पिछले डेढ़ दो सालों से मुझे अपना शहर,
अपना घर और अपना स्कूल बहुत याद आ रहे थे.
वैसे, ये तीनों अब अपने नहीं हैं, लेकिन
फिर भी मुंह से ‘अपना’ ही निकलता है. उदयपुर में जन्म
हुआ, बड़ा हुआ, पढ़ा लिखा और 1967 में नौकरी करने उदयपुर से बाहर निकला तो फिर वापस
उदयपुर लौट ही नहीं सका. न कभी वहां तबादला हुआ, और सच कहूं तो इसके लिए प्रयत्न
भी नहीं किया, और न रिटायर होने के बाद वहां बसने की सोची. इसके लिए मेरे परम
मित्र सदाशिव श्रोत्रिय अब भी गाहे-बगाहे मुझसे अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते रहते हैं.
उदयपुर में अपना घर था. वो घर जहां मेरा जन्म हुआ, जहां रहकर पढ़ाई वगैरह की. जहां
मेरे मां-बाप रहे. जिस घर में मेरे गर्दिश के दिन बीते. वो घर भी आहिस्ता-आहिस्ता
बेगाना होता गया, और अंतत: इस शताब्दी के शुरुआती बरसों में उसे बेच कर उससे जैसे आखिरी
नाता भी तोड़ लिया, या तोड़ना पड़ा. और स्कूल? 1955 में जगदीश रोड़ पर अपने घर के सामने
वाली नानी गली में स्थित जिस कंवरपदा स्कूल में दाखिला लिया था, और जहां से 1961
में हायर सैकण्ड्र्री परीक्षा उत्तीर्ण कर निकला, उस स्कूल में फिर कभी जाना हुआ
ही नहीं. बावज़ूद इस बात के 1940 के बाद भी चालीस बरस मेरा घर वही रहा और वहां जाना
भी होता रहा, लेकिन उस स्कूल में फिर कभी जाना नहीं हुआ. लेकिन इधर डेढ़ दो बरसों
से मुझे अपना घर, अपना स्कूल और अपना शहर बहुत याद आ रहे थे. शायद
उम्र का असर हो!
तो मार्च 2014 में उदयपुर जाने का
प्रोग्राम बना, और वहां रहते हुए एक सुबह निकल पड़ा मैं अपना घर और अपन स्कूल
देखने.
तो ये है जगदीश रोड़, और आई सी आई सी आई
बैंक का जो लाल बोर्ड नज़र आ रहा है, उसके ऊपर वाला घर था जिसमें मेरी 1945 से 1967
तक की ज़िन्दगी बीती और जहां से मेरे जीवन ने एक दिशा प्राप्त की. नीचे हमारी दुकान
हुआ करती थी, जो 1959 में पिता के निधन के बाद कुछ बरस घिसटती हुई चली (और जिसने मेरी पढ़ाई के
लिए आर्थिक साधन भी दिए) लेकिन फिर मेरे नौकरी कर लेने के कारण बन्द हो गई. मेरी
मां को सदा यह मलाल रहा कि मैंने उनके पति का नाम (जो उस दुकान का भी नाम था) मिटा
दिया. हां, तब यहां ये घर इतनी ज़्यादा ऊंचाइयों वले नहीं थे और बहुत लम्बे समय तक मेरा यह घर सबसे ज़्यादा ऊंचे घरों में से एक था. धीरे-धीरे और घर ऊंचे उठते गए और हम जहां के तहां रह गए.
इसी घर के करीब-करीब सामने, जहां गाय खड़ी
है उसी के थोड़ा-सा आगे, एक गली है जिसका नाम नानी गली है. ये नीचे वाली तीन तस्वीरें उसी
गली की है. मेवाड़ी में नानी का अर्थ होता है छोटी. यानि छोटी गली. और प्रसंगवश बता दूं कि
इसी नानी गली के सामने एक गली थी और है जिसका नाम था – मूत गली, क्योंकि उसमें एक सार्वजनिक मूत्रालय था. पता नहीं अब है या
नहीं! ये तीन छवियां उसी नानी गली की हैं:
इस ठीक ऊपर वाली तस्वीर में जो भारतीय पुस्तक भण्डार दीख रहा है वह उस ज़माने में और बहुत बाद तक पूरे उदयपुर शहर में संस्कृत और प्राच्य विद्या विषयक पुस्तकें मिलने का एकमात्र ठिकाना था.
इसी गली में थोड़ा-सा आगे चलकर बांये
हाथ पर है वो स्कूल जिसमें मैंने कक्षा छह से ग्यारह तक पढ़ाई की. ये रही उस स्कूल के
प्रवेश द्वार की छवियां.
हां, जब मैं यहां पढ़ता था तब दरवाज़े पर इतना ताम झाम
नहीं था. खुला-खुला-सा हुआ करता था. आज जहां यह आंखों को चुभने वाला लाल दरवाज़ा है, इसमें से अन्दर जाने पर एक
लम्बा-सा खुर्रा हुआ करता था, जिसके बांयी तरफ हमारी क्राफ्ट की कक्षा होती थी
(मेरा वैकल्पिक क्राफ्ट विषय पहले सुथारी था और बाद में टेलरिंग हुआ). जैसे ही
खुर्रा चढ़ते हैं, आपके सामने होती है स्कूल की भव्य इमारत. अभी वहां कुछ काम चल
रहा था, इसलिए वह भव्य इमारत उतनी भव्य नहीं लगी, जितनी वह वास्तव में है, और मेरी
स्मृतियों में थी. फिर भी यह देखिए:
असल में यह कंवर (राजकुमार) लोगों के लिए निर्मित भवन
था, इसलिए नाम पड़ा कंवरपदा. अब कंवर लोगों के लिए था तो भव्य तो होगा ही. भवन के सामने जो मैदान-सा नज़र आ रहा
है वही हमारे ज़माने में ‘प्ले ग्राउण्ड’ हुआ करता था. लेकिन अब इसी के पास खेलने के लिए एक और जगह बना दी गई है:
जैसे ही भवन के अन्दर जाते हैं एक छोटा-सा
बरामदा मिलता है यहां सूचनाएं लगाई जाती थीं. शायद अब भी ऐसा ही होता है:
इससे आगे बढ़ने पर एक काफी बड़ा चौक है,
जिसमें बांयी तरफ उस ज़माने में हेड मास्टर का कमरा और स्कूल का ऑफिस हुआ करते थे.
ऊपर सगसजी बावज़ी का एक मन्दिर भी है, जिसके पुजारी जी मुझे उस दिन मिल गए और बड़ी आत्मीयता
से मुझे ऊपर ले जाकर दर्शन करवाए. एक तस्वीर (पहली तस्वीर में - सीढियां चढ़ते हुए) में वे पुजारी जी भी हैं. यह बात बहुत आश्चर्य की लगती है कि कैसे हमारे धर्म
निरपेक्ष कहे जाने वाले देश के सरकारी स्कूलों में भी बाकायदा पूजा पाठ चलता है. जो
लोग इसाई मिशनरी स्कूलों और मदरसों में चलने वाली धार्मिक शिक्षा पर दुखी होते हैं
वे इस तरफ से आंखें मूंदे रहते हैं. बहरहाल, देखिये ये तस्वीरें:
इस तत्कालीन हेडमास्टर कक्ष के सामने यानि
इस चौक के दांयी तरफ एक छोटा-सा दरवाज़ा है जिसमें से होकर और नीचे उतरकर हम एक और चौक में पहुंचते हैं. यह है वह छोटा
दरवाज़ा(दांयी तरफ, गोलाई लिए हुए):
और जब इस दरवाज़े को पार कर आप नीचे उतरते
हैं तो बांयी तरफ वे कमरे नज़र आते हैं जिनमें बैठकर और गुरुजन से ज्ञान प्राप्त कर 1961 में मैंने हायर सैकड्री
उत्तीर्ण कर इस स्कूल से विदा ली. यहां यह भी याद करता चलूं कि 1961 में इस स्कूल से हायर
सैकण्ड्री का पहला बैच निकला था और उस बैच में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले तीन विद्यार्थियों में से एक मैं था.
कहना अनावश्यक है कि प्रथम श्रेणी किसी को नहीं मिली थी.
जिस दिन मैं अपना स्कूल देखने गया, उस दिन
परीक्षा तैयारी के कारण वहां छुट्टी का-सा माहौल था. एक युवा चपरासी वहां मुझे
मिला, जिसने मेरे अनुरोध पर इस
कमरे के भीतर मेरी एक फोटो ली, लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य कि बस वही फोटो बिगड़ी.
तस्वीर खिंचवाने के लिए मैं उस कमरे में एक कुर्सी पर उसी तरह बैठा था जैसे
1960-61 में बैठता रहा होऊंगा, और जैसे ही मैं बैठा, मेरी बहुत तेज़ रुलाई फूट पड़ी. जाने क्यों?
क्या पता इस जनम में फिर कभी उस स्कूल भवन में जाना होगा या नहीं?