Tuesday, May 24, 2016

क्या पुलिस को भी संरक्षण मिलना चाहिए?

अपने देश में आए दिन कभी यहां से तो कभी वहां से पुलिस कर्मियों के साथ दुर्व्यवहार,  मारपीट और  यहां तक कि कभी-कभी उनकी हत्याओं तक की खबरें आती रहती हैं. पुलिस के साथ बदसुलूकी तो आम बात है और अच्छी खासी समझ रखने वाले भी उनके प्रति अपशब्दों और अपमानजनक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते रहते हैं. ऐसे में मुझे सुदूर अमरीका से आया एक समाचार विशेष रूप से ध्यानाकर्षक लगा. उस समाचार की चर्चा और विश्लेषण से पहले उसकी पृष्ठभूमि बता दूं.    

संयुक्त राज्य अमरीका के बहुत सारे राज्यों में उन लोगों को अतिरिक्त दण्ड देने के प्रावधान हैं जो नस्ल या धर्म के आधार पर किसी के विरुद्ध किसी भी तरह का अपराध करते हैं. यानि वहां अगर कोई किसी खास समूह से संलग्नता  के आधार पर किसी से  घृणा  करते हुए कोई अपराध करता है तो उस अपराध की गम्भीरता को बढ़ा कर देखा जाता है. सामान्यत: इस घृणा  में जातीयता, लैंगिकता या शारीरिक अक्षमता को शामिल किया जाता रहा है. लेकिन अब वहीं के एक राज्य लुइज़ियाना में बहुत जल्दी एक नया विधेयक पारित होकर लागू होने वाला है जिससे इस घृणा-अपराध कानून के तहत जन-सुरक्षा कार्मिकों (पुलिस और अग्नि रक्षक) को भी एक संरक्षक प्रजाति माना जाने लगेगा. इस विधेयक के लागू हो जाने के बाद इन सुरक्षा कार्मिकों के विरुद्ध किसी भी तरह का गम्भीर अपराध करने वालों पर पाँच हज़ार डॉलर तक का आर्थिक दण्ड या उन्हें पाँच साल के कारावास की सज़ा दी जा सकेगी. उल्लेखनीय है कि लुइज़ियाना ऐसा करने वाला अमरीका का पहला राज्य होगा. लुइज़ियाना में इस विधेयक को ‘ब्ल्यू लाइव्ज़  मैटर’  (नीली वर्दी वालों की भी जान कीमती होती है) के नाम से जाना जा रहा है. इस नामकरण का इतिहास यह है कि फर्ग्युसन  में  सन 2014 में माइकल ब्राउन नामक एक निहत्था अश्वेत किशोर पुलिस की गोलीबारी में मारा गया था और तब पुलिस की इस तथाकथित  ज़्यादती के खिलाव एक बड़ा अभियान  शुरु हुआ था जिसे ‘ब्लैक  लाइव्ज़ मैटर’ कहा गया था. अब इस ब्ल्यू लाइव्ज़  वाले नए अभियान के समर्थकों का कहना है कि ज़्यादा हमले तो पुलिस पर ही होते हैं, जबकि असल   में तो वह  कानून व्यवस्था स्थापित करने के अपने दायित्व का ही निर्वहन कर रही होती है.
इस बात की पुष्टि  नेशनल लॉ एन्फोर्समेण्ट मेमोरियल फंड के इस दावे से भी होती है कि सन 2015 में कम से कम 124  पुलिस अधिकारी अपना कर्तव्य निर्वहन करते हुए मारे गए थे. एफबीआई ने भी पिछले सप्ताह जो आंकड़े ज़ारी किए हैं उनके अनुसार सन 2015 में 41 कानून और व्यवस्था अधिकारी अपना कर्तव्य पालन करते हुए दुर्भावनापूर्वक मार डाले गए थे.

स्वाभाविक ही है कि इस तरह के हमलों ने प्रभावितों को और सरकार को विचलित किया है. लेकिन लुइज़ियाना राज्य जो कदम करीब-करीब उठा चुका है उससे सभी सहमत हों, ऐसा फिर भी नहीं है. न्यू ऑर्लियंस स्थित ब्लैक यूथ प्रोजेक्ट 100 ऐसा ही एक एक्टिविस्ट समूह है जो इस कदम से तीव्र असहमति रखता है. अपने तीव्र प्रतिवाद में उसने  कहा है कि घृणा-अपराध विधेयक में पुलिस को भी एक संरक्षित वर्ग के रूप में शामिल कर लेने से एक ऐसी संस्था को और अधिक संरक्षण मिलने लगेगा जो पहले से ही अपने कर्म, नीति और प्रभाव में आंकड़ों द्वारा नस्लीय साबित हो चुकी है. इस संगठन का यह भी कहना है कि हम तो इसे पुलिस की नृशंसता के विरुद्ध लोगों द्वारा चलाये जा रहे अभियान के खिलाफ एक विधायी आक्रमण और राजनीतिक प्रतिकार के रूप में देखते हैं.  इसी तरह एण्टी डिफेमेशन लीग के क्षेत्रीय निदेशक ने भी इस कदम को अविवेकपूर्ण बताया है. इस विधेयक के आलोचकों को आशंका यह है कि अगर यह लागू हो गया तो इसका दुरुपयोग पुलिस के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध को कुचलने में किया जाने लगेगा. बोस्टन स्थित नॉर्थ ईस्टर्न यूनिवर्सिटी के  अपराध शास्त्री  जैक लेविन ने तो और भी मार्के की बात कही है. उन्होंने आशंका व्यक्त की है कि हो सकता है संरक्षित समूहों की इस सूची में बाद में और कुछ समूह जोड़ दिये जाएं. लेकिन पुलिस को इस सूची में शामिल करने की सबसे बड़ी बुराई यह है कि वह उन बहुत सारे संगठनों में से एक है जो पहले ही काफी खतरनाक हैं. लेविन ने एक और गौर तलब बात यह कही है कि जिन खतरों की बात कहते हुए पुलिस को यह संरक्षण प्रदान किया जाने वाला है वे तो उसके कर्तव्य का हिस्सा हैं.

यानि सरकार का सोच एक तरफ और बहुत सारे संगठनों का सोच उसके विपरीत. और दोनों के अपने-अपने सशक्त तर्क. सोचें कि अगर हमारे देश में भी ऐसा ही कुछ हो तो हमारी प्रतिक्रिया  क्या होगी!   

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 मई, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकशित आलेख का मूल पाठ.