पिछले कुछ बरसों से जनवरी-फरवरी
के महीने अपने प्रांत में शिक्षण संस्थाओं में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए
आरक्षित हो गए हैं. अगस्त में छात्र संघों के चुनाव होते हैं, फिर नेताओं की उपलब्धता के अनुसार उनका उद्घाटन होता है
(आजकल तो छात्र संघ कार्यालयों का उद्घाटन अलग से होने लगा है) और फिर साल
बदलते-बदलते सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मूड बनने लगता है. अपनी पैंतीस से भी
ज़्यादा सालों की नौकरी के दौरान मुझे
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अनगिनत रोचक और
मज़ेदार अनुभव हुए हैं. आज उन्हीं में से कुछ आपसे साझा कर रहा हूं.
जिस ज़माने की मैं बात कर रहा हूं उस ज़माने में मेरे
उस कॉलेज में विद्यार्थियों को नाटक करने का बड़ा शौक था. एक पूरी सांझ नाट्य
संध्या के नाम से आयोजित की जाती थी और कम से कम दस-बारह एकांकी मंचित किए जाते
थे. कलाकारों का उत्साह अपनी जगह और दर्शकों की हिम्मत अपनी जगह. दोनों में जैसे
रस्साकसी चलती थी. उस रात नाट्य संध्या का संयोजन मैं कर रहा था. तेज़ सर्दी थी. कोई
छठा या सातवां नाटक ख़त्म हुआ था, मैंने
अगले नाटक की उद्घोषणा की और नेपथ्य में अपनी कुर्सी पर आ बैठा. कोई चार-पांच
मिनिट हुए होंगे कि उस नाटक के कलाकार भी स्टेज छोड़ वहीं आने लगे. मुझे ताज्ज्जुब
हुआ. पूछा क्या हुआ? तो बजाय कुछ बोलने के उन्होंने मुझे मंच
की तरफ जाने का इशारा कर दिया. जाकर देखा तो ‘ऐसी तनहाई का
जवाब नहीं’ वाला आलम था. पूरा पाण्डाल खाली पड़ा था. बेचारे
किसके लिए नाटक करते?
थोड़ा
और पीछे की तरफ लौटता हूं तो याद आता है कि उस छोटे कस्बे में सहशिक्षा का कॉलेज
होने के बावज़ूद लड़कियां मंच पर आने में झिझकती थीं. लड़कियों की भूमिकाएं लड़कों को
ही निबाहनी पड़ती थीं. हम लोग एक साहित्यिक नाटक कर रहे थे और सभी चाहते थे कि
उसमें नायिका का रोल कोई लड़की ही करे. कई छात्राओं से बात की लेकिन सभी ने अपने
मां-बाप की मनाही की दुहाई देते हुए मना कर दिया. अंतत: एक साथी प्राध्यापिका ने
मां बाप को मनाने की ठानी और वे बड़े उत्साह के साथ एक लड़की के घर जा पहुंची. अभिभावकों
ने भी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया, चाय-पानी करवाया. लेकिन जैसे ही उन्होंने यह अनुरोध किया कि वे अपनी बेटी
को नाटक में अभिनय करने की अनुमति दें, मां-बाप के तेवर एकदम
से बदल गए. दोनों एक स्वर में बोले: “देखो मैडम जी, नौकरी आप
करती हो. आपको जो करना है कर लो. हमारी बेटी तो स्टेज पर न आज जाएगी और न कल!”
कहना गैर ज़रूरी है कि उस साल वो नाटक नहीं
हुआ.
एक
साल तो और भी मज़ेदार वाकया हुआ. मैं नृत्य प्रतियोगिता का प्रभारी था. प्रभारी के
नाते मेरी सबसे बड़ी फिक्र यह थी कि कोई अशालीन प्रस्तुति न हो जाए. एक शाम मैं
नृत्य प्रस्तुतियों की स्क्रीनिंग कर रहा था. उन दिनों कैसेट पर संगीत बजाकर नृत्य
किए जाते थे. ज़्यादातर विद्यार्थी फिल्मी और राजस्थानी गाने बजाकर उनपर नृत्य करने
के इच्छुक थे. तभी एक सीनियर छात्र काफी बड़ा कैसेट प्लेयर लेकर आया. मैंने उससे
पूछा कि वो किस गाने पर नृत्य करेगा, तो उसने कुछ लापरवाही के भाव से कहा, सर! मैं इंगलिश
गाने पर डांस करूंगा. मैंने उससे गाने का
नाम जानना चाहा तो उसने फिर वही जवाब दुहरा दिया. शायद उसे लगा होगा कि ये हिंदी के प्रोफेसर साहब भला
अंग्रेज़ी गाने की अदरक का स्वाद क्या जानते होंगे! ख़ैर! उसने अपना कैसेट प्लेयर
सेट किया, अपना हुलिया दुरुस्त किया और अपने एक साथी को
इशारा किया तो उसने प्लेयर का प्ले बटन दबा दिया और इसने थिरकना-मटकना शुरु कर
दिया. तीन-चार सैकण्ड बीते होंगे कि मुझे समझ में आ गया कि जिस ‘इंगलिश’ गाने पर वो डांस करना चाहता है वो फ्रेंच संगीतकार शेरोने का उन
दिनों कुख्यात नम्बर लव इन सी-माइनर था जिसमें
शारीरिक सम्बंधों के संकेत देने वाले ड्रम और कामोत्तेजक ध्वनियां थीं. ज़ाहिर है कि मैं उस
नम्बर से भली भांति परिचित था (अखिर हम भी
तो जवान थे) और उस पर डांस करने की अनुमति देने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था.
मैंने फौरन संगीत बंद करने का इशारा किया, और कहा कि वह अपने
डांस के लिए कोई और गाना चुन ले. वह विद्यार्थी बार-बार कह रहा था कि सर यह
अंग्रेज़ी गाना है, और मैं इसी पर डांस करना चाहता हूं,
और मैं था कि बार-बार उससे
कह रहा था कि वो कोई और गाना चुने. उसे लग
रहा था कि मुझे अंग्रेज़ी गाना समझ में नहीं आ रहा है जबकि मुझे वो नम्बर
कुछ ज़्यादा ही समझ में आ रहा था. चचा ग़ालिब ने शायद ऐसी ही किसी स्थिति में कहा होगा:
यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दें मुझको ज़ुबाँ और.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 11 फरवरी, 2014 को जब हिंदी के प्राध्यापक ने जाना अंग्रेज़ी गाना शीर्षक से प्रकाशित टिप्पणी का मूल आलेख.