लीजिए, अब एक नई शोध ने जो बताया है उससे आप भी यह सोचने लगेंगे कि बच्चों को स्कूल भेजा जाए
या नहीं! हम सभी अपने बच्चों को उनके बहुमुखी विकास के लिए स्कूल भेजते हैं. लेकिन
हाल में हुई एक शोध ने जो बताया है वह तो इसका उलट है. मैं आपके धैर्य की अधिक
परीक्षा नहीं लेना चाहता इसलिए सारी बात सिलसिलेवार बता देता हूं.
हुआ यह कि नासा ने दो बहुत
विख्यात विशेषज्ञों डॉ जॉर्ज लैण्ड और बेथ जार्मान को एक ऐसा अत्यधिक विशेषीकृत टेस्ट विकसित करने का
दायित्व सौंपा जो नासा के रॉकेट
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की सर्जनात्मक संभावनाओं का समुचित आकलन कर सके. इन
विशेषज्ञों ने एक टेस्ट का निर्माण किया
और नासा ने भी उसे अपने लिए बहुत उपयोगी पाया. बात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन हुई नहीं.
टेस्ट पूरा हो जाने के बाद ये दोनों विशेषज्ञ और इनके साथी एक और सवाल से जूझने लगे. सवाल यह था कि आखिर सर्जनात्मकता का उद्गम
क्या है?
वो
कहां से आती है? क्या यह कुछ लोगों में जन्म से ही होती है, या इसे शिक्षा से अर्जित
किया जाता है?
और
या फिर इसे अनुभवों से हासिल किया जाता है!
और इस सवाल से जूझते हुए इन वैज्ञानिकों
ने चार और पांच बरस की उम्र वाले सोलह सौ बच्चों को एक टेस्ट दिया. असल में इस
टेस्ट में कुछ समस्याएं दी गई थीं और उनको हल करने के लिए बच्चों ने जो जवाब दिये
थे उन्हें इस कसौटी पर गया कि समस्याओं को सुलझाने के बच्चों के तरीके कितने अलहदा, कितने नए और कितने मौलिक हैं. इस
टेस्ट के परिणाम बेहद चौंकाने वाले थे. आप भी यह जानकर आश्चर्य से उछल पड़ेंगे कि
चार से पांच बरस की उम्र वाले अट्ठानवे प्रतिशत बच्चे उन वैज्ञानिकों की कसौटी पर
जीनियस साबित हुए. अब शायद इन वैज्ञानिकों को भी अपनी शोध में मज़ा आने लगा था, सो इन्होंने पांच बरस
बाद फिर से इन बच्चों को परखा. तब ये बच्चे दस बरस की उम्र के आसपास पहुंच
गए थे. अब जो परिणाम आए वो और भी ज़्यादा चौंकाने वाले थे. अब इन्होंने पाया कि उन अट्ठानवे
प्रतिशत जीनियस बच्चों में से मात्र तीस प्रतिशत बच्चे ही कल्पनाशीलता के स्तर पर
जीनियस कहलाने के काबिल रह गए हैं. पांच बरस बाद फिर से इस प्रयोग को दुहराया गया
और तब पाया गया कि पंद्रह बरस के हो चुके इन बच्चों में मात्र बारह प्रतिशत बच्चे ही
जीनियस कहलाने काबिल रहे हैं. और इसके बाद इन वैज्ञानिकों ने जो निष्कर्ष दिया है वह तो हम सब को अपने मुंह छिपाने के
लिए विवश कर देगा. उनका कहना है हम वयस्कों में तो मात्र दो प्रतिशत ही जीनियस
कहलाने के हक़दार होते हैं!
यह कहना अनावश्यक है कि
पांच,
दस
और पंद्रह बरस के जिन बच्चों पर यह टेस्ट किया गया वे सभी स्कूल जाने वाले बच्चे
थे. तो क्या यह समझा जा सकता है कि स्कूल, या कि हमारी
शिक्षा व्यवस्था बच्चों की सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे कुचलती
है?
इसका
जवाब मिलता है जोहानिसबर्ग में पले बढ़े और अब अमरीका वासी एक चर्चित लेखक गाविन
नासिमेण्टो के इस कथन में: “जिस संस्था को
हम ऐतिहासिक रूप से स्कूल के नाम से जानते
हैं,
उसका
तो निर्माण ही शासक वर्ग की -न कि आम लोगों
की- सेवा के लिए हुआ है.” अपनी बात
को और साफ़ करते हुए गाविन कहते हैं, “उन्होंने यह भली भांति समझ लिया है कि तथाकथित
अभिजन की ठाठदार विलासिता वाली उस जीवन शैली के निर्वहन के लिए जिसमें वे बहुत कम
देकर बहुत ज़्यादा का उपभोग करते हैं, बच्चों को बेवक़ूफ
बनाया जाना और कृत्रिम अभावों की लालची व्यवस्था, अंतहीन शोषण और अनवरत
युद्धों के स्वीकार के लिए ही नहीं बल्कि इनकी सेवा के लिए भी उनके दिमागों का
अनुकूलन ज़रूरी है.” मुझे नहीं लगता कि वर्तमान स्कूलों पर इससे कड़ी टिप्पणी कोई और
हो सकती है!
चलिये, फिर डॉ लैण्ड की
तरफ लौटते हैं. उनका कहना है कि हम सबमें यह क्षमता है कि अगर हम चाहें तो
अट्ठानवे प्रतिशत यानि जीनियसों में शुमार
हो सकते हैं. इसके लिए करना बस इतना है कि हम अपने आप को पांच साल के बच्चे में
तब्दील कर लें. इस डर से निजात पा लें कि अगर ऐसा करेंगे तो ऐसा हो जाएगा. मुक्त
ढंग से सोचना और सपने देखना शुरु करें. वे एक उदाहरण देकर अपनी बात साफ़ करते हैं.
अगर किसी छोटे बच्चे के सामने एक फॉर्क
(टेबल पर रखा जाने वाला कांटा) रखें तो वो उसे बेहतर बनाने के लिए फटाफट अनेक
सुझाव दे देगा. बस! हम भी उस जैसे बिंदास
बन जाएं! ठीक है ना?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 10 अप्रैल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.