चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में एक ख़तरे
की घण्टी बहुत ज़ोरों से बजने लगी है. हाल
ही में इंग्लैण्ड में जारी किए गए एक सरकारी दस्तावेज़ में यह चेतावनी दी गई है कि
एक एण्टीबायोटिक प्रतिरोधी रक्त संक्रमण से लगभग दो लाख लोग प्रभावित हो सकते हैं
और उनमें से कम से कम अस्सी हज़ार लोग मौत के घाट उतर सकते हैं. इस दस्तावेज़ में यह भी चेतावनी दी गई है कि
अन्य अनेक प्रकार के प्रतिरोधी संक्रमण भी फैल सकते हैं. यानि अगर ऐसा हो गया तो
अधिकांश आधुनिक दवाइयां असुरक्षित हो जाएंगी. इस चेतावनी की भयावहता को समझने के
लिए आपको बहुत ज़्यादा चिकित्सा विज्ञान नहीं पढ़ना होगा. इतना जान लेना काफी है कि प्रभावी एण्टीबायोटिक्स के अभाव में
बहुत सामान्य शल्य क्रियाएं भी करीब-करीब नामुमकिन हो जाएंगी. कहना गैर ज़रूरी है
कि इसका कुपरिणाम होगा रोगों से लड़ने की हमारी क्षमता का करीब करीब नष्ट हो जाना
और असमय होने वाली मौतों में इज़ाफा!
और ऐसा होने की आशंका के मूल में है
एण्टीबायोटिक्स का अविवेकपूर्ण और अन्धाधुन्ध इस्तेमाल. डॉक्टरों पर तो
यह इल्ज़ाम लगाया ही जाता है कि वे बिना ज़रूरत के ही अपने मरीज़ों को एण्टाबायोटिक्स
दे देते हैं, खुद मरीज़ भी बिना जाने-समझे-बूझे एण्टीबायोटिक्स निगल लेने के दोषी हैं. एक मोटे
अनुमान के अनुसार हर साल लिखी जाने वाली एण्टीबायोटिक्स की सवा चार करोड़ पर्चियों
में से कम से कम एक करोड़ पर्चियां गैर ज़रूरी होती हैं. इस बात को यों भी समझा जा
सकता है कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो समय के साथ स्वत: ठीक हो जाते हैं, जैसे
वायरल संक्रमण या जुखाम या गला खराब हो जाना वगैरह. जुखाम के बारे में तो यह कथन
बहुत लोकप्रिय है ही कि अगर आप दवा लेंगे तो वो सात दिन में ठीक होगा और दवा न लेंगे तो भी एक
सप्ताह में ठीक हो जाएगा. लेकिन विभिन्न
कारणों से डॉक्टर या तो खुद या फिर अपने
मरीज़ के आग्रह पर इनके उपचार के लिए भी एण्टीबयोटिक्स लिख देते हैं. इस तरह
एण्टीबायोटिक्स के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से उन बैक्टीरिया में इनके विरुद्ध तीव्र
प्रतिरोध विकसित होता जा रहा है, जिनसे लड़ने के लिए इनका इस्तेमाल शुरु हुआ था.
यही है असली ख़तरा. वैसे तो इस खतरे की तरफ इशारा पेनिसिलिन के आविष्कारक सर
अलेक्ज़ेण्डर फ्लेमिंग ने 1945 में ही कर दिया था. लेकिन विवेक की बात सुनता कौन
है? तब उन्होंने कहा था कि एक समय ऐसा भी आ सकता है जब पेनिसिलिन खुले आम दवा की
दुकानों पर बिकने लगे. और आज हम वास्तव में देखते हैं कि भारत सहित बहुत सारे
देशों में आप दवा की दुकान पर बिना डॉक्टर की पर्ची के कोई भी दवा खरीद सकते हैं.
सर फ्लेमिंग ने तब कहा था कि इस बात का बड़ा खतरा है कि कोई अज्ञानी दवा की कम
मात्रा खाकर अपने भीतर के जीवाणुओं को दवा
प्रतिरोधी बना डाले. नोबल पुरस्कार स्वीकार करते हुए उन्होंने जो भाषण दिया था
उसमें उन्होंने कहा था कि प्रयोगशाला में माइक्रोब्स को उन्हें मार डालने योग्य से
कम मात्रा में पेनिसिलिन देकर उन्हें पेनिसिलिन के प्रति रेसिस्टेण्ट बनाया जा
सकता है, और ऐसा ही हमारे शरीरों में भी होता है.
और आज दुनिया उसी खतरनाक अवस्था के कगार
पर है. चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इस अवस्था को एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स यानि
एण्टीबायोटिक सर्वनाश की संज्ञा दी है. इस
सर्वनाश का असर यह होगा कि मानवता फिर से एण्टीबायोटिक्स से पहले वाले युग में
पहुंच जाएगी. इस खतरे को हाल में चीन में महसूस किया गया है जहां मरीज़ों और पशुओं
की जांच के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि एक ख़ास बैक्टीरिया पर तो एण्टीबायोटिक
कोलिस्टिन भी बेअसर है. कोलिस्टिन एक ऐसा एण्टीबायोटिक है जिसका इस्तेमाल अनेक
रोगों में अंतिम इलाज़ के रूप में किया जाता है. वहां वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया
कि पशुओं में इस दवा के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल की वजह से उनमें प्रतिरोधक
क्षमता विकसित हो गई है. चीनी वैज्ञानिकों
ने एक नए तरह का बदलाव भी लक्षित किया है. उन्होंने इसे एमसीआर-1 जीन का नाम दिया
है. यह एण्टीबायोटिक कोलिस्टिन के जरिये बैक्टीरिया को मारने से रोकता है. वहां
हुए परीक्षणों में हर पांचवें पशु, 15 प्रतिशत कच्चे मांस के नमूनों और 16 रोगियों
में यह पाया गया है.
राहत की बात यह है कि पूरी दुनिया इस खतरे
के प्रति तेज़ी से सजग होती जा रही है. अमरीका में एक नई विधि से ‘भूमिगत होटल्स’ में 25 नए सम्भावित एण्टीबायोटिक्स विकसित किए
गए हैं और उनमें से एक को बहुत आशाजनक बताया जा रहा है. ऐसे ही प्रयोग अन्यत्र भी
हो रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स का खतरा टल जाएगा!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 नवम्बर, 2015 को एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स: दुनिया में खतरे की घण्टी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.