
ला दी। दरअसल समाचार ही कुछ ऐसा था कि यादों
के कोठार से काफी कुछ निकल पड़ा। बात सत्तर के दशक के मध्य की है जब मैं नया-नया
प्राध्यापक बन कर राज्य के एक मझोले कस्बे में पहुंचा था और अपने एक वरिष्ठ साथी
की मेज़बानी का लुत्फ ले रहा था। एक दिन हम दोनों बाज़ार गए तो उन्होंने अन्य
सारी खरीददारी कर चुकने के बाद उस दुकानदार से रहस्यपूर्ण अन्दाज़ में ‘चीज़’ भी देने का अनुरोध किया। सामान लेकर लौटते हुए मैंने अपनी बेवक़ूफी में
उनसे पूछ लिया कि ‘चीज़’ जैसी चीज़ को उन्होंने इस तरह रहस्य भरे अन्दाज़ में क्यों मांगा? और तब उन्होंने घुमा फिराकर मुझे बताया
कि चीज़ शब्द का प्रयोग असल में उन्होंने किस वस्तु के लिये किया था। उसके कुछ बरस
बाद भी, जब सरकार
की ‘हम दो हमारे दो’ नीति के उत्साहपूर्ण क्रियान्वयन के तहत विभिन्न सरकारी
विभागों में वह चीज़ निशुल्क वितरण के लिए उपलब्ध कराई जाती थी तो हम अपने कॉलेज
के बाबू से बिना संज्ञा का प्रयोग किए, सर्वनाम या संकेत की मदद से वह चीज़
मांगा करते थे। हममें से शायद ही कभी किसी ने नाम लेकर कहा हो कि मुझे यह चाहिये।
अब इसे आप संस्कार कहें, संकोच
कहें, शालीनता
कहें, गोपनीयता
कहें या और कुछ भी कहें. वस्तु स्थिति यही थी।
अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि मैं किस ‘चीज़’ की बात कर रहा हूं। और यह प्रसंग मुझे याद आया इस बात से कि सरकार ने
सरकारी उपक्रम से बन कर बिक रहे कंडोम की पैकेजिंग को सुधारने का निर्णय लिया है।
वह भी उस दौर में जब उनके प्रतिद्वंद्वी पैकेजिंग और विज्ञापन में उससे कई गुना
आगे निकल चुके हैं। बहरहाल उदारीकरण से पहले के सरकारी सक्रियता के दौर में
भी भारत की जनसंख्या को थामे रखने वाले उस ब्रांड को बचाने के लिए भी यदि अब सरकार
कुछ करती है तो उसके लिए हमारी तो शुभकामनाएं ही हैं। पर क्या एक सरकारी उत्पाद
विज्ञापन और पैकेजिंग के मामले में अपने व्यावसायिक प्रतिद्वन्दियों को टक्कर दे
सकेगा? मर्यादा के बन्धन आड़े नहीं आएंगे?
लेकिन आप भी सोचिये कि जिस देश में कामसूत्र लिखा गया, जहां खजुराहो तराशा गया और इन सबसे ऊपर
जहां काम को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना गया जितना धर्म, अर्थ और मोक्ष को माना गया, क्या वहां ऐसी कोई मज़बूरी होनी चाहिए?
••• जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 14 अप्रेल, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.