Thursday, June 26, 2008

एक और दिन ऐसा

‘ट्यूज़डेज़ विद मॉरी’ और ‘फाइव पीपुल यू मीट इन हेवन’ जैसी बेस्टसेलर किताबों के लेखक मिच एल्बॉम का पेपरबैक संस्करण में हाल ही में आया उपन्यास फोर वन मोर डे उन आंतरिक संघर्षों को उजागर करता है जिनसे हममें से हरेक को कभी न कभी जूझना पडता है. मानवीय सम्बन्धों में, चाहे वे परिवारजन के हों, मित्रों के हों या अजनबियों के, कभी-न-कभी मन में यह बात आती ही है कि क्या हम इनका निर्वाह और ज़्यादा बेहतर तरीके से नहीं कर सकते थे? और जो बीत चुका है उसके सन्दर्भ में यह सवाल भी उठता है कि अब क्या किया जा सकता है!

‘फोर वन मोर डे’ उपन्यास का आधार यह विचार है कि अगर आपको जीवन का एक और दिन एक ऐसे व्यक्ति के साथ बिताने को मिले जो अब आपकी ज़िन्दगी में नहीं है, तो वह व्यक्ति कौन होगा! उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र चार्ल्स ‘चिक’ बेनेटो के लिए तो यह व्यक्ति उसकी मां है. उपन्यास के प्रारम्भ में हम पाते हैं कि एक अवसाद भरी रात में चार्ल्स, अधेड उम्र का शराबी, आत्म हत्या करने के कगार पर है. उसका काम काज और परिवार सब टूट-बिखर चुके हैं. धीरे-धीरे हम इस चार्ल्स के जीवन से परिचित होते हैं. बचपन में उसके पिता कहा करते थे कि या तो तुम मामा’ज़ बॉय हो सकते हो या पापा’ज़ बॉय; दोनों एक साथ नहीं हो सकते. चार्ल्स ने पिता का लाडला होना चुना. न केवल चुना, अपनी युवावस्था पिता को खुश करने में झोंक भी डाली. पिता ने चाहा कि वह बेसबॉल खेले, तो उसने खेला. यहां तक कि जब चार्ल्स 11 साल का था, तब उसके पिता हालांकि उसे छोड गये, फिर भी उसने बेसबॉल चैम्पियन बनने के उनके सपने से नाता नहीं तोडा. आखिर वह एक छोटी टीम का सदस्य बना और धीरे-धीरे तरक्की करता चला.

इस सबके साथ उसकी मां पोसी ने बमुश्किल उसे पाला पोसा, बहिन रॉबर्टा ने भी उसके लिए अनेक त्याग किए. चार्ल्स उम्र भर अपने पिता को ही खुश करने में लगा रहा, मां की उपेक्षा करके भी. एक हादसे में उसकी टांग चोटग्रस्त होती है तो बेसबॉल का बडा खिलाडी बनने का उसका (असल में तो उसके पिता का) ख्वाब चकनाचूर हो जाता है. तब चार्ल्स को महसूस होता है कि पिता से उसका रिश्ता तो इस खिलाडी वाले कैरियर की नींव पर टिका था. उसके जेह्न से पिता धीरे-धीरे धूमिल होने लगते हैं और वह अपना ग़म ग़लत करने के लिए शराब का सहारा लेता है. इसी दौरान उसकी नौकरी भी छूट जाती है. वह यह भी पाता है कि उसके आर्थिक संकटों से उबरने में उसके पिता उसकी तनिक भी मदद नहीं करते. तब उसे एहसास होता है कि उसने अपनी मां की तो घोर उपेक्षा की थी. लेकिन तब तक मां को मरे को आठ साल बीत चुके हैं. उसे एक और गहरा आघात इस बात का लगता है कि खुद उसकी बेटी उसे न तो अपनी शादी के बारे में बताती है और न उसमें उसे बुलाती है. इन सबसे व्यथित होकर वह आत्महत्या का इरादा बनाता है. यही है इस उपन्यास का प्रस्थान बिन्दु!

लेकिन, आत्महत्या से पहले वह अपने छोटे-से गांव जाता है और संयोगवश अपने पुराने घर जा पहुंचता है. वहां पहुंच कर वह स्तब्ध रह जता है. उसकी मां, जो आठ साल पहले मर चुकी है, अब भी वहीं रह रही है और वह उसका स्वागत ऐसे करती है जैसे इस बीच कुछ हुआ ही नहीं है. और फिर बीतता है एक और दिन, आम दिन, ऐसा दिन जो हममें से हरेक बिताना चाहता है. अपने खोये मां-बाप के साथ, परिवार की भूली बिसरी बातें करते हुए, अपने किये - न किये के लिये क्षमा याचना करते हुए. इसी बातचीत के दौरान उसे अपनी मां के किये बहुत सारे ऐसे त्यागों का पता चलता है जिनसे वह अब तक अनजान था. मां उसे ढाढस बंधाती है और वह आत्महत्या का इरादा छोड अपनी ज़िन्दगी की पटरी से उतरी गाडी को फिर से पटरी पर लाने का निश्चय करता है.

इस कथा को बहुत आसानी से भूत-प्रेत की कथा कह कर खारिज किया जा सकता है. लेकिन सोचिए, क्या हर परिवार के पास इस तरह की कोई प्रेत कथा नहीं होती? जो लोग दुनिया छोड चुके हैं वे भी तो हमारी स्मृति में बने रहते हैं. अगर उन्हें भूत-प्रेत कह दिया जाए तो क्या हर्ज़ है? एक और बात, जब आप चार्ल्स और उसकी मां की बातचीत पढते हैं तो जो मानसिक विरेचन होता है और जैसी नैतिक सलाह आपको मिलती है, लगता है कि वह इस प्रविधि से ही सम्भव थी. पूरा उपन्यास एक ही बात कहता है और वह यह कि जीवन में सबसे बडी अहमियत प्रेम की है. वैसे, मिच घुमा फिराकर यही बात अपनी हर कृति में कहते हैं. आज के टूटते-दरकते मानवीय सम्बन्धों वाले विकट समय में इस सन्देश की कितनी ज़रूरत है, यह कहने की आवश्यकता नहीं.

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Discussed book:
For One More Day
By Mitch Albom
Published by: Hyperion
Paperback, 197 pages
US $ 10.80

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट 'जस्ट जयपुर' में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 26 जून 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, June 12, 2008

असल चुनौती है उम्मीद खोजना

अमरीकी राष्ट्रपति पद के प्रबल प्रत्याशी बराक ओबामा की दूसरी किताब द ऑडेसिटी ऑफ होप: थॉट्स ऑन रिक्लेमिंग द अमेरिकन ड्रीम एक ऐसी राजनीतिक किताब है जो न तो अपने प्रतिपक्षियों पर दोषारोपण करती है, न ‘हम बनाम तुम’ का वाक युद्ध रचती है. यह किताब अपने बहुलांश में बहुत सारे नीतिगत मुद्दों, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, ईराक में युद्ध वगैरह पर ओबामा का पक्ष प्रस्तुत करती है. यह करते हुए ओबामा अपने पाठक का ध्यान उन अमरीकी समानताओं और मूल्यों की तरफ भी आकृष्ट करते हैं जो राजनीतिक मत वैभिन्य के बावज़ूद बरकरार हैं. ओबामा बडी समस्याओं के लिए आम सहमति के समाधानों की तलाश करते हुए परस्पर विरोधी विचारों को समझने की ज़रूरत पर बल देते हैं. लेकिन, यह समझौता नहीं है. यही है उम्मीद की साहसिकता, ऑडेसिटी ऑफ होप, जिसे ओबामा ने एक चर्च में प्रवचन सुनते हुए ग्रहण किया था. खुद ओबामा ने अपनी इस किताब पर बोलते हुए कहा है, “गलतियां ढूंढना आसान है. असल चुनौतियां तो उम्मीद तलाशने में हैं.”

किताब की महत्ता उस विज़न में है जो ओबामा अमरीकी राजनीति के लिए पेश करते हैं. यह एक ऐसा विज़न है जो सबको साथ लेकर चलना चाहता है. ओबामा की खासियत ही यह है कि वे विविध परिदृश्यों के ताने-बाने से एक सुसंगत और सुगठित समग्र रचते हैं. इसी कारण यह किताब आज की जटिल होती जा रही दुनिया में अमरीकी अस्मिता और उसकी भूमिका के लिए एक उत्तर-आधुनिक वृत्तांत रचती है. ओबामा मुख्यधारा की राजनीति के दबावों और तनावों को भली-भांति समझ कर खासकर रिपब्लिकन शैली की विभेदक पक्षधरता के विरोध में खडे होकर व्यापक अमरीकी मूल्यों पर आधारित बीच की राजनीति का पक्ष लेते हैं. ऐसा करते हुए वे कहीं-कहीं अंतर्विरोधी भी हो जाते हैं. जैसे, वे मुक्त व्यापार का समर्थन करते हैं लेकिन अमरीकी कामगारों पर उसके दुष्प्रभाव से व्यथित भी होते हैं, फिर जैसे अपने इस परस्पर विरोधी स्टैण्ड को कुछ दुरुस्त करते हुए आधे मन से यह भी जोडते हैं कि अंतत: तो शिक्षा, विज्ञान और नवीनीकरणीय ऊर्जा को ज़्यादा सहयोग देकर अर्थव्यवस्था पर भूमंडलीकरण के कुप्रभावों की भरपाई की जा सकेगी. अवसर बढाने के लिए भी वे शिक्षा, विज्ञान, तकनीकी और ऊर्जा के क्षेत्र में अधिक सार्वजनिक निवेश की पैरवी करते हैं. ऐसा, हालांकि 1970 से ही हो रहा है, लेकिन ओबामा को लगता है कि इसमें राष्ट्रीय महता की भावना का अभाव रहा है. इसी तरह वे राजनीतिज्ञों पर धन संग्रह, विभिन्न हित-समूहों, मीडिया, सौदेबाजी वगैरह के कारण बढते दबावों और उनकी समझौता परस्ती की चिंता करते हैं, लेकिन उस चिंता से बाहर नहीं निकल पाते.

ज़ाहिर है कि किताब का सम्बन्ध अमरीकी जीवन और राजनीति से है, लेकिन इसे पढते हुए बार-बार लगता है कि हम अपने देश के बारे में पढ रहे हैं. जब हम ओबामा का यह कथन पढते हैं कि संविधान को जन्म देने वाले सिद्धांतों की तरफ लौटकर ही अमरीकी अपने देश की टूट-फूट चुकी राजनीतिक प्रक्रिया को दुरुस्त कर सकते हैं और उस सरकार को फिर से काम-चलाऊ बना सकते हैं जो लाखों आम अमरीकियों से कट चुकी है, तो लगता है कि यह बात हमारे देश के बारे में भी तो कही जा सकती है.

ओबामा इस किताब की भूमिका में एक दिलचस्प घटना याद करते हैं. लगभग दस बरस पहले, जब उन्होंने पहली बार चुनाव लडा, वे जगह-जगह लोगों से मिलते, और हर बार घुमा फिराकर उनसे एक ही सवाल पूछा जाता, “आप तो खासे भले इंसान लगते हैं. आप राजनीति की गन्दी दुनिया में क्यों जा रहे हैं?” ओबामा इस आम धारणा का विश्लेषण भी करते हैं और कहते हैं कि राजनीति कर्मियों के वचन भंग की लम्बी परम्परा के कारण ऐसी धारणा बनी और मज़बूत हुई है. सोचें, क्या भारत में भी ऐसा ही नहीं हुआ है?

किताब में ऐसा ही एक और मार्मिक प्रसंग है जहां ओबामा व्हाइट हाउस में जॉर्ज डब्ल्यू बुश से हुई एक मुलाक़ात को याद करते हैं. बुश ने बडी गर्मजोशी से उनसे हाथ मिलाया, और फिर पास ही खडे अपने सेवक की तरफ मुडे. सेवक ने तुरंत उनके हाथ पर खूब सारा सेनिटाइज़र (एक तरह का साबुन) डाल दिया. राष्ट्रपति जी अपने इस मेहमान की तरफ भी थोडा-सा सेनिटाइज़र बढाते हैं, यह कहते हुए कि “अच्छी चीज़ है. इससे आप जुकाम से भी बचे रहते हैं.”

किताब की एक बहुत बडी विशेषता इसकी भाषा है. ‘उनकी आंखों में दुर्व्यवस्था की कौंध थी’, ‘कम्बल की झीनी ऊष्मा’, ‘अपने कूल्हों पर अनाम शिशुओं को टिकाए’ जैसे वाक्यांश और अपने बीबी-बच्चों से दूर वाशिंगटन डी सी में रहने की पीडा को ‘उनके आलिंगन की ऊष्मा और उनकी त्वचा की मधुर गंध के लिए तडपता हुआ’ कहकर व्यक्त करने वाला यह राजनीतिज्ञ अपनी भाषा की काव्यात्मक संवेदनशीलता से भी कम प्रभावित नहीं करता.


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Discussed book:
The Audacity of Hope: Thoughts on Reclaiming American Dream
By: Barrack Obama
Published By: Crown Publishing Group
Hardcover, 384 pages
US $ 25.00


राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 12 जून, 2008 को प्रकाशित.








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Thursday, June 5, 2008

छीन लिया बचपन

सितम्बर, 2007. सेण्ट जॉर्ज का खचाखच भरा एक न्यायालय कक्ष. बहुविवाही पंथ के मुखिया वारेन जेफ्स के खिलाफ एलिसा वॉल की दिल दहला देने वाली गवाही कि किस तरह जेफ्स ने उसे 14 बरस की कच्ची उम्र में अपने चचेरे भाई से शादी के लिए बाध्य किया. एलिसा वॉल की इस मर्मांतक गवाही को जेफ्स के खिलाफ सबसे अधिक प्रभावी प्रमाण माना गया. इसी गवाही ने दुनिया के सामने यह उजागर किया कि किस तरह और किस हद तक जाकर जेफ्स अपने इस गुप्त पंथ की औरतों को नियंत्रित करता था.

अब, एलिसा वॉल ने लिज़ा पुलिट्ज़र के साथ मिलकर अपनी ताज़ा किताब स्टोलन इन्नोसेन्स: माय स्टोरी ऑफ ग्रोइंग अप इन अ पॉलीगेमस सेक्ट, बिकमिंग अ टीन एज ब्राइड, एण्ड ब्रेकिंग फ्री ऑफ वारेन जेफ्स में एक करीब-करीब अविश्वसनीय लेकिन प्रेरक वृत्तांत के माध्यम से यह बताया है कि कैसे वह फण्डामेंटलिस्ट चर्च ऑफ लेटर डे सेंट्स (FLDS) के चंगुल से मुक्त हो सकी और कैसे अमरीका के सर्वाधिक कुख्यात अपराधियों में से एक, वारेन जेफ्स, को सज़ा दिलवा सकी. एफ एल डी एस की भीतरी ज़िन्दगी को एक बालिका की मासूम नज़रों से देखते-परखते हुए एलिसा अपनी ऊबड-खाबड युवावस्था का मार्मिक वर्णन तो करती ही है, अतीत में जाकर यह भी बताती है कि कैसे उसके परिवार का अशांत अतीत उसके दृढ निश्चय से टकराया और यह तै कर लिया गया कि उस जैसी ‘ज़िद्दी’ लडकी को केवल शादी के ज़रिये ही नियंत्रित किया जा सकता है. यह सब बयान करते हुए एलिसा यह भी बताती है कि जेफ्स का चर्च यानि अपने पंथ पर कितना गहरा असर था और कैसे उसने अपने इस असर का दुरुपयोग करके चर्च के पहले से कट्टर विचारों को नई खतरनाक दिशाओं में मोड दिया.

एलिसा अपनी शादी के माहौल का बडा सजीव चित्रण करती है कि कैसे उसकी मां लगभग ज़बर्दस्ती उससे इस शादी के लिए हां भरवाती है. और शादी? 14 साल की एलिसा विवाह के शारीरिक पक्ष से नितांत अपरिचित, लेकिन पति के लिए जैसे वही सब कुछ! उसका बचपन जैसे चूर-चूर हो जाता है क्योंकि उसे जेफ्स के निर्देशानुसार अपने पति को ‘तन, मन और आत्मा के साथ’ पूरी तरह समर्पित होना ही है. उसके पास न तो पैसा है और न बाहरी दुनिया की कोई समझ और जानकारी, सो इस यातना भरी क़ैद से कोई निज़ात भी नहीं है. प्रेम विहीन रिश्ते की सारी यातना झेलते-झेलते. हालात इतने बिगडते हैं कि उसे अपने उप्तीडक पति की शैया संगिनी बनने की बजाय खुले में ट्रक में रात बिताना अधिक सुखद लगता है.

लेकिन उन स्याह दिनों में भी उसके मन में इस उम्मीद की एक लौ झिलमिलाती रहती है कि कभी तो उसे इस यातना गृह से मुक्ति मिलेगी. और ऐसा होता भी है. अचानक एक अजनबी लामोण्ट बार्लो उसकी ज़िन्दगी में आता है. परिचय दोस्ती में बदलता है, दोस्ती रोमांस में ढलती है और यह रिश्ता उसे अंतत: अपने त्रासद अतीत और चर्च की जंजीरों से आज़ाद होने की ताकत देता है. किताब में एलिसा उस कठिन समय का मार्मिक वर्णन करती है जब वह अपने पंथ से बाहर निकल कर जेफ्स के विरुद्ध इसलिए आवाज़ बुलन्द करती है कि जो लडकियां अभी भी चर्च की जंजीरों में क़ैद हैं उन्हें भी यातनाओं से मुक्ति मिल सके.

किताब सत्य और तथ्य पर आधारित है लेकिन लेखिका का अन्दाज़े-बयां और घटनाक्रम की रोमांचक विलक्षणता इसे उपन्यास की–सी रोचकता प्रदान करते हैं. एलिसा के बचपन की स्मृतियां, जहां वह अपनी तीन माताओं के साथ रहती है, और उन तीनों औरतों की आपसी ईर्ष्याएं और शत्रुताएं! और इन्हीं के बीच से उभरता है एलिसा की अपनी मां शेरॉन स्टीड का चरित्र, जिसके लिए महाकवि निराला की पंक्ति याद आती है, “दुख ही जीवन की कथा रही”. कभी सौत के लिए उसे घर से निकाला जाता है तो कभी उसके लिए सौत को. लेकिन सारी टूट-फूट के बीच भी अपने पंथ में उसकी आस्था अडिग रहती है. हालांकि एलिसा के बडे भाई-बहनों का एक-एक कर इन आस्थाओं से मोह-भंग होता रहता है और वे परिवार से अपने रिश्ते तोडते जाते हैं. इन सबका गहरा असर एलिसा के कच्चे मन पर पडता है, और खुद शेरॉन पर भी. अंतत: शेरॉन भी परिवार के माहौल से टूट-बिखर कर फ्रेड जेसोप की तरफ झुकती है और फिर उससे शादी कर लेती है. बाद में, यही अंकल फ्रेड एलिसा की शादी उसके चचेरे भाई एलेन स्टीड से कराने का ज़िम्मेदार सिद्ध होता है.

निश्चय ही एलिसा के जीवन की यह त्रासद कथा उसके अपने परिवेश की निर्मिति है. लेकिन, उसकी यह करुण कथा परिवार, शिक्षा, आस्थाओं, धार्मिक पंथों और उनके मुखियाओं के बारे में बडे तथा महत्वपूर्ण सवाल उठाती है. आस्था लोगों को किस हद तक अंधा कर देती है, यह तब ज़ाहिर होता है जब मां एलिसा से कहती है कि अपने धर्म से लडने से तो अच्छा था कि तुम मर गई होती!

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Discussed book:
Stolen Innocence: My Story of Growing Up in a Polygamous Sect, Becoming a Teenage Bride,and Breaking Free of Warren Jeffs
By Elissa Wall and Lisa Pulitzer
Published by: William Morrow
Hardcover, 448 pages
US $ 25.95

राजस्थान पत्रिका के नगर परिशिष्ट जस्ट जयपुर में मेरे साप्ताहिक कॉलम वर्ल्ड ऑफ बुक्स के अंतर्गत 05 जून 2008 को प्रकाशित.








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Sunday, June 1, 2008

तो फिर भगवान ही मालिक है....


राजस्थान में पिछले लगभग एक सप्ताह से एक बडे आन्दोलन की वजह से जन-जीवन बुरी तरह दुष्प्रभावित है. जन-धन की अपार हानि हुई है और लोगों को भयंकर असुविधाओं का सामना करना पड रहा है. राज्य के आधे ज़िलों में इस आन्दोलन का असर है. आन्दोलन राजस्थान की सीमाओं को पार कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को भी अपनी लपटों से झुलसा चुका है. जिन मांगों को लेकर यह आन्दोलन हुआ है, उन्हीं मांगों को लेकर ठीक एक बरस पहले भी ऐसा ही आन्दोलन हुआ था. यहां हम इस आन्दोलन के पीछे की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं करना चाहते. वह अलग से चर्चा और बहस का विषय है. महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह है कि एक स्वस्थ प्रजातंत्र में क्या इस तरह के आन्दोलन की कोई जगह होनी चाहिए? मेरा ज़ोर इस तरह पर है. इस तरह का, यानि जिसमें हिंसा हो, गोलियां चलें, बसों के शीशे तोडे जाएं, चलती गाडियों पर पथराव किए जाएं, रेलों की पटरियां उखाडी जाएं, सम्पत्ति का -चाहे निजी हो या सार्वजनिक- नुकसान किया जाए, लोगों को अपने काम पर जाने से रोका जाए, रास्ते रोके जाएं, रेलों बसों का संचालन बन्द करना पडे, सैंकडों हज़ारों लोगों को रोजी रोटी से महरूम रहना पडे, आदि. और यह सब इसलिए कि समाज का एक वर्ग सरकार से कुछ चाहे और सरकार वह न देना चाहे या न दे सकती हो. अगर यह उचित है और यही होना है तो फिर मैं यह जानना चाहूंगा कि यह एक सभ्य समाज है या जंगल की दुनिया? ऐसी दुनिया, जिसमें बाहुबल ही सब कुछ है! समाज का एक वर्ग अपनी ताकत के बल पर यह ज़िद ठान ले कि जो उसे चाहिए वह लेकर रहेगा. अगर एक साथ कई वर्ग ऐसा करने लगें तो? कल्पना करके ही डर लगने लगता है. वैसे, इसी आन्दोलन वाली मांग के सन्दर्भ में हम इस भयावह स्थिति के कगार पर जाकर पिछले ही साल लौटे हैं. अब भी पता नहीं कि वैसा खतरा हमसे कितनी दूर है!
लेकिन, जैसा मैंने अभी कहा मैं यहां इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं कर रहा. इसलिए नहीं कि उस पर मेरे कोई विचार नहीं हैं. बल्कि इसलिए कि मैं उससे पहले एक आधारभूत मुद्दे पर बात करना चाहता हूं.
सोचिए, एक वर्ग अपनी कोई मांग सरकार के सामने रखता है और कहता है कि आप इस मांग पर विचार कर इसे अमुक तारीख तक पूरा कीजिए. वह वर्ग सरकार को पर्याप्त समय देता है कि सरकार उस मांग को पूरा करने की दिशा में कुछ करे, अगर मांग पूरा करना किसी भी कारण सम्भव न हो, या तुरंत पूरा करना सम्भव न हो, सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर हो, तो भी इस समय में सरकार उस पक्ष से बात तो कर ही सकती है. लेकिन सरकार कुछ नहीं करती. मुहावरे की भाषा में कहें तो सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. न केवल इतना, वह वर्ग एक बडे आन्दोलन की तैयारी करता रहता है और सरकार के आंख कान ज़रा भी हरकत में नहीं आते. यानि अपनी इण्टेलीजेंस से भी सरकार को उस वर्ग के आन्दोलन की भीषण तैयारियों की कोई सूचना नहीं मिलती. और आन्दोलन शुरू हो जाता है. तब भी सरकार आन्दोलनकारियों से कोई सम्वाद नहीं करती. आखिर सरकार तो सरकार होती है ना! वह भला कैसे ऐसे वैसों से बात कर सकती है? लेकिन जब पानी हद से गुज़रने लगता है तो सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. लेकिन तब तक आन्दोलनकारी ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके होते हैं कि वहां से उनके लिए पीछे हटना मुमकिन नहीं रह जाता...
सवाल यह है कि क्या प्रजातंत्र में ऐसा होना चाहिए? क्या जनता की बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? मैं केवल सुनने की बात कर रहा हूं, न कि मांग पूरी करने की. हम जानते हैं कि प्रारम्भिक स्तर पर बहुत सारी समस्याएं संवाद से ही सुलझ जाती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कोई मामूली चोट लगे तो छोटा-मोटा प्राथमिक उपचार ही काफी होता है, लेकिन जब उस चोट की उपेक्षा की जाती है तो चोट को घाव में और घाव को नासूर में तब्दील होते वक़्त नहीं लगता. तो, सरकार अपनी प्रजा से बात न करे यह बहुत बडी गडबड है. यहां यह बात भी सामने आएगी कि जनता की सरकार से इतनी अधिक अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करना तो दूर, सुनना भी सम्भव नहीं होता. और यहीं यह बात भी सामने आएगी, कि ऐसा तभी होता है जब सरकार चन्द लोगों तक सिमट कर रह जाए. सरकार का मतलब केवल मुख्य मंत्री या मंत्री मण्डल ही नहीं होता, विधायक भी सरकार है, पार्षद भी सरकार है, हर जन प्रतिनिधि सरकार है. आखिर जनता और सरकार के बीच इतनी दूरी क्यों हो? दूरी केवल चुनाव के वक़्त पाटी जाए और फिर सरकार अपने महलों में घुस कर ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लटका दे, तो ऐसा ही होगा. जिन्हें जनता ने चुना है वे जनता से संवाद भी न कर सकें, तो यह माना जाना चाहिए वे सही जन प्रतिनिधि नहीं हैं. और यह भी कि जनता ने अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती की है. गलती की है तो सज़ा भी भुगतनी ही पडेगी. और वही सज़ा आज हम सब भुगत रहे हैं. वरना यह तो नहीं होना था न कि जनता एक तरफ, यानि जनता का एक बडा हिस्सा, और सरकार दूसरी तरफ. मैं फिर कह रहा हूं कि इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर मैं यहां कोई टिप्पणी नहीं कर रहा. लेकिन अगर दस बीस पचास हज़ार लोग भी कोई मांग रख रहे हैं तो ऐसा कैसे कि उनके प्रतिनिधि न तो उस मांग से सहमत हैं और न वे अपने उन मतदाताओं को समझा पा रहे हैं कि तुम्हारी मांग गलत है! आप किसी भी आन्दोलन को याद कर लीजिए, जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सदा ही कोई स्टैंड लेने से कतराते हैं. इसलिए कि वे अपने मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते. न केवल इतना, वे चुनाव के वक़्त या कि किसी भी आन्दोलन के वक़्त, अगर वह उनके प्रतिपक्षी द्वारा चलाया जा रहा हो, किसी भी हद तक जाकर अव्यावहारिक वादे करने से नहीं चूकते.

दूसरी बात, सरकार की ताकत की. एक वर्ग या समूह आन्दोलन की चेतावनी देता है, उसकी तैयारी करता है. सरकार उसे रोक पाने में कतई समर्थ नहीं रहती. पहले तो उसे पता ही नहीं चलता और फिर उस आन्दोलन को कुचलना उचित या सम्भव नहीं रह जाता. क्या यह क्षम्य है? इस आन्दोलन में जो जन-धन की हानि हुई है, रेलों की पटरियां उखाडी गई हैं, सम्पत्ति का नाश किया गया है, मानवीय दिवसों का नुकसान किया गया है, उस सब का नुकसान किसे उठाना पडेगा? आपको और मुझे! हम क्यों उठायें यह नुकसान? करे कोई भरे कोई! क्या इसकी जवाबदेही नही तै होनी चाहिए?
यह सब कहते हुए मैंने एक बात अब तक नहीं कही है. जब मैं प्रजातंत्र की बात करता हूं तो प्रजा के तंत्र की बात करता हूं. एक ऐसा तंत्र जिसमें हम सब एक बडे तंत्र के हिस्से हैं. क्या हमने, यानि इस देश के आम नागरिक ने अपनी कोई ज़िम्मेदारी समझी है? एक पूरे प्रांत में आन्दोलन करने वाले लोग कितने हैं और वे कितने जो उस आन्दोलन से असहमत या अलग हैं? अगर प्रतिशत में बात करें तो शायद 5 और 95 होंगे. या इससे कुछ कम ज़्यादा. तो, बडा हिस्सा तो उनका है जो इस सारी तोड फोड से सहमत नहीं है. वह बडा हिस्सा क्या कर रहा है? एक वर्ग ‘बन्द’ की घोषणा करता है, सारे लोग चुपचाप बन्द कर देते हैं, यह कहते हुए कि ‘कौन झगडा मोल ले?’ शायद सरकार भी यही सोचती है. शायद नहीं, निश्चित रूप से. जो वर्ग मांग कर रहा है, उसे मना करके क्यों नाराज़ किया जाए? चलो गेंद केन्द्र के पाले में फेंक देते हैं. वैसे मांग पूरी कर भी देते, अगर दूसरे वर्ग की नाराज़गी का डर नहीं होता. अपनी जेब से क्या जा रहा है? बडे ‘पैकेज’ यही सोच कर तो घोषित किए जाते हैं. उनकी जेब से कुछ नहीं जा रहा, लेकिन जिनकी जेब से जा रहा है वह भी तो चुप है. यानि आप और हम.

हालात बहुत गंभीर हैं. आप जितना सोचते हैं उतने ही भयाक्रांत होते हैं. कभी शिव मंगल सिंह सुमन ने लिखा था, ‘मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला.’ जो मेरे प्रांत राजस्थान में हो रहा है कमोबेश वही अन्य प्रांतों में, पूरे देश में हो रहा है. लेकिन, सोचिए, बुझाने वाला क्या किसी और लोक से आएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस निष्क्रिय उदासीनता के मूल में यह उम्मीद छिपी है कि ‘यदा यदा ही धर्मस्य...’. जब भी द्रौपदी पर संकट आएगा, भगवान उसकी मदद को हाज़िर हो जाएंगे.... यह कि हमारी मदद करने आसमां से फरिश्ते उतर कर आयेंगे. हमें कुछ करने की क्या ज़रूरत है? अगर ऐसा है तो फिर भगवान ही मालिक है!
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तो फिर भगवान ही मालिक है....

राजस्थान में पिछले लगभग एक सप्ताह से एक बडे आन्दोलन की वजह से जन-जीवन बुरी तरह दुष्प्रभावित है. जन-धन की अपार हानि हुई है और लोगों को भयंकर असुविधाओं का सामना करना पड रहा है. राज्य के आधे ज़िलों में इस आन्दोलन का असर है. आन्दोलन राजस्थान की सीमाओं को पार कर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को भी अपनी लपटों से झुलसा चुका है. जिन मांगों को लेकर यह आन्दोलन हुआ है, उन्हीं मांगों को लेकर ठीक एक बरस पहले भी ऐसा ही आन्दोलन हुआ था. यहां हम इस आन्दोलन के पीछे की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं करना चाहते. वह अलग से चर्चा और बहस का विषय है. महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह है कि एक स्वस्थ प्रजातंत्र में क्या इस तरह के आन्दोलन की कोई जगह होनी चाहिए? मेरा ज़ोर इस तरह पर है. इस तरह का, यानि जिसमें हिंसा हो, गोलियां चलें, बसों के शीशे तोडे जाएं, चलती गाडियों पर पथराव किए जाएं, रेलों की पटरियां उखाडी जाएं, सम्पत्ति का -चाहे निजी हो या सार्वजनिक- नुकसान किया जाए, लोगों को अपने काम पर जाने से रोका जाए, रास्ते रोके जाएं, रेलों बसों का संचालन बन्द करना पडे, सैंकडों हज़ारों लोगों को रोजी रोटी से महरूम रहना पडे, आदि. और यह सब इसलिए कि समाज का एक वर्ग सरकार से कुछ चाहे और सरकार वह न देना चाहे या न दे सकती हो. अगर यह उचित है और यही होना है तो फिर मैं यह जानना चाहूंगा कि यह एक सभ्य समाज है या जंगल की दुनिया? ऐसी दुनिया, जिसमें बाहुबल ही सब कुछ है! समाज का एक वर्ग अपनी ताकत के बल पर यह ज़िद ठान ले कि जो उसे चाहिए वह लेकर रहेगा. अगर एक साथ कई वर्ग ऐसा करने लगें तो? कल्पना करके ही डर लगने लगता है. वैसे, इसी आन्दोलन वाली मांग के सन्दर्भ में हम इस भयावह स्थिति के कगार पर जाकर पिछले ही साल लौटे हैं. अब भी पता नहीं कि वैसा खतरा हमसे कितनी दूर है!
लेकिन, जैसा मैंने अभी कहा मैं यहां इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर कोई चर्चा नहीं कर रहा. इसलिए नहीं कि उस पर मेरे कोई विचार नहीं हैं. बल्कि इसलिए कि मैं उससे पहले एक आधारभूत मुद्दे पर बात करना चाहता हूं.
सोचिए, एक वर्ग अपनी कोई मांग सरकार के सामने रखता है और कहता है कि आप इस मांग पर विचार कर इसे अमुक तारीख तक पूरा कीजिए. वह वर्ग सरकार को पर्याप्त समय देता है कि सरकार उस मांग को पूरा करने की दिशा में कुछ करे, अगर मांग पूरा करना किसी भी कारण सम्भव न हो, या तुरंत पूरा करना सम्भव न हो, सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर हो, तो भी इस समय में सरकार उस पक्ष से बात तो कर ही सकती है. लेकिन सरकार कुछ नहीं करती. मुहावरे की भाषा में कहें तो सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. न केवल इतना, वह वर्ग एक बडे आन्दोलन की तैयारी करता रहता है और सरकार के आंख कान ज़रा भी हरकत में नहीं आते. यानि अपनी इण्टेलीजेंस से भी सरकार को उस वर्ग के आन्दोलन की भीषण तैयारियों की कोई सूचना नहीं मिलती. और आन्दोलन शुरू हो जाता है. तब भी सरकार आन्दोलनकारियों से कोई सम्वाद नहीं करती. आखिर सरकार तो सरकार होती है ना! वह भला कैसे ऐसे वैसों से बात कर सकती है? लेकिन जब पानी हद से गुज़रने लगता है तो सरकार के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. लेकिन तब तक आन्दोलनकारी ऐसे मुकाम पर पहुंच चुके होते हैं कि वहां से उनके लिए पीछे हटना मुमकिन नहीं रह जाता...
सवाल यह है कि क्या प्रजातंत्र में ऐसा होना चाहिए? क्या जनता की बात सरकार को नहीं सुननी चाहिए? मैं केवल सुनने की बात कर रहा हूं, न कि मांग पूरी करने की. हम जानते हैं कि प्रारम्भिक स्तर पर बहुत सारी समस्याएं संवाद से ही सुलझ जाती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कोई मामूली चोट लगे तो छोटा-मोटा प्राथमिक उपचार ही काफी होता है, लेकिन जब उस चोट की उपेक्षा की जाती है तो चोट को घाव में और घाव को नासूर में तब्दील होते वक़्त नहीं लगता. तो, सरकार अपनी प्रजा से बात न करे यह बहुत बडी गडबड है. यहां यह बात भी सामने आएगी कि जनता की सरकार से इतनी अधिक अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करना तो दूर, सुनना भी सम्भव नहीं होता. और यहीं यह बात भी सामने आएगी, कि ऐसा तभी होता है जब सरकार चन्द लोगों तक सिमट कर रह जाए. सरकार का मतलब केवल मुख्य मंत्री या मंत्री मण्डल ही नहीं होता, विधायक भी सरकार है, पार्षद भी सरकार है, हर जन प्रतिनिधि सरकार है. आखिर जनता और सरकार के बीच इतनी दूरी क्यों हो? दूरी केवल चुनाव के वक़्त पाटी जाए और फिर सरकार अपने महलों में घुस कर ‘प्रवेश निषेध’ का बोर्ड लटका दे, तो ऐसा ही होगा. जिन्हें जनता ने चुना है वे जनता से संवाद भी न कर सकें, तो यह माना जाना चाहिए वे सही जन प्रतिनिधि नहीं हैं. और यह भी कि जनता ने अपने प्रतिनिधि चुनने में गलती की है. गलती की है तो सज़ा भी भुगतनी ही पडेगी. और वही सज़ा आज हम सब भुगत रहे हैं. वरना यह तो नहीं होना था न कि जनता एक तरफ, यानि जनता का एक बडा हिस्सा, और सरकार दूसरी तरफ. मैं फिर कह रहा हूं कि इस आन्दोलन की मांगों के औचित्य पर मैं यहां कोई टिप्पणी नहीं कर रहा. लेकिन अगर दस बीस पचास हज़ार लोग भी कोई मांग रख रहे हैं तो ऐसा कैसे कि उनके प्रतिनिधि न तो उस मांग से सहमत हैं और न वे अपने उन मतदाताओं को समझा पा रहे हैं कि तुम्हारी मांग गलत है! आप किसी भी आन्दोलन को याद कर लीजिए, जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सदा ही कोई स्टैंड लेने से कतराते हैं. इसलिए कि वे अपने मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहते. न केवल इतना, वे चुनाव के वक़्त या कि किसी भी आन्दोलन के वक़्त, अगर वह उनके प्रतिपक्षी द्वारा चलाया जा रहा हो, किसी भी हद तक जाकर अव्यावहारिक वादे करने से नहीं चूकते.

दूसरी बात, सरकार की ताकत की. एक वर्ग या समूह आन्दोलन की चेतावनी देता है, उसकी तैयारी करता है. सरकार उसे रोक पाने में कतई समर्थ नहीं रहती. पहले तो उसे पता ही नहीं चलता और फिर उस आन्दोलन को कुचलना उचित या सम्भव नहीं रह जाता. क्या यह क्षम्य है? इस आन्दोलन में जो जन-धन की हानि हुई है, रेलों की पटरियां उखाडी गई हैं, सम्पत्ति का नाश किया गया है, मानवीय दिवसों का नुकसान किया गया है, उस सब का नुकसान किसे उठाना पडेगा? आपको और मुझे! हम क्यों उठायें यह नुकसान? करे कोई भरे कोई! क्या इसकी जवाबदेही नही तै होनी चाहिए?
यह सब कहते हुए मैंने एक बात अब तक नहीं कही है. जब मैं प्रजातंत्र की बात करता हूं तो प्रजा के तंत्र की बात करता हूं. एक ऐसा तंत्र जिसमें हम सब एक बडे तंत्र के हिस्से हैं. क्या हमने, यानि इस देश के आम नागरिक ने अपनी कोई ज़िम्मेदारी समझी है? एक पूरे प्रांत में आन्दोलन करने वाले लोग कितने हैं और वे कितने जो उस आन्दोलन से असहमत या अलग हैं? अगर प्रतिशत में बात करें तो शायद 5 और 95 होंगे. या इससे कुछ कम ज़्यादा. तो, बडा हिस्सा तो उनका है जो इस सारी तोड फोड से सहमत नहीं है. वह बडा हिस्सा क्या कर रहा है? एक वर्ग ‘बन्द’ की घोषणा करता है, सारे लोग चुपचाप बन्द कर देते हैं, यह कहते हुए कि ‘कौन झगडा मोल ले?’ शायद सरकार भी यही सोचती है. शायद नहीं, निश्चित रूप से. जो वर्ग मांग कर रहा है, उसे मना करके क्यों नाराज़ किया जाए? चलो गेंद केन्द्र के पाले में फेंक देते हैं. वैसे मांग पूरी कर भी देते, अगर दूसरे वर्ग की नाराज़गी का डर नहीं होता. अपनी जेब से क्या जा रहा है? बडे ‘पैकेज’ यही सोच कर तो घोषित किए जाते हैं. उनकी जेब से कुछ नहीं जा रहा, लेकिन जिनकी जेब से जा रहा है वह भी तो चुप है. यानि आप और हम.

हालात बहुत गंभीर हैं. आप जितना सोचते हैं उतने ही भयाक्रांत होते हैं. कभी शिव मंगल सिंह सुमन ने लिखा था, ‘मेरा देश जल रहा कोई नहीं बुझाने वाला.’ जो मेरे प्रांत राजस्थान में हो रहा है कमोबेश वही अन्य प्रांतों में, पूरे देश में हो रहा है. लेकिन, सोचिए, बुझाने वाला क्या किसी और लोक से आएगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस निष्क्रिय उदासीनता के मूल में यह उम्मीद छिपी है कि ‘यदा यदा ही धर्मस्य...’. जब भी द्रौपदी पर संकट आएगा, भगवान उसकी मदद को हाज़िर हो जाएंगे.... यह कि हमारी मदद करने आसमां से फरिश्ते उतर कर आयेंगे. हमें कुछ करने की क्या ज़रूरत है? अगर ऐसा है तो फिर भगवान ही मालिक है!
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