Monday, November 30, 2015

एण्टीबायोटिक्स के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से मण्डरा रहा है सर्वनाश का खतरा

चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में एक ख़तरे की घण्टी बहुत ज़ोरों से बजने लगी है.  हाल ही में इंग्लैण्ड में जारी किए गए एक सरकारी दस्तावेज़ में यह चेतावनी दी गई है कि एक एण्टीबायोटिक प्रतिरोधी रक्त संक्रमण से लगभग दो लाख लोग प्रभावित हो सकते हैं और उनमें से कम से कम अस्सी हज़ार लोग मौत के घाट उतर सकते हैं.  इस दस्तावेज़ में यह भी चेतावनी दी गई है कि अन्य अनेक प्रकार के प्रतिरोधी संक्रमण भी फैल सकते हैं. यानि अगर ऐसा हो गया तो अधिकांश आधुनिक दवाइयां असुरक्षित हो जाएंगी. इस चेतावनी की भयावहता को समझने के लिए आपको बहुत ज़्यादा चिकित्सा विज्ञान नहीं पढ़ना होगा. इतना जान लेना  काफी है कि प्रभावी एण्टीबायोटिक्स के अभाव में बहुत सामान्य शल्य क्रियाएं भी करीब-करीब नामुमकिन हो जाएंगी. कहना गैर ज़रूरी है कि इसका कुपरिणाम होगा रोगों से लड़ने की हमारी क्षमता का करीब करीब नष्ट हो जाना और असमय होने वाली मौतों में इज़ाफा!

और ऐसा होने की आशंका के मूल में है एण्टीबायोटिक्स का अविवेकपूर्ण और अन्धाधुन्ध इस्तेमाल. डॉक्टरों  पर  तो यह इल्ज़ाम लगाया ही जाता है कि वे बिना ज़रूरत के ही अपने मरीज़ों को एण्टाबायोटिक्स दे देते हैं, खुद  मरीज़ भी बिना जाने-समझे-बूझे  एण्टीबायोटिक्स निगल लेने के दोषी हैं. एक मोटे अनुमान के अनुसार हर साल लिखी जाने वाली एण्टीबायोटिक्स की सवा चार करोड़ पर्चियों में से कम से कम एक करोड़ पर्चियां गैर ज़रूरी होती हैं. इस बात को यों भी समझा जा सकता है कि बहुत सारे रोग ऐसे होते हैं जो समय के साथ स्वत: ठीक हो जाते हैं, जैसे वायरल संक्रमण या जुखाम या गला खराब हो जाना वगैरह. जुखाम के बारे में तो यह कथन बहुत लोकप्रिय है ही कि अगर आप दवा लेंगे तो वो सात  दिन में ठीक होगा और दवा न लेंगे तो भी एक सप्ताह में ठीक हो जाएगा.  लेकिन विभिन्न कारणों  से डॉक्टर या तो खुद या फिर अपने मरीज़ के आग्रह पर इनके उपचार के लिए भी एण्टीबयोटिक्स लिख देते हैं. इस तरह एण्टीबायोटिक्स के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से उन बैक्टीरिया में इनके विरुद्ध तीव्र प्रतिरोध विकसित होता जा रहा है, जिनसे लड़ने के लिए इनका इस्तेमाल शुरु हुआ था. यही है असली ख़तरा. वैसे तो इस खतरे की तरफ इशारा पेनिसिलिन के आविष्कारक सर अलेक्ज़ेण्डर फ्लेमिंग ने 1945 में ही कर दिया था. लेकिन विवेक की बात सुनता कौन है? तब उन्होंने कहा था कि एक समय ऐसा भी आ सकता है जब पेनिसिलिन खुले आम दवा की दुकानों पर बिकने लगे. और आज हम वास्तव में देखते हैं कि भारत सहित बहुत सारे देशों में आप दवा की दुकान पर बिना डॉक्टर की पर्ची के कोई भी दवा खरीद सकते हैं. सर फ्लेमिंग ने तब कहा था कि इस बात का बड़ा खतरा है कि कोई अज्ञानी दवा की कम मात्रा  खाकर अपने भीतर के जीवाणुओं को दवा प्रतिरोधी बना डाले. नोबल पुरस्कार स्वीकार करते हुए उन्होंने जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने कहा था कि प्रयोगशाला में माइक्रोब्स को उन्हें मार डालने योग्य से कम मात्रा में पेनिसिलिन देकर उन्हें पेनिसिलिन के प्रति रेसिस्टेण्ट बनाया जा सकता है, और ऐसा ही हमारे शरीरों में भी होता है. 

और आज दुनिया उसी खतरनाक अवस्था के कगार पर है. चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इस अवस्था को एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स यानि एण्टीबायोटिक सर्वनाश की संज्ञा  दी है. इस सर्वनाश का असर यह होगा कि मानवता फिर से एण्टीबायोटिक्स से पहले वाले युग में पहुंच जाएगी. इस खतरे को हाल में चीन में महसूस किया गया है जहां मरीज़ों और पशुओं की जांच के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि एक ख़ास बैक्टीरिया पर तो एण्टीबायोटिक कोलिस्टिन भी बेअसर है. कोलिस्टिन एक ऐसा एण्टीबायोटिक है जिसका इस्तेमाल अनेक रोगों में अंतिम इलाज़ के रूप में किया जाता है. वहां वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि पशुओं में इस दवा के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल की वजह से उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई  है. चीनी वैज्ञानिकों ने एक नए तरह का बदलाव भी लक्षित किया है. उन्होंने इसे एमसीआर-1 जीन का नाम दिया है. यह एण्टीबायोटिक कोलिस्टिन के जरिये बैक्टीरिया को मारने से रोकता है. वहां हुए परीक्षणों में हर पांचवें पशु, 15 प्रतिशत कच्चे मांस के नमूनों और 16 रोगियों में यह पाया  गया है.

राहत की बात यह है कि पूरी दुनिया इस खतरे के प्रति तेज़ी से सजग होती जा रही है. अमरीका में एक नई विधि से ‘भूमिगत होटल्स’  में 25 नए सम्भावित एण्टीबायोटिक्स विकसित किए गए हैं और उनमें से एक को बहुत आशाजनक बताया जा रहा है. ऐसे ही प्रयोग अन्यत्र भी हो रहे हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स का खतरा टल जाएगा!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 नवम्बर, 2015 को एण्टीबायोटिक एपोकेलिप्स: दुनिया में खतरे की घण्टी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 


Tuesday, November 17, 2015

इस एप के आगे सब हैं बेबस और लाचार

कोई इस बात को पसन्द करे या न करे, इंसान जिसके भी सम्पर्क में आता है उसका मूल्यांकन करता ही  है. और यह बात व्यक्ति के लिए ही नहीं, संस्थाओं और प्रतिष्ठानों, बल्कि वस्तुओं के लिए भी इतनी ही सही है. आप किसी से मिलते हैं और उसके पीठ फेरते ही कह उठते हैं, यह आदमी तो कुछ जंचा नहीं! आप किसी दुकान से सामान खरीदते हैं और दुकान से बाहर निकलते-निकलते तो दुकान और सामान दोनों के बारे में अपनी राय बना और ज़ाहिर भी कर चुके होते हैं.

हमारे जीवन में तकनीक की गम्भीर घुसपैठ हुई तो राय निर्माण के इस काम को तकनीक का सहारा भी मिल गया. पहले हम अखबारों और अन्य संचार माध्यमों का इस्तेमाल करते थे, हालांकि वो इस्तेमाल निर्बाध नहीं था और उस के इस्तेमाल की अनेक सीमाएं थीं, लेकिन जब से सोशल मीडिया आया हम सबको एक उन्मुक्त आकाश मिल गया. हम  जिसके बारे में जैसी चाहें राय व्यक्त करने में सक्षम हो गए!  इधर सोशल मीडिया से एक कदम और आगे है एप्स यानि मोबाइल एप्लीकेशंस की दुनिया. हर काम के लिए अनगिनत एप्स मौज़ूद हैं. एक बेहद लोकप्रिय एप का तो नाम ही है व्हाट्सएप!

तो ये एप्स राय की अभिव्यक्ति और धारणा निर्माण के क्षेत्र में भी अपना योग दे रहे हैं. जलपान गृहों के बारे में अपनी राय देने वाले  ज़ोमेटो नामक एप से तो हममें से बहुत सारे लोग वाक़िफ होंगे ही, ऐसा ही एक और एप है येल्प! ऐसे और भी अनगिनत एप होंगे. लेकिन इधर समझदारों और प्रयोगकर्ताओं की दुनिया में एक नए आनेवाले एप को लेकर खासी हलचल मची हुई है. इस एप का नाम है पीपल (Peeple) और यह अपने ज़ारी होने से पहले ही खासा विवादास्पद हो गया है. इसे जारी करने वाली कम्पनी ने इसे ‘येल्प फॉर पीपुल’ यानि लोगों के लिए येल्प कहकर प्रचारित किया था. कम्पनी का तो दावा था कि यह इस बात में क्रांतिकारी बदलाव ला देगा कि हमारे रिश्तों की मार्फत हमें कैसे देखा जाता है!

इस एप में यह सुविधा देने का वादा किया गया था कि आप जिसे भी जानते हैं उसके बारे में नकारात्मक या सकारात्मक कैसी भी राय दे सकते हैं और उसकी स्टार रेटिंग भी कर  सकते हैं, यानि उसे शून्य से पाँच तक जितना चाहें उतने स्टार दे सकते हैं. आप जिनके बारे में यह सब कर सकते हैं उनकी तीन श्रेणियां रखी गई थीं – पर्सनल, प्रोफेशनल और डेटिंग. यानि आपको यह तै करना था कि आप जिन्हें जानते हैं वो इनमें से किस श्रेणी में आता या आती है. इस एप की ख़ास बात यह थी कि अगर आपने किसी के बारे में कोई प्रतिकूल राय भी ज़ाहिर कर दी तो सम्बद्ध व्यक्ति उसके बारे में कुछ नहीं कर सकता था, और आपकी वह प्रतिकूल राय भी कम से कम 48 घण्टों तक तो सजीव रहती ही. दूसरे पक्ष को बस यह हक़ था कि वह आपकी प्रतिकूल राय का प्रतिवाद करने का प्रयत्न करे. इस एप की सबसे ख़तरनाक बात यह थी कि कोई किसी के भी बारे में किसी भी तरह की राय व्यक्त कर सकता था. यानि अगर यह एप प्रचलन में आ गया होता तो हम सब अरक्षित अनुभव करने को विवश हो जाते. इसके दुरुपयोग की आशंकाओं भी निराधार और निर्मूल नहीं कहा जा सकता है.

लेकिन इस एप के ज़ारी होने से पहले ही इसका इतना अधिक विरोध हुआ कि इसकी  डेवलपर  कैलगरी की जूलिया कॉर्ड्र्रे को बचाव की मुद्रा में आकर यह आश्वासन देने को मज़बूर होना पड़ा कि बिना आपकी स्पष्ट अनुमति के आप हमारे प्लेटफॉर्म पर नहीं होंगे. इसी के साथ उन्हें यह भी आश्वासन देना पड़ा कि नकारात्मक टिप्पणियों को हटाने के लिए 48 घण्टों के इंतज़ार की बाधा को भी हटा दिया जाएगा. लेकिन उनके इन  स्पष्टीकरणों  के बाद लोगों को लगा कि अगर नकारात्मक टिप्पणियां करने के अधिकार बहुत ज़्यादा सीमित कर दिये जाएंगे तो फिर यह एप क्लाउट या लिंक्डइन  जैसा पूर्णत: सकारात्मक टिप्पणियों वाला शाकाहारी एप बनकर रह जाएगा!  

लेकिन इस एप को लेकर ज़्यादा आशंकाएं यही सामने आई कि यह लोगों के लिए येल्प की तरह मददगार साबित होने की बजाय उनकी परेशानियों का सबब बन सकता है. कुछ लोगों को एक और आशंका हुई और वह अधिक गम्भीर किंतु बारीक आशंका है. उन्हें लगा कि यह एप विज्ञापन की कमाई का साधन बन सकता है या फिर यह लोगों को अपने मोबाइल नम्बर और अन्य निजी जानकारियां सुलभ कराने के लिए बाध्य कर सकता है – जो अपने आप में एक बहुत बड़ा व्यवसाय है.

यह सारी चर्चा इतना तो साबित करती है कि आज की दुनिया बहुत जटिल होती जा रही है. साधारण और लाभदायक नज़र आने वाली चीज़ें भी बहुत ग़ैर मामूली और नुकसान देह साबित हो सकती हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 नवंबर, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 3, 2015

जीना यहां, मरना वहां

राजस्थान के हर  क्षेत्र में इस आशय का कथन प्रचलित है कि चाहे कमतर महत्व का अन्न ही क्यों न खाना पड़े, अपना इलाका छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे. जैसे गेहूं छोड़कर मक्की खाना, लेकिन मेवाड़ छोड़कर कहीं नहीं जाना. आप मेवाड़ की जगह मारवाड़ कर दें, यह कथन मारवाड़ का हो जाएगा. और अपनी धरती से प्रेम केवल राजस्थान वासियों को ही नहीं रहा है. बहादुर शाह ज़फर के एक दरबारी शायर शेख इब्राहीम ‘जौक’ ने भी तो कहा था,  “कौन जाए पर जौक दिल्ली की गलियां छोड़कर!” लेकिन इसी के साथ यह भी याद रखने की बात है कि हमारे ही देश में जीवन के अंतिम समय काशी चले जाने और वहीं प्राण त्याग करने का सपना भी देखा जाता रहा है.

लेकिन इधर हाल में आई एक रपट ने, लगता है कि काशी से उसका यह गौरव भी छीन लेना चाहा है. सिंगापुर का एक परोपकारी संगठन लियन फाउण्डेशन पिछले कई बरसों से द क्वालिटी ऑफ डेथ इण्डेक्स नामक एक सर्वेक्षण करवाता है. इस  सर्वेक्षण में दुनिया भर के कोई सवा सौ रोग लक्षण नियंत्रण विशेषज्ञ चिकित्सकों के साथ साक्षात्कार करके यह जानने का प्रयास किया जाता है कि किस देश में मृत्य पूर्व देखभाल की सुविधाएं कैसी हैं! तो इस बार अस्सी देशों से जुटाई गई जानकारी के अनुसार यह पाया गया है कि पूरी दुनिया में मरने के लिए सबसे उम्दा देश ब्रिटेन है. यानि, आप चाहे जहां रहें, मरने के लिए ब्रिटेन चले जाएं! अगर ब्रिटेन जाना मुमकिन न हो तो ऑस्ट्रेलिया जाएं, वहां भी न जा सकें आयरलैण्ड चले जाएं और अगर वह भी सम्भव न हो तो बेल्जियम का रुख कर लें.

यानि अगर आप सुख पूर्व मरना चाहते हैं तो आपको किसी न किसी अमीर  देश का ही रुख करना चाहिए. यह बात स्वाभाविक भी है. समृद्ध देश ही तो अपने नागरिकों की समुचित देखभाल का  खर्चा उठा  सकते हैं. वैसे यह जानना कम रोचक नहीं होगा कि इस अध्ययन के अनुसार ब्रिटेन में जीवन के अंत समय में देखभाल करने वाली इन सेवाओं का 80 से 100 प्रतिशत भार स्वयं रोगी द्वारा नहीं वरन अधिकांशत: सेवाभावी संगठनों द्वारा वहन किया जाता है.

द इकोनॉमिस्ट इण्टेलिजेंस यूनिट द्वारा किए गए इस अध्ययन में व्यापक राष्ट्रीय नीतियों, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं में रोग के लक्षण नियंत्रित करने वाली सेवाओं के व्यापक समावेशन, सुदृढ़ होसपाइस आन्दोलन, और इस मुद्दे पर गहन सामुदायिक संलग्नता को आधार बनाया गया. ज़ाहिर है कि इन सबके मूल में है किसी भी देश के नागरिकों का आर्थिक स्तर. और यही कारण है कि आर्थिक संसाधनों की कमी और आधारभूत ढांचे के अभाव में विकासशील और तीसरी  दुनिया के बहुत सारे देश अपने नागरिकों को सामान्य कष्ट निवारक सुविधाएं भी सुलभ नहीं करवा पाते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद यह जानना भी कम सुखद नहीं है कि अपनी आर्थिक सीमाओं के बावज़ूद पनामा जैसा छोटा देश अपनी प्राथमिक चिकित्सा सेवाओं में रोग के लक्षणों के नियंत्रण के तंत्र का समावेश कर इकत्तीसवें स्थान पर पहुंच सका है. ऐसा ही सुखद परिणाम मंगोलिया ने भी प्राप्त किया है जिसने होसपाइस सुविधाओं और शिक्षा का विस्तार कर अठाइसवां स्थान पा लिया है. एक और ख़ास बात यह भी कि मंगोलिया ने यह चमत्कार एक अकेले  डॉक्टर  के दम पर कर दिखाया है.  और तो और युगाण्डा जैसा देश भी दर्दनाशक दवाओं की उपलब्धता बढ़ाकर पैंतीसवें स्थान तक पहुंच सका है.

इतना सब बताते हुए भी मैं अपने देश भारत का ज़िक्र करने से बचता रहा हूं. वजह आप समझ सकते हैं. अस्सी देशों की सूची में हम सड़सठवें स्थान पर हैं. अगर खुश होना चाहें तो यह जान लें कि चीन हमसे भी पीछे है. वह इकहत्तरवें स्थान पर है. लेकिन जब आप यह जानेंगे कि हमारे ही महाद्वीप का एक देश ताइवान छठी पायदान पर है, तो आपकी यह खुशी भी उदासी में तबदील हो जाएगी. बात सिर्फ अमीरी की भी नहीं है. बात है सरकार की नीतियों की, उसकी प्राथमिकताओं की और समाज की बेहतरी में जन भागीदारी की.

एक तरफ जहां इस अध्ययन में पहले नम्बर पर आने वाले देश ब्रिटेन में भी यह शिकायत की  जा रही है कि वहां हर नागरिक को समुचित सुविधाएं मयस्सर नहीं हो रही हैं, वहीं तीसरी दुनिया के बहुत सारे देशों में, जिनमें हमारा अपना देश भी शामिल है, राष्ट्रीय बजट का बहुत ही छोटा हिस्सा स्वास्थ्य और देखभाल सेवाओं पर केन्द्रित रखा जाता है और उसमें भी यदा-कदा कटौती कर दी जाती है. ऐसे में अपने देश की वित्तीय प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार तो ज़रूरी हो ही जाता है. भला कौन नहीं चाहेगा कि जिस  मिट्टी में वह पला बढ़ा है उसी मिट्टी की गोद में वह चिर  निद्रा में भी लीन हो जाए!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 नवम्बर, 2015 को जीना यहां, मरना वहां, ताकि आसानी से कट जाए बुढ़ापा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.