Sunday, May 31, 2009

धोखा-धड़ी की दुनिया के भीतर से


अगर आप इंटरनेट और ई मेल का इस्तेमाल करते हैं तो आपको कभी न कभी इस आशय का ई मेल ज़रूर मिला होगा कि दूर किसी देश में कोई बेहद अमीर बहुत बड़ी दौलत छोड़ कर मर गया है और उसकी बेवा आपकी सहायता से वह दौलत देश से बाहर भेजना चाहती है. निश्चय ही आपको इस सेवा का पर्याप्त मोल चुकाया जाएगा. इतनी बड़ी रकम की बात सुनकर अगर आप ललचा जाएं और बाद के पत्राचारों में अपने बैंक खाते का विवरण भेज दें तो आपका ठगा जाना पक्का होता है. इस तरह की धोखाधड़ी का केन्द्र है नाइजीरिया. वहीं की लेखिका अडाओबी ट्रिशिया न्वाउबानी ने अपने पहले उपन्यास आई डू नॉट कम टु यू बाय चांस में इसी धोखाधड़ी को केन्द्र में रखकर एक दिलचस्प कथा कही है.

अपने परिवार का बड़ा बेटा किंग्सले इबे केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर भी बेरोज़गार है. गरीब लेकिन आदर्शवादी मां-बाप ने बचपन से ही उसे सिखाया है कि शिक्षा से सारे बंद दरवाज़े खुल जाते हैं, लेकिन अब वह जानने लगा है कि दरवाज़े केवल शिक्षा से नहीं, जान-पहचान, जिसे नाइजीरिया में लोंग लेग कहा जाता है, से खुलते हैं. उसके बीमार पिता का निधन हो जाता है तो उसे अपने भाई बहनों की स्कूल की फीस तक चुकाना मुश्क़िल लगने लगता है. और जैसे इतना ही काफी न हो, उसकी खूबसूरत प्रेमिका ओला महंगी घड़ी और ब्राण्डेड चप्पलें दिला सकने वाले प्रेमी की खातिर उसे छोड़ देती है. मज़बूरन किंग्सले को अपने एक अंकल बोनीफेस की तरफ कर्ज़ के लिए हाथ पसारना पड़ता है. बहुत कम शिक्षित लेकिन खूब शान-ओ-शौकत से रहने वाले इस अंकल को कैश डैडी के नाम से जाना जाता है और यह उसी धोखा धड़ी का सफल संचालक है, जिसका मैंने प्रारम्भ में ज़िक्र किया और जिसे 419 के नाम से जाना जाता है. 419 असल में नाइजीरियाई कानून की वह धारा है जिसका सम्बन्ध धोखा-धड़ी से है. 419 को 420 का पर्याय माना जा सकता है.

परिवार की स्थिति बिगड़ती जाती है और किंग्सले कैश डैडी के जाल में गहरे फंसते जाता है. अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करते हुए वह कैश डैडी के लिए भोले-भाले लोगों को मोहक ई मेल लिखना शुरू करता है. पहले तो उसे लगता है कि भला कौन इस तरह के ई मेल के झांसे में आयेगा, लेकिन जब उसके भेजे ई मेलों के जवाब आने लगते हैं तो उसकी अंतरात्मा उसे कचोटने लगती है कि वह भोले-भाले बेगुनाह लोगों को ठग रहा है. कैश डैडी उसे समझाता है कि अमरीका और यूरोप, जहां से ये जवाब आ रहे हैं, भला नाइजीरिया की तरह के मुल्क थोड़े ही हैं जहां अभाव और कष्ट हैं. उन समृद्ध मुल्कों में तो सरकार अपने नागरिकों के सारे दुख दर्द दूर करती ही रहती है. इसलिए किंग्सले को वहां के लोगों के कष्टों की चिंता नहीं करनी चाहिए. इस तरह अपराध बोध कम होने से वह धीरे-धीरे इस व्यवसाय में रमने लगता है और फिर तो आहिस्ता-आहिस्ता उसे भौतिक सुख-सुविधाएं रास आने लगती हैं. उसके भाई बहन भी उसकी इस नव अर्जित अमीरी का सुख भोगने लगते हैं. व्यवसाय में तरक्की करते-करते वह कैश डैडी का नम्बर दो ही बन जाता है.
उधर कैश डैडी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पालने लगता है और इसी क्रम में कुछ ऐसे ताकतवर लोगों को अपना शत्रु बना लेता है जो उसे नेस्तनाबूद करने पर उतारू हो जाते हैं तो कहानी एक नया मोड़ लेती है.

निश्चय ही इस कथा का नायक किंग्सले दूध का धुला नहीं है. लेकिन उन लोगों को क्या कहिए जो किंग्सले के शिकार इसलिए बनते हैं कि उन्हें बिना मेहनत किये अमीर होना है? याद आता है कि कई वर्ष पहले नाइजीरियाई दूतावास ने वाशिंगटन में एक बयान जारी किया था कि “419 जैसा कोई घोटाला न हो, अगर दुनिया में बिना बोये ही फसल काट लेने के इच्छुक सहज विश्वासी, लालची और अपराधी वृत्ति के लोग न हों.” नाइजीरिया के जन-जीवन और इस घोटाले की बारीकियों के चित्रण के लिहाज़ से उपन्यास खासा रोचक है.



Discussed book:
I Do Not Come To You By Chance
By Adaobi Tricia Nwaubani
Published by Hyperion
416 pages, Paperback
US $ 15.99

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 31 मई, 2009 को प्रकाशित.









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Monday, May 18, 2009

भारत: नई सुपरपॉवर


अपनी बहु-चर्चित किताब पोस्ट अमरीकन वर्ल्ड में फरीद ज़कारिया ने भविष्यवाणी की थी कि आने वाले वर्षों में अमरीका महाशक्ति नहीं रह जाएगा. और अब अपनी ताज़ा किताब इण्डिया एक्सप्रेस: द फ्यूचर ऑफ अ न्यू सुपरपॉवर में डेनियल लाक कह रहे हैं कि एशिया का अमरीका बनने की संभावनाएं भारत में हैं. कनाडा निवासी डेनियल लॉक लगभग दो दशक तक भारत और निकटवर्ती क्षेत्रों में बीबीसी के लिए काम कर चुके हैं और इस पूरे क्षेत्र से भली-भांति परिचित हैं. अपनी इस किताब में वे इतिहास, आंकड़ों, साक्षात्कारों और निजी अनुभवों के मेल से भारत की एक ऐसी उजली छवि रचते हैं जो काफी हद तक विश्वसनीय है. किताब की शुरुआत वे चेन्नई के एक कपड़े इस्तरी करने वाले राम नामक निम्न वर्गीय व्यक्ति के वृतांत से करते हैं जो अपने अमीर ग्राहकों से कर्ज़ा लेकर अपने बेटे को पढ़ाता है और इस तरह आर्थिक प्रगति की सीढियां चढता है. लाक इस इस्तरी वाले को समकालीन भारत के एक प्रतीक की तरह पेश करते हैं, जो पुरानी जंजीरों, जातिवाद और पिछड़ेपन से मुक्त हो कर अपने भविष्य का निर्माण कर रहा है.

डेनियल लाक मानते हैं कि आज़ादी के बाद से प्रजातंत्र का सतत निर्वाह करके भारत ने इस पूरे इलाके में खुद को बेजोड़ सिद्ध कर दिया है. उनका यह भी मानना है कि गठबंधन की राजनीति भारतीय प्रजातंत्र की परिपक्वता की सूचक है. उन्हें यह अच्छा लगा है कि गठबन्धन की राजनीति ने केन्द्र की ताकत में कमी की है. लाक याद दिलाते हैं कि भारत में 1996 से ही लगभग लगातार गठबन्धन सरकारें रही हैं और इन्हीं के दौर में महत्वपूर्ण आर्थिक बदलाव हुए हैं. आर्थिक मुद्दों की चर्चा करते हुए वे यह बताना भी नहीं भूलते कि हाल ही में अमरीका में बहुत सारी बड़ी वित्तीय संस्थाओं के चरमरा जाने से भारत, चीन, ब्रज़ील और रूस की अहमियत बढ़ी है.

प्रजातंत्र की वजह से वे इस इलाके में भारत को चीन की तुलना में बेहतर मानते हैं. उन्हें इस बात की खुशी है कि प्रजातांत्रिक भारत उन कई अतियों से बचा रह सका है जिनकी शिकार चीन की जनता हुई है. वे चीन से भारत की कोई तुलना इसलिए भी उचित नहीं मानते कि चीन की 94% जनता तो एक ही भाषा-भाषी है. लाक भारत की विविधता को इसकी बड़ी पूंजी मानते हैं. उन के अनुसार, भारत की जनता अपनी विविधता की वजह से व्यापक वैश्विक परिदृश्य में भी बेहतर स्थान पाने की हक़दार है क्योंकि पूरी दुनिया भी वैविध्यपूर्ण ही है और भारतीय जनता उसकी जटिलताओं को ज़्यादा अच्छी तरह समझ और उनके साथ निर्वाह कर सकती है. इसी विविधता की वजह से वे भारत की तुलना अमरीका से करना पसन्द करते हैं, जहां, उनके अनुसार, दुनिया का हर धर्म और विश्वास मौज़ूद है.

जब लाक भारत को एक महाशक्ति के रूप में देखते और पेश करते हैं तो यह बात वे सैन्य दृष्टि से नहीं कहते. वे भारत को पुराने अमरीका और रूस की तरह की सैन्य महाशक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसी महाशक्ति के रूप में देखते और पेश करते हैं जिसके पास अपने उदार मूल्य और दुनिया की बेहतरी की योजनाएं हैं और जो एड्स और पर्यावरण जैसे प्रश्नों को सुलझाने में जुटा है.

ऐसा नहीं है कि लाक का नज़रिया सिर्फ सकारात्मक है. भारत में बहुत सारी कमियां भी उन्हें नज़र आई हैं. गरीबी, भ्रष्टाचार, बढते शहरीकरण, विभिन्न धर्मों, जातियों और स्त्री-पुरुष के बीच की भारी असमानता आदि को वे भारत की प्रगति के राह की सबसे बड़ी अड़चनों के रूप में देखते हैं. लाक को भारत के पड़ोसी देश भी इसके लिए एक समस्या नज़र आते हैं लेकिन इसके लिए वे चाहते हैं कि भारत बेहतर डिप्लोमेसी का इस्तेमाल करे और इन देशों के साथ अपना बर्ताव सुधारे.

डेनियल लाक के पास भारत की उन्नति के लिए एक ख़ास नुस्खा यह है कि भारत को शासन का संघीय ढांचा अपना लेना चाहिए. वे चाहते हैं कि भारत में भी अमरीका की तरह लगभग स्वतंत्र राज्य सरकारें हों जो टैक्स वगैरह लगाकर खुद अपने वित्तीय संसाधन जुटा सके. केन्द्र के पास तो सिर्फ बड़े मुद्दे जैसे रक्षा, आर्थिक नीतियां, अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह रहने चाहिए. अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे अमरीका के अलावा कनाडा, स्विटज़रलैण्ड और जर्मनी का उदाहरण देते हैं जिन्होंने संघीय ढांचा अपना कर खुद को आगे बढाया है.

डेनियल लाक अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बेपनाह संघर्ष करने वाली भारत की जनता को इसकी सबसे बड़ी सम्पदा मानते हैं. मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं: “एक भारतीय होने का अर्थ है दुनिया का सबसे बड़ा समस्या हल करने वाला होना, क्योंकि हर रोज़ आपको बेहद मुश्किल ज़िन्दगी से जूझना पड़ता है. बच्चों की शिक्षा से लगाकर चिकित्सा सुविधा और जीवन की आधारभूत ज़रूरतों तक, यानि अपने दैनिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में गतिशील रहने के लिए आपको अत्यधिक चरित्रिक शक्ति की आवश्यकता होती है.” डेनियल लाक को यह शक्ति भारतीय जनता में नज़र आई है और इसीलिए उन्हें लगता है कि 2040 तक भारत एक महाशक्ति के रूप में पहचाना जाने लगेगा.
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Discussed book:
INDIA EXPRESS: The future of the New Superpower
By Daniel Lak
Published by Palgrave Macmillan
272 pages, Hardcover
US $ 26.95

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत रविवार, 17 मई, 2009 को प्रकाशित.








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Monday, May 4, 2009

दास्तान लापता पाण्डुलिपि, हत्या और अफीम व्यापार की


कथाकार चार्ल्स डिकेंस एक बार फिर से चर्चा में हैं. 2009 के शुरू में डैन साइमंस की किताब आई ड्रुड जो डिकेंस की अपूर्ण कृति द मिस्ट्री ऑफ एडविन ड्रुड पर आधारित थी, और अब आई है मैथ्यू पर्ल की किताब द लास्ट डिकेंस. चार्ल्स डिकेंस का निधन 9 जून 1870 को मात्र 58 वर्ष की उम्र में हृदयाघात से हुआ था. उस समय वे अपने उपन्यास द मिस्ट्री ऑफ एडविन ड्रुड की, जो कुल 12 धारावाहिक किश्तों में छपना था, महज़ छह किश्तें लिख पाए थे. धारावाहिक के बाद इसे पुस्तकाकार छपना था. इस उपन्यास का अंत क्या हो सकता था, यह आज भी साहित्यिक हलकों में चर्चा का प्रिय विषय है. एड्विन ड्रुड ज़िन्दा है या मारा जा चुका है? क्या उसे उसके चाचा जॉन जैस्पर ने मारा? या कि वह बच निकला? कुछ ऐसे ही सवालों की रोचक परिणति है मैथ्यू पर्ल का यह उपन्यास. पर्ल आधी हक़ीक़त आधा फसाना शैली में अपने उपन्यास लिखा करते हैं, जिन्हें अब ऐतिहासिक उपन्यास विधा की एक उप शैली साहित्यिक थ्रिलर के अंतर्गत रखा जाने लगा है. इस शैली के उनके दो उपन्यास पहले ही खासे चर्चित रह चुके हैं: द दांते क्लब और द पो शेडो.

अपने इस ताज़ा उपन्यास द लास्ट डिकेंस की शुरुआत वे डिकेंस के बेटे फ्रैंक के वर्णन के साथ करते हैं जो भारत में बंगाल माउण्टेड पुलिस में सुपरिंटेंडेंट है. लेकिन उपन्यास की केन्द्रीय कथा का ताल्ल्लुक चार्ल्स डिकेंस के इस असमाप्त उपन्यास से है. फ्रैंक की कथा बाद में इससे जुड़ती है.

यह कथा बोस्टन शहर से शुरू होती है जहां डिकेंस के अमरीकी प्रकाशक फ़ील्ड्स, ऑस्गुड एण्ड कम्पनी के लोग इंग्लैण्ड से इस धारावाहिक उपन्यास की अगली किश्त के आने के इंतज़ार में हैं. कम्पनी के पार्टनर जेम्स ऑस्गुड ने अपने एक युवा क्लर्क डैनियल सैण्ड्स को बोस्टन समुद्र तट पर भेजा है कि वह लंदन से भेजी हुई यह किश्त लेकर आए, लेकिन कुछ किताब तस्कर और एक रहस्यपूर्ण व्यक्ति उसका पीछा करते हैं और उसे घायल करके मार डालते हैं. उपन्यास की किश्त गायब हो जाती है. पुलिस को शक़ है कि सैण्ड्स खुद इस पाण्डुलिपि को गायब करने के षडयंत्र में शामिल था. प्रकाशक के लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है. डिकेंस उस ज़माने में इतने लोकप्रिय थे कि उनकी किताबों को खरीदने के लिए डेढ़ मील लम्बी कतार लगा करती थी. ऐसे लेखक का उपन्यास अधूरा रह जाए तो उन्हें भारी नुकसान होगा. तो, खुद जेम्स ऑस्गुड अपने प्रकाशन संस्थान की एक युवा विधवा कर्मी रेबेका सैण्ड को साथ लेकर लंदन रवाना होते हैं, यह पता करने कि डिकेंस ने उपन्यास पूरा भी किया या नहीं, और डिकेंस ने उपन्यास पूरा न भी किया हो तो, उपन्यास का अंत क्या हो सकता था? रेबेका उसी मृत क्लर्क की बहन है. ऑस्गुड के सामने दोहरी चुनौती है. एक, डिकेंस के उपन्यास के रहस्य की तह में पहुंच कर अपने व्यापार को बचाने की, और रेबेका का दिल जीतने की.

केण्ट में ऑस्गुड डिकेंस के परिवार के लोगों से मिलते हैं, उन ग्रामीणों से मिलते हैं, जिन के आधार पर कथाकार ने एड्विन ड्रुड सहित अपने कई चरित्रों की रचना की. और इस तरह मैथ्यू पर्ल उस महान कथाकार डिकेंस की एक प्रामाणिक तस्वीर भी उकेर पाते हैं. केण्ट में ही यह रचना एक नया मोड़ भी लेती है. पर्ल यहां से डिकेंस के अपूर्ण उपन्यास की कथा को उस अफीम व्यापार से जोड़ते हैं जो इंगलैण्ड द्वारा भारत से संचालित किया जा रहा था और जिसका लक्ष्य था पूरे चीन को नशे का गुलाम बना डालना. स्वाभाविक है कि इस नशे के व्यापार का एक आयाम संगठित अपराध भी था. और इसीलिए यह कृति साहित्यिक थ्रिलर की कोटि में आती है. पर्ल ने इतिहास और कल्पना का बहुत खूबसूरत मेल किया है.

बहुत कुशलता से बुना गया यह उपन्यास अपने पाठक को रोमांचक अनुभूति तो देता ही है, 19 वीं शताब्दी के मध्य के जन-जीवन से भी परिचित कराता है. यहां एक साहित्यकार, उसकी असमाप्त कृति, जटिल चरित्र, तेज़ गति से घटती घटनाएं, अफीम की तस्करी, खून-खराबा, प्रकाशकों की आपसी प्रतिस्पर्धा, साहित्यिक पायरेसी, और मोहक प्रेम-कथा सब कुछ है. एक पाठक को और भला चाहिए भी क्या?

Discussed book:
The Last Dickens
By Mathew Pearl
Random House
386 pages
US $ 25

राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में मेरे पाक्षिक कॉलम किताबों की दुनिया के अंतर्गत 03 मई 2009 को प्रकाशित.








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