Tuesday, July 8, 2008

साहित्यिक पुरस्कारों पर विवाद

राजस्थान की साहित्यिक दुनिया में इन दिनों बडा उद्वेलन है. कारण है राजस्थान साहित्य अकादमी के तीन ताज़ा निर्णय. राजस्थान साहित्य अकादमी ने हाल ही में अपने दो पुरस्कार बन्द या समाप्त करने की घोषणा की है. एक है साहित्यिक पत्रकारिता के लिए दिया जाने वाला प्रकाश जैन पुरस्कार, और दूसरा है अंतरप्रांतीय साहित्य बन्धुत्व अनुवाद पुरस्कार. कारण यह बताया गया कि विगत कुछ वर्षों से इन पुरस्कारों के लिए वांछित प्रविष्टियां प्राप्त नहीं हो रही थीं. प्रांत के साहित्यकारों की नाराज़गी इन कारणों से है. एक तो यह कि ‘लहर’ के यशस्वी सम्पादक प्रकाश जैन के नाम पर दिया जा रहा पुरस्कार बन्द कर अकादमी ने अपनी तरह से उनकी स्मृति के साथ अपमानजनक व्यवहार किया है, और दूसरे यह कि साहित्यिक पत्रकारिता और अनुवाद की महत्ता को नकारा गया है. और जहां तक अकादमी के इस विचार का प्रश्न है कि इन पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां प्राप्त नहीं हो रही थी, तो पहले तो यह देखा जाना चाहिए कि क्या राजस्थान में साहित्यिक पत्रकारिता और अनुवाद के क्षेत्र में तालाबन्दी हो गई है? न तो कोई साहित्यिक पत्रिका निकल रही है और न अनुवाद किये जा रहे हैं? ऐसा नहीं है. तो फिर सवाल यह उठना चाहिए कि क्या कारण है कि लोग इन पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां ही नहीं भेजते? कहीं इस बात का सम्बन्ध अकादमी की प्रतिष्ठा के क्षरण से तो नहीं है? लेकिन इस बात पर भला अकादमी के कर्ता धर्ता तो क्यों विचार करने लगे? लोग लाख कहें कि अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ का स्तर बहुत गिर गया है, इतना कि अब स्तर बचा ही नहीं है, तो भी इस पत्रिका के सम्पादक को क्यों चिंता हो? आखिर आत्ममुग्धता भी कोई चीज़ होती है!
दूसरी बात जिसने लोगों को उद्वेलित किया है वह है जीवित लेखकों द्वारा अपने नाम पर पुरस्कार घोषित करवाना. भगवान अटलानी और सरला अग्रवाल ने अकादमी को कुछ राशि दी और अकादमी ने उनके नाम पर पुरस्कार देने की घोषणा कर दी. साहित्य की दुनिया में अपने नामों पर या अपने निकट के लोगों के नाम पर पुरस्कार का सिलसिला पुराना है, और इसमें कोई बडी आपत्ति भी नज़र नहीं आती. अगर मुझे लगे कि मेरे पास काफी पैसा है और उसका सदुपयोग मैं किसी को पुरस्कृत करके करना चाहता हूं, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. इस बात से भी कोई फर्क़ नहीं पडता कि यह ‘मैं’ कोई लेखक है या व्यवसायी या राजा या तस्कर. आखिर ऐसे अनेक लोगों के नाम पर शिक्षण संस्थान भी तो हैं! किसी को इनका पुरस्कार ग्रहण करना हो, करे; न करना हो अस्वीकार कर दे. गडबड तब होती है जब निजी और सार्वजनिक का गठबन्धन होता है. भगवान अटलानी और सरला अग्रवाल अपने स्तर पर पुरस्कार देते, किसी को आपत्ति नहीं होती. आपति की बात यह है कि जनता के पैसों से संचालित एक सार्वजनिक संस्थान राजस्थान साहित्य अकादमी ने ये निजी नाम वाले पुरस्कार देने की घोषणा की है. शायद जीवन के अन्य क्षेत्रों में आ रही पी पी पी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) की अवधारणा का यह साहित्य की दुनिया में प्रवेश है. लेकिन, अगर हम इसी तर्क को थोडा आगे तक ले जाएं तो इस व्यवस्था की विसंगति सामने आ जाएगी. मान लीजिए कोई लेखक, या कोई भी अन्य व्यक्ति, जिसके पास बहुत सारा धन है, यह कहे कि मैं पूरी राजस्थान साहित्य अकादमी को ही खरीदना चाहता हूं, या कि अपने नाम पर करवा लेना चाहता हूं तो क्या होगा? कल आप घसीटामल राजस्थान साहित्य अकादमी बना देंगे? हो सकता है कुछ लोगों को इस पर कोई ऐतराज़ न हो, लेकिन अन्य बहुतों को है. जीवन में कुछ चीज़ें तो साफ-सुथरी बची रहें, यह जिनकी आकांक्षा है, उन को ऐतराज़ है.
फिर एक बात और हुई. इसी अकादमी ने दो पुरस्कार और शुरू किए. डॉ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के नाम पर अंतरराष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च अकादमी पुरस्कार, और हनुमान प्रसाद पोद्दार के नाम पर राष्ट्रीय स्तर का सर्वोच्च अकादमी पुरस्कार. जिन्हें स्मरण न हो उन्हें करा दें कि सिंघवी जी एक सुविख्यात न्यायविद थे और अधिक से अधिक हिन्दी सेवी थे, तथा पोद्दार जी सुपरिचित धार्मिक (साहित्यिक नहीं) पत्रिका ‘कल्याण’ के संस्थापक-संपादक थे. अकादमी प्रांत की सीमाओं से बाहर निकल कर देश और दुनिया तक अपने पंख फैला रही है, यह अच्छा है. लेकिन अगर घर की उपेक्षा करके बाहर दिया जलाना चाहती है तो चिंत्य है. एक तरफ तो उसके पास राजस्थान में काम करने केलिए पर्याप्त संसाधन नहीं है, तभी तो लोगों के पैसों से पुरस्कार शुरू करने पड रहे हैं, और दूसरी तरफ वह अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार देना चाह रही है. यह कितना वाज़िब है? और फिर पुरस्कार किनके नाम पर? इनका साहित्यिक अवदान है ही नहीं, या बहुत अल्प है. और याद कीजिए कि जिनका है,(मेरा इशारा प्रकाश जैन की तरफ है) उनके नाम वाले पुरस्कार को साथ-साथ बन्द भी कर रही है.

तो, कोढ में खाज यह कि ये तीनों चीज़ें एक साथ हो गईं. पता नहीं यह आकस्मिक है या सुचिंतित, लेकिन एक तरफ तो प्रकाश जैन का नाम मिटाने की चेष्टा हुई और दूसरी तरफ दो लेखकों को जैसा-तैसा अमरत्व प्रदान करने की कोशिश हुई. और तीसरी तरफ दो साहित्येतर व्यक्तियों के नाम पर राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार शुरू कर उन्हें साहित्यिक अमरत्व प्रदान करने की चेष्टा की गई. तो इस कॉकटेल ने लोगों को और ज़्यादा परेशान किया है. प्रकाश जैन का साहित्यिक पत्रकारिता में जो अवदान है उसे कोई बे-पढा लिखा ही नकारेगा. उनके नाम से चल रहे पुरस्कार को बन्द करना निश्चय ही उनकी स्मृति का अपमान है. जिन लेखकों के नाम पर पुरस्कार शुरू किए जा रहे हैं, उनके महत्व पर कोई टिप्पणी गैर ज़रूरी है. इसलिए गैर ज़रूरी है ये पुरस्कार उनके साहित्यिक महत्व की वजह से नहीं, उनके धन-बल की वजह से शुरू किए जा रहे हैं, इसलिए टिपणी अनावश्यक होगी. इतना ज़रूर है कि इस सन्दर्भ में स्वयंप्रकाश की एक कहानी ‘चौथमल पुरस्कार’ बेसाख्ता याद आती है. और जहां तक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों की बात है उसमें ये दोनों बातें जुड जाती हैं: जिनके नाम पर पुरस्कार उनके साहित्यिक महत्व पर प्रशन चिह्न और इन पुरस्कारों की ज़रूरत.

राजस्थान साहित्य अकादमी के इन निर्णयों ने एक बार फिर इस संस्थान की रीति-नीति को विमर्श के दायरे में ला खडा किया है. इस संस्थान की और तमाम सार्वजनिक संस्थानों की. जिन्होंने ऐसे निर्णय किए, स्वाभाविक है कि वे इन्हें डिफेण्ड करेंगे, कर रहे हैं. लेकिन बजाय किसी ज़िद के, बेहतर हो, इस तरह के मुद्दों पर खुले मन से विचार हो. आखिर इस तरह के फैसलों के परिणाम दूरगामी हुआ करते हैं. सार्वजनिक और निजी की लक्ष्मण रेखाएं तो तै की ही जानी चाहिए.







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