Sunday, August 2, 2020
मृत्यु भी एक उद्यम है!
यादें आबू रोड की
कल जब मैंने अपने आबू रोड के कार्यकाल का एक संस्मरण लिखा तो प्रसंगवश उसमें यह भी ज़िक्र आ गया था कि वहां की स्मृतियों में और काफी कुछ है जिन्हें लिखने में मुझे संकोच है. मेरे कुछ मित्रों ने पुरज़ोर आग्रह किया कि जो अनुभव हैं उन्हें लिख ही दूं. उनके आदेश को टाल नहीं पा रहा हूं. पढ़ें यह अंश:
पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि जुलाई 1998 से मार्च 2000 तक का करीब बीस माह का आबू रोड का कार्यकाल मेरे सेवा काल का सबसे कठिन कार्यकाल रहा. वैसे उचित यह होगा कि इन बीस माह में से करीब छह माह अलग कर दूं. इन छह माह की चर्चा कल कर ही चुका हूं. इसलिए सच तो यह है कि सिर्फ़ चौदह माह ही मुश्क़िल से बीते. और इसकी वजह सिर्फ यह कि आबू रोड कॉलेज सही मानों में एक बिगड़ा हुआ कॉलेज था. कॉलेज को बिगाड़ने में वहां की छात्र राजनीति की और वहां की सामाजिक संरचना की बहुत बड़ी भूमिका है. वहां के एक राजनेता, तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष विनोद परसरामपुरिया (अब स्व.) का एक दिन फोन आया. न कोई दुआ न कोई सलाम. सीधे बोले, “प्रिंसिपल साहब, आपको यहां रहना है या नहीं रहना है?” मैंने पूछा कि क्या बात है, तो बोले, “आपको इतना समय हो गया यहां आए, आप एक बार भी मुझसे मिलने नहीं आए!” मैंने अपने को काबू में रखते हुए जवाब दिया कि “न तो आपने कभी मुझे बुलाया और न मुझे कोई काम पड़ा. आता कैसे?” बोले, “आप जानते हैं, मैं आपका तबादला करा सकता हूं.” मैंने यह कहते हुए कि “अब तक तो नहीं मालूम था, अब आपने बता दिया है”, फोन रख दिया. उसके बाद उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ.
आबू रोड सिरोही ज़िले में ही स्थित है लेकिन वहां की संस्कृति सिरोही से एकदम अलहदा है. आबू रोड की युवा पीढ़ी के लिए एक शब्द बहु प्रयुक्त है: चवन्ना. अर्थ बहुत स्पष्ट है. वैसे मुझे कभी भी यह बात नहीं रुचती है कि किसी पूरे के पूरे समूह को एक ही डण्डे से हांका जाए या उस पूरे समूह पर एक लेबल लगा दिया जाए. लेकिन लगभग दो बरस आबू रोड में रहकर मुझे लगा कि जिसने भी यह नामकरण किया होगा, अवश्य ही वह भुक्त भोगी रहा होगा. विद्यार्थी राजनीतिक दलों की युवा शाखाओं एन.एस.यू.आई. और ए.बी.वी.पी. में बुरी तरह विभक्त और हर वक़्त लड़ने-मरने और प्रशासन की नाक में दम करने को तैयार. व्यवहार में विनम्रता और शालीनता का दूर-दूर तक कोई ठिकाना नहीं. जाति की बात करना मेरे स्वभाव में नहीं, लेकिन वहां जाकर महसूस किया कि अगर किसी जाति के युवाओं को अशिष्टता के लिए पहला पुरस्कार देना हो तो वह जाति अग्रवाल होगी. हालत यह हो गई कि अगर कोई छात्र मेरे पास आता और अशिष्टता से पेश आता तो मैं उससे पहली बात यही पूछता कि “कहीं तुम अग्रवाल तो नहीं हो?” और उनका आभार कि उन्होंने मुझे एक बार भी ग़लत साबित नहीं किया. सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आया जब मैं, अपने आबू रोड पदस्थापन के करीब-करीब आखिरी दिनों में वहां की एक प्रख्यात मिठाई की दुकान पर खरीददारी के लिए गया. दुकानदार भी मुझे पहचानता था. उस दिन जाने क्या बात हुई, उसने बहुत झुककर, ज़रूरत से ज़्यादा ही झुककर मुझे नमन किया. मैंने जब इसकी वजह पूछी तो वह बोला कि “सर! मैं आपको नमन इसलिए कर रहा हूं कि हम तो अपने एक-दो बच्चों को भी नहीं झेल पाते हैं, आप पूरे कॉलेज को झेल रहे हैं!” हो सकता हो, उस दिन उसके सपूतों ने कुछ अधिक ही आबूरोडपना दिखा दिया हो.
लेकिन फिर भी वहां बीस माह गुज़ारने में मुझे अधिक पीड़ा नहीं हुई. इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि वहां के स्टाफ से मुझे बहुत सहयोग मिला. विशेष रूप से टीचिंग स्टाफ़ से. डॉ एसबी लाहिड़ी, अनिता गुप्ता, अंशु रानी सक्सेना, गोपाल कृष्ण सुखवाल, भगवान दास,सत्य भान यादव, हनुवंत सिंह चौहान, संस्कृत की एक मै’म, जिनका नाम याद नहीं आ रहा, आदि मेरे बहुत अच्छे सहयोगी रहे. मेरे उपाचार्य प्रो. सवाई राम ने हमेशा मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया. अलबत्ता दफ़्तर का हाल इतना अच्छा नहीं था. ज़्यादातर लोग न तो ख़ुद काम करना चाहते थे और न उन्हें यह बात सहन होती थी कि कोई दूसरा काम करे. मेरे शिक्षक सहकर्मियों ने मुझे जब उन्मुक्त सहयोग दिया तो कार्यालय के साथियों ने उन्हें यह कहते हुए कि यह जो काम आप कर रहे हैं, यह आपका है ही नहीं, भड़काने का हर सम्भव प्रयास किया. उन दिनों कम्प्यूटर नया नया आया था, और मेरे कुछ शिक्षक साथी कम्प्यूटर सीखने में खूब रुचि लेते थे. दफ़्तर वाले उन्हें बार-बार टोकते, मेरे पास भी शिकायत लेकर आते कि ये कम्प्यूटर को खराब कर देंगे, या ये तो उस पर गेम खेलते रहते हैं. ज़ाहिर है कि मैं इन बातों को तवज्जोह नहीं देता, और यह उन्हें और बुरा लगता. लेकिन वक़्त जैसे-तैसे कट ही गया. मैं हर माह अपने दोस्तों के साथ संध्याकालीन ‘बैठकी’ के लिए सिरोही आता, और उस बैठकी में जैसे महीने भर का तनाव बह जाता.
दो दशक पहले का 'कोरोना' काल!
आज शाम अपने भतीजे अरविंद से बात कर रहा था. अरविंद उदयपुर में रहता है और उसका अच्छा ख़ासा और खूब फैला हुआ व्यवसाय है. बहुत व्यस्त रहता है. हमें गर्व होता है, बच्चों को इस तरह प्रगति पथ पर अग्रसर होते हुए देख कर. बहुत स्वाभाविक है कि बात इधर-उधर से होती हुए कोरोना पर आ टिकी. इसी क्रम में उसने एक मार्के की बात कही. बोला कि “चाचाजी, कोरोना के शुरुआती समय में करीब दो महीने कहीं जाना-आना नहीं हुआ, और यह समय मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत समयों में से है”. इस बात को समझ सकना मेरे लिए कठिन नहीं था. भाग दौड़ भरी ज़िंदगी में से अगर कुछ समय परिवार के साथ बिताने का मौका मिला तो उसे खूबसूरत और यादगार होना ही था. लेकिन जब अरविंद यह बात कर रहा था, तो उसकी बात सुनने के साथ ही मेरे मन में अपनी स्मृतियां भी तैर रही थीं. यह भी एक संयोग ही है कि अभी जिस स्मृति की बात कर रहा हूं उसका सीधा सम्बंध उससे भी है. आगे वाले वृत्तांत में मैंने अपने जिन भाई साहब के निधन पर उदयपुर जाने की चर्चा की है वे इस अरविंद के पिताजी ही थे.
असल में मैं इन दिनों अपने जो संस्मरण लिख रहा हूं उसमें अपनी नौकरी के बहुत सारे प्रसंग भी अंकित किये हैं. मैं प्राचार्य पद पर पदोन्नत होकर जुलाई 1998 में सिरोही ज़िले में स्थित आबू रोड पहुंचा था और करीब बीस माह वहां इस पद पर रहा. इसके बाद मेरी पदोन्नति स्नातकोत्तर प्राचार्य पद पर हो गई और मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोही में आ गया था. आबू रोड में अपने कार्यकाल के बारे में लिखने के लिए मेरे पास अधिक प्रीतिकर स्मृतियां नहीं हैं, हालांकि जो हैं उन्हें लिखा है. वहां के एक साथी भगवान दास जी ने यह लिखा भी कि उन्हें मेरे इस कार्यकाल के संस्मरणों की प्रतीक्षा है, मैं उन्हें सार्वजनिक करने से बचता रहा हूं. लेकिन आज जब अरविंद से बात हुई तो लगा कि उस काल का एक संस्मरण तो साझा कर ही दूं. यह आबू रोड का मेरा दूसरा संस्मरण है. पता नहीं पहला संस्मरण कभी यहां सोशल मीडिया पर साझा करूंगा भी या नहीं! फिलहाल तो यह पढ़ें:
दूसरा प्रसंग बहुत मज़ेदार है. इसी कॉलेज के एक वरिष्ठ प्राध्यापक पूनमा राम खोड किसी अन्य कॉलेज में प्राचार्य पद पर कार्यरत थे और वे आबू रोड में आने के लिए प्रयत्नरत थे. यह स्वाभाविक भी है. मैं अपने भाई साहब के निधन के कारण उदयपुर गया हुआ था कि पीछे से इन खोड़ साहब का तबादला आबू रोड हो गया और मुझे भीनमाल स्थानांतरित कर दिया गया. अब क्योंकि खोड़ साहब आबू रोड आने को बहुत व्याकुल थे, वे शीघ्रातिशीघ्र आबू रोड आए और मेरी अनुपस्थिति में वहां के प्राचार्य का पद भार ग्रहण कर लिया. जब तीन चार दिन बाद मैं उदयपुर से लौटा तब तक किसी प्रशासनिक कारण से यह आदेश जारी हो गया कि अगले आदेश तक यथास्थिति बनाई रखी जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि खोड़ साहब प्राचार्य हो गए, मैं अधर में लटक गया. यथास्थिति के चलते मैं भीनमाल जाकर भी जॉइन नहीं कर सकता था. अब, खोड़ साहब के मन में यह धुकधुकी कि जब मैं उदयपुर से लौटकर आऊंगा तब जाने क्या दंगा करूंगा? ख़ैर. मैं आया और दस बजे कॉलेज गया. खोड़ साहब कुर्सी पर बैठे हुए. मैंने उन्हें बधाई दी. वे तो धूम धड़ाके के लिए तैयार थे, जो हुआ नहीं. चाय आई. हमने चाय पी. न वे कुछ बोलें, न मैं. आखिर उन्होंने ही मौन तोड़ा. मुझसे पूछा “प्राचार्य कौन रहेगा?” मैंने जवाब दिया, “आप”. उन्होंने फिर पूछा, “इस चेम्बर में कौन बैठेगा?” मैंने कहा – “आप”. उनका अगला सवाल था, “आप कहां बैठेंगे?” मैंने उस कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए, जिस पर उस वक़्त मैं बैठा था, जवाब दिया- “यहां, या फिर स्टाफ रूम में जाकर बैठ जाऊंगा.” अब तो उनके पास पूछने को कुछ बचा ही नहीं था. तो मैंने ही कहा, “देखिये, मैं दस बजे कॉलेज आऊंगा, दस्तख़त करूंगा. जब तक मन होगा, यहां रुकूंगा. फिर घर चला जाऊंगा. मेरा फ़ोन नम्बर आपके पास है ही. कोई ख़ास बात हो तो मुझे सूचित कर सकते हैं.”
और इस तरह जो छह माह बीते वे मेरी नौकरी के सबसे ज़्यादा तनाव रहित छह माह थे. और उन्हीं छह महीनों को याद कर रहा था मैं अरविंद की बात सुनते हुए. इस दौरान मैंने खूब किताबें पढ़ीं, खूब फिल्में देखीं और खूब भ्रमण किया. कॉलेज से निकल कर घर जाता तो रास्ते में एक वीडियो लाइब्रेरी थी वहां से दो तीन सीडी किराये पर लेता और घर जाकर उनका आनंद लेता. हर रविवार सुबह नाश्ता करके हम दोनों घर से निकल जाते. पूरे छह माह हमारा यह क्रम रहा कि एक सप्ताह अम्बाजी जाना है तो दूसरे सप्ताह माउण्ट आबू. हमारे पास स्कूटर था. उसी पर ये यात्राएं कीं. उसी दौरान कॉलेज में एक बड़ी हड़ताल हुई. प्राचार्य मुर्दाबाद के नारों के बीच मैं विद्यार्थियों के भीड़ में से निकल कर कॉलेज जाता और बेहद तनावग्रस्त प्राचार्य के सामने एकदम निष्फिक्र भाव से कुछ देर बैठकर फिर उसी मस्त चाल से घर लौट आता. यह सुखद गत्यवरोध कोई छह माह चला.