Tuesday, December 18, 2018

पुणे वालों ने समझ लिया है कि जल है तो कल है


हमें जो सहजता से सुलभ होता रहता है हम उसकी महत्ता से अनजान रहते हैं. हम शायद कभी यह सोचते भी नहीं हैं कि अगर कल को इस सुलभता पर कोई संकट आ गया तो हमारा हश्र क्या होगा. इससे और ज़्यादा ख़तरनाक बत यह है कि अपनी आश्वस्तियों के चलते हम ख़तरों की आहटों, बल्कि चेतावनियों तक को अनसुना करते जाते हैं. अब यही बात देखिये ना कि भारत के नीति आयोग द्वारा ज़ारी की गई कम्पोज़िट वॉटर  मैनेजमेण्ट  इंडेक्स में दो टूक शब्दों में कहा गया है कि भारत तेज़ी से भयंकर जल संकट की तरफ़ बढ़ रहा है. इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2030 के आते-आते आधा भारत पेयजल के लिए तरसने लगेगा. इससे भी ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि सन 2020 तक भारत के इक्कीस बड़े शहरों में, जिनमें दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद और चेन्नई जैसे महानगर भी शामिल हैं, भूजल ख़त्म हो चुका होगा. और वैसे हालात तो अभी भी कोई ख़ास अच्छे  नहीं हैं. हर बरस कोई दो लाख लोग सुरक्षित पेय जल के अभाव में दम तोड़ देते हैं. लेकिन हम हैं कि इन सारी बातों की अनदेखी कर बड़ी निर्ममता से पानी को बर्बाद करते रहते हैं. हमें जैसे कल की कोई फिक्र नहीं है.

लेकिन इसी दुखी करने वाले परिदृश्य  के बीच महाराष्ट्र के पुणे शहर से जो खबर आई  है वह अंधेरे में प्रकाश की किरण की मानिंद आह्लदित  कर देने वाली है. ख़बर यह है कि पुणे के बहुत सारे रेस्तराओं ने अपने ग्राहकों को पानी के आधे भरे हुए गिलास देना शुरु कर दिया है, और वह भी मांगने पर. हां, ज़रूरत होने पर ग्राहक और पानी मांग सकता है और वह उसे दिया भी जाता है. न केवल इतना, ग्राहक गिलासों में जो पानी छोड़ देते हैं उसे भी रिसाइकल करके पौधों को सींचने या सफाई के काम में इस्तेमाल कर लिया जाता है. पुणे के रेस्टोरेण्ट एण्ड होटलियर्स असोसिएशन के अध्यक्ष गणेश शेट्टी बताते हैं कि अकेले उनके कलिंगा नामक रेस्तरां में हर रोज़ करीब आठ सौ ग्राहक आते हैं और उन्हें आधा गिलास पानी देकर वे रोज़ आठ सौ लिटर पानी बचाते हैं. पुणे के ही एक अन्य रेस्तरां के मालिक ने अपने यहां लम्बे गिलासों की बजाय छोटे गिलास रखकर पानी बचाने के  अभियान में सहयोग दिया है. बहुत सारे होटल वालों ने अपने शौचालयों को इस तरह से बनवाया है कि उनमें पानी की खपत पहले से कम होती है. अनेक प्रतिष्ठानों ने वॉटर  हार्वेस्टिंग प्लाण्ट लगवा लिये हैं और अपने कर्मचारियों को कम पानी इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित कराया है. गणेश शेट्टी की इस बात  को सबने अपना मूल  मंत्र बना लिया है कि पानी की एक एक बूंद कीमती है और अगर हमें अपने भविष्य को बचाना है तो अभी से सक्रिय होना होगा.

मुम्बई के पास स्थित पुणे के निवासियों ने कोई दो बरस पहले पहली दफा जल संकट की आहटें सुनी थी. तब फरवरी और मार्च के महीनों में वहां जल आपूर्ति आधी कर दी गई थी, और एक दिन छोड़कर पानी सप्लाई किया जाता था. तभी सरकार की तरफ से जल के उपयोग-दुरुपयोग के बारे में कड़े निर्देश ज़ारी कर दिये गए थे और लोगों को सलाह दी गई थी कि वे अपनी अतिरिक्त जल  ज़रूरतों के लिए बोरवेल भी खुदवाएं. इन दो महीनों के लिए शहर में तमाम निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी गई थी, और कार गैरेज वालों को कहा गया था कि वे केवल जल रहित यानि सूखी सर्विसिंग करें. होटलों के स्विमिंग पूल बंद कर दिये गए, वहां होने वाले लोकप्रिय रेन वॉटर आयोजनों को प्रतिबंधित कर दिया गया और यहां तक हुआ कि होली पर भी पानी का इस्तेमाल नहीं किया गया. इस तरह पानी के हर दुरुपयोग को रोकने की कोशिश की गई और जिसने भी निषेधों का उल्लंघन किया उसे भारी जुर्माना भरना पड़ा. फिर अक्टोबर से स्थायी रूप से पानी की दस प्रतिशत कटौती लागू कर दी गई.  हालांकि पिछले बरस पुणे में ठीक ठाक बारिश  हुई थी फिर भी कुछ तो मौसम में आए बदलाव, कुछ बढ़ते शहरीकरण और कुछ पानी बर्बाद करने की हमारी ग़लत आदतों की वजह से अब फिर वहां जल संकट के गहराने की आहटें सुनाई देने लगी हैं. लग रहा है कि हालात पहले  से भी बदतर हो गए हैं, इसलिए पानी बचाने के लिए और अधिक सक्रियता ज़रूरी हो गई है. इसी क्रम में वहां के होटलों और रेस्तराओं ने यह सराहनीय क़दम उठाया है. वैसे, पुणे देश का एकमात्र ऐसा शहर नहीं है जहां जल संकट इतना सघन हुआ है. पिछले बरस शिमला से भी ऐसी ही ख़बरें आई थीं, और इन समाचारों ने भी सबका ध्यान खींचा था कि उद्यान नगरी बेंगलुरु  में भी पानी की कमी हो रही है. ऐसे में पुणे के होटल व रेस्तरां व्यवसाइयों की इस पहल का न केवल स्वागत, बल्कि अनुकरण भी किया जाना चाहिए.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 दिसम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 4, 2018

हमने ही नहीं औरों ने भी बदले हैं अपने शहरों के नाम!


यह बहुत दिलचस्प बात है कि अपनी अनेक असमानताओं के बावज़ूद आजकल भारत और ऑस्ट्रेलिया में एक बात समान देखी जा सकती है. यह समानता है नाम परिवर्तन को लेकर चल रही बहसों के मामले में. जहां हमारे अपने देश में हाल में कई शहरों के नाम बदले गए हैं और अब कई अन्य शहरों के नाम बदलने के सुझाव-प्रस्ताव सामने आ रहे हैं और इस बदलाव को लेकर लोगों के मनों में खासा उद्वेलन है, वहीं सुदूर ऑस्ट्रेलिया में भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है. इसी माह के प्रारम्भ में सिडनी की सिटी काउंसिल ने अपने शहर के एक पार्क के नाम को बदलने के प्रस्ताव को सर्व सम्मति से स्वीकृति दी है. अब तक इस पार्क को प्रिंस एल्फ्रेड पार्क  नाम से जाना जाता था, लेकिन नवम्बर 2017 में इस पार्क में कोई तीस हज़ार ऑस्ट्रेलियाई नागरिक समलिंगी विवाह (सेम सेक्स मैरिज) पर राष्ट्रीय मतदान का परिणाम जानने के लिए एकत्रित हुए थे. इसी पार्क में ऑस्ट्रेलिया का इसी मक़सद के लिए बहु चर्चित यस अभियान चला था. और जब मतदान का परिणाम अभियान चलाने वालों के पक्ष में आया (और इस कारण बाद में उस देश के कानून में बदलाव हुआ) तो पार्क में ज़बर्दस्त उत्सव मनाया गया. इसी अभियान और उत्सव की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए सिडनी के इस पार्क का नया नामकरण किया गया- इक्वलिटी ग्रीन. इस नए नाम परिवर्तन से पहले भी ऑस्ट्रेलिया में अनेक जगहों के नाम बदलने की चर्चाएं चलती रही हैं.

असल में ऑस्ट्रेलिया में एक समूह है जो इस बात पर बल देता है कि इस देश की जड़ों और इसके भविष्य को मद्देनज़र रखते हुए बहुत सारे नामों को इस तरह बदला जाना ज़रूरी है कि उनसे एक अधिक समकालीन ऑस्ट्रेलिया का बोध हो सके. इस तरह के लोगों का प्रतिनिधित्व  करने वाली ऑस्ट्रेलियाई राजधानी क्षेत्र की एक राजनीतिज्ञ बी कॉडी कैनबरा के कुछ क्षेत्रों का भी नाम बदलवाना चाहती हैं. उनका कहना है कि यहां के अनेक नाम ऐसे  हैं जो या तो बुरे लोगों के नामों पर रखे गए हैं या जिन नामों की वजह से पीड़ितों को ठेस पहुंचती है. उनका कहना है कि  ये नाम या तो इसलिए रख दिये गए कि तब बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध नहीं थीं या फिर तब बहुत सारे कामों के बारे में समाज का नज़रिया अलहदा हुआ करता था. बी कॉडी का कहना है कि नामों में बदलाव की मांग वे उन्हें मिले नागरिकों के बहुत सारे अनुरोधों के कारण कर रही हैं. इनमें से ज़्यादातर अनुरोध ऐसे लोगों के नामों से जाने जाने वाले स्थानों के बारे में हैं जिन पर आपराधिक कृत्यों में लिप्त होने के अथवा ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों पर अत्याचार करने  के आरोप हैं या फिर उनकी भूमिका युद्ध के दौरान संदिग्ध रही है. ऐसे लोगों में वे एक पूर्व गवर्नर जनरल सर विलियम स्लिम का नाम लेती हैं जिन पर 1950 में लड़कों के साथ दुराचार के आरोप लगे थे, या पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पूर्व गवर्नर का नाम लेती हैं जिन्होंने 1834 में एक नरसंहार कराया था.

लेकिन ऑस्ट्रेलिया में भी सारे लोग उनके विचारों से सहमत नहीं हैं. ऑस्ट्रेलियाई राजधानी क्षेत्र के सह-सभापति जेफ़ ब्राउन का विचार है कि नाम परिवर्तन एक अजीब और उलझन भरा काम है क्योंकि इसकी वजह से अनगिनत लोगों को अपने सम्पर्क विवरण में बदलाव करना पड़ता है और इलेक्ट्रॉनिक नक्शों और अभिलेखों में भी बहुत सारे बदलाव करने पड़ते हैं. उनका स्पष्ट मत है कि सामान्यत: सारे नाम चिर स्थाई होते हैं. लेकिन इन दो परस्पर विरोधी मतों के बावज़ूद ऑस्ट्रेलिया में कुछ नाम बदले गए हैं. सन 2016 में एक सफल अभियान के बाद क्वींसलैण्ड के एक  द्वीप का जो नाम उसके ब्रिटिश खोजकर्ता  स्ट्रेडब्रोक के नाम पर था, उसे वहां के मूल ऑस्ट्रेलियाई निवासियों के नाम पर मिंजेरबा रखा गया. वहां की स्थानीय जंदाई भाषा में इस शब्द का अर्थ होता है धूप में द्वीप. ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में वहां के मूल निवासियों को सम्मान देने के लिए सर्वाधिक नाम बदले गए हैं. ऑस्ट्रेलिया में वहां के मूल निवासियों के प्रति बढ़ती जा रही सदाशयता की एक झलक इस नाम परिवर्तन में भी देखी जा सकती है.

और जब बात नाम परिवर्तन की ही चल गई है तो यह भी याद कर लेना कम रोचक नहीं होगा कि दुनिया के जिन  बहुत सारे शहरों को आज हम जिन नामों से जानते हैं वे उनके बदले हुए नाम हैं. क्या आपको यह बात पता है कि अमरीका का जाना माना शहर न्यूयॉर्क पहले न्यू एम्सटर्डम  नाम से जाना जाता था? या वियतनाम का हो ची मिन्ह शहर 1976 तक  सैगोन नाम से जाना जाता था? या कनाडा के टोरण्टो और ओटावा शहर क्रमश: यॉर्क और बायटाउन नामों से जाने जाते थे? या नॉर्वे का ओस्लो 1925 तक क्रिस्टियनिया हुआ करता था!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ  उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 दिसम्बर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.