Thursday, January 17, 2008

एक घोषणा पत्र खाने वालों के लिए

मनुष्य प्रजाति सदियों से यह जानती है कि ठीक से क्या और कैसे खाया जाए, लेकिन अब खाद्य उद्योग के मार्केटिंग कर्मियों, पोषण वैज्ञानिकों और इनसे सम्बद्ध पत्रकारों ने उसे उलझा-भरमा दिया है. खाद्य और पोषण विषयक उलझनें जितनी बढती हैं उतना ही इनका धन्धा चमकता है. आज तो एक ऐसा खाद्य परिदृश्य बन गया है जो खराब सलाहों और ‘अवास्तविक’ भोजन से भरा है. ये भोजन जैसे दिखने वाले पदार्थ अक्सर मिथ्या या भ्रामक तथ्यों से भरी पैकिंग में प्रस्तुत किए जाते हैं. असल भोजन तो बाज़ार से लुप्त होता जा रहा है. उसकी जगह लेते जा रहे हैं तथाकथित न्यूट्रीएण्ट्स जो न केवल हमारे खाने को बल्कि हमारी सेहत को भी खराब कर रहे हैं.
ये और ऐसी ही अनेक चौंकाने वाली बातें कही हैं माइकेल पोलान ने अपनी ताज़ा किताब ‘इन डिफेंस ऑफ फूड : एन ईटर्स मेनीफेस्टो’ में. पोलन की दो टूक सलाह है : ऐसी कोई चीज़ मत खाओ जिसे तुम्हारी पड दादी खाद्य पदार्थ के रूप में न पहचान सके.
न्यूयॉर्क टाइम्स के सुपरिचित पत्रकार, बर्कले विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के प्रोफेसर माइकेल पोलन की इससे पहले इसी श्रंखला की दो और किताबें ‘द बॉटेनी ऑफ डिज़ायर’ और ‘द ओम्नीवोर्स डाइलेमा’ क्रमश: भोजन से हमारे रिश्तों की पडताल और हमारे भोजन के वैविध्य के विश्लेषण के लिए चर्चित-प्रशंसित रही हैं. यहां इस नई किताब में पोलन का सन्देश बहुत स्पष्ट है : भोजन का आनंद लें. ज़्यादा न खायें. जहां तक हो, वानस्पतिक भोजन का अधिकतम प्रयोग करें.
यह किताब तीन खण्डों में है. पहला खण्ड न्यूट्रीशनिज़्म की पडताल करता है और बताता है कि इस विचार ने हमारे भोजन को न्यूट्रीएण्ट्स में बांट डाला है. पोलन कहते हैं कि यह न्यूट्रीशनिज़्म खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के लिए वरदान सिद्ध हो रहा है क्योंकि इसी की मदद से वे अपने उत्पादों को तेज़ी से बेच पाने में सफल होते हैं. पोलन खाद्य वैज्ञानिकों और खाद्य पदार्थ विक्रेताओं के बीच के मैत्रीपूर्ण रिश्तों को भी उजागर करते हैं और बताते हैं कि इन वैज्ञानिकों की नित नई खोजों से नए-नए खाद्य उत्पाद बाज़ार में उतारने की सहूलियत पैदा होती है. वे मज़े लेकर बताते हैं कि पोषण विज्ञान की नई-नई खोजों के कारण जो खाद्य पदार्थ कल तक उच्च वसा युक्त होने के कारण त्याज्य था वही अब लाभदायक वसा युक्त माना जाकर चहेता बना दिया जाता है. वे याद दिलाते हैं कि अमरीका में 2003 मं एटकिन्स डाइट के हल्ले के कारण ब्रेड और पास्ता अचानक लोकप्रिय हो उठे और बेचारे आलू व गाजर खलनायक बन गए. पोलन साफ कहते हैं कि पोषण विज्ञान की एक ऐसी नई शाखा बन गई है जो खाद्य उद्योग के अनुदान पर ही फल फूल रही है. इस शाखा का काम ही यह है कि उद्योग जिस पदार्थ के लिए कहे उसी को तमाम पोषक तत्वों से युक्त सिद्ध कर दिया जाए. अपने इस कथन को पुष्ट करने के लिए पोलन बताते हैं कि अमरीका के एक प्रसिद्ध कॉर्पोरेशन ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में चॉकलेट साइन्स के लिए एक चेयर स्थापित की है और यह चेयर अब चॉकलेट में एण्टी ऑक्सीडेण्ट खोजने में जुटी हुई है. बहुत जल्दी आपको यह बताया जा सकता है कि चॉकलेट तमाम स्वास्थ्यवर्धक तत्वों की खान है.
पोलन यह भी बताते हैं कि खाद्य उद्योग के दबाव किस तरह सरकारी घोषणाओं को भी बदलवाने में कामयाब रहते हैं. 1977 में एक सीनेट समिति ने कहा : मांस का उपभोग कम करें. खाद्य उद्योग के दबाव के कारण यह इबारत बदल दी गई और कहा गया : सैचुरेटेड वसा को कम करने वाले मांस मछली का उपभोग करें. ज़ाहिर है, यह कथन अर्ध सत्य था और खाद्य उद्योग के हित में था. किताब का दूसरा खण्ड है ‘पश्चिमी भोजन और सभ्यता का रोग’ जहां पोलन कई उदाहरण देकर यह बताते हैं कि आधुनिक पश्चिमी भोजन किस तरह हमारे स्वास्थ्य के साथ खिलवाड करता है.
किताब का तीसरा खण्ड इस पश्चिमी भोजन से बचने के उपाय सुझाता है. पोलन की सलाह है कि रसायनिक तत्वों से युक्त डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थ कम-से-कम काम में लिये जाएं. यह भी कि एक जगह बैठकर ही खायें, अकेले न खायें और धीरे-धीरे खायें. पोलन हमसे हमारी खाने-पीने की आदतों में बदलाव करने को ही नहीं कहते बल्कि एक ऐसे आन्दोलन में शरीक होने का आह्वान करते हैं जो सामूहिकता और आनन्द के ज़रिये भोजन से स्वास्थ्य की राह पर ले जाता है. वे ऐसी खाद्य संस्कृति का प्रस्ताव करते हैं खाद्य उद्योग के इशारों पर नाचने की बजाय पारिस्थितिकी और परम्परा से संचालित हो.
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Discussed book:
In Defense of Food: An Eater’s Manifesto
By Michael Pollan
Published by: Penguin Press HC, The
256 Pages, Hardcover
US $ 21.95


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 17 जनवरी 2008 को प्रकाशित.