अगर किसी देश के
नागरिकों की औसत आयु में वृद्धि होती है तो उसे वहां की व्यवस्था की कामयाबी माना
जाता है, लेकिन कभी-कभी यही कामयाबी कुछ मुसीबतों
का कारण भी बन जाती है. कम से कम जापान में तो ऐसा ही हो रहा है. जापान दुनिया के
उन देशों में प्रमुख है जहां वृद्धों की संख्या सबसे ज़्यादा है. वर्तमान सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जापान में पैंसठ साल
या उससे अधिक आयु के काम करने वालों की संख्या अस्सी लाख से अधिक है जो कुल काम
करने वालों की संख्या की बारह प्रतिशत है. पैंतीस सदस्यीय आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के देशों में से
जापान में उम्र के लिहाज़ से काम कर सकने
वालों और वृद्धों के बीच का अनुपात सबसे ज़्यादा है. समय के साथ वहां काम न
कर सकने वालों की संख्या बढ़ती और काम करने वालों की संख्या घटती जा रही है. अभी
वहां वृद्धावस्था निर्भरता पचास प्रतिशत से अधिक है और सन 2050 तक आते-आते यह बढ़कर
अस्सी प्रतिशत हो जाएगी. इसका अर्थ यह कि जापान का संकट यह है कि वहां काम करने वाले
लगातार कम होते जा रहे हैं और काम न कर सकने
वालों पर व्यय लगातार बढ़ता जा रहा है. लोगों के ज़्यादा जीने का सीधा
असर अर्थ व्यवस्था पर यह भी पड़ता है कि पेंशन पर ज़्यादा खर्च करना
पड़ता है. जापान का संकट इस बात से और गहरा जाता है कि वहां की सरकार विदेशियों को
काम के लिए अपने देश में बुलाने के मामले में बहुत उत्साही नहीं है. इस कारण भी
वहां काम करने वालों की कमी अन्य देशों की तुलना में अधिक गम्भीर हो जाती है. इस समस्या का एक और आयाम यह है कि जो लोग सेवा
निवृत्त होते हैं उन्हें मिलने वाली पेंशन उनकी अपेक्षाओं और ज़रूरत से कम होती है,
इसलिए उन्हें सेवा निवृत्ति के बाद आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ता है. अभी
जापान में एक कर्मचारी को औसतन डेढ़ लाख येन की पेंशन मिलती है जो कि उस सरकारी
लक्ष्य से काफी कम है जिसके अनुसार किसी भी वेतनभोगी कर्मचारी को सेवा निवृत्ति के
बाद उसके सेवा निवृत्ति से ठीक पहले के वेतन का कम से कम साठ प्रतिशत तो मिलना ही
चाहिए. यह राशि दो लाख बीस हज़ार येन होती है.
इस तरह जापान में
संकट अनेक आयामी है. एक तरफ कर्मचारी हैं
जो कम पेंशन की वजह से सेवा निवृत्ति को सुखद नहीं मानते हैं तो दूसरी तरफ देश में
काम करने वालों की घटती जा रही संख्या के
कारण आने वाली विभिन्न दिक्कतें हैं. इन
सबका मिला-जुला असर यह हुआ है कि वहां की शिंज़ो एबे सरकार इस बात पर गम्भीरता से
विचार कर रही है कि कर्मचारियों की वर्तमान सेवा निवृत्ति की आयु को पैंसठ वर्ष से
बढ़ाकर सत्तर या पिचहत्तर वर्ष कर दिया जाए. वैसे यथार्थ यह है कि भले ही अभी वहां
सेवा निवृत्ति की आयु पैंसठ वर्ष है वहां की अधिकांश कम्पनियां अपने वेतन व्यय को नियंत्रित रखने के लिए
कर्मचारियों को साठ वर्ष की उम्र में ही सेवा निवृत्त हो जाने को प्रोत्साहित करती
हैं, और अगर वे इसके बाद पांच बरस और काम
करना ज़ारी रखना चाहते हैं तो उन्हें कम वेतन पर काम करने का प्रस्ताव दिया जाता
है.
काम करने वालों की
कमी की समस्या का मुकाबला करने के लिए जापान
में अन्य अनेक श्रम सुधारों पर भी विचार और अमल किया जा रहा है. ओवरटाइम को
हतोत्साहित किया जाने लगा है और काम के समय और शर्तों में अधिक उदारता बरती जाने
लगी है. जापान इस बात के लिए कुख्यात है
कि वहां लोगों के काम के घण्टे बहुत ज़्यादा होते हैं. अब वहां काम के घण्टे कम
किये जा रहे हैं और घर से काम करने के नियमों को भी अधिक उदार बनाया जा रहा है. इससे यह उम्मीद बढ़ रही है कि
स्त्रियां और सेवा निवृत्त लोग भी काम करने के लिए आगे आएंगे और जापान का काम करने
वालों की कमी का संकट कुछ तो कम होगा. इस सबके साथ जापान सरकार पर इस बात के लिए भी भारी दबाव है कि वह अपने देश में काम के
लिए आने वाले विदेशियों का अधिक गर्मजोशी
से स्वागत करे और कम से कम अधिक तकनीकी कौशल और दक्षता की ज़रूरत वाले पदों के लिए
विदेशियों को अपने देश में आने दे. ऐसा करने से वहां का दक्ष कर्मचारियों की कमी
का संकट भी कुछ कम होगा. कहना अनावश्यक है कि सरकार भी इस बात पर गम्भीरता से
विचार कर रही है. अगर ये सारी बातें क्रियान्वित हो जाती हैं तो यह सबके लिए सुखद
होगा – काम करने वालों के लिए भी और जापान देश के लिए भी.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय
अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत
शुक्रवार, 19 अप्रैल, 2019 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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