Monday, March 31, 2008

माले मुफ्त.....


जनता से बार-बार कहा जाता है कि वह अपने करों की अदायगी ईमानदारी से और नियमितता से करे. यह उचित भी लगता है. इसलिए कि आखिर हमारे करों से ही तो सरकारें विभिन्न विकास कार्य करती हैं. जनता के करों से ही तो सडकें बनती हैं, अस्पताल चलते हैं, स्कूल कॉलेज खुलते हैं. निश्चय ही करों का उपयोग इतनी बतों तक सीमित नहीं होता. विधान सभाएं और संसद भी हमारे करों से ही संचालित होते हैं. और भी न जाने कितने काम हमारे करों के बलबूते पर होते हैं. जनता की आकांक्षाएं असीमित होती हैं और कर चुकाने की इच्छा और सामर्थ्य सीमित. स्वाभाविक है कि दोनों के बीच जद्दो जहद चलती रहती है. नए स्कूल कॉलेज अस्पताल खुलते हैं तो जनता खुश होती है, इनके लिए मांग भी करती रहती है, लेकिन जब कर भार बढता है तो जनता दुखी और नाराज़ होती है. इस बार केन्द्र और मेरे राज्य राजस्थान में चुनाव होने हैं इसलिए सोच समझकर ऐसे बजट पेश किए गए हैं कि जनता पर कर भार न्यूनतम है. स्वाभाविक है कि भोली जनता खुश है. यह जानते हुए भी कि अगले साल जब चुनाव हो जाएंगे और पांच सालों की निश्चिंतता हो जाएगी, करों की भारी मार पडेगी ही. मैं सोचता हूं जो चुनाव के ऐन पहले वाले बजट में होता है वह शेष चार बजटों में क्यों नहीं होता? क्या लोकतंत्र की सरकारों को जनता की आकांक्षाओं के प्रति इतना अन्धा होना चाहिए?
मैं जानता हूं कि आप मेरी ही बात को पकड कर पूछेंग़े कि कर नहीं लगेंगे तो विकास कैसे होगा? बिलकुल वाज़िब सवाल है. मैं भी कहता हूं कि विकास के लिए कर लगने ही चाहिए. लेकिन, ज़ोर देकर कहता हूं कि विकास के लिए, और ज़रूरी कामों के लिए. न कि गैर ज़रूरी कामों के लिए. मेरा जी तब दुखता है जब मेरी गाढी कमाई का पैसा बेवजह पानी में बहाया जाता है. मैं अपने सांसद, विधायक चुनता हूं, उनकी पंचायतों यानि संसद और विधान सभाओं के संचालन का पूरा खर्च उठाता हूं लेकिन क्या वे अपने काम और व्यवहार से यह साबित करते हैं कि उन्हें मेरी, यानि अपने मतदाता की ज़रा भी परवाह है. कभी ध्यान दें कि हमारी विधान सभाओं और संसद का कितना समय बेवजह के हो हल्ले में बीत जाता है! क्या यह मेरी गाढी कमाई के पैसे का सरासर दुरुपयोग नहीं है?
आजकल रिवाज़ चल पडा है कि सरकारें अखबारों में बडे-बडे विज्ञापन छपवा कर अपनी योजनाओं और उपलब्धियों का गुणगान करती हैं. इन विज्ञापनों पर मेरे टैक्स का रुपया ही तो खर्च होता है. क्या ये ज़रूरी हैं? सरकार ने मेरे लिए जो किया वह मुझे विज्ञापन के माध्यम से बताने की क्या ज़रूरत है? क्या खुद काम को नहीं बोलना चाहिए? हम सब जानते हैं कि इन विज्ञापनों का असल मक़सद तो हमारे जन प्रतिनिधियों की छवि का निर्माण करना है. यह मी मेरे पैसे का सरासर दुरुपयोग है.
राज्य सरकारें समय-समय पर उत्सव भी मनाती हैं. इधर पिछले चार सालों से मेरे राज्य राजस्थान में इसकी स्थापना का उत्सव कुछ अधिक ही जोर-शोर से मनाया जाने लगा है. एक सप्ताह बहुत बडे पैमाने पर ‘नाच गाना’ होता है, देश के सारे प्रकाशनों में भव्य विज्ञापन छपते हैं (हो गया प्रैस का तो मुंह बन्द!). नाच गाना शब्द से जिन्हें आपत्ति हो वे इसकी जगह ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ पढ लें. देश भर से नामचीन कलाकारों को बुला कर उनकी प्रस्तुतियां कराई जाती हैं. इस बार हेमा मालिनी, ए आर रहमान, सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल, कुणाल गांजावाला, राहत फतेह अली खान जैसे कलाकार हमें धन्य करने आये. इन सब कार्यक्रमों पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, कहना भी अल्प कथन ही होगा. सरकार की दरियादिली देखते ही बनती है. करोडों का बजट होता है इस कार्यक्रम का.
प्रदेश की कलाकार बिरादरी अक्सर सवाल उठाती है कि इस सब में राजस्थान कहां होता है? सवाल अपनी जगह वाज़िब है. यह कार्यक्रम जनता के मनोरंजन के लिए है या राजस्थान के महत्व स्थापन के लिए? हेमा मालिनी बहुत बडी नृत्यांगना हैं, लेकिन राजस्थान से उनका क्या रिश्ता है? उनके नाचने से राजस्थान के गौरव में कैसे वृद्धि होती है? यही बात अन्य कलाकारों के लिए भी. जवाब में कहा जाता है कि राजस्थान के कलाकारों में भीड खींचने की ऐसी सामर्थ्य नहीं है. चलिये थोडी देर के लिए इस तर्क को भी स्वीकार कर लें, तो क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपका मकसद क्या है: भीड जुटाना या प्रदेश (की कला-संस्कृति) का विकास करना? क्या सरकार का काम महज़ नाच-गाना करवाना है? और सारे काम तो जैसे वह कर चुकी है. लोगों को सुखी और सुरक्षित जीवन मिल चुका है. चारों तरफ अमन-चैन है. लोग सुख की नींद सो रहे हैं. न प्यासबची है, न भूख; न चोरी है न अपराध. अब तो बस चैन की बंसी बजनी शेष थी, सो उसी के लिए यह सारा ताम झाम. क्या यह अजीब नहीं लगता कि पेयजल की व्यवस्था के लिए, अस्पतालों में मामूली दवाइयों के लिए, टूटी सडक की मरम्मत के लिए तो सरकार के पास पैसा नहीं होता, लेकिन ऐसे जश्न के लिए उसके पास वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं होती.
लेकिन मैं एक बात और भी उठाना चाहता हूं. इन कार्यक्रमों के जो बडे-बडे विज्ञापन छपते हैं उनमें बार-बार यह कहा जाता है कि इन कार्यक्रमों में प्रवेश निशुल्क है और किसी निमंत्रण पत्र की आवश्यकता नहीं है. यह एक आदर्श स्थिति है. लेकिन यथार्थ इससे भिन्न है. सभी कार्यक्रमों के बाकायदा निमंत्रण पत्र छपते हैं, बंटते हैं और उनके लिए खासी मारा-मारी भी होती है. इसलिए कि निमंत्रण पत्र आपको आगे बैठने का, वी आई पी होने का हक़ देते हैं, और अखबारी सूचना धक्का-मुक्की और अव्यवस्था का शिकार होने का अवसर प्रदान करती है. निमंत्रण पत्र किन्हें अता फरमाए जाते हैं? विधायकों-सांसदों-मंत्रियों को, अफसरों को, अति महत्वपूर्ण लोगों को, पत्रकारों को और जो जुग़ाड कर ले उनको. इनमें से पत्रकारों की बात समझ में आती है. उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्हें यह सुविधा दी जानी चाहिए. लेकिन शेष लोगों को निमंत्रण पत्र, और उसके माध्यम से विशेष स्थान पर बैठ कर कार्यक्रम देखने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? एक सांसद, एक मंत्री, एक अफसर और एक अन्य नागरिक के बीच भेद क्यों किया जाना चाहिए? पहले आओ पहले बैठो की व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए? एक नागरिक के रूप में मेरी पीडा, बल्कि मेरा आक्रोश यह है कि पैसा मेरा और मैं ही उसके उपयोग में पीछे धकेला जाऊं, यह क्यों होना चाहिए? ऐसे आयोजनों में मेरा पैसा लगता है. उतना ही जितना किसी जन प्रतिनिधि या अफसर का लगता है. फिर मेरी तुलना में उन्हें विशिष्टता क्यों प्रदान की जाती है? बल्कि सच तो यह कि मेरे पैसे पर मेरे अपमान का प्रबन्ध किया जाता है. क्या इससे भी खराब कुछ हो सकता है?
मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब हमारी जनता में इतनी जागरूकता आ जाएगी कि वह इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था, बल्कि इस बे-इमानी को समझेगी, न केवल समझेगी, बल्कि इसके विरोध में भी उठ खडी होगी. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक तो यह माले मुफ्त, दिले बेरहम का बेशर्मी भरा खेल चलता ही रहेगा.








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माले मुफ्त.....

जनता से बार-बार कहा जाता है कि वह अपने करों की अदायगी ईमानदारी से और नियमितता से करे. यह उचित भी लगता है. इसलिए कि आखिर हमारे करों से ही तो सरकारें विभिन्न विकास कार्य करती हैं. जनता के करों से ही तो सडकें बनती हैं, अस्पताल चलते हैं, स्कूल कॉलेज खुलते हैं. निश्चय ही करों का उपयोग इतनी बतों तक सीमित नहीं होता. विधान सभाएं और संसद भी हमारे करों से ही संचालित होते हैं. और भी न जाने कितने काम हमारे करों के बलबूते पर होते हैं. जनता की आकांक्षाएं असीमित होती हैं और कर चुकाने की इच्छा और सामर्थ्य सीमित. स्वाभाविक है कि दोनों के बीच जद्दो जहद चलती रहती है. नए स्कूल कॉलेज अस्पताल खुलते हैं तो जनता खुश होती है, इनके लिए मांग भी करती रहती है, लेकिन जब कर भार बढता है तो जनता दुखी और नाराज़ होती है. इस बार केन्द्र और मेरे राज्य राजस्थान में चुनाव होने हैं इसलिए सोच समझकर ऐसे बजट पेश किए गए हैं कि जनता पर कर भार न्यूनतम है. स्वाभाविक है कि भोली जनता खुश है. यह जानते हुए भी कि अगले साल जब चुनाव हो जाएंगे और पांच सालों की निश्चिंतता हो जाएगी, करों की भारी मार पडेगी ही. मैं सोचता हूं जो चुनाव के ऐन पहले वाले बजट में होता है वह शेष चार बजटों में क्यों नहीं होता? क्या लोकतंत्र की सरकारों को जनता की आकांक्षाओं के प्रति इतना अन्धा होना चाहिए?
मैं जानता हूं कि आप मेरी ही बात को पकड कर पूछेंग़े कि कर नहीं लगेंगे तो विकास कैसे होगा? बिलकुल वाज़िब सवाल है. मैं भी कहता हूं कि विकास के लिए कर लगने ही चाहिए. लेकिन, ज़ोर देकर कहता हूं कि विकास के लिए, और ज़रूरी कामों के लिए. न कि गैर ज़रूरी कामों के लिए. मेरा जी तब दुखता है जब मेरी गाढी कमाई का पैसा बेवजह पानी में बहाया जाता है. मैं अपने सांसद, विधायक चुनता हूं, उनकी पंचायतों यानि संसद और विधान सभाओं के संचालन का पूरा खर्च उठाता हूं लेकिन क्या वे अपने काम और व्यवहार से यह साबित करते हैं कि उन्हें मेरी, यानि अपने मतदाता की ज़रा भी परवाह है. कभी ध्यान दें कि हमारी विधान सभाओं और संसद का कितना समय बेवजह के हो हल्ले में बीत जाता है! क्या यह मेरी गाढी कमाई के पैसे का सरासर दुरुपयोग नहीं है?
आजकल रिवाज़ चल पडा है कि सरकारें अखबारों में बडे-बडे विज्ञापन छपवा कर अपनी योजनाओं और उपलब्धियों का गुणगान करती हैं. इन विज्ञापनों पर मेरे टैक्स का रुपया ही तो खर्च होता है. क्या ये ज़रूरी हैं? सरकार ने मेरे लिए जो किया वह मुझे विज्ञापन के माध्यम से बताने की क्या ज़रूरत है? क्या खुद काम को नहीं बोलना चाहिए? हम सब जानते हैं कि इन विज्ञापनों का असल मक़सद तो हमारे जन प्रतिनिधियों की छवि का निर्माण करना है. यह मी मेरे पैसे का सरासर दुरुपयोग है.
राज्य सरकारें समय-समय पर उत्सव भी मनाती हैं. इधर पिछले चार सालों से मेरे राज्य राजस्थान में इसकी स्थापना का उत्सव कुछ अधिक ही जोर-शोर से मनाया जाने लगा है. एक सप्ताह बहुत बडे पैमाने पर ‘नाच गाना’ होता है, देश के सारे प्रकाशनों में भव्य विज्ञापन छपते हैं (हो गया प्रैस का तो मुंह बन्द!). नाच गाना शब्द से जिन्हें आपत्ति हो वे इसकी जगह ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ पढ लें. देश भर से नामचीन कलाकारों को बुला कर उनकी प्रस्तुतियां कराई जाती हैं. इस बार हेमा मालिनी, ए आर रहमान, सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल, कुणाल गांजावाला, राहत फतेह अली खान जैसे कलाकार हमें धन्य करने आये. इन सब कार्यक्रमों पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है, कहना भी अल्प कथन ही होगा. सरकार की दरियादिली देखते ही बनती है. करोडों का बजट होता है इस कार्यक्रम का.
प्रदेश की कलाकार बिरादरी अक्सर सवाल उठाती है कि इस सब में राजस्थान कहां होता है? सवाल अपनी जगह वाज़िब है. यह कार्यक्रम जनता के मनोरंजन के लिए है या राजस्थान के महत्व स्थापन के लिए? हेमा मालिनी बहुत बडी नृत्यांगना हैं, लेकिन राजस्थान से उनका क्या रिश्ता है? उनके नाचने से राजस्थान के गौरव में कैसे वृद्धि होती है? यही बात अन्य कलाकारों के लिए भी. जवाब में कहा जाता है कि राजस्थान के कलाकारों में भीड खींचने की ऐसी सामर्थ्य नहीं है. चलिये थोडी देर के लिए इस तर्क को भी स्वीकार कर लें, तो क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आपका मकसद क्या है: भीड जुटाना या प्रदेश (की कला-संस्कृति) का विकास करना? क्या सरकार का काम महज़ नाच-गाना करवाना है? और सारे काम तो जैसे वह कर चुकी है. लोगों को सुखी और सुरक्षित जीवन मिल चुका है. चारों तरफ अमन-चैन है. लोग सुख की नींद सो रहे हैं. न प्यासबची है, न भूख; न चोरी है न अपराध. अब तो बस चैन की बंसी बजनी शेष थी, सो उसी के लिए यह सारा ताम झाम. क्या यह अजीब नहीं लगता कि पेयजल की व्यवस्था के लिए, अस्पतालों में मामूली दवाइयों के लिए, टूटी सडक की मरम्मत के लिए तो सरकार के पास पैसा नहीं होता, लेकिन ऐसे जश्न के लिए उसके पास वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं होती.
लेकिन मैं एक बात और भी उठाना चाहता हूं. इन कार्यक्रमों के जो बडे-बडे विज्ञापन छपते हैं उनमें बार-बार यह कहा जाता है कि इन कार्यक्रमों में प्रवेश निशुल्क है और किसी निमंत्रण पत्र की आवश्यकता नहीं है. यह एक आदर्श स्थिति है. लेकिन यथार्थ इससे भिन्न है. सभी कार्यक्रमों के बाकायदा निमंत्रण पत्र छपते हैं, बंटते हैं और उनके लिए खासी मारा-मारी भी होती है. इसलिए कि निमंत्रण पत्र आपको आगे बैठने का, वी आई पी होने का हक़ देते हैं, और अखबारी सूचना धक्का-मुक्की और अव्यवस्था का शिकार होने का अवसर प्रदान करती है. निमंत्रण पत्र किन्हें अता फरमाए जाते हैं? विधायकों-सांसदों-मंत्रियों को, अफसरों को, अति महत्वपूर्ण लोगों को, पत्रकारों को और जो जुग़ाड कर ले उनको. इनमें से पत्रकारों की बात समझ में आती है. उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए उन्हें यह सुविधा दी जानी चाहिए. लेकिन शेष लोगों को निमंत्रण पत्र, और उसके माध्यम से विशेष स्थान पर बैठ कर कार्यक्रम देखने का अधिकार क्यों मिलना चाहिए? एक सांसद, एक मंत्री, एक अफसर और एक अन्य नागरिक के बीच भेद क्यों किया जाना चाहिए? पहले आओ पहले बैठो की व्यवस्था क्यों नहीं लागू की जानी चाहिए? एक नागरिक के रूप में मेरी पीडा, बल्कि मेरा आक्रोश यह है कि पैसा मेरा और मैं ही उसके उपयोग में पीछे धकेला जाऊं, यह क्यों होना चाहिए? ऐसे आयोजनों में मेरा पैसा लगता है. उतना ही जितना किसी जन प्रतिनिधि या अफसर का लगता है. फिर मेरी तुलना में उन्हें विशिष्टता क्यों प्रदान की जाती है? बल्कि सच तो यह कि मेरे पैसे पर मेरे अपमान का प्रबन्ध किया जाता है. क्या इससे भी खराब कुछ हो सकता है?
मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब हमारी जनता में इतनी जागरूकता आ जाएगी कि वह इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था, बल्कि इस बे-इमानी को समझेगी, न केवल समझेगी, बल्कि इसके विरोध में भी उठ खडी होगी. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक तो यह माले मुफ्त, दिले बेरहम का बेशर्मी भरा खेल चलता ही रहेगा.








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