हरियाणा के सोनीपत ज़िले की दो लड़कियों की खूब चर्चा हो रही है. मैं
सोच रहा हूं कि आखिर हम कैसे समय और समाज में जी रहे हैं कि लड़कियों को यह सब करना
पड़ रहा है! क्या उनकी ज़िन्दगी सतत संघर्ष का ही पर्याय नहीं है? कौन ज़िम्मेदार है
इसके लिए? दो लड़कियां कहीं जाने के लिए बस अड्डे पर पहुंचती हैं और तीन लड़के उनके
साथ बदतमीज़ी करना शुरु कर देते हैं. लड़कियां मना करती हैं तो उनकी बदतमीज़ी और बढ़
जाती है. चलती बस में भी यह बदसुलूकी जारी रहती है. सब मूक दर्शक बने रहते हैं.
बस, एक लड़की विरोध करने की कोशिश करती है तो लड़के उसके साथ भी बतदमीज़ी से पेश आते
हैं. इन दोनों लड़कियों के साथ वे लड़के मारपीट भी करते हैं. लेकिन बस का कोई यात्री
उन्हें नहीं रोकता! आखिर इन लड़कियों में से ही एक अपना बेल्ट खोल कर उनको मारती और
अपनी रक्षा करती है.
इस प्रकरण की कोई बहुत बुरी परिणति भी हो सकती थी. निर्भया प्रकरण अभी भी हमारी यादों में ताज़ा है. अब इन
लड़कियों और इनके परिवार वालों पर दबाव पड़ रहा है कि ये उन लड़कों को ‘माफ़’ कर दें!
पंचायत भी बीच में आ गई है. वही सब जीवन नष्ट हो जाने वगैरह की बातें. जीवन लड़कों का ही तो होता है!
लड़कियों का भला क्या जीवन? वे पैदा ही क्यों होती हैं? दूधों नहाओ पूतों फलो वाले
देश में भला लड़कियों की क्या ज़रूरत है? ये इतने सारे सोनोग्राफी केन्द्र आखिर किस
दिन काम आएंगे? लिंग परीक्षण पर सरकारी रोक है तो क्या हुआ? चांदी का जूता है न
अपने पास! और सोनोग्राफी नहीं तो और बहुत सारे तरीके भी हैं... और फिर भी बेशर्म
अगर इस दुनिया में आ जाए तो उसका जीना मुहाल करने के अनगिनत तरीके हैं हमारे पास.
घर में उसके साथ भेद भाव, स्कूल में भेद भाव और फिर सार्वजनिक जगहों पर यह सब.
शादी के लिए दहेज की लम्बी चौड़ी मांग और फिर ससुराल में प्रताड़नाओं और यातनाओं का
अंतहीन सिलसिला. बेशक इनके अपवाद भी हैं, लेकिन अपवादों के बावज़ूद यह एक बड़ा
यथार्थ है. ठीक ही तो लिखा था राष्ट्रकवि ने – अबला जीवन हाय तुम्हारी यही
कहानी! आंचल में है दूध और आंखों में पानी! और महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी तो
उसे ‘केवल श्रद्धा’ कहकर अलमारी में ही सजाया था, ठीक वैसे ही जैसे बहुत पहले का मनु
स्मृति का एक आप्त वाक्य हमने आड़े वक्त काम आने के लिए संजो रखा है – यत्र
नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: .
शायद कुछ लोगों की
आत्मा को इस बात से बड़ी शांति मिले कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार के मामले में हम
अकेले नहीं हैं. हाल ही में सुदूर जर्मनी में भी एक लड़की को लड़कों की बदतमीज़ी
का विरोध करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. इस 23
साल की लड़की टुगसी अलबायर्क ने फ्रैंकफर्ट के पास ऑफनबाख
में एक रेस्टोरेंट के शौचालय से लड़कियों के चिल्लाने की आवाज़ें सुनीं. उसने जाकर
देखा कि वहां कुछ लोग दो लड़कियों से छेड़छाड़ कर रहे थे. टुगसी ने इनका विरोध किया. बाद में
इनमें से एक आदमी ने कार पार्किंग में टुगसी अलबायर्क के सिर पर पत्थर या बल्ले से
हमला कर दिया. इस हमले के बाद वो अचेत हो गईं. डॉक्टरों ने उनके दिमाग को मृत
घोषित कर दिया और कहा कि अब वो भी नहीं उठेंगी. कुछ समय उन्हें जीवन रक्षक उपकरणों
पर रखा गया लेकिन फिर उनके परिवार वालों की इच्छा पर उन उपकरणों को हटा लिया गया और अब टुगसी इस दुनिया में नहीं हैं. जर्मनी
के राष्ट्रपति योआखिम गाउक ने इस छात्रा को औरों
के लिए आदर्श बताया है.
इससे मेरा ध्यान इस बात की तरफ जाए बग़ैर
नहीं रह रहा है कि हर छोटी बड़ी बात पर अपने मुखारविंद से कुछ न कुछ उवाचने वाले
हमारे नेतागण हरियाणा की इन लड़कियों की बहादुरी पर मौन क्यों हैं? क्या इसलिए कि
वे एक वर्चस्ववादी और रूढिबद्ध समाज को नाराज़ करने का ख़तरा नहीं उठाना चाहते? ये
वे ही लोग हैं जो किसी न किसी बहाने से महिला आरक्षण बिल को रोके हुए हैं! ये वे
ही लोग हैं जो आए दिन महिला विरोधी अटपटे बयान देते रहते हैं. कभी इन्हें उनके
वस्त्रों से आपत्ति होती है कभी उनके बाहर निकलकर नौकरी करने से और कभी समानता की
मांग से.
लेकिन इन सबके बावज़ूद, यह भी
एक यथार्थ है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों में औरत हमारे समाज में संघर्ष करती हुई
आगे बढ़ रही है. गुलज़ार ने ठीक ही तो लिखा है: कितनी गिरहें खोली
हैं मैने/ कितनी गिरहें अब बाकी हैं.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 दिसम्बर, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.