Sunday, June 29, 2014

अपना शहर, अपना घर और अपना स्कूल

पिछले डेढ़ दो सालों से मुझे अपना शहर, अपना घर और अपना  स्कूल बहुत याद आ रहे थे.

वैसे, ये तीनों अब अपने नहीं हैं, लेकिन फिर भी मुंह से अपना ही  निकलता है. उदयपुर में जन्म हुआ, बड़ा हुआ, पढ़ा लिखा और 1967 में नौकरी करने उदयपुर से बाहर निकला तो फिर वापस उदयपुर लौट ही नहीं सका. न कभी वहां तबादला हुआ, और सच कहूं तो इसके लिए प्रयत्न भी नहीं किया, और न रिटायर होने के बाद वहां बसने की सोची. इसके लिए मेरे परम मित्र सदाशिव श्रोत्रिय अब भी गाहे-बगाहे मुझसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते रहते हैं. उदयपुर में अपना घर था. वो घर जहां मेरा जन्म हुआ, जहां रहकर पढ़ाई वगैरह की. जहां मेरे मां-बाप रहे. जिस घर में मेरे गर्दिश के दिन बीते. वो घर भी आहिस्ता-आहिस्ता बेगाना होता गया, और अंतत: इस शताब्दी के शुरुआती बरसों में उसे बेच कर उससे जैसे आखिरी नाता भी तोड़ लिया, या तोड़ना पड़ा. और स्कूल? 1955 में जगदीश रोड़ पर अपने घर के सामने वाली नानी गली में स्थित जिस कंवरपदा स्कूल में दाखिला लिया था, और जहां से 1961 में हायर सैकण्ड्र्री परीक्षा उत्तीर्ण कर निकला, उस स्कूल में फिर कभी जाना हुआ ही नहीं. बावज़ूद इस बात के 1940 के बाद भी चालीस बरस मेरा घर वही रहा और वहां जाना भी होता रहा, लेकिन उस स्कूल में फिर कभी जाना नहीं हुआ. लेकिन इधर डेढ़ दो बरसों से मुझे अपना घर, अपना स्कूल और अपना शहर बहुत याद आ रहे थे. शायद
उम्र का असर हो!

तो मार्च 2014 में उदयपुर जाने का प्रोग्राम बना, और वहां रहते हुए एक सुबह निकल पड़ा मैं अपना घर और अपन स्कूल देखने.

तो ये है जगदीश रोड़, और आई सी आई सी आई बैंक का जो लाल बोर्ड नज़र आ रहा है, उसके ऊपर वाला घर था जिसमें मेरी 1945 से 1967 तक की ज़िन्दगी बीती और जहां से मेरे जीवन ने एक दिशा प्राप्त की. नीचे हमारी दुकान हुआ करती थी, जो 1959 में पिता के निधन के बाद  कुछ बरस घिसटती हुई चली (और जिसने मेरी पढ़ाई के लिए आर्थिक साधन भी दिए) लेकिन फिर मेरे नौकरी कर लेने के कारण बन्द हो गई. मेरी मां को सदा यह मलाल रहा कि मैंने उनके पति का नाम (जो उस दुकान का भी नाम था) मिटा दिया. हां, तब यहां ये घर इतनी ज़्यादा ऊंचाइयों वले नहीं थे और बहुत लम्बे समय तक मेरा यह घर सबसे ज़्यादा ऊंचे घरों में से एक था. धीरे-धीरे और घर ऊंचे उठते गए और हम जहां के तहां रह गए. 

इसी घर के करीब-करीब सामने, जहां गाय खड़ी है उसी के  थोड़ा-सा आगे,  एक गली है जिसका नाम नानी गली है. ये नीचे वाली तीन तस्वीरें उसी गली की है. मेवाड़ी में नानी का अर्थ होता है  छोटी. यानि छोटी गली. और प्रसंगवश बता दूं कि इसी नानी गली के सामने एक गली थी और है जिसका नाम था मूत गली, क्योंकि उसमें एक सार्वजनिक मूत्रालय था. पता नहीं अब है या नहीं! ये तीन छवियां उसी नानी गली की हैं:





इस ठीक ऊपर वाली तस्वीर में जो भारतीय पुस्तक भण्डार दीख रहा है वह उस ज़माने में और बहुत बाद तक पूरे उदयपुर शहर में संस्कृत और प्राच्य विद्या विषयक  पुस्तकें मिलने का एकमात्र ठिकाना था. 

इसी गली में थोड़ा-सा आगे  चलकर  बांये हाथ पर है वो स्कूल जिसमें मैंने कक्षा छह से ग्यारह तक पढ़ाई की. ये रही उस स्कूल के प्रवेश द्वार की छवियां.




                   


हां, जब मैं यहां पढ़ता था तब दरवाज़े पर इतना ताम झाम नहीं था. खुला-खुला-सा हुआ करता था. आज जहां यह आंखों को चुभने वाला  लाल दरवाज़ा है, इसमें से अन्दर जाने पर एक लम्बा-सा खुर्रा हुआ करता था, जिसके बांयी तरफ हमारी क्राफ्ट की कक्षा होती थी (मेरा वैकल्पिक क्राफ्ट विषय पहले सुथारी था और बाद में टेलरिंग हुआ). जैसे ही खुर्रा चढ़ते हैं, आपके सामने होती है स्कूल की भव्य इमारत. अभी वहां कुछ काम चल रहा था, इसलिए वह भव्य इमारत उतनी भव्य नहीं लगी, जितनी वह वास्तव में है, और मेरी स्मृतियों में थी. फिर भी यह देखिए:





असल में यह कंवर (राजकुमार) लोगों के लिए निर्मित भवन था, इसलिए नाम पड़ा कंवरपदा. अब कंवर लोगों के लिए था तो भव्य  तो होगा ही. भवन के सामने जो मैदान-सा नज़र आ रहा है वही हमारे ज़माने में प्ले ग्राउण्ड हुआ करता था. लेकिन अब इसी के पास खेलने के लिए  एक और जगह बना दी गई है:

जैसे ही भवन के अन्दर जाते हैं एक छोटा-सा बरामदा मिलता है यहां सूचनाएं लगाई जाती थीं. शायद अब भी ऐसा ही होता है: 



इससे आगे बढ़ने पर एक काफी बड़ा चौक है, जिसमें बांयी तरफ उस ज़माने में हेड मास्टर का कमरा और स्कूल का ऑफिस हुआ करते थे. ऊपर सगसजी बावज़ी का एक मन्दिर भी है, जिसके पुजारी जी मुझे उस दिन मिल गए और बड़ी आत्मीयता से मुझे ऊपर ले जाकर दर्शन करवाए. एक तस्वीर (पहली तस्वीर में - सीढियां चढ़ते हुए) में वे पुजारी जी भी हैं. यह बात  बहुत आश्चर्य की लगती है कि कैसे हमारे धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले देश के सरकारी स्कूलों में भी बाकायदा पूजा पाठ चलता है. जो लोग इसाई मिशनरी स्कूलों और मदरसों में चलने वाली धार्मिक शिक्षा पर दुखी होते हैं वे इस तरफ से आंखें मूंदे रहते हैं. बहरहाल, देखिये ये तस्वीरें:





इस तत्कालीन हेडमास्टर कक्ष के सामने यानि इस चौक के दांयी तरफ एक छोटा-सा दरवाज़ा है जिसमें से होकर और नीचे उतरकर हम  एक और चौक में पहुंचते हैं. यह है वह छोटा दरवाज़ा(दांयी तरफ, गोलाई लिए हुए): 



और जब इस दरवाज़े को पार कर आप नीचे उतरते हैं तो बांयी तरफ वे कमरे नज़र आते हैं जिनमें बैठकर और गुरुजन से ज्ञान  प्राप्त कर 1961 में मैंने हायर सैकड्री उत्तीर्ण कर इस स्कूल से विदा ली. यहां यह भी  याद  करता चलूं कि 1961 में इस स्कूल से हायर सैकण्ड्री का पहला बैच निकला था और उस बैच में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण  होने वाले तीन विद्यार्थियों में से एक मैं था. कहना अनावश्यक है कि प्रथम श्रेणी किसी को नहीं मिली थी.



जिस दिन मैं अपना स्कूल देखने गया, उस दिन परीक्षा तैयारी के कारण वहां छुट्टी का-सा माहौल था. एक युवा चपरासी वहां मुझे मिला, जिसने  मेरे अनुरोध  पर  इस कमरे के भीतर मेरी एक फोटो ली, लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य कि बस वही फोटो बिगड़ी. तस्वीर खिंचवाने के लिए  मैं  उस कमरे में एक कुर्सी पर उसी तरह बैठा था जैसे 1960-61 में बैठता रहा होऊंगा, और जैसे ही मैं बैठा,  मेरी बहुत तेज़ रुलाई फूट पड़ी. जाने क्यों?

और यह तस्वीर  है मेरी कक्षाओं के कमरों के सामने के कमरों की:




क्या पता इस जनम में फिर कभी  उस स्कूल भवन में जाना होगा या नहीं?  

Tuesday, June 24, 2014

अच्छी भी है हमारी दुनिया!

हिंदी के अमर कथाकार प्रेमचंद के सुपुत्र और खुद एक बड़े रचनाकार स्वर्गीय अमृत राय अखबारों को द मॉर्निंग डिप्रेसर कहा करते थे. मुझे नहीं पता कि अगर अमृत राय आज जीवित होते तो आज के अखबारों को वे क्या नाम देना पसंद करतेक्योंकि उनके समय से आज तक आते-आते हालात बदतर हुए हैं. लेकिन कभी-कभी इस बुरे समय में ये अखबार ऐसी कोई ख़बर भी दे देते हैं कि मन एकदम उल्लसित हो उठता है. अभी उस दिन जब चेन्नई की यह ख़बर पढ़ी तो मुझे लगा कि दुनिया उतनी भी ख़राब नहीं है जितनी हम मान लेते हैं. हो सकता है यह ख़बर आपकी निगाहों से न गुज़री हो. मैं बता दूं? चेन्नई के फोर्टिस मलार हॉस्पिटल में मुम्बई की एक 21 वर्षीया कॉलेज छात्रा ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी. हृदय का प्रत्यारोपण होना था, और डोनर का यह हृदय चेन्नई सेण्ट्रल के नज़दीक के जनरल हॉस्पिटल से उस अस्पताल में पहुंचाने का ज़िम्मा था एक एम्बुलेंस ड्राइवर सी. काथिर का. एक-एक पल कीमती था. एक पल का विलम्ब, और सब बेकार.

और सलाम उस ड्राइवर काथिर को जिसने चेन्नई के भारी ट्रैफिक के बीच महज़ 13 मिनिट में 12 किलोमीटर का यह फासला तै करके उस लड़की की जान बचाने का असम्भव लगने वाला चमत्कार कर दिखाया.  काथिर का मानना है कि किसी की ज़िंदगी बचाने का यह अवसर उसे भगवान की देन है. काथिर पहले भी चार बार ऐसा कर चुके हैं. लेकिन इस बार उन्होंने जो अजूबा कर दिखाया उसमें चेन्नई के प्रशासन का भी बहुत बड़ा योगदान रहा. चेन्नई प्रशासन ने उस मार्ग की सारी लाल बत्तियों को बंद कर एक ग्रीन कॉरिडोर रचा ताकि दान में मिला हृदय निर्बाध और अविलम्ब पहुंचाया जा सके. भारत में ग्रीन कॉरिडोर की अवधारणा भले ही नई लगे, पश्चिमी देशों में एम्बुलेंस को ग्रीन कॉरिडोर ही मिलते हैं. मैंने अमरीका में देखा-जाना था कि एम्बुलेंस में ही इस तरह की तकनीकी व्यवस्था होती है कि उसके आते ही हर लाल  लाइट हरी होती चलती है और एम्बुलेंस को कहीं भी रुकना नहीं पड़ता है. लेकिन बात केवल तकनीकी व्यवस्था की नहीं है. लोग भी एम्बुलेंस को रास्ता देते हैं. हमारे यहां तो यही ड्राइवर काथिर बता रहे थे कि बहुत दफा उन्हें ऐसे लोग भी मिलते हैं जो एम्बुलेंस को मिले रास्ते का लाभ उठा अपने वाहन को भी निकाल ले जाने की फिराक़ में रहते हैं और इस तरह एम्बुलेंस के लिए मुसीबत पैदा करते हैं. हम रोज़ ही लोगों को एम्बुलेंस की प्राथमिकता की अनदेखी करते देखते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अगर प्रशासन भी एम्बुलेंस के महत्व को समझ उसे प्राथमिकता देने लगे तो लोगों के बर्ताव में भी सुधार हो सकता है. आखिर हम वी आई पीज़  को भी तो प्राथमिकता देते हैं.

यह अच्छी ख़बर इतनी ही नहीं थी. इस ख़बर का दूसरा हिस्सा और भी महत्वपूर्ण है. मुम्बई की इस छात्रा को दान में प्रत्यारोपण के लिए जो हृदय मिला वो एक 27 वर्षीय इलेक्ट्रिकल इंजीनियर  का था जिसका निधन एक सड़क दुर्घटना में हुआ था. उसके हृदय को दान करने का फैसला किया उसकी  मां ने. मां ने इसलिए कि उसके पिता तो बहुत पहले ही उसे छोड़ कर दूसरे लोक में जा चुके थे. मां एक गांव में हेल्थ नर्स का काम करके अपना परिवार चलाती है. अंग दान की बात उनके लिए अनजानी नहीं थी, और वो खुद सोचा करती थी कि अगर उन्हें  कभी कुछ हुआ तो वे ज़रूर अपना अंग दान कर किसी की जान बचाने का पुण्य अर्जित करेंगी. लेकिन यह तो उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें अपने ही बेटे के अंग का दान करने की अनुमति देनी पड़ेगी. जिस ग्रीफ काउंसलर को उनसे इस बाबत बात करनी थी, खुद उनके लिए यह बहुत मुश्क़िल दायित्व था. आखिर कैसे किसी मां से यह कहा जाए कि वे अपने हाल ही में मृत बेटे के अंग को किसी और के लिए काम में लेने की इजाज़त दे दें? लेकिन  उस ग्रीफ काउंसलर प्रकाश का कहना है कि उस बहादुर मां ने न केवल अपनी स्वीकृति दी, यह भी कहा कि उन्हें अपने उस बेटे पर गर्व है जिसकी वजह  से किसी की जान  बच पा   रही है.

तो ये दो सकारात्मक ख़बरें भी अख़बार ने ही दी हैं. असल में हमारे  चारों तरफ़ काफी कुछ अच्छा भी घटित होता है, लेकिन रिवायत कुछ ऐसी बन गई है कि उसकी चर्चा कम होती है और जो अप्रिय तथा अवांछित  घटित होता है वो तुरंत सुर्खियों में आकर हम तक पहुंच जाता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार, दिनांक 24 जून, 2014 को अच्छी भी है हमारे आस-पास की दुनिया शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 17, 2014

मौका भी है और दस्तूर भी

साहित्य की दुनिया में किसी नव प्रकाशित पुस्तक के लोकार्पण का अवसर लगभग उसी तरह का होता है जैसे विवाह के बाद नव दम्पती का स्वागत समारोह, या किसी परिवार में हुए शिशु जन्म पर किसी भी बहाने से होने वाला कोई उत्सव या किसी के नए घर में जाने पर होने वाला गृह प्रवेश या अंग्रेज़ी परम्परा में हाउस वार्मिंग पार्टी. मक़सद सभी जगह करीब-करीब एक-सा होता है. अपने निकटस्थ लोगों को सूचना देना और साथ-साथ अपने उल्लास में सहभागी बनाना. जिस तरह पारिवारिक आयोजनों में निकटस्थ की परिधि बड़ी  होती जा रही है वैसा ही साहित्यिक आयोजनों में भी होता जा  रहा है. कई बार लगता है कि पारिवारिक आयोजन भी जन सम्पर्क प्रयासों में तब्दील होते जा रहे हैं. साफ नज़र आता है कि आयोजन इन मक़सदों की पूर्ति के साथ-साथ अपनी व्यापक पहुंच और अपने वैभव का दिखावा करने के लिए भी किया गया है.


किसी की कोई नई किताब प्रकाशित होती है और वह उसकी ख़बर देते हुए इस खुशी को आपसे साझा करना चाह रहा है इससे बहुत ज़्यादा आजकल नज़र आने लगा है. रचनाकार इन बातों के अलावा यह प्रदर्शित करने में भी कोई संकोच नहीं करता है कि उसकी जान-पहचान किन बड़े राजनेताओं और धन कुबेरों से है और वो अपनी खुशी के लिए कितना ज़्यादा खर्च कर डालने की हैसियत रखता है. लगभग अनपढ़ और कई दफ़ा तो इस बात की सगर्व सार्वजनिक घोषणा भी करने वाले नेताओं की उपस्थिति से गद्गद लेखक जब किसी पंच सितारा आरामगाह में अपनी किताब का लोकार्पण करवाता है तो मंज़र काबिले-दीद होता है. लेकिन यह उसकी अपनी समझ और प्राथमिकता की बात है.


मुझे हाल  ही में एक अपेक्षाकृत नए लेखक की किताब के लोकार्पण समारोह में शामिल होने का मौका मिला. मैं लेखक या उसके लेखन से परिचित नहीं था लेकिन कुछ मित्रों का आग्रह था सो चला गया. वक्ताओं की बहुत लम्बी सूची थी. कई तो बाहर से और काफी दूर से भी बुलाए गए थे. कहना अनावश्यक है कि साहित्य की दुनिया में उनका अच्छा नाम भी था. ज़ाहिर है कि लेखक ने उन सब को बुलाने और उनके आवास-भोजन आदि पर काफी पैसा खर्च किया होगा. प्रकाशक तो आम तौर पर करते नहीं हैं. स्थानीय रचनाकारों  और साहित्य प्रेमियों की भी उपस्थिति काफी अच्छी थी.  यह सब देखकर मुझे तो अच्छा लगा. जंगल में मोर नाच रहा है तो उसे देखने वाले भी तो होने चाहिएं. न हो तो जुटाये जाएं! इसमें क्या हर्ज़ है?

तो आयोजन शुरु हुआ, किताब को लोकार्पित किया गया और फिर वक्तागण ने एक-एक करके उस किताब की खूबियां बतानी शुरु कीं. संयोग से, वह किताब  मैं पहले ही पढ़ चुका था, इसलिए वक्तागण जो कह रहे थे उसका अपनी तरह से मूल्यांकन भी करता जा रहा था.  हर वक्ता उस किताब की उन्मुक्त सराहना कर रहा था और यह अस्वाभाविक भी नहीं है. आखिर आप जब किसी के नवजात शिशु को देखने जाते हैं तो कहते हैं ना कि ‘बच्चा बड़ा प्यारा है’, या किसी शादी में जाते हैं तो ‘जोड़ी बहुत खूबसूरत है’ कहते हैं या किसी के  गृह प्रवेश पर जाते हैं तो घर के नक्शे की, उसकी रंग योजना की और अगर हो तो उसके इण्टीरियर की तारीफ में कुछ न कुछ कहते ही हैं! मौका भी है, दस्तूर भी वाली बात! और मुझे लगता है कि किसी किताब  के लोकार्पण समारोह में की गई टिप्पणियों को इसी भाव से लिया जाना चाहिए. अगर नहीं लेंगे तो जब उस किताब को वाकई पढ़ेंगे तो बहुत मुमकिन है कि आपको ज़ोर का झटका ज़ोर से ही लगे. तो इस किताब की भी तारीफ होती रही और मैं और मेरे पास बैठे एक मित्र एक दूसरे को देख-देखकर और समझ-समझ कर हौले-हौले मुस्कुराते रहे.  सब कुछ ठीक चल रहा था. कार्यक्रम अपने समापन की तरफ बढ़ रहा था.

अब बारी आई अध्यक्ष जी के बोलने की. एक जाने-माने साहित्यकार और प्रभावशाली वक्ता. खड़े हुए और दो-चार औपचारिक बातों के बाद एक-एक करके अब तक हुई तारीफों की  बखिया उधेड़ने लगे. जो वे कह रहे थे  उसमें ग़लत कुछ भी नहीं था. जिन कमियों का उन्होंने ज़िक्र किया, वे सब उस किताब में थी. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अब तक के वक्ताओं ने जो तारीफें की थी वे भी मिथ्या नहीं थी. बस बात इतनी थी कि पहले वाले वक्ताओं ने किताब की कमज़ोरियों को छिपाते हुए उसके उजले पक्षों को उजागर किया था और अध्यक्ष जी ने उन छिपाई हुई बातों  पर से भी पर्दा हट दिया था.  कार्यक्रम तो सम्पन्न हो गया, लेकिन मैं अब भी सोच रहा हूं कि ऐसे मौकों पर क्या कहा  जाना चाहिए और क्या नहीं? 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में  मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 17 जून, 2014 को जब अध्यक्ष जी उखेड़ने लगे तारीफों की बखिया शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

    

Tuesday, June 10, 2014

वक़्त की पाबन्दी के शिकार

हम लोगों में चाहे लाख बुराइयां हों, एक बात की तारीफ करनी पड़ेगी. हम समय के ग़ुलाम तनिक भी नहीं हैं. समय अपनी गति से चलता है और हम अपनी. भले ही अंग्रेजों ने हमें काफी समय गुलाम बनाए रखा और अपनी बहुत सारी बुराइयां हम पर थोप दीं, वक़्त की पाबन्दी न वे हमें सिखा सके और न हमने उनसे सीखने की कोई कोशिश की. अब तो हालत यह है कि अपनी तमाम अंग्रेज़ियत के बावज़ूद हम लेट लतीफी को बड़े गर्व के साथ इंडियन स्टैण्डर्ड टाइम कह कर सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं. आप किसी भी कार्यक्रम के आयोजक से, जब वो आपको अपने आयोजन का निमंत्रण पत्र थमा रहा हो, बात कीजिए,  वो बड़े बिन्दास अन्दाज़ में आपसे कहेगा कि हालांकि कार्यक्रम का समय कार्ड में चार बजे छापा गया है, आप साढ़े  चार बजे तक आ जाएं. पिछले  दिनों एक आयोजन में एक बहुत बड़े नेता जी को तो यह कहते सुनने का भी सौभाग्य मुझे मिल चुका है कि अगर उन्हें बुलाना है तो इंतज़ार करने के लिए तैयार रहें. यहीं यह भी बताता चलूं  कि वे महज़ ढाई घण्टा देर से पधारे थे. इसे कहते हैं ऊंचे लोग ऊंची बात!

लेकिन इन सारे ऊंचे और बड़े लोगों के बीच, कुछ मूर्ख ऐसे भी हैं जिन पर इस पूरे माहौल का कोई असर नहीं होता है और स्वतंत्र भारत में जीते और सांस लेते हुए भी वे समय के ग़ुलाम बने रहते हैं. निर्धारित समय जैसे-जैसे निकट आता है उनकी हृदय गति तेज़ होने लगती है और घड़ी की सुई अगर उस निर्धारित समय को छू कर आगे बढ़ जाए तो उन्हें लगता है कि बस अब तो प्रलय दरवाज़े तक आ पहुंची है. ऐसे लोगों से  उनके घर  वाले तो तंग रहते ही हैं, वे खुद भी कम परेशान नहीं होते हैं. हमारे एक नज़दीकी  मित्र हैं जो समय के बड़े पाबन्द हैं. एक बड़े पद पर रह चुके हैं और समाज में थोड़ा मान है इसलिए गाहे-बगाहे, यानि जब कोई वर्तमान उच्च पदासीन नहीं मिलता है तो  लोग उन भूतपूर्व जी को भी अपने आयोजनों की शोभा बढ़ाने के लिए बुला लिया करते हैं. इस समय की पाबन्दी ने उन्हें कई दफा अजीब-अजीब हालात में डाला है और उन सबसे सबक लेते हुए अब तो वे भी अपने आयोजकों को ठोक बजाकर सही समय बताने के लिए विवश कर लेते हैं और कोशिश करते हैं कि वास्तविक समय पर, न कि कार्ड में दिए गए समय पर,  आयोजन स्थल पर पहुंचें. लेकिन फिर भी कभी-कभी हादसे हो ही जाते हैं. वो कहते हैं न कि सावधानी हटी और दुर्घटना घटी.

हुआ यह कि पिछले दिनों छोटे बच्चों के एक स्कूल ने उन्हें अपने  आयोजन में बुलाया. हमारे मित्र के बहुत पूछने पर आयोजकों ने उन्हें आश्वस्त किया कि मामला क्योंकि छोटे बच्चों का है, वे कार्यक्रम एकदम  सही समय पर शुरु और ख़त्म करना चाहेंगे, और इसलिए उन्होंने अपनी तरफ से भी हमारे इस मित्र से आग्रह किया कि वे समय पर पहुंच जाएं. अब हमारे मित्र  ठहरे अपनी आदत से लाचार. पहुंच गए ठीक समय पर. लेकिन वहां ऐसा सन्नाटा पसरा था जैसे कोई आयोजन होना ही नहीं है. पन्द्रह  बीस मिनिट  इधर उधर घूम फिर कर जब वे फिर आयोजन स्थल पर पहुंचे तो सौभाग्य से दरवाज़े खुल चुके थे और वे अन्दर जा सके. सभागार तक पहुंचे तो वहां सफाई का काम चल रहा था. कुछ संकोच के साथ वे आगे की एक सीट की तरफ बढ़े तो वहां खड़े चौकीदार ने उन्हें यह कहते हुए रोक दिया कि वे सीटें तो ख़ास मेहमानों के लिए आरक्षित हैं. अब बेचारे वे उस चौकीदार को क्या कहते. मन मारकर और खुद को यह दिलासा देते हुए कि अभी जब आयोजक आकर ससम्मान उन्हें मंच पर ले जाएंगे तो इस चौकीदार को पता चलेगा कि उसने किस वी आई पी को रोका था, सातवीं कतार में बैठ गए. ख़ैर कोई आधे घण्टे बाद कुछ हलचल हुई, और आयोजक गण अपने मुख्य अतिथि स्थानीय विधायक जी के साथ   प्रकट हुए और बिना दांये-बांये देखे, चमचमाती फ्लैश लाइट्स के बीच सीधे मंच की तरफ बढ़ गए! न उन्होंने हमारे मित्र की तरफ देखा और न मित्रवर को यह उपयुक्त लगा कि वे खुद स्टेज पर चले जाएं! लेकिन इतना निश्चित  है कि उस वक़्त उनके मन में अपने समय पर पहुंचने की आदत को लेकर गुस्सा ज़रूर उमड़ा  होगा. अगर वे भी देर से पहुंचे होते तो उनकी ऐसी बेकद्री नहीं हुई होती! अब देखना है कि इस अनुभव से वे क्या सबक लेते हैं!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में 10 जून 2014 को जब वक़्त की पाबन्दी ने कराई किरकिरी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 3, 2014

परीक्षा परिणामों के मौसम में

परीक्षा  परिणामों के इस मौसम में दो बातें ख़ास तौर पर याद आ रही हैं. बहुत वक़्त नहीं बीता है जब परीक्षा परिणाम जानने के लिए अख़बार का इंतज़ार करना होता था, और आप अख़बार के प्रकाशन वाले शहर से जितनी  दूर होते यह इंतज़ार भी उतना ही लम्बा होता जाता था. मुझे याद है कि उदयपुर में मेरे भाई साहब बड़े यत्नपूर्वक किसी को रेल्वे स्टेशन भेजकर ब्लैक में बोर्ड के रिज़ल्ट वाला  अख़बार मंगवाया करते और फिर अपनी दुकान पर लोगों से पर्चियों पर उनके रोल नम्बर लिखवा कर लाउड स्पीकर पर परिणाम बताया करते थे. उस ज़माने में उनकी यह जन सेवा बेहद लोकप्रिय थी. अब कोई इस बात की कल्पना भी नहीं करेगा.  दूसरी बात यह कि आज जब बच्चों को 97-98 प्रतिशत लाते देखता हूं तो यह बात याद आती है कि हमें जिन प्रोफेसरों ने पढ़ाया उनमें शायद ही कोई प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण रहा हो!

निश्चय ही आज की पीढ़ी पहले वाली पीढ़ियों की तुलना में  ज़्यादा सजग, ज़्यादा मेहनती, ज़्यादा सुविधा सम्पन्न, ज़्यादा प्रतिभाशाली  और ज़्यादा प्रखर है. इस बात की पुष्टि के लिए किसी शोध की ज़रूरत नहीं है. आप किसी चार पाँच बरस के बच्चे से थोड़ी देर बात कीजिए, ख़ुद जान जाएंगे. लेकिन इस ‘ज़्यादा’  ने इस पीढ़ी के सामने संकट भी कम खड़े  नहीं किए हैं. आज रोज़गार देने वाले के सामने एक से बढ़कर एक रोज़गाराकांक्षी खड़े हैं, और जो औसत दर्ज़े का है उसे कोई पूछने को तैयार नहीं है. संकट वाकई बड़ा और गहरा है, लेकिन अपने आस पास नज़र दौड़ाता हूं तो पाता हूं कि इसी संकट में लोग नई राहें भी निकाल रहे हैं.

यहां बैंगलोर में रहते हुए और नई पीढ़ी के बहुत सारे चमकते सितारों से बातें करते हुए समझ में आता है कि  कैसे ये लोग अपनी सूझ-बूझ और नई सोच की मदद से अपने लिए नई राहों का निर्माण कर रहे हैं. रोज़गार और काम के अवसर आपके चारों तरफ मौज़ूद हैं, बस ज़रूरत उनको देखने की और उनका इस्तेमाल करने की है. यहां मुझे पता चला कि एक पूरी स्ट्रीट ही स्टार्ट अप स्ट्रीट के नाम से जानी जाने लगी है. यानि एक ऐसी गली जिसमें तमाम नई शुरु हुई कम्पनियों के दफ्तर हैं. युवा लोग अपने साधनों के अनुरूप नई कम्पनियां बनाते हैं और आहिस्ता आहिस्ता उनका विस्तार करते जाते हैं. उनके काम  भी कम मज़ेदार  नहीं हैं. मसलन कुछ लोगों ने यह देखकर कि अलग-अलग जगहों से आए युवा घर जैसे खाने को तरसते हैं, एक कम्पनी बना दी जो गृहिणियों से सम्पर्क  स्थापित कर उनका बनाया खाना इन लोगों तक पहुंचा देती है. बहुत सारी गृहिणियां खुद अपनी पाक कला के बूते पर काफी अच्छी कमाई कर रही हैं. कोई पार्टियों के लिए खाना सप्लाई करती हैं तो कोई उत्सवों के लिए केक वगैरह बना कर अपने समय का सदुपयोग और अपने संसाधनों का विस्तार करती हैं. इन्हीं नई पहलों के ज़्यादा कामयाब और सुपरिचित रूप हैं फ्लिपकार्ट और ग्रुपऑन जैसी कम्पनियां. 

और ऐसा भी नहीं है कि रोज़गार के ये मौके तकनीकी रूप से समृद्ध या अभिजात वर्ग के लोगों को ही मिल रहे हैं. बल्कि मैं तो अपने चारों तरफ़ देखता हूं कि जिसमें किसी भी तरह की कोई योग्यता है और जो निष्ठा से काम करने को तैयार है उसके पास काम की कोई  कमी नहीं है. घरों में काम करने वाली बाइयां, खाना बनाने वाले, ड्राइवर सभी अपनी-अपनी काबिलियत और मेहनत के बल पर सम्मान और स्वाभिमानपूर्वक अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं. बल्कि अगर कभी आप काम देने वालों की नज़र से देखें तो पाएंगे कि वे अच्छा काम करने वालों की खोज में हमेशा रहते हैं और  ठीक मानदेय देने में भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती है. लेकिन इसके बावज़ूद अच्छा काम करने वालों की उनकी तलाश पूरी नहीं होती है.

ऐसे में कभी-कभी मैं सोचता हूं कि क्या हमारे देश में वाकई बेरोज़गारी है? बात थोड़ी कड़वी  लग सकती है लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो लोग बेरोज़गारी का शोर मचाते हैं वे बिना काम किए तनख़्वाह के या कम काम के लिए ज़्यादा तनख़्वाह के  तलबगार हैं? उन्हें सिर्फ और सिर्फ वो सरकारी नौकरी चाहिए जिसमें वेतन की तो गारण्टी हो लेकिन काम करने की कोई ख़ास बंदिश न हो! निश्चय ही यह अति सामान्यीकरण है. सारे लोग ऐसे नहीं हैं. और बेशक कुछ हैं जिनके पास योग्यता है लेकिन कोई उस योग्यता को देख,  सराह और ले नहीं रहा है. लेकिन अपने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाएंगे तो आपको भी लगेगा कि हमारे यहां काम खूब है, काम करने के मौके भी खूब हैं, लेकिन काम करने की इच्छा ज़रा कम है! 
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 03 जून, 2014 को चाह से बन जाते हैं रोज़गार लेने की जगह देने वाले शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल  पाठ.