Friday, November 30, 2012

कैसे समझाएं इन्हें

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काफी दिनों से बढ़ते जा रहे मोतियाबिंद से परेशान था. ऑपरेशन कराना टालता जा रहा था.  बात यह है कि ऑपरेशन चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, उससे डर तो लगता ही है. लेकिन वो कहा जाता है ना कि बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाएगी. कई दोस्तों से पूछा, और सबकी राय का आकलन करने के बाद जा पहुंचा शहर के सबसे नामी, सर्वाधिक आधुनिक सुविधाओं वाले (और  इसीलिए स्वाभाविक रूप से खासे महंगे भी)  नेत्र चिकित्सालय में. रिसेप्शन काउण्टर पर लगी एक पट्टिका पर नज़र पड़ी तो दिल खुश हो गया. लिखा था: “अस्पताल में मरीज़ कृपया अपने मोबाइल बन्द रखें.” यह हुई ना बात. लोगों को मोबाइल इस्तेमाल करने का शऊर ही कहां है? जहां देखो वहीं शुरू हो जाते हैं, बिना आस-पास वालों की असुविधा का ज़रा भी खयाल किए. रिसेप्शन काउण्टर पर रजिस्ट्रेशन करवाया, दो जगह जूनियर डॉक्टरों से अपनी आंखें जंचवाई और फिर मुझे पहुंचा दिया गया अस्पताल के मुख्य डॉक्टर के कक्ष में. उन्हीं के नाम पर यह अस्पताल है. वे एक मरीज़ को देख रहे थे, मुझे पास पड़े सोफे पर बिठा दिया गया. वे मरीज़ को देख रहे थे, पास खड़े एक दोस्त से बात कर रहे थे और कान में लगे ईयर फोन पर किसी की बात सुनते हुए यदा-कदा उन्हें भी जवाब देते जा रहे थे. इसी बीच वो मरीज़ निपट गया. अब  मुझे डॉक्टर के सामने वाली स्टूल पर बिठा दिया गया. मेरा कार्ड डॉक्टर के सामने था. उनका द्वि-चैनली संवाद पूर्ववत जारी रहा. और उसी के साथ मेरी आंखों की जांच भी हो गई. मुझसे कुछ पूछने की ज़रूरत उन्हें महसूस नहीं हुई. पास खड़े उनके सहायक ने जब मुझे उठने का संकेत किया तो मैंने ढीढ बनकर डॉक्टर से कहा कि आपने मुझसे कुछ भी तो नहीं पूछा. और तब बेमन से उन्होंने एक दो सवाल किए और मुझे बाहर भेज दिया. उनकी जल्दी में शायद इतना ही सम्भव था.

बाहर मुझे बताया गया कि मुझे अपनी दोनों आंखों का ऑपरेशन करवाना होगा. बहरहाल, किस्सा कोताह यह कि निर्धारित तिथि को निर्धारित समय पर मैं अपनी आँख का ऑपरेशन करवाने अस्पताल पहुंच गया और कुछ प्रारम्भिक चिकित्सकीय कामों के बाद लेजाकर मुझे ऑपरेशन टेबल पर लिटा दिया गया. कक्ष में कुल तीन लोग थे. एक स्वयं वे डॉक्टर, एक उनकी सहायिका और एक परिचारक. सहायिका जी ने बहुत कोमलता से मेरी आँख के नीचे निश्चेतन करने वाला इंजेक्शन लगाया, मेरी दोनों आंखों को ढक दिया गया और जिस आँख का ऑपरेशन होना था, उस पर पड़े आवरण में एक खिड़की बना दी गई. अब जो करना था मुख्य डॉक्टर को करना था. मुझे आभास तो हो रहा था कि मेरी आँख के साथ क्या हो रहा है, लेकिन महसूस कुछ नहीं हो रहा था. डॉक्टर अपने दक्ष हाथों से मेरी आँख में कुछ कर रहे थे और साथ-साथ अपनी सहायिका जी से गपशप भी करते जा रहे थे. मुझे वो गपशप क़तई अच्छी नहीं लग रही थी, लेकिन इतनी हिम्मत भी नहीं हो रही थी कि उन्हें मना करूं. थोड़ी देर बाद मुझे आवाज़ से पता लगा कि डॉक्टर साहब मोबाइल पर किसी से बात भी कर रहे हैं. हाथ उनके बदस्तूर चल रहे थे. बात सामान्य किस्म की थी, लेकिन लम्बी चली. मैं कुढ़ता रहा. कोई पन्द्रह मिनिट लगे होंगे इस सब में, और मेरी ऑपरेशन की गई आँख पर पट्टी चिपका कर मुझे ऑपरेशन थिएटर से बाहर छोड़ दिया गया.

पन्द्रह दिन बाद मेरी दूसरी आँख का ऑपरेशन हुआ और उस दौरान भी यही सब हुआ. यानि डॉक्टर साहब का फोन पर बतियाना, अपनी सहकर्मी से  गपशप करना वगैरह. ख़ैर! ऑपरेशन हो गया, और मैं घर आ गया. लेकिन घर आकर तमाम दूसरी व्यस्तताओं के बीच भी यह बात मन में घुमड़ती रही कि मरीज़ को देखते वक़्त और उसके बाद ऑपरेशन के वक़्त डॉक्टर का अपने सहकर्मी से और मोबाइल पर गपशप करते रहना कितना वाज़िब था. यह सब करते हुए उनके हाथ ज़रा भी इधर-उधर हो  जाएं तो? क्या आँख के ऑपरेशन जैसे नाज़ुक काम में एकाग्रता की ज़रूरत नहीं होती है? क्या किसी डॉक्टर का अपने मरीज़ के साथ इस तरह का गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार उचित है? वगैरह. काफी सोच-विचार के बाद,  अपनी तमाम नाराज़गी पर काबू पाते हुए, यथासम्भव संयत लहज़े में मैंने एक पत्र इन डॉक्टर महोदय को लिखा और ई मेल कर दिया.

बहुत जल्दी ही मुझे डॉक्टर महोदय का उत्तर भी मिला. मुझे खुशी इस बात की हुई कि अपने उत्तर में उन्होंने मेरी प्रतिक्रिया पर, जो शालीन होने के बावज़ूद मधुर तो नहीं ही थी, कोई नाराज़गी ज़ाहिर नहीं की, लेकिन  उनका जवाब यह था कि वे खुद भी चाहते हैं कि ऐसा न करें, लेकिन मरीज़ों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए उन्हें ऐसा करना पड़ता है. यानि, बहुत कुशलता से उन्होंने अपने व्यवहार का दायित्व मरीज़ों की सुविधा के नाम कर दिया. या फिर उन्होंने समझकर भी मेरी बात को नहीं समझा.  अब उनके इस उत्तर पर क्या कहा जा सकता है सिवा चचा ग़ालिब को याद करने के :
                            या रब न वो  समझे  हैं न  समझेंगे मेरी बात
                            दे और दिल उनको जो न दें मुझको ज़ुबाँ और!
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दिनांक 30 नवम्बर 2012 को जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे' स्तम्भ में 'सुविधा के ख़तरे' शीर्षक से प्रकाशित.