Friday, November 9, 2007

एक सुरीला और अर्थपूर्ण गीत

एक बहुत प्यारा गीत आप सबको सुनवाना चाहता हूं. यह गीत हिन्दी के बेहद महत्वपूर्ण गीतकार स्वर्गीय वीरेन्द्र मिश्र जी की रचना है. गीत क्या है जैसे पूरा भारत साकार कर दिया गया है. और कुछ भी कहकर मैं इस गीत रूपी सूर्य को दीपक नहीं दिखाना चाहता. बस, आप गीत सुनें और अगर वाकई अच्छा लगे तो मुझे भी बतायें. हां एक बात, मैं इस गीत को जिस तरह यहां लिंक करना चाहता था, नहीं कर पाया हूं. इसलिए अगर इस तक पहुंचने में आपको कोई असुविधा हो तो पहले से क्षमा याचना कर लेता हूं.

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दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.

दीपावली की शुभकामनाएं

दीपों का त्यौहार फिर आ गया है. चारों तरफ हर्ष व उल्लास का माहौल है. सब अपनी अपनी तरह से खुश हैं. बच्चों की खुशी के अपने कारण हैं तो बडों की खुशी के अपने कारण. बाज़ार अपनी तरह से खुश है तो खरीददार अपनी तरह से. यह स्वाभाविक भी है. बच्चों को खुशी है कि मिठाई मिलेगी, पटाखे मिलेंगे, नए कपडे मिलेंगे. तो इन्हें बेचने वाले खुश हैं कि बिक्री होगी तो लक्ष्मी आएगी. बडे और खास तौर पर वे मध्यवर्गीय बडे जिनके आर्थिक साधन सीमित हैं, बावज़ूद बज़ट गडबडाने की आशंकाओं के, इस बात की कल्पना करके खुश हैं कि उनके बच्चे और परिवार जन खुश होंगे. गृहिणियां घरों को चमकाने में लगी हैं तो संचार माध्यम एक चकाचक छवि पेश करने में मशगूल है. इसी में उसका हित भी निहित है. वे रोज़ यह छाप रहे है कि बाज़ार कैसे सज रहे हैं, बाज़ार में नया क्या है, लोग क्या-क्या उपहार देने की तैयारी में लगे हैं वगैरह. निश्चय ही उपहार देने वाला वर्ग बहुत बडा नहीं है. और न वह वर्ग बडा है जिसे उपहार मिलते हैं. मैं आधा किलो मिठाई के डिब्बे के उपहार की बात नहीं कर रहा, और न सौ पचास रुपये के पटाखों के उपहार या तीन सौ रुपये की साडी के उपहार की बात कर रहा हूं. संचार माध्यम भी इन उपहारों को उपहार नहीं मानता. वह भी डेढ दो लाख के टी वी या डायमण्ड के हार जैसे उपहारों की ही बात करता है. रोज़ यह छापता बताता है कि बाज़ार में इस तरह के उपहारों की कितनी और कैसी नई किस्में आई हुई हैं. मन ललचाता तो मेरा भी है. सबसे पहले तो यह कि काश! कोई मुझे भी ऐसा ही एक ठो उपहार देता. और इसके बाद यह कि काश! मेरी भी हैसियत ऐसी होती कि मैं भी किसी को ऐसा ही उपहार देता. लेकिन सोचने लगता हूं, भला कोई मुझे ऐसा और इतना महंगा उपहार क्यों देता? अच्छी खासी नौकरी थी मेरी (अब सेवा निवृत्त हूं) लेकिन ऐसा तो क्या कैसा भी उपहार कभी किसी ने नहीं दिया. हां, बीस रुपये वाले पेन और पच्चीस रुपये वाली डायरी और आधा किलो मिठाई के डिब्बे के अपवाद को छोडकर. और अगर मुझे उपहार देना होता तो किसे दिया होता? किसे दिया? अपनी नौकरी के दिनों में भी किसी को नहीं. दोस्ती-रिश्तेदारी में ब्याह शादी के मौकों पर जो उपहार दिये-लिए उनमें विनिमय का प्रच्छन्न भाव बराबर बना रहा. इसलिए एक हद से आगे बढने की नौबत कभी आई ही नहीं. जिस ज़माने में नौकरी शुरू की थी, 1967 में, तब शादियों में पांच से ग्यारह रुपये तक देने का रिवाज़ हुआ करता था. आजकल महंगाई (और जीवन स्तर) बढने से यह राशि बढकर एक सौ से ढाई सौ तक पहुच गई है. बहुत अधिक निकटता हो तो हज़ार तक. लेकिन लाख दो लाख वाली स्थिति तो अपने लिए तो नहीं आई. अपनी बात बार-बार इसलिए कर रहा हूं कि खुद को उस वर्ग का प्रतिनिधि मानता हूं जो सबसे बडा है – मध्य वर्ग, और जिसकी खुशहाली के खूब गीत गाए जा रहे हैं. गया बीता मैं भी नहीं हूं. लेकिन इतना खुशहाल भी नहीं हूं.
तो फिर वह मध्यवर्ग कौन-सा है जिसकी खुशहाली के गीत सब तरफ गाए जा रहे हैं? क्या हैं उसकी आय के स्रोत? किन्हें देता है वह ऐसे महंगे उपहार? कहीं यह दो नम्बर की या ऊपरी कमाई वाला नया-नया जन्मा मध्यवर्ग तो नहीं है? या कि कॉल सेण्टर्स में अपनी रातें काली करने वाला युवा वर्ग है? या आई टी सेक्टर में काम करने वाला प्रोफेशनल समुदाय है ? या इन सबसे मिला-जुला वह वर्ग है जिसे अंग्रेज़ी प्रेस ने D.I.N.K. ‘डबल इन्कम नो किड्स’ वर्ग कहा है? यहां मैंने जिन-जिन वर्गों की चर्चा की है उनमें से पहले वर्ग को छोडकर शेष से तो किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है? कोई कमाई के लिए दिन भर जागे या रात भर? किसी ने अपनी योग्यता के दम पर ज़्यादा तनख्वाह वाली नौकरी पा ली है या कोई युवा युगल कुछ समय के लिए या सदा के लिए परिवार वृद्धि स्थगित कर रहा है – इसमें किसी के भी पेट में दर्द होने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन मैंने सबसे पहले जिस वर्ग की चर्चा की, उसकी बात कुछ अलग है. जो कहीं किसी प्रभावशाली जगह पर तैनात है और अपना नियमित काम अंजाम देने के बदले में ‘अतिरिक्त कुछ’ चाह या ले रहा है, वह, और वह जो कुछ ले कर ऐसा काम कर रहा है जिसे कर पाना अन्यथा सम्भव नहीं था – उसको तो भला कोई भी कैसे स्वीकार करेगा? सरकारी दफ्तरों में आम तौर पर यही होता है कि आप जाते हैं और आपको कहा जाता है कि आपका काम नहीं हो सकता. आप सम्बद्ध कर्मचारी/अधिकारी की ‘सेवा’ करते हैं, आपका काम हो जाता है. बहुत बार तो काम न होने की बात की ही इसलिए जाती है कि आप सेवा करने को प्रस्तुत हों. इसके अलावा भी हम अपने चारों तरफ अनियमितताओं का भरा-पूरा जंगल देखते हैं. यह सब भी सेवा कराने और करने का ही परिणाम है. ऐसा वर्ग बडी तेज़ी से फल फूल रहा है. यही वह वर्ग है जो महंगे उपहार लेता है, देता भी है.
और यही वर्ग है जो पहले से दबे मध्यवर्ग के लिए मानदण्ड रचता है. कॉलेज में पढने वाली आपकी बेटी बताती है कि उसी के साथ पढने वाली किसी दफ्तर के बडे बाबू की बेटी की शादी में चालीस लाख खर्च किए जाएंगे. वह न केवल बताती है, यह जताती भी है कि आप जो उस बाबू से बेहतर स्थिति वाले हैं, कम से कम इतना तो खर्च करें. बच्चे ही नहीं बीबी भी आपसे उम्मीद करती है. नाते-रिश्तेदार भी. और अगर आप उनकी उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो या तो आप कंजूस, मूंजी हैं या नाकारा-निकम्मे और बेवक़ूफ. कोई बिरला ही होगा कि जो आपकी पाक-साफ-बेदाग छवि की सराहना करता हुआ अपके पक्ष में खडा हो. आप अगर साइकिल पर दफ्तर जाएं तो सबके उपहास के पात्र बनेंगे और एक बहुत कम वेतन वाला कर्मचारी महंगी मोटर साइकिल पर दफ्तर आए तो कोई यह न जानना चाहेगा कि उसकी आय का स्रोत क्या है? हमारे आज के समाज की सबसे बडी दुर्घटना यही है कि हमने भ्रष्टाचार को निंदा का विषय मानना ही बन्द कर दिया है. उसे हमने मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है.
इसी मौन स्वीकृति की परिणति है त्यौहारों पर मीडिया में महंगे विलासिता उत्पादों का उठता ज्वार. यह वर्ग और मीडिया जैसे ‘एक दूजे के लिए’ काम करते हैं. मीडिया ऐसे महंगे उत्पादों के प्रति लालसा जगाता है, और इन उत्पादों तक पहुंचने का रास्ता गन्दगी की गलियों से ही गुज़रता है. लालसा जगाने के लिए वह उन लोगों को रोल मॉडल के रूप में पेश करता है जिनका उन गलियों में खासा आना-जाना है. जिन्हें विलेन होना चाहिए था उन्हें हीरो का खिताब अता फरमाया जाता है. सही भी है. अगर उन्हें विलेन बना दिया जाएगा तो बाज़ार कैसे फलेगा फूलेगा? और अगर बाज़ार नहीं फला-फूला तो मीडिया कैसे समृद्ध होगा? सारे ही संचार माध्यमों पर जो उपभोक्ता उत्पादों की बहार आई हुई है, वह मीडिया को भी समृद्ध कर रही है, यह कहना अनावश्यक है. मीडिया समृद्ध हो, इस पर कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन वह अपनी समृद्धि के लिए इस बात की अनदेखी करे कि पूरे समाज की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो रही है, यह चिंता और क्षोभ का विषय है. समाज के एक अंश और मीडिया दोनों ने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए ज़रूरी बातों की अनदेखी का रास्ता अख्तियार कर लिया है- इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए.

आज़ादी के बाद के वर्षों में हमारा नैतिक बोध जिस तरह कमज़ोर हुआ है उस पर गहरी चिंता होनी चाहिए. लेकिन चिंता की बजाय हम सब धीरे-धीरे उसी की परिधि में आते जा रहे हैं. हमारे त्यौहार हमारे सांस्कृतिक वैभव और उदात्त मूल्यों के प्रतीक हैं. दिवाली लक्ष्मी पूजा का त्यौहार था, है, लेकिन हमने उसे काली लक्ष्मी की पूजा का त्यौहार बना डाला है. ऐसा ही जीवन के अन्य अनेकानेक सांस्कृतिक पर्वों-अवसरों के साथ हुआ है.दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत की घोषणा का पर्व है लेकिन हो यह रहा है कि उसमें भी बुराई ही महिमान्वित्त हो रही है. बल्कि सर्वत्र हुआ है. रिश्ते, संस्कार, देश, धर्म सब कुछ पर यह काली छाया दिखाई देती है.
क्या इस बात पर कोई चिंता नहीं होनी चाहिए?

आप सबको दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएं.