Wednesday, December 30, 2015

आइये, हम भी नए साल का स्वागत दूध से करें!

पिछले कुछ बरसों से नव वर्ष की पूर्व सन्ध्या से पहले शहर में कई जगह बैनर नज़र आने लगे हैं – नए साल का स्वागत दारु से नहीं दूध से कीजिए! बहुत सारे होटल और टैक्सी वाले इस आशय के विज्ञापन जारी करते हैं कि नए साल की पार्टी से लौटते हुए खुद ड्राइव न करें और उनकी सेवाओं का लाभ उठाएं. नए साल के पहले दिन के अखबारों में और कोई ख़बर हो न  हो, यह खबर ज़रूर होती है कि पुलिस ने नशे में ड्राइव करते हुए इतने वाहन चालकों को पकड़ा. ये सारी बातें मुझे याद इस ख़बर को पढ़ते हुए आईं कि अमरीका में शराब के कारण  होने वाली मौतों में पिछले 35 बरसों में सबसे ज़्यादा इज़ाफा पाया गया है. वहां की सरकार द्वारा ज़ारी आंकड़ों के अनुसार पिछले बरस तीस हज़ार सात सौ अमरीकियों ने शराब  के कारण अपनी जान गंवाई. शराब के कारण,  यानि जहरीली शराब के कारण या शराब से होने वाली बीमारियों जैसे सिरोसिस के कारण. इसका मतलब यह कि इस संख्या में वे अभागे शामिल नहीं हैं जिनकी जानें नशे में वाहन चलाने के कारण हुई दुर्घटनाओं, अन्य दुर्घटनाओं या शराब जन्य अन्य अपराधों में गई. अगर उन सबको भी शुमार कर लें तो यह संख्या बढ़कर नब्बे हज़ार तक पहुंच  जाती है.

आंकड़े बताते हैं कि कम से कम तीस प्रतिशत अमरीकी ऐसे हैं जो शराब को हाथ तक नहीं लगाते हैं. और लगभग इतने ही अमरीकी ऐसे हैं जिन्होंने इस पदार्थ से एकदम तो तौबा नहीं कर रखी है लेकिन औसतन एक ड्रिंक प्रति सप्ताह की सीमा रेखा को वे पार नहीं करते हैं. और ऐसे लोगों के पक्ष में यह बात भी याद कर ली जानी चाहिए कि चिकित्सा विशेषज्ञों का मत है कि अगर कोई व्यक्ति हर रोज़ एक से दो तक ड्रिंक ले ले तो उसकी  मृत्यु की सम्भावना में काफी कमी आ जाती है, यानि इतनी मदिरा  तो सेहत के लिए मुफीद होती है.

लेकिन इस कम्बख़्त शराब के साथ एक बड़ी मुश्क़िल तो यह है कि इसके सेवन की मात्रा कब सुरक्षित से असुरक्षित के पाले में जाकर प्रणघातक के घेरे में आ जाएगी, नहीं कहा जा सकता. प्रति सप्ताह एक ड्रिंक से घटकर प्रति दिन एक ड्रिंक और फिर दो और फिर तीन...होते होते कब कोई उन मात्र दस प्रतिशत सबसे ज्यादा पियक्कड़ अमरीकियों की जमात में आ जाता है जो औसतन दस ड्रिंक प्रति सप्ताह तक गटक जाते हैं और आहिस्ता-आहिस्ता नहीं,  बड़ी तेज़ी से परलोक की तरफ भागने लगते हैं. अमरीका के आंकड़ों  पर विश्वास करें तो वहां प्रति व्यक्ति शराब के  सेवन में लगातार वृद्धि हुई है. न केवल प्रति व्यक्ति, बल्कि उसकी आवृत्ति में भी यही प्रवृत्ति दिखाई दी है. रोचक बात यह कि कम मात्रा में या बड़े अंतराल से पीने वालों की संख्या और उनके द्वारा पी गई मदिरा की मात्रा में जहां बहुत मामूली वृद्धि लक्षित की गई वहीं, अधिक मात्रा में या कम अंतराल पर पीने वालों में यह वृद्धि भी अधिक पाई गई.

अमरीका में इस प्रवृत्ति का अध्ययन करने वालों का ध्यान एक और बात की  तरफ गया है और वह यह कि वहां महिलाओं में भी मदिरापान की आदत बढ़ती जा रही है. सन 2002 में जहां माह में एक बार मदिरापान करने वाली महिलाओं का प्रतिशत  47.9 था वहीं 2014 में यह बढ़कर 51.5 तक जा पहुंचा था. लेकिन इस आंकड़े से भी ज़्यादा चिंताजनक आंकड़ा यह था कि इसी  काल खण्ड में ताबड़तोड़ (यानि एक दफा में पाँच या अधिक ड्रिंक्स) पीने वाली महिलाओं की संख्या 15.7 प्रतिशत से बढ़कर 17.4 प्रतिशत तक जा पहुंची है.

इस सारे प्रसंग में जो सबसे अधिक खतरनाक बात सामने आई है वो यह है कि अमरीका में शराब हेरोइन या कोकेन जैसे नशीले पदार्थों से भी अधिक घातक साबित हो रही है. और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि शराब के मामले में लाभप्रद, सुरक्षित और घातक के बीच की सीमा  रेखा बहुत बारीक होती है और उसकी अनदेखी बहुत आसान है. और यही वजह है कि वहां के ज़िम्मेदार लोग अब बहुत ज़ोर-शोर से यह आवाज़ उठाने लगे हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के अधिकारियों को मारिजुआना और एल एस डी जैसी ड्रग्स की अपेक्षा शराब के खतरों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए. वहां यह  आवाज़ भी उठने लगी है कि मदिरापान को नियंत्रित करने के लिए उन संघीय करों में इज़ाफा किया जाए जो ऐतिहासिक लिहाज़ से अभी निम्नतम स्तर पर हैं.

तो आइये, हम तो  नए साल का स्वागत दूध से करें!  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 दिसम्बर, 1015 को प्रकाशित इसी शीर्षक के आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 22, 2015

मासूम नहीं, जन्मजात क़ातिल होती हैं ये!

पश्चिम के देशों में पालतू जानवर (पेट्स) रखने का चलन बहुत अधिक है. कोई कुत्ता पालता है, कोई बिल्ली तो कोई गिलहरी तो कोई लोमड़ी, तो कोई  कुछ और. अपने अमरीका प्रवास के दौरान जब मैंने इसकी वजह जानने की कोशिश की तो वहां के समाज से परिचित लोगों ने बताया कि वे लोग मनुष्य पर पशु को इसलिए तरजीह देते हैं कि वो कोई अपेक्षा नहीं रखता है. इस सोच पर काफी लम्बी बहस हो सकती है. फिलहाल तो मैं पालतू पशु के सन्दर्भ में न्यूज़ीलैण्ड की बात करना चाहता हूं जहां बिल्ली पालने का चलन इतना अधिक है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार वहां की आधी आबादी ने कम से  कम एक बिल्ली तो पाल ही रखी है और न्यूज़ीलैण्ड दुनिया के सबसे ज़्यादा बिल्लियां पालने वालों का देश है.   

लेकिन अब इसी बिल्ली-प्रेमी न्यूज़ीलैण्ड में गारेथ मॉर्गन नाम एक सज्जन ने यह बीड़ा उठाया है कि वे जितना जल्दी सम्भव हुआ, अपने देश को बिल्ली-मुक्त देश बनाकर रहेंगे! ये मॉर्गन महाशय जो एक प्राणी विज्ञानी हैं, अपने देश में कैट्स टू गो नाम से एक प्रोजेक्ट चलाते हैं  और इनका कहना है कि बिल्लियां उतनी मासूम नहीं होती हैं, जितना आप उन्हें समझते हैं! अपनी वेबसाइट पर इन्होंने लिखा है कि रूई के रोंये के गोले जैसे जिस प्राणी को आप पालते हैं वो तो जन्मजात  क़ातिल है! अपनी बात को और स्पष्ट करने के लिए इन्होंने अपनी वेबसाइट पर बिल्ली की फोटोशॉप की हुई भयानक  सींगों वाली एक तस्वीर भी लगा रखी है. मॉर्गन कहते हैं, “सच्चाई तो यह है कि अगर आप अपने पर्यावरण की तनिक भी परवाह करते हैं तो आपको इन बिल्लियों को दफा कर देना चाहिए!”

और अब ज़रा बिल्लियों के इन दुर्वासा की नाराज़गी की वजह भी जान लीजिए! मॉर्गन का मानना है कि बिल्लियां अकेले दम ही उनके देश की अनेक स्थानीय पक्षी प्रजातियों को विलुप्त  करती जा रही हैं. मॉर्गन ने बाकायदा अध्ययन करके बताया है कि औसतन एक बिल्ली साल में तेरह शिकार करके घर लाती है. लेकिन असल में तो वो अपने किये हुए पाँच शिकारों में से एक को ही घर पर लाती  है, इस तरह हर बिल्ली साल में कम से कम पैंसठ शिकार करती है. और क्योंकि बिल्लियां आम तौर पर सुनसान जगहों पर रहती हैं और काफी लम्बी दूरियां तै करने की सामर्थ्य  रखती हैं वे चूहों के अलावा अनेक पक्षियों व अन्य प्राणियों का भी शिकार कर लेती हैं. हालांकि  एक अन्य वन्यजीव विशेषज्ञ जॉन इनस इसी बात के लिए बिल्लियों के प्रशंसक भी हैं कि वे चूहों को मारकर या भगाकर चिड़ियों  की रक्षा करती हैं, ज़्यादातर पर्यावरण प्रेमी बिल्लियों से नाराज़ ही लगते हैं. डेविड विण्टर नाम के एक वन्यजीव ब्लॉगर कहते हैं कि बिल्लियां न्यूज़ीलैण्ड की कम से कम छह पक्षी प्रजातियों का खात्मा कर चुकी हैं. लॉरा हेल्मुट भी उन्हीं की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाते हुए कहती हैं कि बिल्लियां हर जगह घुसपैठ कर लेती हैं और वे उस द्वीप के ऐसे ईकोसिस्टम को नष्ट कर रही हैं जिसमें कुछ ऐसी  प्रजातियां भी मौज़ूद हैं जो दुनिया में अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं. 

और ऐसा नहीं है कि यह सारी चर्चा जंगली या कि भूखी-नंगी बिल्लियों को लेकर ही हो रही है. खूब खाई-पी हुई बिल्लियां भी उतनी ही ख़तनाक  हैं. असल में बिल्लियां शिकार भूख की वजह से ही नहीं शौक की वजह से भी करती हैं. उन्हें इसमें मज़ा आता है. एक मज़ेदार  अध्ययन से इस बात की पुष्टि की गई है. छह बिल्लियों के सामने उस वक्त एक छोटा-सा चूहा लाया गया जब वे अपने  पसन्दीदा भोजन का लुत्फ ले रही थीं. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि इन छह की छह बिल्लियों ने अपना पसन्दीदा खाना छोड़ा, उस बेचारे चूहे पर टूट पड़ीं, उसका शिकार किया, और फिर अपने मनपसन्द खाने की तरफ मुड़ गईं! असल में उन्हें भोजन की पसन्द नापसन्द से कोई फर्क़ नहीं पड़ता न खाली और भरे पेट से पड़ता है. उन्हें तो बस शिकार करने में मज़ा आता है!

ऐसे में वहां के पर्यावरणविदों की फिक्र अनुचित भी नहीं लगती है. लेकिन जब वे कहते हैं कि अगर आप चिड़िया को बचाना चाहते हैं तो बिल्ली को मार डालिये, तो लगता है कि वे कुछ ज़्यादा ही उग्र हो रहे हैं. तब मॉर्गन की यह सलाह काबिले-गौर लगती है कि जिन्होंने बिल्लियां पाल रखी हैं वे कम से कम उनका बन्ध्याकरण तो कर ही दें. वे कहते हैं, ज़रा आप इन घरेलू बिल्लियों की मौज़ूदगी का असर चिड़ियाओं की बिरादरी पर देखिये और फिर यह फैसला कीजिए कि अभी जो बिल्ली आपने पाल रखी है वो आखिरी हो!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 दिसम्बर, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ.  
    

Tuesday, December 15, 2015

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार...कि जीना इसी का नाम है!

आपने शैलेन्द्र का लिखा वो गाना तो ज़रूर सुना होगा – किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार/ किसी का दर्द मिल सके तो,  ले उधार/ किसी के वास्ते  हो तेरे दिल में प्यार/ जीना इसी का नाम है!  मुझे यह गाना याद आया अमरीका की एक स्त्री एमी के बारे में पढ़ते हुए. जब एमी गर्भवती थीं तो उन्हें और उनके पति को पता चला कि उनकी  पन्द्रह सप्ताह की गर्भस्थ  संतान एक विकट  रोग से ग्रस्त है. चिकित्सकों ने दो माह तक रोग के उपचार की हर मुमकिन कोशिश की,  लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली.  शिशु ने गर्भ में ही प्राण त्याग दिये  और उसके दो दिन बाद उस मृत शिशु का प्रसव हुआ.  उस दम्पती के त्रास और अवसाद की सहज ही कल्पना  की जा सकती है. शिशु का जीवित रह पाना या न  रह पाना अपनी जगह और देह धर्म अपनी जगह! एमी  के  स्तनों में दूध आने लगा और चिकित्सकों ने चाहा  कि वे अपनी विधि से दूध का आना बन्द कर दें, लेकिन एमी ने इस बात को स्वीकार नहीं किया.  असल में इस बीच उसने मां  के दूध के लाभों के बारे में काफी कुछ पढ़ लिया था और उसे यह बात भी पता चली थी कि उसके गर्भस्थ शिशु की जिस रोग से मृत्यु हुई है उस रोग को रोकने में भी मां के दूध का विशेष योग रहता है, इसलिए  वो डॉक्टरों  की राय के खिलाफ जाकर भी पम्प की मदद से अपने स्तनों से दूध बाहर निकाल कर फ्रिज में संचित करती रही. यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है आठ माह की अवधि में उसने  अपने स्तनों से लगभग एक सौ पाँच किलोग्राम दूध निकाल कर संचित किया और न केवल उसे संचित किया बल्कि अमरीका के चार राज्यों और कनाडा के एक अस्पताल के दूध बैंक को दान भी किया. उसके इस दान से करीब तीस हज़ार फीडिंग हो पाए.

एमी का कहना है कि ऐसा करते हुए उसने एक ‘विलक्षण प्रकार का अंग दान’  किया है. एमी ने यह भी कहा कि जब भी उसने अपने स्तनों से दूध निकाला, उसे लगा कि वो अपने स्वर्गस्थ शिशु ब्रायसन के और अधिक निकट हुई है. अपने शिशु की स्मृति को इस तरह सजीव रखना उसके लिए दो तरह से महत्वपूर्ण साबित हुआ. एक तो वह अपने भौतिक और मानसिक दर्द से निजात पा सकी और दूसरे  उसे लगा कि वो अपने स्वर्गीय बेटे की स्मृति में कुछ सार्थक और उपयोगी कर सकी. और इसीलिए मुझे याद आया यह गाना.

लेकिन एमी का यह  सराहनीय कृत्य भी निर्विघ्न नहीं रहा. असल में एमी कहीं नौकरी करती है. अमरीका के कानून के अनुसार स्तनपान कराने वाली माताओं को अपने काम के दौरान स्तनपान कराने के लिए समुचित अवकाश का प्रावधान है. जब एमी ने अपने नियोक्ता से इस प्रावधान के तहत  अवकाश की मांग की तो उसे इसी नियम का हवाला देते हुए स्पष्ट कह दिया गया कि क्योंकि उसके पास स्तनपान करने वला कोई शिशु नहीं है इसलिए यह प्रावधान उस पर लागू होता ही नहीं है और इसलिए उसे कोई अवकाश देय नहीं है. एमी का कहना है कि यह बहुत अजीब बात है कि स्त्रियों को सुविधा प्रदान करने वाले कानून का ही इस्तेमाल उस सुविधा को नकारने के लिए किया जा रहा है. उसका कहना है कि यह सही है कि मेरे पास स्तनपान करने वाला शिशु नहीं है, लेकिन अपने स्तनों से दूध निकालना मेरी  शारीरिक ज़रूरत है और यह मेरा वाज़िब हक़ है कि मैं अपनी इस ज़रूरत को पूरा करूं.

एमी ने अपने हक़ के लिए अपना संघर्ष ज़ारी रख और साथ ही नॉर्थईस्ट के मदर्स मिल्क  बैंक के लिए स्वयंसेविका के रूप में अपनी सेवाएं देना भी ज़ारी  रखा. इतना ही नहीं, उन्हें जैसे इसी काम में अपने जीवन की सार्थकता दिखाई देने लगी तो वे एक ब्रेस्ट फीडिंग कंसलटेण्ट बनने के लिए पढ़ाई भी करने लगीं और उम्मीद है कि जल्दी उन्हें इसके लिए सर्टिफिकेट  भी मिल जाएगा. एमी के इन सारे कामों का एक सुपरिणाम यह भी हुआ है कि वहां का एक स्टेट लेजिस्लेटर भी उनके पक्ष में आ खड़ा हुआ है.

लेकिन यह सब करते हुए भी एमी के मन में एक शिकायत ज़रूर है. वे कहती हैं कि मेरे परिवार के सदस्य और मित्रगण बराबर यह कोशिश करते हैं कि वे मेरे सामने ब्रायसन (मृत शिशु) का नाम न लें. जबकि मैं चाहती हूं कि वे उसका नाम लें और जो कुछ मैं कर रही हूं उसके प्रति अपना समर्थन व्यक्त करें. मुझे तो लगता है कि जो  कुछ मैं कर रही हूं उसकी वजह से वो हर रोज़ हमारे सामने आ खड़ा होता है – और यही बात है जो मेरे चेहरे पर मुस्कान  लाती है! 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 दिसम्बर, 2015  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, December 8, 2015

चाय की प्याली में नहीं, कॉफी के कप में आया तूफ़ान!

चाय की प्याली में तूफ़ान की बात तो आपने सुनी होगी, मैं आज आपको कॉफी के कप में आए तूफ़ान से परिचित कराता हूं. कॉफी प्रेमियों के लिए स्टारबक्स का नाम अनजाना नहीं है. 1971 में सिएटल शहर से शुरु हुआ अमरीका का यह बेहद लोकप्रिय ब्राण्ड भारत सहित दुनिया के पचास देशों के पन्द्रह हज़ार स्टोर्स में उपलब्ध है और इसकी लोकप्रियता का अन्दाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि कुछ समय पहले जब मुम्बई में इसका पहला आउटलेट खुला तो उसके बाहर मीलों लम्बी कतार थी. 

स्टारबक्स वाले सन  1997 से दिसम्बर के अंत वाले त्योहारों  के सीज़न में अपनी कॉफी के लिए ख़ास तरह के विण्टर थीम वाले कप जारी करते रहे हैं. कभी इन कपों पर बर्फ़ के फाहे नज़र आए हैं तो कभी स्नोमैन और कभी रेण्डियर. कभी क्रिसमस ट्री तो कभी उसे सजाने वाले चमकदार आभूषण आदि. ज़ाहिर है कि इन तमाम छवियों का सीधा नाता ईसाइयों के सबसे बड़े त्योहार क्रिसमस से है.   स्टारबक्स ने हमेशा यह प्रयत्न किया है कि जो कप वो जारी करे उसका डिज़ाइन पिछले बरस वाले कपों से एकदम अलहदा हो. तो इस परम्परा का निर्वाह करते हुए साल 2015 के त्योहारी सीज़न के लिए  स्टारबक्स ने अक्टोबर के आखिर में अपना उत्सवी कप जारी किया. इस कप को जारी करते हुए कम्पनी के वाइस प्रेसिडेण्ट जेफ्री फील्ड्स ने कहा कि “हम इस उत्सवी सीज़न में डिज़ाइन की ऐसी  निर्मलता के साथ प्रवेश करना चाहते हैं जिसमें हमारी तमाम गाथाओं का समावेश हो सके.” इस साल जारी हुए कप में पिछले बरसों से हटकर कोई आकृति नहीं है और यह एक निहायत सादा दो शेड्स वाला लाल रंग का कप है.

और बस इस कप का बाज़ार में आना था कि हंगामा बरपा हो गया! हो भी क्यों न?  सोशल मीडिया का ज़माना जो ठहरा. लगता है जैसे लोग प्रतिक्रिया करने को तैयार ही बैठे हैं! एक हैं जोशुआ फ्युर्स्टाइन जो अमरीका के एरिज़ोना राज्य में रहते हैं और खुद को मीडिया व्यक्तित्व और टेलीविजन तथा रेडियो का भूतपूर्व ईसाई प्रचारक बताते हैं. फेसबुक पर इनके अठारह लाख फॉलोअर्स  हैं. इन्होंने पाँच नवम्बर को फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया जो तुरंत वायरल हो गया. इन महाशय ने अपने इस वीडियो में फरमाया कि स्टारबक्स  वालों ने अपने कप से क्रिसमस की छवियों को इस कारण हटाया है कि वे जीसस से घृणा करते हैं! फ्युर्स्टाइन ने अपने फॉलोअर्स से भी अनुरोध कर डाला कि वे भी स्टारबक्स के इस कृत्य का सोशल मीडिया पर विरोध करें. फेसबुक के अपने पेज पर इन्होंने लिखा कि “मुझे ऐसा लगता है कि पॉलिटिकल करेक्टनेस के इस काल  में हम इतना ज़्यादा ओपन माइंडेड हो गए हैं कि हमारी खोपड़ियों से हमारे दिमाग बाहर ही निकल चुके हैं. आप इस बात को समझिये कि स्टारबक्स वाले अपने एकदम इन  कपों से ईसा और क्रिसमस को निकाल बाहर करना चाहते हैं. तभी तो अब उनके कप सादे लाल रंग के हैं.”  जब इनके इस वीडियो को करीब एक करोड़ बार देखा जा चुका तो इन्होंने सीएनएन मनी को एक ई मेल भेजा जिसमें फरमाया कि “मेरा खयाल है कि स्टारबक्स को यह संदेश पहुंच चुका है कि इस देश का ईसाई  बहुमत अब जाग चुका है और चाहता है कि उसकी आवाज़ को सुना जाए.” ताज्जुब इस बात का है कि यह मेल लिखते हुए इन महोदय को यह बात ध्यान में नहीं रही कि स्टारबक्स त्योहारी मौसम में बहुत सारे क्रिसमस उत्पाद जैसे आभूषण, कैलेण्डर्स, क्रिसमस थीम वाले गिफ्ट कार्ड्स, क्रिसमस संगीत के सीडी और क्रिसमस के वास्ते ख़ास तौर पर तैयार की गई कुकीज़ हर साल बेचता है और इस साल भी बेच रहा है.

भले ही स्टारबक्स ने यह कहकर अपना पक्ष सामने रखा कि अपने कपों के डिज़ाइन का सिलसिला बरकरार रखते हुए उसने इस बरस कपों का यह सादा डिज़ाइन इस सोच के साथ बाज़ार में उतारा है कि ग्राहक इन कपों को बतौर कैनवस इस्तेमाल करते हुए इन पर अपनी कथाएं रचें, और भले ही बहुत सारे लोगों ने जोशुआ फ्युर्स्टाइन के आरोप से असहमति भी व्यक्त की, सोशल मीडिया की जिस तरह की रिवायत है, बहुत सारे लोग स्टारबक्स की लानत-मलामत करने में जुट गए हैं. सोशल मीडिया पर लगभग पाँच लाख दफा स्टारबक्स का ज़िक्र हो चुका है. कुछ लोगों ने बाकायदा स्टारबक्स  का बहिष्कार तक करने का आह्वान कर डाला है. और जब इतना सब हो तो इससे व्यावसायिक  लाभ उठाने वालों का सक्रिय हो उठना भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता. अमरीका के ही एक अन्य प्रतिस्पर्धी कॉफी ब्राण्ड डंकिंग डोनट्स ने जिस तरह का पवित्र हरी पत्तियों लाल रंग में ‘जॉय’ लिखा हुआ  कॉफी कप बाज़ार में उतारा है उसे सीधे इस ‘कप-गेट’ विवाद से जोड़कर देखा जा रहा है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 08 दिसम्बर, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   


Tuesday, December 1, 2015

सेज पर रोबोट

हाल ही में एक ख़बर आई कि नवम्बर 2015 में मलेशिया में होने वाली एक कॉंफ्रेंस वहां की पुलिस की आपत्ति के बाद रद्द कर दी गई, तो लगा कि सारी दुनिया में हालात एक से हैं. यह कॉंफ्रेंस थी लव एण्ड सेक्स विद रोबोट्स विषय पर और इसके आयोजकों में प्रमुख थे 2007 में प्रकाशित इसी शीर्षक वाली किताब के लेखक डेविड लेवी और उनके साथी प्रोफेसर  एड्रियन चिओक. पुलिस ने ऐसा कुछ समझ कर कि इस कॉंफ्रेंस में रोबोट्स के साथ यौन सम्बन्ध कायम किया जाएगा, इसे ग़ैर कानूनी मान लिया, जबकि आयोजकों का कहना है कि इस कॉंफ्रेंस में बहुत व्यापक और दूरगामी प्रभाव वाले मुद्दों पर अकादमिक विमर्श होना था. बता दूं कि इसी विषय पर पहली कॉंफ्रेंस  2014 में पुर्तगाल में आयोजित हो चुकी है, और यह दूसरी कॉंफ्रेंस अब कदाचित 2016 में लंदन में आयोजित होगी. 

असल में जब भी हमारे जीवन में नया कुछ आता है, उससे हमारी सुविधाओं में चाहे जितना इज़ाफा हो, बहुत सारे नैतिक, वैचारिक और कानूनी मुद्दे भी स्वाभाविक रूप से उठ खड़े होते हैं. यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि महात्मा गांधी के लिए इंजेक्शन भी हिंसा का ही एक प्रकार था और बहुत सारे लोगों के लिए अनेक अंग्रेज़ी दवाइयों  में मौज़ूद अल्कोहल उनके  अस्वीकार की वजह बनता है. लेकिन यहां हम बात रोबोट्स की कर रहे हैं. पिछले कुछ बरसों में कृत्रिम बुद्धि के विकास की वजह से  रोबोट्स की कार्य दक्षता में जो बदलाव और सुधार आए हैं उनकी वजह से अब वे तेज़ी से मनुष्य के स्थानापन्न बनते जा रहे हैं. हॉलीवुड की अनेक लोकप्रिय फिल्मों और किताबों में रोबोट्स और मनुष्यों के अंत: सम्बन्धों का जो चित्रण लगातार बढ़ता जा रहा है उसके यथार्थ रूपांतरण की आहटें अब साफ़ सुनाई देने लगी हैं. इधर हाल ही में हैलो बार्बी नामक एक खिलौना ऐसा आया है जो बच्चों से बातें करता है और उनके साथ खेलता है. इस तरह के खिलौनों का बच्चों की सामाजिकता पर क्या असर पड़ेगा? इसी तरह अगर रोबोट्स सारे मेहनत मज़दूरी वाले काम करने लगे तो क्या उससे लोगों का रोज़गार नहीं छिन जाएगा? चारों तरफ रोबोट्स से घिरा इंसान क्या असामाजिक नहीं हो जाएगा? और यह असामाजिकता वाला ही सवाल उठा है रोबोट्स के साथ प्रेम और सेक्स की सम्भावनाओं को लेकर भी. कैलिफोर्निया की एक कम्पनी की बनाई रियल डॉल तो पहले से मौज़ूद थी जो करीब-करीब इंसानों जैसी हरकत करती थी, अब उपरोक्त श्री लेवी का कहना है कि उनके खयाल से अगर ऐसे रोबोट्स बना लिये जाएं जिनके साथ सेक्स करना सम्भव हो तो यह लाखों-करोड़ों  ऐसे लोगों के लिए एक वरदान होगा जिन्हें या तो अपना मनपसन्द साथी मिल ही नहीं रहा है या जो अपने साथी के साथ अपने रिश्तों से असंतुष्ट हैं. लेवी का मानना है कि इस तरह के रोबोट्स न केवल अकेलेपन को दूर करेंगे, उनकी वजह से बाल यौन अपराधों में भी बहुत कमी आ जाएगी.

लेकिन सारे समझदार लोग लेवी की तरह से नहीं सोचते हैं. अब आप एक रोबोटिक्स एथिसिस्ट (नैतिकविज्ञानी) कैथलीन रिचर्डसन को ही लीजिए जो इस तरह की सम्भावना को एक भीषण दु:स्वप्न की तरह देखती हैं.  उनको लगता है कि ऐसे सेक्स रोबोट्स असल ज़िन्दगी में भयंकर असमानता पैदा कर देंगे. वे इन  सेक्स रोबोट्स को रोबोट वेश्या की तरह देखती हैं और शिकायत करती हैं कि इनके प्रचलन से हमारे पहले से विकृत रिश्तों में जो और विकृति आ जाएगी उसे हम जान बूझकर अनदेखा कर रहे हैं. वे कहती हैं कि भले ही वे इन सेक्स रोबोट्स पर प्रतिबंध की वकालत न करें, लोगों को इनके सम्भावित दुष्परिणामों के बारे में आगाह कर देना अपना दायित्व समझती हैं. कैथलीन यह भी कहती हैं कि अगर सेक्स के लिए रोबोट्स का इस्तेमाल बढ़ गया तो इसका प्रतिकूल असर  मानवीय संवेदनाओं पर तो पड़ेगा ही, समाज का स्त्री के प्रति जो नज़रिया है और अधिक विकृत हो जाएगा.

लेकिन डेवी का कहना है कि हमारी ज़िन्दगी में रोबोट्स की आमद तो बढ़ेगी ही. उसे रोक पाना तो नामुमकिन है. और जब उनकी आमद  बढ़ेगी तो वे न सिर्फ हमारे सेवक और सहायक के रूप में हमारी ज़िन्दगी में आएंगे, वे हमारे दोस्त, सहचर और फिर शैया संगी बनकर भी आएंगे. डेवी बड़ी ईमानदारी से कहते हैं कि बहुत मुमकिन है कि कुछ लोग अपने साथी के रूप में मनुष्य  की बजाय रोबोट को पसन्द करने लगें, लेकिन ऐसे लोग बहुत अधिक नहीं होंगे. मनुष्य का झुकाव तो मनुष्य की ही तरफ रहेगा.

देखते हैं कि डेविड लेवी का यह आशावाद कितना सही साबित होता है!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 दिसम्बर, 2015 को सेज पर रोबोट, क्या मनुष्य की ज़रूरतें पूरी करेगा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.