Tuesday, July 31, 2018

उस अकेले रह रहे आदमी को बचाया जाना बहुत ज़रूरी है!


पिछले दिनों ब्राज़ील की सरकारी एजेंसी फुनाई ने एक जनजाति के अधेड़ लगने वाले व्यक्ति का दुर्लभ वीडियो ज़ारी किया है जिसके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. माना जाता है कि यह शख़्स अमेज़न के जंगलों में 22 बरस से रह रहा है और कदाचित यह अपनी जनजाति का आखिरी जीवित इंसान है. यह आदमी अनेक शोध रिपोर्ट्स और अमरीकी पत्रकार मोण्टे रील की किताब द लास्ट ऑफ द ट्राइब: द एपिक क्वेस्ट टू सेव अ लोन मेन इन द अमेज़नके कारण चर्चा में रह चुका है. पेड़ों की पत्तियों के बीच से लिये गए इस वीडियो में यह मांसल आदमी कुल्हाड़ी से पेड़ काट रहा है और इसमें पक्षियों की आवाज़ें भी सुनाई दे रही हैं. माना जा रहा है कि यह वीडियो सन 2011 का है, हालांकि इस व्यक्ति पर नज़र रखने वाले दल के एक सदस्य का दावा है कि आखिरी बार इसके ज़िंदा होने के प्रमाण मई, 2018 में मिले थे.

इस वीडियो के साथ एक प्रेस नोट भी ज़ारी किया गया है जिसमें बताया गया है कि इस शख़्स की सिर्फ एक धुंधली-सी तस्वीर उपलब्ध है जो 1998 में ब्राज़ील की एक डॉक्यूमेण्ट्री  कोरुम्बियारा के निर्माता ने ली थी. इस व्यक्ति की निगरानी करने वाले दल के समन्वयक आल्टेयर अल्गायर का कहना है कि उनका फाउण्डेशन यह वीडियो ज़ारी नहीं करना चाहता था क्योंकि उस शख़्स से इसको ज़ारी करने की अनुमति नहीं ली जा सकी है. वैसे भी उनके संगठन की नीति यह है कि वह अकेले रह रहे मूल निवासियों से सम्पर्क करने से बचती है क्योंकि अतीत में उस आदमी ने सम्पर्क करने की कोशिश  करने वालों पर तीर चलाकर यह स्पष्ट संदेश दे दिया था कि वह बाहरी लोगों से नहीं  मिलना चाहता है.  लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे ज़ारी करने के अपने निर्णय को उचित ठहराया कि ऐसी तस्वीरों से उन लोगों के दर्द की  तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित करने में मदद मिलती है जो बाहरी दुनिया से अपनी दूरी बनाए रखने के लिए निरंतर संघर्षरत हैं. यहीं यह बात भी जानने योग्य है कि फुनाई की टीम सन 1996 से ही इस आदमी की निगरानी कर रही  है. अब भी फुनाई की टीम दूर रहकर ही इसकी निगरानी करती है. उसने कम से कम 57 यात्राएं  और चालीस बार उसे बचाने के प्रयत्न  किये हैं. फुनाई की टीम हर दूसरे माह एक यात्रा कर इस बात की पुष्टि करती है कि वह व्यक्ति जीवित है. लेकिन फुनाई ने अब यह महसूस किया है कि ब्राज़ील के उत्तर पश्चिमी राज्य रोण्डोनिया के जिस इलाके में यह आदमी रहता है उसे प्रतिबंधित क्षेत्र बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि एक वीडियो ज़ारी कर पूरी दुनिया को बताया जाए कि वह आदमी अभी भी जीवित है. आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले एक संगठन सर्वाइवल इण्टरनेशनल की रिसर्च और एडवोकेसी निदेशक फ़ियोना वाट्सन का कहना है कि इस वीडियो को एक राजनीतिक कारण से भी ज़ारी करना पड़ा है. उन्हें लगता है कि ब्राज़ील की सरकार में कृषि व्यवसाय करने वालों का प्रभुत्व है और उनके दबाव में न केवल फुनाई का बजट कम कर दिया गया है, वहां के मूल निवासियों के अधिकारों पर भी कुठाराघात किये जा रहे हैं.  रोण्डोनिया का यह इलाका लगभग चार हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है और खेतों आदि से घिरा हुआ है.

वैसे तो सारी ही दुनिया में आदिवासियों को उनकी ज़मीन से बेदखल करने का क्रूर खेल ज़ारी है लेकिन ब्राज़ील में सत्तर और अस्सी के दशक में इस रोण्डोनिया  इलाके में सड़क बनाने के सिलसिले में इस जनजाति के अधिकांश लोगों को तबाह कर दिया गया. किसान और अवैध लकड़ी काटने वालों  की बुरी नज़र आज भी उनकी ज़मीन पर है. पिछले ही बरस वहां ज़मीन के लिए हुए संघर्षों में कम से कम 71 जानें जा चुकी हैं.  लेकिन इस सबके बावज़ूद सर्वाइवल इण्टरनेशनल के अनुसार, ब्राज़ील के अमेज़न रेन फोरेस्ट में दुनिया के किसी भी दूसरे  इलाके की तुलना में ऐसे आदिवासी अधिक रहते हैं जिनसे अब तक सम्पर्क नहीं किया जा सका है. इन जनजातियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होती है इसलिए भी इन्हें बाहरी दुनिया के  लोगों से बचाए रखना बहुत ज़रूरी है. इस व्यक्ति के बारे में फुनाई के प्रादेशिक संयोजक अल्टेयर अल्गायर का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि “यह व्यक्ति जिसे हम जानते तक नहीं हैं, अपने निकटस्थ  लोगों और अपनी सांस्कृतिक जीवन शैली सहित सब कुछ गंवा चुकने के बाद भी जंगल में अकेला रह कर यह साबित कर रहा है कि मुख्यधारा के समाज से जुड़े बग़ैर भी ज़िंदा रहा जा सकता है. मुझे तो लगता है कि अगर उसने बाहरी समाज से कोई सम्पर्क बनाया होता तो तब वो जैसा होता, उससे आज कहीं ज़्यादा बेहतर है.”

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ  इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 31 जुलाई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 24, 2018

आभासी दुनिया से बाहर निकल कर ज़िंदगी बिताएं!


हम एक ऐसे विचित्र समय में जी रहे हैं जब सोशल मीडिया  पर तो सैंकड़ों, और किसी-किसी के तो हज़ारों दोस्त होते हैं लेकिन असल ज़िंदगी  में वे निहायत अकेले होते हैं, उनके घर के ठीक बगल में रहने वाले से भी उनकी कोई दुआ-सलाम नहीं होती है. इस बात को लेकर अनेक लतीफे भी प्रचलन में आ चुके हैं. लेकिन इधर विशेषज्ञों का ध्यान भी इस विडम्बना की तरफ गया है और उनके अध्ययनों के परिणामों को देखने पर हम पाते हैं कि अपनी असल ज़िंदगी में भी सक्रिय लोगों की स्थिति उनसे बेहतर है जो मात्र आभासी दुनिया के रिश्तों से संतुष्ट हैं. द टाइम्सकी पुरस्कृत उपभोक्ता स्वास्थ्य साइट वेलकी संस्थापक सम्पादक तारा पार्कर पोप ने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया है कि जब वे टाइम्स जर्नीज़ की ओर से प्रायोजित एक वेलनेस क्रूज़ से लौटीं तो न केवल बेहतर महसूस कर रही थीं, उनका यह इरादा भी और मज़बूत हुआ था कि अब उन्हें खुश मिजाज़ लोगों की सोहबत में और अधिक समय बिताना है. इस क्रूज़ में सत्रह से अस्सी बरस की आयु समूह के लोग शामिल थे. इसी क्रूज़ में उनकी दोस्ती एक ऐसी पचास वर्षीय महिला से हुई जो खुद फेफड़ों के कैंसर से उबरी थीं और इस महिला ने तारा पार्कर को एक ख़ास लेकिन मुश्क़िल व्यायाम करने के लिए प्रोत्साहित किया. इसी क्रूज़ में उन्हें एक और स्त्री मिली जिसने अपने अनुभव साझा करते हुए उन्हें बताया कि किस तरह उनके सकारात्मक दोस्तों ने उन्हें बहुत कम समय में एक के बाद एक – दो पतियों के बिछोह को सहने की ताकत दी. इसी स्त्री ने उन्हें यह अनमोल मंत्र भी दिया कि “नकारात्मक लोगों पर नष्ट करने के लिए यह जीवन बहुत छोटा है. मैं तो अपने इर्द गिर्द  ऐसे लोग चाहती हूं जो मेरी परवाह करे, मेरी सराहना करें और जो ज़िंदगी को आधे भरे  हुए गिलास वाले नज़रिये से देखें, न कि आधे खाली वाले नज़रिये से.”   

तारा पार्कर जिन नतीज़ों पर पहुंची उन्हीं को नेशनल ज्योग्राफिक के फैलो और लेखक डैन बट्टनर ने अपने अध्ययन से भी पुष्ट किया है. डैन ने सारी दुनिया के उन तथाकथित  ब्लू जोन्स में रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य आदतों का अध्ययन किया है जिनके बारे में यह मान्यता प्रचलित है कि वहां रहने वालों की औसत उम्र अन्यों से कहीं अधिक होती है. डैन ने यह पाया कि इन जोन्स में रहने वालों में एक बात साझी है और वह यह कि ये सब सकारात्मक मैत्री में विश्वास करते हैं. डैन ने बताया कि उन्होंने जापान की एक जगह ओकिनावा का अध्ययन करते हुए यह पाया कि वहां की औरतों की औसत उम्र नब्बे के आसपास है और यह दुनिया में सर्वाधिक है. जब उन्होंने इसकी वजह की पड़ताल की तो उन्हें पता लगा कि वहां के लोग एक सामाजिक तंत्र बना लेते हैं जिसमें पांच नज़दीकी दोस्त होते हैं. ये दोस्त आजीवन एक दूसरे को सामाजिक, व्यवस्थागत, भावनात्मक और अगर ज़रूरत हो तो आर्थिक भी, सम्बल प्रदान करते हैं. इस तंत्र को मोआई कहा जाता है. डैन ने बताया कि वहां जैसे ही किसी शिशु का जन्म होता है, उसके मां-बाप उसे किसी मोआई का सदस्य बना देते हैं और फिर आजीवन इस सम्बंध का निर्वाह किया जाता है. जैसे-जैसे उस सदस्य का  परिवार बनता जाता है पूरा का पूरा परिवार उस मोआई से जुड़ता चला जाता है.

अपने इस अध्ययन से डैन बट्टनर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसे अपने देश अर्थात अमरीका में भी चलन में लाने का इरादा किया और अब वे अमरीका के पूर्व सर्जन जनरल विवेक मूर्ति के साथ मिलकर वहां के लगभग दो दर्जन शहरों में मोआई स्थापित करने में जुटे हुए हैं. हाल में उन्होंने टैक्सास  के एक शहर में वहां के कई नागरिकों को लेकर एक चलते फिरते मोआई की स्थापना भी की है जिसमें लोग नियमित रूप से मिलकर साथ में चहल कदमी करते हैं. डैन का कहना है कि किसी कामयाब मोआई की शुरुआत के लिए यह ज़रूरी है कि उसके लिए ऐसे लोगों का चयन किया जाए जिनकी रुचियां और मूल्य बोध एक जैसे हों. डैन ज़ोर देकर यह बात कहते हैं कि अगर आप अपनी आयु के कुछ साल बढ़ाना चाहते हैं तो पहला और सबसे ज़रूरी काम यही करें कि अपने इर्द गिर्द एक सामाजिक तंत्र निर्मित करें. वे सलाह देते हैं कि दूर की आभासी दुनिया में सैंकड़ों दोस्त बनाने से कहीं बेहतर है अपनी असल ज़िंदगी में महज़ पांच ही दोस्त बना लेना. ये दोस्त ऐसे हों जिनसे आप सार्थक संवाद कर सकें. ज़रूरत के समय जिन्हें इस भरोसे के साथ पुकार सकें कि वे दौड़े चले आएंगे और आपकी मदद करेंगे. डैन कहते हैं कि आपके इस तरह के दोस्त किसी भी औषधि या बुढ़ापा रोकने वाली दवा से कहीं ज़्यादा कारगर साबित होंगे.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 जुलाई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 17, 2018

ताकि बन सके मौत का आना भी एक उत्सव!


जीवन और मृत्यु शाश्वत हैं, यह बात हर कोई जानता है लेकिन इसके बावज़ूद इनमें से एक, यानि मृत्यु का खयाल ही हर किसी को विचलित कर देता है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने क्या खूब कहा है कि मौत का एक दिन मुअय्यन (निश्चित) है/ नींद क्यों रात भर नहीं आती.  गोपालदास नीरज ने इसी बात को इस तरह कहा है: न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सी ही बात है/  किसी की आंख खुल गई किसी को नींद आ गई. लेकिन शायर और कवि चाहे जो कहें,  मृत्यु का नाम ही इतना डरावना होता है कि उसे सुनते ही हर कोई हिल जाता है. हम अपने चारों तरफ़ देखते हैं कि चलाचली की वेला में हर सम्भव प्रयास किए जाते हैं कि मृत्यु को स्थगित किया जा सके. अपनी सामर्थ्य के अनुसार  पानी की तरह पैसा बहाया जाता है, डॉक्टरों वैद्यों की चिरौरी की जाती है और अगर उस तरह की आस्था हो तो तमाम देवी देवताओं के यहां गुहार लगाई जाती है. लेकिन ग़ालिब मिथ्या  फिर भी साबित नहीं हो पाते हैं!

सारी दुनिया में स्वास्थ्य की स्थितियां सुधरती जा रही हैं, चिकित्सा सुविधाएं बेहतर होती जा रही हैं और इनके फलस्वरूप अधिक उम्र वाले लोगों की तादाद भी बढ़ती जा रही है. लेकिन जब उन्हें यमराज का बुलावा आता है तो उनके परिजन, जो स्वभावत: उनकी तुलना में युवा होते हैं, उन्हें अस्पताल ले जाते हैं और विभिन्न किस्म के जीवन रक्षक उपकरणों की सहायता से उनके जीवन के विराम  चिह्न को आगे धकेलने का हर सम्भव प्रयास करते हैं. ऐसे में बहुत बार परिवार के वृद्धजन को अपने जीवन के आखिरी दिनों का बहुत सारा हिस्सा अस्पताल के बिस्तर पर कई तरह के जीवन रक्षक उपकरणों के तारों और नलियों से घिरे हुए व्यतीत करना पड़ता है और बहुत बार वहीं से वे जीवन को अलविदा भी कह देते हैं. मृत्यु को लेकर करीब-करीब सारी दुनिया में एक ऐसी संवाद हीनता व्याप्त है कि कभी कोई अस्पताल के बेड  पर लेटे उस वृद्ध या वृद्धा से तो पूछता ही नहीं है कि आखिर वो ख़ुद क्या चाहता है!

ऐसे में ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैण्ड मेडिकल असोसिएशन का एक प्रस्ताव नई रोशनी लेकर आया है. असोसिएशन ने एक डेथ लैसन यानि मृत्यु के पाठ का प्रस्ताव किया है. यह पाठ किसी अतिरिक्त अथवा नए विषय के रूप में नहीं पढ़ाया जाएगा, अपितु इसकी विषय वस्तु को वर्तमान विषयों जैसे जीव विज्ञान, औषध विज्ञान और नीति शास्त्र जैसे विषयों  में ही  शामिल कर लिया जाएगा. इस विषय की ज़रूरत के बारे में बताते हुए असोसिएशन  से सम्बद्ध डॉ रिचर्ड रिड ने बताया है कि उनका उद्देश्य यह है कि युवा अपने मां-बाप और दादा-दादी से उनके जीवन के अंत को  लेकर सहजता से बात कर सकें और यह जान सकें कि वे अपना अंतिम समय किस तरह बिताना चाहते हैं. अब तक सारी दुनिया में लोग मौत के विषय पर बात करने से कतराते हैं. अगर युवाओं को इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार कर दिया जाए तो वे इस बारे में बेहतर निर्णय कर सकेंगे कि उनके निकटस्थ परिजनों का आखिरी समय किस तरह व्यतीत हो. असल में, डॉ रिड कहते हैं कि युवा यह जानते ही नहीं है कि वे अपने निकटस्थ लोगों का आखिरी समय और ज़्यादा सुखद बना सकते हैं. अभी स्थिति यह है कि ऑस्ट्रेलिया में मात्र पंद्रह प्रतिशत लोग ही अपने घर में अपने परिवार जन के बीच रहकर आखिरी सांस  ले पाते हैं, शेष  पिच्चासी  प्रतिशत को यह छोटी-सी खुशी भी नसीब नहीं होती है और वे अस्पताल के बेगाने माहौल में ही दम तोड़ने को मज़बूर होते हैं. बहुत छोटी-सी तैयारी से उन्हें यह सुख प्रदान किया जा सकता है. डेथ लैसन इसी दिशा में उठाया गया एक क़दम है.

डॉ रिड  का सोच यह है कि स्कूली पाठ्यक्रम में बच्चों को ज़रूरी कानूनों और उनके नैतिक कर्तव्यों के बारे में तो पढ़ाया ही जाए, इच्छा मृत्यु के बारे में भी बताया जाए ताकि वे अपने परिजनों से संवाद कर यह जान सकें कि वे किस तरह का और किस हद तक इलाज़ चाहते हैं और अपने अंतिम समय के बारे में उनकी परिकल्पना क्या है. यह सब जानने के बाद परिवार के लोग जाने को तैयार बैठे अपने साथी के बारे में अधिक विवेकपूर्ण और मानवीय निर्णय कर सकेंगे, ऐसा निर्णय जो न केवल प्रियजन की इच्छा के अनुकूल हो, कानून सम्मत भी हो. डॉ रिड का खयाल है कि अगर उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है तो इससे एक बेहतर शुरुआत होगी और मेक्सिको तथा आयरलैण्ड की भांति ऑस्ट्रेलिया में भी मृत्यु अवसाद की बजाय उत्सव का विषय बन सकेगी. उल्लेखनीय है कि इन देशों में बाकायदा मृत्यु का उत्सव मनाया जाता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 जुलाई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, July 3, 2018

वहां के हालात देखते हैं तो ख़ुद पर बहुत गर्व होता है!


भले ही हाल में ज़ारी हुई थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वे के अनुसार  भारत को महिलाओं के लिए सबसे असुक्षित देशों की सूची में पहले स्थान पर रखा गया है, इस बात को तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत में स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही स्त्रियों को वे तमाम अधिकार प्रदान कर दिये गए थे जो किसी भी सभ्य समाज में एक मनुष्य को मिलने चाहिएं. लेकिन हम इन अधिकारों के महत्व को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि हम दुनिया के और देशों में स्त्रियों पर ज़ारी प्रतिबंधों के बारे में न जान लें. इसीलिए  हाल  में जब यह ख़बर आई कि कई दशकों के प्रतिबंध के बाद सऊदी अरब की स्त्रियों को भी ड्राइव करने का हक़ मिल गया है तो अपने देश के हालात पर गर्व हुआ. यह गर्व तब और कई गुना बढ़ गया जब यह जाना कि बावज़ूद इस नव अर्जित आज़ादी के, अभी भी सऊदी अरब की स्त्रियां ऐसे अनेक प्रतिबंधों की जंज़ीरों में कैद हैं, जो हमारे लिए कल्पनातीत हैं. सऊदी अरब में स्त्रियों की आज़ादी की यह बयार वहां के शक्तिशाली क्राउन प्रिंस बत्तीस वर्षीय मोहम्मद बिन सलमान के उदारवादी नज़रिये और देश को आधुनिक बनाने की मुहिम की वजह से बहने लगी है, हालांकि वहां की रूढ़िवादी धार्मिक ताकतें अभी भी इन बदलावों को सहजता से नहीं ले पा रही हैं.

यह जानकर आश्चर्य होता है कि इक्कीसवीं सदी में भी सऊदी अरब की स्त्रियों को किसी पुरुष, जिसे वली कहा जाता है, की छत्र-छाया में ही रहना होता है. भले ही उस देश के लिखित कानून में इस बात का उल्लेख नहीं है, व्यवहार में सर्वत्र यह लागू है और इस कारण वहां की स्त्री बग़ैर अपने पुरुष गार्जियन की अनुमति के जीवन का कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं कर सकती है. न वह यात्रा कर सकती है, न पासपोर्ट ले सकती है, न बैंक खाता खोल सकती है, न शादी कर सकती है न तलाक ले सकती है और न किसी अनुबंध पर हस्ताक्षर कर सकती हैं. वहाबी पंथ के इस अलिखित प्रावधान के चलते वहां की स्त्रियां घरेलू हिंसा के खिलाफ भी कोई प्रभावी कदम नहीं उठा सकती हैं. राहत की बात बस इतनी है कि मई 2017 में मोहम्मद बिन  सलमान ने थोड़ी-सी राहत देते हुए स्त्रियों को यह हक़ दिया है कि वे बग़ैर गार्जियन की  अनुमति के किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश  ले सकती हैं, नौकरी कर सकती हैं और शल्य चिकित्सा करवा सकती हैं.

सऊदी अरब की स्त्रियों को अपनी वेशभूषा के चयन में अभी भी इस्लामी कानून-कायदों का ही पालन करना होता है. अधिकांश स्त्रियों को चोगे जैसा एक ढीले-ढाले किंतु पूरे शरीर को ढक लेने वाले वस्त्र जिसे अबाया कहा जाता है, को पहनना  होता है और अपना सर ढकना होता है. हां, अब उनके लिए मुंह को ढकना ज़रूरी नहीं रह गया है, लेकिन वहां की धार्मिक पुलिस प्राय: अंग प्रदर्शन या ज़्यादा बनाव शृंगार किये होने का आरोप लगाकर औरतों को तंग करती रहती है. पिछले बरस तो वहां के एक प्रमुख धार्मिक नेता ने यह आदेश भी ज़ारी कर दिया था कि स्त्रियां जो अबाया पहनें वह किसी भी तरह से सज्जित न हो. वैसे, वहां ड्रेस कोड को लेकर  ग़ैर  सऊदी अरब महिलाओं के कानून कुछ लचीला है.  

सऊदी अरब में इस बात का  भी ध्यान रखा जाता है कि स्त्रियां ऐसे पुरुषों के साथ जिनसे उनका कोई रिश्ता न हो, कितना समय बिता सकती हैं. वहां की ज़्यादातर सार्वजनिक इमारतों, जैसे कार्यालयों, बैंकों, शिक्षण संस्थाओं वगैरह में स्त्रियों और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार होते हैं और सार्वजनिक यातायात के साधनों, पार्कों, समुद्र तटों वगैरह पर प्राय:  स्त्रियों और पुरुषों के अलग-अलग स्थान सुनिश्चित होते हैं, अगर कोई स्त्री-पुरुष इन प्रावधानों का उल्लंघन  करते हैं तो उसे आपराधिक कृत्य  मान  कानूनी कार्यवाही की जाती है और विशेष रूप से स्त्रियों को अधिक प्रताड़ित होना पड़ता है. सऊदी अरब में  एक अजीब प्रतिबंध  यह भी है कि स्त्रियां न तो किसी कब्रस्तान में जा सकती हैं और न वे कोई ऐसी फैशन पत्रिका पढ़ सकती हैं जिसे सेंसर न किया गया हो. लेकिन यहीं यह बात भी कह देना ज़रूरी है कि जैसा भारत में और दुनिया में अन्यत्र भी कई जगह होता है, सऊदी अरब में भी प्रतिबंधो की कठोरता इस बात पर निर्भर करती है कि आप कौन हैं और आपके ताल्लुकात किन-किन से हैं!

सऊदी अरब के ये हालात निश्चय ही हमें अपने देश की स्त्रियों को मिले अधिकारों पर गर्व करने का मौका देते हैं. क्या ही अच्छा हो कि हमारा समाज व्यवहार में भी स्त्रियों के प्रति अधिक संवेदनशील बने और उन्हें गरिमापूर्वक जीने का मौका दे. अगर ऐसा हो जाए तो निश्चय ही हम सारी दुनिया के सामने अपना सर उठा कर जी सकेंगे.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 03 जुलाई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.