Tuesday, December 5, 2017

क्या तकनीक दुनिया की ग़ैर बराबरी को और बढ़ा रही है?

इस बात से शायद ही किसी को असहमति  हो कि आज का समय तकनीक का समय है. जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक का न सिर्फ दख़ल है, वो निरंतर बढ़ता भी जा रहा है. इस बात को भी आम तौर पर स्वीकार किया जाता है कि तकनीक ने हमारे जीवन को बेहतर बनाया है. हमारे शारीरिक श्रम में बहुत कमी आई है, हमारी सेहत बेहतर और उम्र लम्बी हुई है और जीवन के लिए सुख सुविधाओं में कल्पनातीत वृद्धि हुई है. हमारे मनोरंजन के साधन बढ़े हैं और ऐसी परिस्थितियां भी उत्पन्न हुई और बढ़ी हैं कि हम इन साधनों का अधिक लाभ उठा पा रहे हैं. लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि सभी लोग ऐसा ही मानते हों. जहां आम लोग तकनीक के फायदों को स्वीकार करते हैं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो भविष्य में ज़रा ज़्यादा दूर तक देख पा रहे हैं और हमें आगाह कर रहे हैं कि तकनीक पर हमारी बढ़ती जा रही निर्भरता मानवता के लिए घातक भी साबित हो सकती है.

जो लोग इस तरह की चेतावनियां दे रहे हैं उनके संदेश भी निराधार नहीं हैं. ऐसे ही लोगों में से एक हैं येरूशलम की हीब्रू यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रोफेसर युवल हरारी. युवल हरारी की दो किताबें, ‘सैपियंस: अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमनकाइण्ड और होमो डिअस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टुमारो इधर  बेहद चर्चित हैं. युवल हरारी इतिहास के माध्यम से भविष्य को समझने आंकने का प्रयास करते हैं. अपने ऐतिहासिक अध्ययन का सहारा लेकर वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि तकनीकी विकास न सिर्फ दुनिया को, पूरी मानव जाति को बदल देगा, लेकिन इसी के साथ वे यह चेतावनी देना भी नहीं भूलते हैं कि इसी तकनीकी विकास की वजह से  मनुष्य मनुष्य के बीच असमानता  की खाई भी चौड़ी होगी. कुछ लोग तकनीक की मदद से बहुत आगे निकल जाएंगे तो कुछ बहुत पीछे  छूट जाएंगे. और यहीं अपनी चेतावनी को वे ऐतिहासिक आधार देते हैं. वे कहते हैं कि मानवता का इतिहास ही असमानता का इतिहास है. हज़ारों बरस पहले भी असमानता थी, आज भी है और आगे भी रहेगी. इतिहास की बात करते हुए वे एक दौर यानि औद्योगिक क्रांति को ज़रूर अपेक्षाकृत समानता के दौर के रूप में याद करते हैं लेकिन भविष्य को लेकर वे बहुत आशंकित हैं.

युवल हरारी जब उदाहरण देकर यह बात बताते हैं कि आज मशीनों पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है और हमारे बहुत सारे काम मशीनों ने हथिया लिये हैं तो उसी स्वर में वे हमारा ध्यान इस बात की तरफ भी खींचते हैं कि जब बहुत सारे कामों के लिए मनुष्यों की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी तो सरकारों की निगाह में भी तो वे अनुपयोगी हो जाएंगे. सरकारें  भला उनकी परवाह क्यों करेंगी? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि इंसानों की एक ऐसी जमात खड़ी हो जाए जिसकी ज़रूरत न समाज को हो और न देश को हो. अगर ऐसा हुआ तो इस जमात की आवाज़ भी कोई क्यों सुनेगा? इसकी पढ़ाई-लिखाई की, इसकी सेहत की, इसके लिए जीवनोपयोगी सुविधाएं जुटाने की फिक्र भला कोई भी सरकार क्यों करेगी? और यह बात तो हम आज भी देखते हैं कि बहुत सारी जगहों पर सरकार उन पॉकेट्स में ज़्यादा सक्रिय रहती है जहां उसके वोटर्स होते हैं. वे बहुत सारे पॉकेट्स जहां मतदान  के प्रति उदासीन लोग रहते हैं, सरकार की अनदेखी झेलते हैं.

इतिहास का सहारा लेकर हरारी एक और बात कहते हैं जो बहुत भयावह है. वो कहते हैं कि पहले बीमारी और मौत की निगाह में सब लोग बराबर होते थे. लेकिन अब जिसकी जेब में पैसा  है वो तो बीमारी से लड़ कर उसे हरा भी देता है, जिसके पास पैसा नहीं है वो बीमारी के आगे हथियार डालने को मज़बूर है. हरारी एक सर्वे का ज़िक्र करते हैं जिसके मुताबिक अमरीका की बहुत रईस एक फीसदी आबादी की औसत उम्र बाकी अमरीकियों की तुलना में पंद्रह  बरस अधिक है. इसी बात का विस्तार करते हुए वे कहते हैं कि भविष्य में यह भी तो सम्भव है कि पैसों के दम पर कुछ लोग अपनी उम्र और बहुत लम्बी कर लें. सेहमतमंद बने रहना आपकी जेब पर ही निर्भर होता जाएगा. और बात यहीं खत्म नहीं होती है. हरारी चेताते हैं कि यह भी तो सम्भव है कि जिनके पास पैसे हों वे सुपरमैन, सुपरह्यूमन या परामानव बन जाएं. पैसों ने आज शरीर को ताकतवर बनाया है, कल वो मन को भी ताकतवर बना सकता है. सवाल यह है कि अगर यही सिलसिला चला तो क्या सारी  दुनिया दो गैर बराबर  हिस्सों में नहीं बंट जाएगी? ऐसा होना मानवता के लिए ख़तरनाक नहीं होगा? हरारी की बातें चौंकाने वाली लग सकती हैं लेकिन उन पर ग़ौर किया जाना हमारे ही हित में होगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 दिसम्बर, 2017 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.