Tuesday, November 13, 2018

पराई पीड़ा को हरने की कोशिश में जुटे विदेशी वैष्णव जन!


धार्मिक संस्थानों की चल-अचल सम्पदा की प्राय: चर्चा होती है और समाज का एक तबका इस बात पर दुखी होता है कि अपनी अतिशय सम्पन्नता के बावज़ूद कई धार्मिक स्थल वंचितों और विपन्नों के लिए कुछ नहीं करते हैं या बहुत कम करते हैं. ऐसा नहीं है कि यह शिकायत सभी धर्मों और सभी धार्मिक स्थलों से हो. बहुत सारे धार्मिक स्थल या संस्थान अपनी कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सराहे भी जाते हैं. अपने देश में भी अनेक ऐसे धार्मिक स्थल या  संस्थान  हैं जो निरंतर अपनी जन कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सकारात्मक चर्चाओं के केन्द्र में रहते हैं. इसके बावज़ूद यह एक कड़वी सच्चाई  है कि ज़्यादातर धार्मिक संस्थाओं  की दिलचस्पी अपने वैभव को बढ़ाने और उसका प्रदर्शन करने में ही रहती है. ऐसे में जब सुदूर पश्चिम के देशों के कुछ गिरजाघरों से इस आशय के  समाचार आए कि उन्होंने अपने दरवाज़े बेघर लोगों के लिए खोल दिये हैं, तो मन खुश हो गया. लगा कि इस खुशी को तो सबके साथ साझा किया जाना चाहिए.

अभी यह ख़बर पढ़ने को मिली कि अमरीका के सैन फ़्रांसिस्को शहर में स्थित सेण्ट बॉनिफेस नामक एक चर्च के प्रबन्धकों ने अपने  इस उपासना गृह के दरवाज़े उन बेघरबार लोगों के लिए खोल दिए हैं जिन्हें किसी आश्रय स्थल की तलाश हो. उल्लेखनीय है कि इस चर्च के फादर लुइ विटाले उसी शहर के एक सामुदायिक एक्टिविस्ट शैली रॉडर के साथ मिलकर सन 2004 से ही गुबियो नाम की एक परियोजना चला रहे हैं.  इस परियोजना के तहत बेघरबार लोगों को सदस्य चर्चों में आश्रय प्रदान किया जाता है. इस सुविधा का उपयोग करने के आकांक्षी किसी भी व्यक्ति से न तो कोई सवाल पूछा जाता है और न कभी किसी को मना किया जाता है. हरेक को ससम्मान और पूरी गरिमा के साथ यह सुविधा प्रदान की जाती है. इस परियोजना के सहभागी चर्च अपनी दो तिहाई ज़मीन बेघरबार लोगों को सुलभ कराते हैं. परियोजना के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि वे अपने आसपास रहने वाले बेघरबार लोगों को यह सन्देश देना चाहते हैं  कि वे भी समाज के सम्मानित सदस्य हैं और  जब कोई चर्च में उपासना के लिए आए तब भी वे उन्हें वहां से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है.

यहीं यह बात भी याद कर लेना उपयुक्त होगा कि सामान्यत: अमरीका में बेघरबार लोगों को समाज के लिए खतरनाक मानते हुए  सन्देह  और हिक़ारत की नज़रों से देखा जाता है और कोशिश यह की जाती है कि उन्हें अलग बाड़ों में क़ैदियों की तरह रखा जाए. सन 2017 में सिएटल में तो इस तरह के बेघरबार लोगों  को अपने डेरे जमाने से रोकने के लिए कांटेदार बाड़े बन्दी तक करने की योजना बनाई गई थी. खुद सैन फ़्रांसिस्को  में बेघरबार लोगों को भगाने के लिए रोबोट्स तक का सहारा लिया गया और वहां के प्रशासन ने एक बड़ी धनराशि बड़े पुलों के नीचे इन बेघरबारों के डेरे लगाने से रोकने के लिए खर्च की. बेघरबार लोगों के प्रति आक्रामकता और अस्वीकार्यता इस हद तक है कि कैलिफ़ोर्निया में फरवरी 2018 में अनेक एक्टिविस्टों को इन लोगों को खाना खिलाने के ज़ुर्म में गिरफ्तार तक कर लिया गया. बाद में प्रशासन ने अपनी सफाई यह कहते हुए दी कि उन्हें बीमारी को फैलने से रोकने के लिए ऐसा करना पड़ा था. 

ऐसे माहौल में उक्त गुबियो परियोजना अलग तरह का सुकून देती है और आश्वस्त करती है कि संवेदनशीलता  अभी भी बची हुई है.  ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ गुबियो परियोजना से जुड़े हुए चर्च ही बेघरबर लोगों को शरण दे रहे हैं. अमरीका में ही अन्य बहुत सारे चर्च भी अलग-अलग शर्तों पर और भिन्न भिन्न परिस्थितियों  में बेघरबार लोगों  को आश्रय सुलभ करा रहे हैं. मसलन कैनसास शहर के पास स्थित होप कम्युनिटी  चर्च है जो तापमान के बीस डिग्री से नीचे जाते ही बेघरबार लोगों को शरण मुहैया कराने लगता है. यह चर्च उन्हें न केवल स्थान उपलब्ध कराता है,  साफ सुथरे कपड़े भी देता है और अपने पैरों पर खड़े होने में मददगार बनता है. वहां ब्रिज ऑफ होप नामक एक समूह  है जो इस काम में चर्च की मदद करता है. इस समूह की एक सक्रिय कार्यकर्ता अम्बर होम्स खुद पांच बरस पहले तक बेघरबार थीं और आज इस तरह के लोगों की मदद करते हुए वे बार-बार अपने उस अतीत को जीने लगती हैं. अमरीका से दूर ऑस्ट्रेलिया में भी कई चर्च इसी तरह बेघरबार लोगों को आश्रय और सहायता सुलभ करा रहे हैं.

कहना अनावश्यक है कि इन धार्मिक केन्द्रों की यह दीन दुखियों की सेवा भी प्रकारांतर से ईश्वर  की ही सेवा है. याद कीजिए कि हमारे नरसी  मेहता ने भी तो कहा था-  वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 नवम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.