Tuesday, June 28, 2016

मॉडर्न आर्ट यानि आधुनिक कला को लेकर इतने सारे लतीफे प्रचलन में हैं कि हममें से शायद ही कोई हो जिसे तुरंत इस तरह के कुछ रोचक प्रसंग याद न आ जाएं! कहना  अनावश्यक है कि ये सब शरारती दिमागों की उपज हैं और यथार्थ से इनका शायद ही कोई सम्बन्ध हो. लेकिन हाल में अमरीका के सैन फ्रांसिस्को शहर में अवस्थित विख्यात आधुनिक कला संग्रहालय (म्यूज़ियम ऑफ मॉडर्न आर्ट) में जो घटित हुआ उसने यह सोचने को मज़बूर कर दिया है कि क्या पता इन लतीफों में यथार्थ का भी कुछ पुट हो. हुआ यह कि टी जे खयातैन  नामक एक सत्रह वर्षीय किशोर अपने कुछ साथियों के साथ इस संग्रहालय को देखने गया. 1935 में स्थापित इस  संग्रहालय  के एक लाख सत्तर हज़ार वर्गफीट क्षेत्र में पेण्टिंग, स्थापत्य, फोटोग्राफी, मूर्तिकला, डिज़ाइन और मीडिया आर्ट की तैतीस हज़ार कृतियां प्रदर्शित हैं और  और यह न सिर्फ अमरीका के सबसे बड़े संग्रहालयों में से एक है, आधुनिक और समकालीन कला के लिहाज़ से इसे दुनिया के बेहतरीन संग्रहालयों में शुमार किया जाता है. 

तो इस टी जे खयातैन को संग्रहालय की बहुत सारी कलाकृतियों ने बेहद प्रभावित किया, लेकिन  कुछ कलाकृतियां उसे बेहद सामान्य भी लगीं. जैसे जब उसने एक भूरे-से कम्बल पर एक स्टफ्ड पशु जैसी कलाकृति को देखा तो उसके जेह्न में यह सवाल उठा कि आखिर इसमें कलात्मक क्या है? उसने अपने आस-पास के अन्य कलाप्रेमियों से भी जानना चाहा कि क्या वो कृति उन्हें भी उतनी ही सामान्य लग रही है? लेकिन यह पूछते हुए उसके मन में यह बात भी आई कि जब कलाप्रेमी किसी संग्रहालय में जाते हैं तो वे जो कुछ भी उस संग्रहालय के परिवेश के बीच देखते हैं उसी में उन्हें कला के दर्शन होने लगते हैं और वे उसकी कलात्मक व्याख्या भी करने लगते हैं.

टी जे खयातैन के शरारती दिमाग में विचार आया कि क्यों न इस बात को आजमा कर ही देख लिया जाए! पता चल जाएगा कि आधुनिक कला की हक़ीक़त क्या है. इस संग्रहालय में प्रदर्शित हर कृति महान है या यहां कुछ भी प्रदर्शित कर दो तो उसे महान मान लिया जाता है.  तो उसने किया यह कि संग्रहालय के चमकीले फर्श पर अपना ऐनक रख दिया और फिर थोड़ा दूर खड़ा होकर वहां आने-जाने वालों की प्रतिक्रियाएं देखने लगा. उसके साथ उसके दोस्त भी थे. उन लोगों ने पाया कि कुछ ही क्षणों  में ‘कलाप्रेमी’ उस ‘कलाकृति’ के इर्द गिर्द जुटने लगे. वे बहुत तल्लीनता और बारीकी से उसका अवलोकन कर रहे थे, उसकी गम्भीर व्याख्याएं कर रहे थे, और कुछ तो अलग-अलग कोणों से उसकी छवियां भी अपने कैमरों में कैद कर रहे थे. कुछ दर्शकों ने तो उस मामूली ऐनक को उत्तर आधुनिक कला का मास्टरपीस तक घोषित कर दिया. टी जे खयातैन ने बाद में कहा कि मुझे लगा जैसे वे दर्शक गण उस ऐनक को वर्तमान संस्कृति के मूक होते जाने की अभिव्यक्ति की तरह देख रहे थे या यह मान रहे थे कि इस कृति के माध्यम  से कलाकार ने ज़िन्दगी को चश्मे के शीशों  के माध्यम से देखना चाहा है. खयातैन को लगा जैसे दर्शक मायोपिया (निकट दृष्टि दोष) या रियल आईज़ (असल नेत्र) जैसे शीर्षक वाली किसी कृति का अवलोकन कर रहे हैं.

इस किशोर ने संग्रहालय के फर्श पर रखे इस ऐनक और उसे सराहते दर्शकों की छवि को अपने कैमरे में कैद कर जब ट्विटर पर पोस्ट किया तो वो छवि फौरन ही वायरल हो गई और सिर्फ एक दिन में उसे चालीस हज़ार  लोगों ने साझा कर डाला. और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, उसे ट्विटर मोमेण्ट में भी शुमार कर लिया गया. लेकिन इस सबके बावज़ूद, यह किशोर टी जे खयातैन आधुनिक कला का प्रशंसक है. उसका कहना है कि हो सकता है कभी-कभी आधुनिक कला को लेकर कोई चुहल हो जाए, लेकिन अंतत: तो यह हमारी सर्जनात्मकता को अभिव्यक्ति देने का एक सशक्त माध्यम है. हो सकता है कुछ को इसमें मज़ाक नज़र आए, लेकिन बहुतों को इसमें आध्यात्मिकता के भी तो दर्शन होते हैं. मॉडर्न आर्ट के बारे में उसके इस निष्कर्ष से शायद ही कोई असहमत हो कि यह खुले और कल्पनाशील मन वालों के लिए आनंदप्रद है.

और यहां तक इस शरारत का सवाल है, यह याद कर लेना भी प्रासंगिक होगा कि ऐसी शरारतें होती ही रहती हैं. सन 2014 में किसी ने ऐसी ही शरारत रेस्तरां समीक्षकों को मैक्डॉनल्ड के उत्पाद  परोस कर भी की थी.  इन्हें बहुत गम्भीरता से लेने की बजाय इनका लुत्फ लेकर भुला दिया जाना चाहिए.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 जून, 2016 को जनाब, यह है मॉडर्न आर्ट का मास्टरपीस शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, June 21, 2016

फ्रांस से शुरु हुआ नई तरह का जन-आन्दोलन

इस बरस मार्च के आखिरी दिन से फ्रांस की राजधानी पेरिस से एक नई तरह के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है. हिन्दी में इस आन्दोलन को कहा जा सकता है ‘जागो  सारी रात!’ और जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर हो जाता है, हर शाम छह बजते-बजते लोग पेरिस के रिपब्लिक चौक में इकट्ठा होते हैं और विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात कहते हैं. पृष्ठभूमि में यह बात कि   पेरिस  में फरवरी माह में कोई तीन चार सौ लोग मिले और यह विचार करने लगे कि ऐसा क्या किया जाए कि सरकार थोड़े दबाव में आए. और तब एक विचार यह भी आया कि क्यों न लोग एक जगह एकत्रित हों और घर जाएं ही नहीं. बस इसी विचार से जन्मा यह आन्दोलन.   इसकी  शुरुआत हुई फ्रांस के जटिल  श्रम कानून को शिथिल बनाने वाले वहां की वर्तमान सरकार के तथाकथित सुधारवादी कदमों का विरोध करने के लिए लोगों के इकट्ठा होने से. पहला अनुभव बहुत दिलचस्प रहा. लोग पेरिस के उस चौक में इकट्ठा होने ही लगे थे  कि मूसलाधार बारिश होने लगी. इसके बावज़ूद लोग आते रहे और डटे रहे. काफी देर बाद बारिश रुकी, लेकिन लोग फिर भी वहां से गए नहीं. और फिर हर रोज़ लोग वहां जुटने लगे. तब इस आन्दोलन का कोई सुविचारित स्वरूप निर्धारित नहीं  था. चौक में अनगिनत लोग सिर्फ इस आस में इकट्ठा हो गए थे कि सरकार उनकी मांगों की तरफ ध्यान देगी. न आन्दोलन का कोई नेता था और न कोई रूपरेखा. जिसकी जो मर्ज़ी में आए, बोलने लगता था. कुछ अराजक तत्वों के घुस आने की वजह से यदा-कदा यह जमावड़ा छोटी-मोटी हिंसा का शिकार भी हुआ, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता एक व्यवस्था  कायम होने लगी. लोग ही एक दूसरे की मदद करने लगे, संसाधन जुटाने लगे और एक आत्मीयतापूर्ण लेकिन प्रतिरोधक मेले का–सा माहौल बनने लगा.  वक्ताओं के लिए स्टैण्ड आ गया, छोटे-मोटे टैण्ट लगा दिये गए और साधारण काम चलाऊ जलपान की व्यवस्था भी हो गई. कुछ समितियां भी बना ली गई जो समाज और संविधान की नई रूपरेखाओं पर विचार करने लगी हैं. इतना ही नहीं, एक गायक समूह भी तैयार हो गया जो क्रांतिकारी गाने गाता है, और कुछ लोग नारे कविताएं भी रचने लगे हैं. ऐसा लगता है जैसे एक नया लघु समाज उभरने लगा है.


और अब जब इस आन्दोलन  चलते हुए तीन माह से ज़्यादा बीत चुके हैं, इसकी निरंतरता शेष  दुनिया का भी  ध्यान आकर्षित करने लगी है. इस आन्दोलन का बगैर किसी नेतृत्व के इतने समय तक चल जाना यह साबित करता है कि फ्रांस की जनता का अपने राजनीतिज्ञों से मोहभंग  हो चुका है और वहां की वाम सरकार यह साबित करने में नाकामयाब रही है कि वह शक्तिशाली वित्तीय संस्थाओं के दबाब से मुक्त है. लोग  अपने देश के शासन  से भी नाखुश हैं. उनमें से अनेक को लगता है कि वहां आपातकाल जैसे हालात हैं. नागरिकों पर नज़र रखने वाले नए कानून, न्याय व्यवस्था में किए गए बदलाव और सुरक्षा विषयक धर-  पकड़ का बढ़ते जाना लोगों को आहत कर रहा है.  अब यह आन्दोलन पेरिस और फ्रांस की सीमाओं से बाहर निकलकर बेल्जियम, जर्मनी और स्पेन के अस्सी  से ज़्यादा शहरों में फैल चुका है. जर्मनी से बाहर के देशों में इसी तरह के आन्दोलन के माध्यम से सरकारी बजट में कटौती, वैश्वीकरण, बढ़ती जा रही असमानता, निजीकरण और यूरोप महाद्वीप की कठोर प्रवासी  विरोधी नीतियों का विरोध  हो रहा है. किसी ने बहुत सही टिप्पणी की है कि इस जन-प्रतिरोध की शुरुआत पेरिस में नहीं हुई है और न यह फ्रांस तक सीमित रहने वाला है. यह आन्दोलन सीमा रहित है, देशों की परिधियों से मुक्त है और  जो भी इससे जुड़ना चाहते हैं उन सबका स्वागत करता है.

इस आन्दोलन का खुद-ब-खुद शुरु होना और इतने समय तक न सिर्फ जारी रहना बल्कि मज़बूत भी होते जाना इस बात की भी गवाही देता है कि अगर दुनिया में कहीं वास्तविक बदलाव आया तो उसके वाहक नागरिक गण ही होंगे. बहुत दिलचस्प  बात यह है कि अभी तक इस आन्दोलन का न  तो कोई नेता है और किसी संगठन का बैनर यहां दिखाई देता है. यह बात खुद फ्रांस वासियों को चकित करती है. इस स्वत: स्फूर्त आन्दोलन की एक महती कामयाबी यह भी है कि फ्रांस सरकार इसका नोटिस लेने को विवश हुई है और उसने युवा आन्दोलनकारियों के तात्कालिक तुष्टिकरण के लिए चार पाँच सौ मिलियन यूरो की विद्यार्थी सहायता की घोषणा कर दी है. एक सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार इस राशि से रोज़गार की तलाश कर रहे युवा स्नातकों  को अनुदान और  अन्य काम सीखने वालों व विद्यार्थियों को सहायता दी जा सकेगी.      


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 जून, 2016 को इसी शीर्षक  से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 14, 2016

बिना काम वेतन मिलने से दुःखी यह प्राणी

आम तौर पर हर नौकरी करने वाले की एक ही शिकायत होती है कि उससे बहुत ज़्यादा काम लिया जा रहा है. इसी शिकायत को हमारे ‘ये बेचारा काम के बोझ का मारा’ जैसे विज्ञापन भी अपना अप्रत्यक्ष समर्थन देते हैं. लेकिन हाल में सुदूर पेरिस में एक कामगार फ्रेडरिक डेस्नार्ड ने इससे भिन्न ही शिकायत की है. बहुत महंगे परफ्यूम्स के लिए विख्यात पेरिस की एक कम्पनी में दिसम्बर 2006 से काम कर रहे और वहां 2010 से 2014 के बीच जनरल सर्विस डाइरेक्टर रहे डेस्नार्ड का कहना है कि कम्पनी उनसे बिना कोई काम लिये चार हज़ार डॉलर प्रतिमाह का भुगतान करती रही. पैसा तो उन्हें  ठीक मिल रहा था, लेकिन केवल इतने भर से वो संतुष्ट नहीं थे. डेस्नार्ड ने अपने वकील की मार्फत कम्पनी पर आरोप लगाया है कि हालांकि वे एक वरिष्ठ प्रबन्धकीय पद पर नियुक्त थे, उनके  वरिष्ठ जन उन्हें  बॉय कहकर बुलाते और उनसे  अपने बच्चों को खेल के मैदान से लाने जैसे बहुत छोटे-मोटे निजी काम करवाते. बाद में तो उनके  पास करने को इतना कम काम रह गया कि उनके  बॉस ने उनसे यह कह दिया कि वो घर चले जाएं,  जब उन्हें ज़रूरत होगी वे वे बुला लेंगे, और फिर उन्होंने बुलाया ही नहीं. डेस्नार्ड का आरोप है कि उनसे  कम काम  लेने की यह प्रक्रिया उन्हें  नरक में धकेलने का एक छद्म थी और यह उनके  लिए दु:स्प्वन साबित हुई. इससे उन्हें कई किस्म की स्वास्थ्य समस्याएं होने लगीं जिनमें अल्सर, नींद की समस्या और गहन अवसाद शामिल हैं. इन्हीं समस्याओं के चलते वे  मिर्गी का दौरा पड़ने से एक कार दुर्घटना का शिकार हुए, काफी दिनों तक कोमा में रहे और  फिर उन्हें छह माह से भी ज़्यादा समय सिक लीव पर रहना पड़ा. सन 2014 में इस सिक लीव पर रहते हुए ही उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया.

डेस्नार्ड ने इस मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य क्षति के लिए तथा उन्हें न मिल सकी पदोन्नति की वजह से  हुई क्षति की एवज में कम्पनी से चार लाख डॉलर का हर्ज़ाना मांगा है. डेस्नार्ड ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए यह भी कहा है कि हालांकि अपनी नौकरी के काल में उन्हें बहुत कम काम देकर नैतिक और विशेष रूप से शारीरिक रूप से भी नष्ट किया जा रहा था फिर भी वे बिना किसी शिकायत के वहां बने रहे क्योंकि उन्हें पता था कि नौकरियों के लिहाज़ से बाज़ार बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा था. डेस्नार्ड ने अपनी अवस्था के लिए एक नूतन अभिव्यक्ति ‘बोर आउट’ का प्रयोग किया है. असल में एक प्रचलित अभिव्यक्ति है ‘बर्न आउट’ जिसका आशय है किसी को बहुत ज़्यादा काम के बोझ के नीचे कुचल डालना. डेस्नार्ड की यह अभिव्यक्ति इसी का विलोम है, जिसका अभिप्राय यह  है कि किसी को बहुत कम काम देकर नष्ट कर डालना. डेस्नार्ड के वकील का कहना है कि ‘बोर आउट’ को काम की कमी की वजह से होने वाले नैतिक शून्यीकरण के रूप में समझा जा सकता है जिसके मूल में यह विचार होता है कि मुझे कुछ नहीं करने के एवज़ में इतना पैसा दिया जा रहा है.


डेस्नार्ड के वकील ने आरोप लगाया है कि कम्पनी की  तो नीयत ही यही थी कि डेस्नार्ड को इतना बोर कर डाला जाए कि वह खुद नौकरी छोड़ दे ताकि कम्पनी उसे काम से निकालने पर देने वाले बेरोज़गारी भत्ते  या और किसी भी तरह के मुआवज़े के भुगतान से बच जाए. इस वकील ने कहा कि शुरु-शुरु में तो डेस्नार्ड को ऐसा आदर्श कर्मचारी माना जाता था जो अपने काम के प्रति पूर्णतया समर्पित है. लेकिन 2009 से उसको दिए जाने वाले काम में कटौती की जाने लगी और फिर 2012 में जब कम्पनी के हाथ से एक बड़ा अनुबंध फिसल गया और कम्पनी अपने बहुत सारे कर्मचारियों को काम से निकालने पर मज़बूर होने लगी तब से उसके पास करने को कुछ रह ही नहीं गया. डेस्नार्ड की इस शिकायत पर स्वाभाविक ही उनकी नियोजक कम्पनी ने अपना बचाव किया और कम्पनी के वकील ने कहा कि अगर ऐसा था तो डेस्नार्ड अपने उच्चाधिकारियों से या किसी कर्मचारी संगठन से इस बारे में कोई शिकायत क्यों नहीं की.

कहा जा रहा है कि डेस्नार्ड का यह केस फ्रांस में अपनी तरह का पहला केस है, हालांकि वहां की अर्थव्य्वस्था बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है. एक शोधकर्ता ने बताया है कि लगभग तीस प्रतिशत फ्रेंच कर्मचारी इसी तरह के बोर आउट अवसाद के शिकार हैं. यह भी एक तथ्य है कि अभी तक फ्रेंच कानून में इस अभिव्यक्ति बोर आउट को कोई स्वीकृति नहीं है.

देखना है कि फैसला किसके हक़ में आता है – डेस्नार्ड के या कम्पनी के!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम  कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 14 जून, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  


Tuesday, June 7, 2016

बेटियों के पक्ष में राष्ट्रगान में बदलाव की मांग

कनाडाई संसद में वहां के एक लिबरल सांसद मॉरिल  बेलांगर ने राष्ट्रगान में संशोधन का एक बिल पेश कर रखा  है.  वे चाहते हैं कि कनाडा के  वर्तमान राष्ट्रगान में आने वाले शब्दों ‘तुम अपने सभी बेटों में देशभक्ति जगाते हो’ को बदल कर ‘तुम हम सबमें देशभक्ति जगाते हो’ कर दिया जाए, यानि वे इसे बेटों तक सीमित नहीं रहने देना चाहते हैं. मॉरिल का कहना है कि इस संशोधन के माध्यम से वे उन स्त्रियों को भी मान देना चाहते हैं  जिन्होंने आज के कनाडा को आकार देने में अपना योग दिया है. मॉरिल ने संसद के पिछले अधिवेशन में भी यह संशोधन प्रस्तुत किया था लेकिन तब यह संशोधन इसका विरोध करने वाले 144 मतों के विरुद्ध केवल 127 मत ही पा सका था. लेकिन अब मॉरिल के इस बिल को न केवल काफी समर्थन मिल रहा है, इसे जल्दी  से जल्दी पारित करने के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं. इसकी वजह यह है कि मॉरिल एक असाध्य रोग से गम्भीर रूप से पीड़ित हैं,  और उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा है. वे बिल्कुल भी नहीं बोल पाते हैं. यहां तक कि कनाडाई संसद में जनवरी में यह बिल भी उन्होंने अपने आइ पैड पर स्थापित एक टेक्स्ट टू स्पीच प्रोग्राम की मदद से ही प्रस्तुत किया था. चाहा जा रहा है कि यह संशोधन उनके जीवन काल में ही पारित हो जाए. जिन सांसदों ने पिछली दफा इस संशोधन का विरोध  किया था उनमें से भी अनेक इस बार इसका समर्थन कर रहे हैं.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हर कोई इस संशोधन का समर्थन  ही कर रहा है. कनाडा के कंज़र्वेटिव तथा उसके सहयोगी दलों के सदस्य आम तौर पर इसके विरोध में हैं. उनका कहना है कि “राष्ट्रीय प्रतीकों में बदलाव का मार्ग बहुत फिसलन भरा है. हो सकता है कि कल को कोई वनस्पति विज्ञानी उठ खड़ा हो और कहने लगे कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज में मेपल की पत्ती का आकार सही नहीं है इसलिए उसे बदल दिया जाए. कल को कोई और भी किसी राष्ट्रीय प्रतीक के लिए इसी तरह की मांग कर सकता है.” एक कंज़र्वेटिव सांसद एरिन ओ’टूल का कहना है कि हालांकि उन्हें मॉरिल की अवस्था  से गहरी सहानुभूति है, वे इसे उचित नहीं मानते कि कनाडा की विरासत के महत्वपूर्ण हिस्सों के साथ कोई छेड़छाड़ की जाए.

वैसे यहीं यह जान लेना भी कम रोचक नहीं होगा कि मॉरिल जो संशोधन चाह रहे हैं अगर वो कर दिया गया तो कनाडाई राष्ट्रगान का नया रूप करीब-करीब वैसा ही हो जाएगा जैसा यह 1914 से पहले था. असल में 1914 में ही ‘तुम हममें सच्ची देशभक्ति  जगाते हो’ को बदल कर ‘तुम अपने सभी बेटों में देशभक्ति जगाते हो’ किया गया था. और इसके मूल में यह तमन्ना थी कि प्रथम विश्व युद्ध के दौर में देश के लिए समुद्र पार जाने वाले युवकों में देश भक्ति  का जोश जगाया  जा सके. वैसे कनाडा के इस राष्ट्रगान  ने बदलावों के कई दौर देखे और झेले  हैं.  इस गीत की रचना मूल रूप  से फ्रेंच भाषा में 1880 में हुई थी. एक समय तो ऐसा भी रहा जब कनाडा की फ्रेंच भाषी जनता तो यह गान  गाती थी और वहां की अंग्रेज़ी भाषी जनता इसकी बजाय अंग्रेज़ी राष्ट्रगान ‘गॉड  सेव द किंग’ ही गाती थी. फिर 1906 में इस फ्रेंच राष्ट्रगान का रॉबर्ट स्टेनली वियर नामक कनाडाई कवि और जज रचित यह अंग्रेज़ी संस्करण चलन में आया. इसके बाद इसमें दो बार संशोधन हुए. इसका वर्तमान प्रचलित रूप 1980 से चलन में है.

यही यह भी बता दूं कि  अगर यह बदलाव हो गया तो अपने राष्ट्रगान में बदलाव करने वाला कनाडा पहला देश नहीं होगा. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने अपने राष्ट्रगान में बदलाव किया था, तो सद्दाम हुसैन के पराभव के बाद इराक़ ने भी ऐसा ही  किया. रंगभेद खत्म कर देने के बाद दक्षिण अफ्रीका ने अपने राष्ट्रगान में बदलाव किया तो सोवियत संघ के पतन के बाद रूस के राष्ट्रगान में बदलाव किया गया. बाद में सन 2000 में व्लादीमिर पुतिन ने फिर से पुराने राष्ट्रगान  को अपना लिया लेकिन मूल के एक पद को छोड़ दिया. हाल में सन 2012 में ऑस्ट्रिया ने भी अपने राष्ट्रगान के पहले छन्द में थोड़ा बदलाव करते हुए बेटों के साथ बेटियों को भी जोड़ लिया. स्विटज़रलैण्ड में इस आलोचना के बाद कि वहां का राष्ट्रगान कुछ अधिक ही धार्मिक है, एक सार्वजनिक प्रतियोगिता के द्वारा ज़्यादा आधुनिक शब्दावली वाला गीत तलाश किया गया. एक विजेता घोषित भी कर दिया गया लेकिन स्विस सरकार ने अभी तक इस बदलाव पर मतदान नहीं कराया है.

अब देखना है कि कनाडा में यह बदलाव हो पाता है या नहीं. फिलहाल तो वहां बहसों का बाज़ार गर्म है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 जून, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.