Tuesday, July 29, 2014

बड़ा बुरा समय आ गया है?

एक जाने-माने नर्तक के टॉक शो में जाने का अवसर मिला तो मेरा ध्यान इस बात पर गए बिना नहीं रह सका कि उनके बोलने के लहज़े में भी नृत्य समाहित था. बोल वे हिन्दी में रहे थे और आप-हम जैसा गद्य ही बोल रहे थे लेकिन मुझे लगा कि उस गद्य में भी लय-ताल सब मौज़ूद  है. अपने बहुत सारे अनुभवों की चर्चा करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि आज के विद्यार्थियों में कला के प्रति वैसा समर्पण भाव नहीं है  जैसा उनमें और उनकी पीढ़ी के शिष्यों में हुआ करता था. उनसे सहमत या असहमत कुछ भी न होते हुए भी मैं यह कहने की अनुमति चाहता हूं कि सारे बदलावों के बीच जो चीज़ नहीं बदली है वो यही है. यानि यह सोच कि अब ज़माना बहुत खराब आ गया है, और हमारा ज़माना बहुत अच्छा था. मैं हालांकि उनकी तरह कला का विद्यार्थी नहीं रहा लेकिन मैंने भी अपने शिक्षक मित्रों को यही कहते सुना है. शायद कई बार खुद मैंने भी ऐसा ही कहा हो.

लेकिन जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि मेरे गुरुजन भी यही बात कहा करते थे. उन्हें लगता था कि जितने अच्छे विद्यार्थी वे रहे थे, उतने अच्छे हम नहीं हैं. उनसे पूछा तो नहीं -क्योंकि तब गुरुजन  और शिष्यों के बीच रिश्ते इतने अनौपचारिक नहीं हुआ करते थे-  लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि मेरे उन गुरुजन के गुरुजन भी यही कहते रहे होंगे. तो क्या इससे हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि वर्तमान हमें सदा ही अतीत की तुलना में कम अच्छा लगता है? या यह कहना हमारे स्वभाव का एक अंतर्निर्मित अंग है? स्वभाव की बात तो इस विषय के विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकेंगे, मैं तो फिलहाल यह पड़ताल करने की कोशिश  कर सकता हूं क्या समय वाकई पहले की तुलना में खराब है.

मुझे याद आती है कोई पचास पचपन बरस पहले राष्ट्रकवि दिनकर से हुई एक छोटी-सी मुलाक़ात. तब पूरे देश में बहुत उग्र छात्र आन्दोलन चल रहे थे, और उसी सन्दर्भ में मैंने उनसे पूछ लिया था कि क्या ये छात्र अपने आन्दोलन  के ज़रिये देश को नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं? दिनकर जी का दो-टूक जवाब आज भी मुझे ज्यों का त्यों याद है. उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा था कि उनकी पीढ़ी ने देश का जितना नुकसान किया है, उसकी तुलना में तो यह कुछ भी नहीं है. दिनकर जी की इस बात से सूत्र लेते हुए अगर मैं आज के हालात पर विचार करता हूं तो  पाता हूं कि कल और आज में कोई बड़ा फर्क़  नहीं है. न तो कल बहुत अच्छा था और न आज बहुत बुरा है.

अब आप महंगाई की बात ही लीजिए. हम जिस समय में रह रहे हैं वो सूचना माध्यमों का समय भी है. इन माध्यमों पर आए दिन कभी एक पदार्थ तो कभी दूसरे पदार्थ के महंगे और पहुंच से बाहर हो जाने की ख़बरें छाई रहती हैं. और बेशक चीज़ें महंगी होती भी जा रही हैं. जितने रुपयों में कोई सब्ज़ी एक किलो मिलती थी उतने ही रुपयों में कुछ ही समय बाद वो ढाई सौ ग्राम मिलने लगती है. लेकिन क्या कीमतों का यह बढ़ना कोई नई बात है? मुझे याद है कि आज से कोई साठ पैंसठ साल पहले मेरे मां-बाप भी यही कहते थे कि महंगाई  बहुत बढ़ गई है,  घर का खर्च चलाना मुश्क़िल होता जा रहा है. चार आने की एक सेर (तब किलो नहीं होता था) शक्कर उन्हें बहुत महंगी लगती थी.

बात चाहे महंगाई की हो, अनुशासन की हो, समर्पण की हो, अवसरों की सुलभता की हो, जीवन संघर्षों की हो, अपराधों की हो – मुझे लगता है कि बुरे वक़्त की बात करना हमारी आदत का एक हिस्सा बन चुका है, अन्यथा वक़्त इतना भी बुरा नहीं है. हम चीज़ों के बढ़े हुए दामों को देखते हैं लेकिन अपनी बढ़ी हुई आमदनी को अनदेखा कर देना चाहते हैं. हम नई पीढ़ी में समर्पण की कमी का रोना रोते हैं लेकिन उन लोगों  के सामने आने  वाली नित नई चुनौतियों और उनसे जूझने में उनके जज़्बे को अनदेखा कर जाते हैं. हम जीवन के बढ़ते संघर्षों की बात करते हैं लेकिन बहुत सारी वजहों से जीवन के सुगम हो जाने की बात को अनदेखा कर जाते हैं. हम नित नई बीमारियों की बात करते हैं लेकिन इस बात को नहीं देखना चाहते कि औसत उम्र काफी बढ़ी है और सेहत के हालात भी बेहतर हुए हैं. 

मैं यह नहीं कह रहा कि समय बदला नहीं है. शायद कुछ चीज़ें बदतर भी हुई हैं. लेकिन उनकी चर्चा और शिकायत करते हुए जो बेहतर हुई हैं उनकी अनदेखी करना अपने ही प्रति अन्याय है – इसे भी समझना होगा.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 29 जुलाई 2014 को न कल समय अच्छा था, न आज बहुत बुरा  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.