Tuesday, April 30, 2019

छोटी छोटी बातों में छिपी हैं बड़ी बड़ी खुशियां




निदा फ़ाज़ली साहब की एक बेहद लोकप्रिय गज़ल का मतला है – दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है/ मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है. जो आपके पास होता है वह आपको बेमानी लगता है लेकिन जो नहीं होता है उसके लिए आप तरसते और तड़पते हैं. आपके पास बेपनाह दौलत हो तो भी ज़रूरी नहीं कि आप उससे संतुष्ट  और खुश हों, लेकिन जो आपके पास नहीं होता है उसका अभाव अनिवार्यत: आपको सालता है. यह बात मेरे जेह्न में आई ओकलेण्ड, कैलिफोर्निया निवासी डॉमिनिक़ अपोलन के बारे में पढ़ते हुए. पैंतालीस वर्षीय अपोलन अमरीका स्थित एक महत्वपूर्ण संगठन में रिसर्च  के वाइस प्रेसिडेण्ट हैं. ज़ाहिर है कि वे खासे सुखी सम्पन्न व्यक्ति हैं. जानते हैं उन्हें हाल में सबसे बड़ी खुशी किस बात से हासिल हुई? इतनी ज़्यादा खुशी कि उनकी आंखों से अश्रु धारा बह निकली! वह खुशी हासिल हुई उन्हें हर कहीं आसानी से और बहुत कम मूल्य पर मिल जाने वाली बैण्ड एड जैसी एक पट्टी से. उनकी उंगली पर चोट लग गई थी और जब वे उस पर चिपकाने के लिए कोई पट्टी खरीदने बाज़ार गए तो उन्हें यह अभूतपूर्व खुशी हासिल  हुई. 

सामान्यत: इस तरह की पट्टियां या तो हल्के भूरे रंग (जिन्हें हम सामान्यत: स्किन कलर कहते हैं) की होती हैं या फिर बच्चों के लिए मिलने वाली पट्टियों पर कोई कार्टून किरदार छपे होते हैं. हल्के भूरे रंग की पट्टियों के हम सब इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि इसमें किसी को कुछ भी असामान्य नहीं लगता है. लेकिन उस दिन ये डॉमिनिक़ अपोलन महाशय अपनी चोटिल उंगली पर चिपकाने के लिए पट्टी खरीदने बाज़ार गए तो चौंक पड़े. उन्हें वहां एक ऐसी पट्टी नज़र आई जो हूबहू उनकी त्वचा के रंग से मेल खाती थी. जान लीजिए कि ये डॉमिनिक़ महाशय अश्वेत हैं. उन्होंने उस पट्टी को अपनी उंगली पर चिपकाया और फिर उंगली को देखा तो लगा जैसे उन्होंने कोई पट्टी चिपका ही नहीं रखी है. पट्टी एकदम  उनकी त्वचा में घुल मिल गई थी. यह पहली दफा हुआ था, अन्यथा उनके पैंतालीस  बरस के जीवन में अनेक ऐसे मौके आए थे जब उन्होंने अपनी अश्वेत देह के किसी अंग पर हल्के भूरे रंग की  पट्टी चिपकाई थी. डॉमिनिक़ को इस बात की खुशी थी कि चलो किसी ने तो यह सोचा कि सारी दुनिया श्वेत  लोगों से ही भरी हुई नहीं है, उसमें अश्वेतों का भी कोई वुज़ूद है. अगर पहले किसी ने सोचा होता तो उसने भी अश्वेतों को ध्यान में रखकर उनकी त्वचा के रंग से मेल खाती पट्टियां बनाई होतीं. उंगली पर चिपकी पट्टी को वे बार-बार देख रहे थे और जैसे उस पट्टी के प्रति आभारी हो रहे थे कि कम से कम वह तो उनके अश्वेत होने का ढिंढोरा नहीं पीट रही है. डोमिनिक़  बेहद खुश थे, इतने खुश थे कि रो रहे थे. बाद में उन्होंने अपने भावों को शब्द बद्ध करते हुए एक ट्वीट किया:  “मैं अब तक सूर्य के पैंतालीस चक्कर लगा चुका हूं लेकिन आज अपनी ज़िन्दगी में मैंने पहली दफा यह महसूस किया है कि मेरी अपनी त्वचा के रंग वाली बैण्ड एड के क्या मानी होते हैं. एक बार  में तो यह आपको दिखाई ही नहीं देगी. मैं बहुत मुश्क़िल से अपने आंसू रोक पा रहा हूं.”  बाद में उन्होंने अपनी बात  को और स्पष्ट करते हुए कहा कि मैंने बहुत बार यह महसूस किया है कि अपनी देह पर एक पट्टी चिपकाने जैसे बेहद मामूली काम में भी आपका अश्वेत होना घोषित होता है. अपनी आज़ तक की ज़िन्दगी में तो मैं अपनी देह पर वे ही पट्टियां चिपकाता रहा हूं जो हल्के रंग की चमड़ी वालों यानि गोरों  के लिए निर्मित की जाती हैं. आज पहली दफा मैं एक ऐसी पट्टी का प्रयोग कर रहा हूं जो मुझ जैसों के लिए बनाई गई है. 

दरसल डॉमिनिक़ की यह खुशी केवल इतनी-सी बात की नहीं है कि उन्हें अपनी त्वचा के रंग से मेल खाती पट्टी मिल गई. इस खुशी के मूल में यह बात है कि आखिर किसी ने तो उन और उन जैसे  लाखों-करोड़ों  लोगों के बारे में सोचा जिन्हें उनकी चमड़ी के रंग  की वजह से उपेक्षित और अपमानित किया जाता रहा है. डॉमिनिक़ अपोलन के उपरोक्त ट्वीट के बाद यह मुद्दा खूब चर्चा में आ गया है. बहुत स्वाभाविक है कि जिस कम्पनी ने पट्टी के रंग में बदलाव कर डोमिनिक़ और उन जैसे अनगिनत अश्वेतों को आह्लादित  किया है वह अपनी इस पहल पर गर्वित है. उसने एक ट्वीट कर कहा है कि अब वह और भी अनेक रंगों की पट्टियों का उत्पादन करने के बारे में विचार कर रही है. कम्पनी ने कहा है कि हमारी चमड़ी के रंगों की विभिन्नता ही हमारा सौन्दर्य है और हमें इस पर गर्व है. बहुत सारे अश्वेतों  ने भी अपोलन का शुक्रिया अदा किया है कि उसने उन सबकी भावनाओं को वाणी दी है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 30 अप्रैल, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 23, 2019

हांग कांग: एक शहर जो सिर्फ़ अमीरों के लिए है

जब भी दुनिया में वैभव, विलासिता और चमक दमक की बात होती है, हांग कांग का नाम ज़रूर आता है. हांग कांग लगभग 200 छोटे-बड़े द्वीपों का समूह है और इसका शाब्दिक अर्थ है सुगंधित बंदरगाह. माना जाता है कि यहीं पूर्व और पश्चिम का मेल होता है. सन 1997 में इंग्लैंड ने हांगकांग की संप्रभुता कई शर्तों के साथ चीन को वापस सौंपी, जिसमे प्रमुख शर्त थी हांगकांग की पूँजीवादी व्यवस्था को बनाए रखना.  चीन ने भी रक्षा व विदेश छोड़कर हांग कांग की प्रशासकीय व्यवस्था में हस्तक्षेप न करने का व पूँजीवादी व्यवस्था को आगामी पचास वर्षों तक न छेड़ने का आश्वासन दिया. चीन ने हांग कांग को एक विशिष्ट प्रशासकीय क्षेत्र घोषित कर 'एक देश दो प्रणाली' का फार्मूला अपनाया. देश के मुख्य भाग में साम्यवाद और इस विशिष्ट भाग में पूँजीवाद. अब स्थिति यह  है कि पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा अमीरों का  जमावड़ा यहीं है.  और जब हम अमीरों की बात कर रहे हैं तो आम अमीरों की नहीं, ऐसे अमीरों की बात कर रहे हैं जिनमें से हरेक की औकात तीस मिलियन डॉलर से ज़्यादा की है. यहां हर सात में से एक आदमी करोड़पति (मिलिनेयर) है और 93 व्यक्ति अरबपति (बिलिनेयर) हैं. यह एक ऐसा महानगर है जहां अकूत वैभव है. टैक्स दर बहुत कम है, कॉर्पोरेट टैक्स लगभग नगण्य़ है और नागरिकों को कोई जीएसटी नहीं चुकाना पड़ता है. गगनचुम्बी अट्टालिकाओं की भरमार है और अपराध न्यूनतम हैं.  हांग कांग में अगर कोई एक बहुत सामान्य तीन बेडरूम वाला अपार्टमेण्ट भी खरीदना चाहे तो उसे कम से कम दस मिलियन डॉलर खर्च करने के लिए तैयार रहना होगा. यह राशि भारतीय मुद्रा में सत्तर करोड़ के आसपास बैठती है. 

लेकिन जहां इतनी अमीरी है वहीं इस चकाचौंध कर देने वाली चमचमाहट  तले गहरा काला घना अन्धेरा भी है जो इस चौंध को अश्लील और असहनीय बनाता है. हांग कांग के खूब चकाचक घरों और दुनिया भर के महंगे से महंगे साजो-सामान से लबालब भरे शॉपिंग डिस्ट्रिक्ट्स से सटा हुआ ही है वह उपनगर जिसकी  संकड़ी गलियां अवैध निर्मित मकानों और टुकड़ा टुकड़ा बंटे फ्लैट्स से भरी पड़ी हैं. इसी वैभवपूर्ण हांग कांग के हर पांच में से एक बच्चा आज भी उस शिक्षा का मोहताज़ है जो उसके लिए बेहतर ज़िन्दगी के दरवाज़े खोल सकती है. हांग कांग सरकार की सदा ही इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि उसकी नीतियां अमीरों की तरफ बहुत ज़्यादा झुकी हुई हैं और हालांकि उसके पास साधनों की कोई कमी नहीं है वह ग़रीबों की तरफ देखती भी  नहीं है. 

हालत यह है कि हांग कांग की तीस फीसदी आबादी सार्वजनिक रिहायश में रहती है और जितने लोग वहां रह पा रहे हैं उनसे कई गुना ज़्यादा वहां रहने का सपना ही देखते रह जाते हैं. हर नाम की एक 75 वर्षीया विधवा आण्टी का मामला ही लीजिए. उनका नाम  सार्वजनिक रिहायश के लिए प्रतीक्षा सूची  में है और आठ बरसों से वे बहुत छोटे और अवैध रूप से निर्मित एक उपविभाजित फ्लैट  में आठ अन्य परिवारों के साथ गुज़ारा कर रही हैं. इस सीलन भरे फ्लैट की छतें टपकती रहती हैं और चूहे  धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं. फिर भी इसके लिए उन्हें तीन सौ डॉलर प्रतिमाह देना पड़ता है जो उनको मिलने वाली सरकारी पेंशन का एक तिहाई है. आण्टी हर भी चाहती हैं कि इस बोसीदा फ्लैट से बाहर निकल कर गरिमापूर्ण जीवन जी सकें, लेकिन उन्हें इसकी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती है. कहना अनावश्यक है कि हांग कांग में ऐसी अनगिनत आण्टियां और अंकल हैं जो वैभव नहीं सिर्फ सामान्य सुखी और गरिमापूर्ण जीवन  जीना चाहते हैं. लेकिन वे किसी की भी प्राथमिकता सूची में नहीं हैं. और ऐसा भी नहीं है कि ऐसी स्थिति बुज़ुर्गों की ही है. इस चमचमाते शहर की युवा पीढ़ी भी आवास समस्या से बुरी तरह पीड़ित है. अगर उनका सम्बन्ध  किसी अमीर परिवार से नहीं है तो उनके लिए  भी अपना मकान एक कभी साकार  न होने वाला सपना है. हांग कांग की आवास समस्या के मूल में यह बात भी है कि उसमें ज़्यादा पूंजी चीन की लगी हुई है और चीन की दिलचस्पी हांग कांग के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की बजाय मुनाफ़ा कमाने में है.   

हांग कांग के बारे में किसी ने बहुत उपयुक्त  टिप्पणी की है कि इस शहर की फितरत ऐसी है कि यह केवल अमीरों का साथी है. अगर आप अमीर हैं तो यह हर पल आपका साथ देता है, जनता से कमाया हुआ सारा टैक्स आप पर खर्च कर देना चाहता है. लेकिन अगर आप अमीर नहीं हैं तो फिर यह समझ लीजिए कि खुद इस शहर को मालूम नहीं कि आपके साथ क्या और कैसा सुलूक किया जाए. असल बात तो यह कि अगर आप अमीर नहीं हैं तो इस शहर के लिए आपका कोई वुज़ूद है ही नहीं.   
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर  के अंतर्गत  इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

Friday, April 19, 2019

जापान में चुनौती बनी नागरिकों की बढ़ती उम्र


अगर किसी देश के नागरिकों की औसत आयु में वृद्धि होती है तो उसे वहां की व्यवस्था की कामयाबी माना जाता है,  लेकिन कभी-कभी यही कामयाबी कुछ मुसीबतों का कारण भी बन जाती है. कम से कम जापान में तो ऐसा ही हो रहा है. जापान दुनिया के उन देशों में प्रमुख है जहां वृद्धों की संख्या सबसे ज़्यादा है. वर्तमान  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जापान में पैंसठ साल या उससे अधिक आयु के काम करने वालों की संख्या अस्सी लाख से अधिक है जो कुल काम करने वालों की संख्या की बारह प्रतिशत है. पैंतीस सदस्यीय आर्थिक  सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के देशों में से जापान में उम्र के लिहाज़ से काम कर सकने  वालों और वृद्धों के बीच का अनुपात सबसे ज़्यादा है. समय के साथ वहां काम न कर सकने वालों की संख्या बढ़ती और काम करने वालों की संख्या घटती जा रही है. अभी वहां वृद्धावस्था निर्भरता पचास प्रतिशत से अधिक है और सन 2050 तक आते-आते यह बढ़कर अस्सी प्रतिशत हो जाएगी. इसका अर्थ यह कि  जापान का संकट यह है कि वहां काम करने वाले लगातार कम होते जा रहे हैं और काम न कर सकने  वालों पर व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है. लोगों के ज़्यादा जीने का सीधा असर  अर्थ व्यवस्था  पर यह भी पड़ता है कि पेंशन पर ज़्यादा खर्च करना पड़ता है. जापान का संकट इस बात से और गहरा जाता है कि वहां की सरकार विदेशियों को काम के लिए अपने देश में बुलाने के मामले में बहुत उत्साही नहीं है. इस कारण भी वहां काम करने वालों की कमी अन्य देशों की तुलना में अधिक गम्भीर हो जाती है.  इस समस्या का एक और आयाम यह है कि जो लोग सेवा निवृत्त होते हैं उन्हें मिलने वाली पेंशन उनकी अपेक्षाओं और ज़रूरत से कम होती है, इसलिए उन्हें सेवा निवृत्ति के बाद आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है. अभी जापान में एक कर्मचारी को औसतन डेढ़ लाख येन की पेंशन मिलती है जो कि उस सरकारी लक्ष्य से काफी कम है जिसके अनुसार किसी भी वेतनभोगी कर्मचारी को सेवा निवृत्ति के बाद उसके सेवा निवृत्ति से ठीक पहले के वेतन का कम से कम साठ प्रतिशत तो मिलना ही चाहिए. यह राशि दो लाख बीस हज़ार येन होती है.

इस तरह जापान में संकट अनेक आयामी है.  एक तरफ कर्मचारी हैं जो कम पेंशन की वजह से सेवा निवृत्ति को सुखद नहीं मानते हैं तो दूसरी तरफ देश में काम करने वालों की घटती  जा रही संख्या के कारण  आने वाली विभिन्न दिक्कतें हैं. इन सबका मिला-जुला असर यह हुआ है कि वहां की शिंज़ो एबे सरकार इस बात पर गम्भीरता से विचार कर रही है कि कर्मचारियों की वर्तमान सेवा निवृत्ति की आयु को पैंसठ वर्ष से बढ़ाकर सत्तर या पिचहत्तर वर्ष कर दिया जाए. वैसे यथार्थ यह है कि भले ही अभी वहां सेवा निवृत्ति की आयु पैंसठ वर्ष है वहां की अधिकांश कम्पनियां  अपने वेतन व्यय को नियंत्रित रखने के लिए कर्मचारियों को साठ वर्ष की उम्र में ही सेवा निवृत्त हो जाने को प्रोत्साहित करती हैं, और अगर वे इसके बाद पांच  बरस और काम करना ज़ारी रखना चाहते हैं तो उन्हें कम वेतन पर काम करने का प्रस्ताव दिया जाता है.

काम करने वालों की कमी की समस्या का मुकाबला  करने के लिए जापान में अन्य अनेक श्रम सुधारों पर भी विचार और अमल किया जा रहा है. ओवरटाइम को हतोत्साहित किया जाने लगा है और काम के समय और शर्तों में अधिक उदारता बरती जाने लगी है. जापान इस बात  के लिए कुख्यात है कि वहां लोगों के काम के घण्टे बहुत ज़्यादा होते हैं. अब वहां काम के घण्टे कम किये जा रहे हैं और घर से काम करने के नियमों को भी अधिक उदार  बनाया जा रहा है. इससे यह उम्मीद बढ़ रही है कि स्त्रियां और सेवा निवृत्त लोग भी काम करने के लिए आगे आएंगे और जापान का काम करने वालों की कमी का संकट कुछ तो कम होगा. इस सबके साथ जापान सरकार पर इस बात के  लिए भी भारी दबाव है कि वह अपने देश में काम के लिए आने वाले विदेशियों  का अधिक गर्मजोशी से स्वागत करे और कम से कम अधिक तकनीकी कौशल और दक्षता की ज़रूरत वाले पदों के लिए विदेशियों को अपने देश में आने दे. ऐसा करने से वहां का दक्ष कर्मचारियों की कमी का संकट भी कुछ कम होगा. कहना अनावश्यक है कि सरकार भी इस बात पर गम्भीरता से विचार कर रही है. अगर ये सारी बातें क्रियान्वित हो जाती हैं तो यह सबके लिए सुखद होगा – काम करने वालों के लिए भी और जापान देश के लिए भी.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत शुक्रवार, 19 अप्रैल, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, April 9, 2019

आइए पानी पर चर्चा कर लें!


इन दिनों हमारे ज्ञान  का सबसे बड़ा स्रोत वॉट्सएप बन गया है. हर विषय पर हर तरह का ज्ञान वहां मौज़ूद है और इस ज्ञान में लगातार इज़ाफा होता जा रहा है. हालत  यह हो गई है कि लोगों ने किताबों वगैरह का दामन  छोड़ इस वॉट्सएप विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया है. न केवल दाखिला ले लिया है, हममें से हरेक इसका प्रोफ़ेसर भी बन बैठा है और यहां प्राप्त ज्ञान को निस्वार्थ भाव से अपने तमाम जान पहचान वालों कों बांटने  के पुण्य कर्म में जुट गया है. आपके पास कोई संदेश आता है और आप उसे पूरा पढ़ने से पहले ही अपने जान पहचान वालों को फॉर्वर्ड  कर डालते हैं. जब आप उसे पूरा पढ़ने तक का धैर्य नहीं बरतते तो इस बात की तो कल्पना ही क्यों की जाए कि आप उस संदेश की प्रामाणिकता पर भी कोई  विचार करेंगे. इस नए माध्यम पर जो संदेश सबसे ज़्यादा इधर-उधर होते हैं उनमें स्वास्थ्य विषयक संदेश भी शामिल हैं. राजनीतिक संदेश तो ख़ैर होते ही हैं. स्वास्थ्य एक बहुत गम्भीर मसला है लेकिन इस माध्यम को बरतने वाले इतने भले हैं कि यहां प्राप्त हर संदेश को वे ब्रह्म वाक्य मान आगे ठेल देते हैं, चाहे वह कितना ही अतार्किक क्यों न हो!

इधर कुछ समय से हमारे देश में भी पानी पीने के फायदे बताने वाले संदेशों की बाढ़ आई हुई है. कितना पानी पिया जाए से लगाकर पानी पीने के तौर तरीकों और पानी पीने के फायदों को लेकर हर रोज़ नहीं तो हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई संदेश आ ही जाता है, और मज़े की बात यह कि उनमें से बहुत सारे संदेश परस्पर विरोधी भी होते हैं. लेकिन भेजने वालों को इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है. वे खुद उन संदेशों को पूरा पढ़ते ही कहां हैं? वैसे, भारत में ही नहीं दुनिया के अन्य देशों में भी इधर पानी की महत्ता खूब स्वीकार की जाने लगी है. हमारा कवि तो बहुत पहले कह ही गया है – रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून. लेकिन अगर मैं यह कहूं कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक दुनिया के बहुत सारे देशों में प्यास बुझाने के लिए पानी एक असामान्य बात थी, तो आप चौंक जाएंगे.  हाइड्रोपैथी यानि जल चिकित्सा के संस्थापक विंसेण्ट प्रिज़नित्ज़ का कहना है कि केवल वे लोग जो गरीबी की अंतिम अवस्था तक पहुंच चुके होते थे, वे ही अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी पीते थे. बकौल विंसेण्ट, बहुत ही कम लोग ऐसे थे जो एक बार में आधा पिण्ट सादा पानी पी लेते हों. लेकिन अब समय बहुत बदल गया है. ब्रिटेन में लोग पहले से काफी ज़्यादा पानी पीने लगे हैं और अमरीका में तो बोतल बंद पानी  की बिक्री ने सोड़ा की बिक्री को पीछे छोड़ दिया है. हर जगह यह बताया जाता है कि ज़्यादा पानी पीना हमारी सेहत के लिए, हमारी त्वचा के लिए, हमारी ऊर्जा के लिए और हमारे कैंसर से बचाव के लिए फायदेमंद है.

आम तौर पर यह सलाह दी जाती है कि हर व्यक्ति को दिन में कम से कम आठ गिलास पानी ज़रूर पीना चाहिए. लेकिन मज़े की बात यह कि इस सलाह का कोई अभिलेखित वैज्ञानिक आधार नहीं है. ज़्यादा पड़ताल करने पर पता चला कि दशकों पहले की दो सलाहों को तोड़  मरोड़कर आठ गिलास पानी पीने की सलाह गढ़ दी गई है. 1945 में अमरीकी नेशनल रिसर्च कौंसिल के फूड एण्ड न्यूट्रीशन बोर्ड ने यह सलाह दी थी कि हर स्त्री पुरुष को हर रोज़ अपने भोजन में जितनी कैलोरी की ज़रूरत होती है उन्हें उस हर कैलोरी के बदले एक मिलिलीटर द्रव्य पदार्थ भी लेना चाहिए. अब क्योंकि स्त्रियों के लिए दो हज़ार और पुरुषों के लिए ढाई हज़ार कैलोरी ज़रूरी मानी गई, इसके अनुसार दो ढाई लिटर द्रव्य भी ज़रूरी समझा गया. यहां हम जान बूझकर द्रव्य शब्द का प्रयोग कर रहे हैं जिसमें फलों और सब्ज़ियों में शामिल द्रव्य भी आ जाता है, और जिसका अर्थ केवल पानी नहीं है. दूसरी सलाह दो पोषण वैज्ञानिकों मारग्रेट मैक विलियम्स और फ्रेडरिक् स्टेयर ने अपनी किताब न्यूट्रीशन फॉर गुड हेल्थ में दी थी कि एक सामान्य वयस्क को हर रोज़ छह से आठ गिलास पानी पीना चाहिए. लेकिन उनकी सलाह के अनुसार पानी का अर्थ फल सब्ज़ियां चाय कॉफी यहां तक कि बीयर भी था. लेकिन बात चल निकली और आठ गिलास ब्रहम वाक्य बन गई.

इसी तरह त्वचा के लिए पानी के फायदों की जो बात कही जाती है उसका भी कोई  अभिलेखित आधार नहीं है. सारी बात का लब्बेलुआब यह कि बहुत सारी बातें इतनी बार दुहराई गई हैं कि हमें उनकी प्रामाणिकता पर विचार करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. फिर भी, यह तो समझा ही जाना चाहिए कि भले ही पानी हमारी सेहत के लिए अच्छा हो, उसकी अति का कोई औचित्य नहीं है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम  कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 09 अप्रेल 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 2, 2019

चुनाव में होता है तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल


समय बदलने के साथ चुनाव के तौर तरीकों में भी बदलाव आया है और आता जा रहा है. कहा जाता है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ ज़ायज़ होता है. चुनाव भी एक तरह का युद्ध ही तो है, उसे भी लड़ा ही जाता है, और इसलिए यहां भी जायज़-नाजायज़ के बीच की सीमा रेखा बहुत पतली होती है. उसे लांघने का आकर्षण जितना दुर्निवार होता है, लांघ जाना  भी उतना ही आसान होता है. सुरक्षा के नित नए प्रबंध किये जाते हैं और उसी तेज़ी के साथ उनके तोड़ भी निकाल लिये जाते हैं. तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल चलता रहता है. यह समय इण्टरनेट और सोशल मीडिया  का है और आजकल चुनाव जितने ज़मीन पर लड़े जाते हैं उतने ही इन माध्यमों पर भी लड़े जाते हैं. अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव में ही नहीं हमारे अपने देश में होने वाले बड़े और छोटे चुनावों में भी हमने इन माध्यमों का उपयोग-दुरुपयोग होते खूब देखा है. अभी हाल में  सम्पन्न हुए यूक्रेन के राष्ट्रपति के चुनाव में एक बार फिर यह मुद्दा ज़ोर-शोर से उठा है कि फ़ेसबुक का प्रयोग चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए किया जा रहा है. बात केवल प्रभावित करने की होती तो भी ठीक था. पीड़ा की बात यह रही कि इस माध्यम पर मिथ्या एवम दुष्प्रचार के लिए इस्तेमाल हो जाने के आरोप लगे. वैसे 2016 के अमरीकी चुनावों के अनुभवों से सबक लेते हुए फ़ेसबुक ने अपनी सुरक्षा व्यस्था को और ज़्यादा चाक चौबंद कर डालने के प्रयास और दावे किये. जनवरी में इसने एक सौ पचास फर्ज़ी खातों को बंद कर दिया और फिर कुछ समय बाद रूस से सम्बद्धता  रखने वाले ऐसे करीब दो हज़ार पृष्ठों, समूहों और खातों को प्रतिबंधित कर दिया जो यूक्रेन के बारे में मिथ्या सामग्री पोस्ट कर रहे थे. याद दिलाता चलूं कि यूक्रेन के मामले में रूस गहरी दिलचस्पी रखता है और उस पर प्राय: यूक्रेन  की राजनीति को प्रभावित करने के प्रयासों के आरोप लगते रहते हैं.  लेकिन अंतत: यही साबित हुआ कि ताले तो साहूकारों के लिए होते हैं, चोरों के लिए नहीं.

यूक्रेन की घरेलू गुप्तचर  सेवा एसबीयू की पड़ताल से पता चला कि फ़ेसबुक की नई सुरक्षा व्यवस्था को धता बनाने के लिए यूक्रेनी नागरिकों का ही इस्तेमाल किया गया. ऐसे यूक्रेनी नागरिकों को तलाश किया गया जो कुछ धन लेकर कुछ समय के लिए या हमेशा के लिए अपने फ़ेसबुक खातों का प्रयोग अन्यों को करने की छूट दे दें. यह एक तरह से अपने खाते को किराये पर देने की बात हुई. और इस तरह यूक्रेनी नागरिकों के फ़ेसबुक खातों से अन्य निहित स्वार्थ वाले लोग वह सामग्री पोस्ट करने लगे जिससे यूक्रेन के चुनावों पर असर पड़े. इस सामग्री में राजनीतिक विज्ञापन और दलों व प्रत्याशियों के बारे में दुष्प्रचार वाली सामग्री शामिल थी. यूक्रेन की गुप्तचर सेवा ने पता लगा लिया कि इस तरह की ज़्यादा सामग्री रूस से पोस्ट की गई, भले ही जिन खातों वह पोस्ट की गई वे यूक्रेनी नागरिकों के नाम पर थे. फ़ेसबुक की सुरक्षा में सेंध लगाने वालों  ने यूक्रेन के राष्ट्रपति पद के एक अग्रणी  प्रत्याशी ज़ेलेंस्की तक को नहीं बख़्शा. उनके असल फेसबुक खाते से मिलते-जुलते बेहिसाब फर्ज़ी खाते बना डाले गए और उन पर तमाम तरह की मिथ्या और दुर्भावनापूर्ण सामग्री पोस्ट कर दी गई. लोगों के लिए यह जानना मुश्क़िल था कि ज़ेलेंस्की का असली खाता कौन-सा है और फर्ज़ी खाता कौन-सा. शिकायत की जाने पर फ़ेसबुक ने ऐसे बहुत सारे फर्ज़ी खातों  को निष्क्रिय किया और खुद ज़ेलेंस्की की अपनी टीम ने भी इस तरह के फर्ज़ी खातों  के खिलाफ एक ज़ोरदार अभियान चलाकर इन्हें बेअसर  करने का प्रयास किया.

इस मामले पर फ़ेसबुक प्रशासन का कहना है कि जैसे जैसे हम अपनी सुरक्षा को कड़ी करते जाएंगे इसमें सेंध लगाने वाले भी नए नए तरीके इज़ाद करते जाएंगे. लेकिन इसके बावज़ूद यह सच है कि हमारा हर प्रयास इन ताकतों के इरादों को एक हद तक तो नाकामयाब  करता ही है. इस संदर्भ में उनका यह कहना भी तर्क संगत लगता है कि राजनीतिक दल भी अपने प्रतिपक्षियों के खिलाफ झूठी बातें फैलाने के लिए पेशेवर कम्पनियों वगैरह का इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आते हैं. फ़ेसबुक के इन कथनों की पुष्टि खुद यूक्रेन  के कुछ अधिकारियों और राजनीतिज्ञों ने भी की है और कहा है कि खुद उम्मीदवार भी अपने प्रतिपक्षियों के खिलाफ मिथ्या जानकारियां प्रसारित करने में संकोच नहीं करते हैं. इस संदर्भ में यूएनओ में रूस के प्रथम उप स्थायी प्रतिनिधि द्मित्री पोलियांस्की का यह कथन भी अर्थपूर्ण है कि सोशल मीडिया तो एक खुला मंच  है और यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग अपने अपने हितों को साधने के लिए इसका इस्तेमाल  करें.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ इधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक चार अप्रैल 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.