भारत जैसे देश में जहां बेरोज़गारी की
समस्या बहुत विकट है, समस्या का एक आयाम यह भी है कि बहुत सारे ऐसे लोगों को
जिनके पास खूब सारी डिग्रियां या योग्यताएं हैं, मज़बूरी के चलते ऐसी
नौकरियां स्वीकार कर लेनी पड़ती हैं जिनमें उतनी योग्यता की कोई ज़रूरत नहीं होती
है. इस बात के लिए सिर्फ एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा. अभी हाल में राजस्थान विधान
सभा में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मात्र बारह पदों के लिए जिन अठारह हज़ार
आशार्थियों ने आवेदन किया उनमें से सात हज़ार से अधिक स्नातक उपाधि धारी थे और लगभग
साढ़े नौ सौ आशार्थी ऐसे थे जिनके पास स्नातकोत्तर या बी. टेक, एम. टेक अथवा एमबीए जैसी डिग्रियां थीं. वैसे, चतुर्थ
श्रेणी कर्मचारी के इस पद के लिए न्यूनतम निर्धारित योग्यता थी पांचवीं पास होना.
कल्पना की जा सकती है कि अगर किसी एम. टेक या एमबीए को इस पद के लिए चुन लिया जाता
तो अपनी नौकरी करते हुए उसकी मानसिक दशा
क्या और कैसी होगी.
मैं इस बात पर विचार कर ही
रहा था कि मुझे दुनिया के कुछ तथाकथित उन्नत और समृद्ध देशों में भी मौज़ूद ऐसी ही
समस्या के बारे में पढ़ने को मिला. शायद आपके लिए भी यह बात चौंकाने वाली हो कि
संयुक्त राज्य अमरीका में भी हर चार स्नातक उपधि धारी कर्मचारियों में से कम से कम
एक तो ऐसा होता है जिसकी नौकरी के लिए उतनी योग्यता की ज़रूरत नहीं होती है. उधर ब्रिटेन में हर छह स्नातक कर्मचारियों में
से कम से कम एक ऐसा होता है जो अपने काम
की ज़रूरत के हिसाब से अधिक योग्यता धारी होता है. यही नहीं, वहां करीब
अट्ठावन प्रतिशत स्नातक कर्मचारी ऐसे हैं जिनके काम के लिए इतनी योग्यता की कोई
ज़रूरत नहीं है. बहुत सारे युवा कम योग्यता चाहने वाली ऐसी नौकरियां इस कारण भी
स्वीकार कर लेते हैं कि या तो उन्हें अच्छा वेतन मिलता है या फिर किसी बड़ी कम्पनी
से जुड़ने का मोह उन्हें अपनी तरफ खींच लेता है. इन देशों में ऐसा होने की एक वजह
यह भी है कि यहां के रोज़गार देने वालों ने
करीब-करीब उन सारी नौकरियों के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक की उपाधि तै कर
दी है जिन पर पहले ग़ैर-स्नातकों को रख
लिया जाता था. शायद रोज़गार देने वाले यह सोचते हैं कि जिन कामों के लिए कम योग्यता
से काम चल सकता है उन कामों को करने के लिए अधिक योग्यता धारी कार्मिकों को भर्ती
कर वे अपने संस्थान का भला कर रहे हैं.
लेकिन हाल में जो अध्ययन
हुए हैं वे परिणामों की एक दूसरी ही छवि प्रस्तुत करते हैं. जिन कामों के लिए कम
योग्यता की ज़रूरत होती है उनको करते हुए ऐसे अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारियों में
कुण्ठा जड़ें जमाने लगती है और उन्हें लगने लगता है कि उनका काम चुनौतीपूर्ण नहीं
है, बोरिंग है और वे व्यर्थ में अपनी प्रतिभा नष्ट कर रहे हैं. आहिस्ता-आहिस्ता इस तरह के
कर्मचारियों में एक नकारात्मक रवैया घर करने लगता है और उनका बर्ताव विद्रोही होने
लगता है. वे देर से आने और जल्दी जाने लग जाते हैं और अपने साथी कर्मचारियों को
बिना वजह परेशान करने लग जाते हैं. इस तरह की प्रवृत्तियां युवतर कर्मचारियों और उनमें
ज़्यादा देखने को मिलती हैं जो किसी टीम के सदस्य के रूप में काम कर रहे होते हैं.
उन्हें बार-बार यह बात सालती है कि वे औरों से अधिक काबिल हैं और उन्हें कम
योग्यता वालों के साथ काम करना पड़ रहा है.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि
सभी अधिक योग्यता प्राप्त कर्मचारी अपने संस्थानों के लिए हानिप्रद ही साबित होते हों. ऐसे कर्मचारियों में से वे
जिनमें अधिक संवेदनशीलता होती है और जो अंतर्वैयक्तिक दक्षता सम्पन्न होते हैं वे
अपने सहकर्मियों के साथ न केवल उपयुक्त बर्ताव करते हैं और उनके साथ सहजता से घुल मिल जाते हैं, अपनी
दक्षता के दम पर उन्हें बेहतर कार्य निष्पादन के लिए भी प्रेरित कर देते हैं.
अपनी शिक्षा की वजह से उनका व्यवहार संतुलित होता है और वे दूसरों के साथ
आत्मीयता कायम कर बेहतर कार्य माहौल तैयार करने में मददगार साबित होते हैं. यहीं टीम
के नेतृत्व की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण
साबित होती है. अगर टीम लीडर समझदार होता है तो वो इस तरह के अधिक योग्यता प्राप्त
कर्मचारियों का प्रयोग टीम में अच्छा माहौल बनाये रखने और उसकी उत्पादकता बढ़ाने
में कर लेता है. टीम लीडर इस तरह के कर्मचारियों को उनकी योग्यता के अनुरूप काम
देकर और अनेक प्रकार से पुरस्कृत व प्रोत्साहित कर उनकी कार्यक्षमता से अपने
संस्थान को लाभान्वित करवा पाने में भी कामयाब रहता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 जनवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.