Tuesday, March 27, 2018

कैमरून में पूरे पैतीस बरसों से जमे हुए हैं पॉल बिया


हाल में भारतीय समाचार माध्यमों में इस बात की काफी चर्चा रही थी कि चीन की सत्ताधारी कम्यूनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पद पर अपने किसी सदस्य को अधिकतम दो कार्यकाल देने का संवैधानिक प्रावधान हटाने का प्रस्ताव रखा है. वर्तमान प्रावधानों के मुताबिक चीन के राष्ट्रपति एक साथ दो कार्यकाल तक पद पर बने रह सकते हैं. चीन में यह व्यवस्था 1982 से लागू है और इसके तहत राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है. अगर यह प्रस्ताव लागू हो जाता है तो चीन के वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग 2023 में खत्म हो रहे अपने दूसरे कार्यकाल के बाद भी अपने  पद पर बने रह सकते हैं. राजनीति के जानकारों का खयाल है कि इस संवैधानिक  बदलाव का असल मक़सद शी जिनपिंग को उनके दूसरे कार्यकाल के बाद भी अनिश्चित काल तक इस पद पर बनाये रखना है.

इस चर्चा से मुझे अनायास ही दुनिया के एक अन्य देश के राष्ट्रपति पॉल बिया का ध्यान आ गया जो पिछले पैंतीस बरसों से यानि 1982 से अपने पद पर बने हुए हैं.  ये पॉल बिया 23.44 मिलियन की आबादी वाले मध्य और पश्चिम अफ्रीका में स्थित देश कैमरून के राष्ट्रपति हैं. कैमरून की भौगोलिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक विशेषताओं के कारण इसे अफ्रीका इन मिनिएचर के नाम से भी जाना जाता है. कैमरून में दो सौ से भी अधिक जन जातियां और भाषाई समूह निवास करते हैं. भारत में हमने हाल के दिनों में बोको हरम नामक एक बलवाई संगठन की गतिविधियों के संदर्भ में भी इस देश का नाम पढ़ा-सुना था. कैमरून के इन 85 वर्षीय राष्ट्रपति महोदय की गणना अफ्रीका में सर्वाधिक समय तक सत्तासीन रहे राजनेताओं में से एक के रूप में होती है. मज़े की बात यह है कि कैमरून की साठ प्रतिशत आबादी पच्चीस साल से कम उम्र वाले युवाओं की है और पॉल बिया उनके जन्म के पहले से इस पद पर जमे हुए हैं. लेकिन ये युवा जिस ताज़ा हवा में सांस ले रहे हैं उसमें  सैटेलाइट टीवी और इण्टरनेट के ज़रिये आने वाली जानकारियां भी हैं जिनसे इन्हें दुनिया के अन्य देशों में हो रहे बदलावों की जानकारियां मिलती रहती हैं. यही वजह है कि अब आहिस्ता-आहिस्ता कैमरून में इन राष्ट्रपति महोदय के प्रति असंतोष की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. लोग इस बात को याद करने लगे हैं कि सन 2008 तक वहां राष्ट्रपति के कार्यकाल की सीमाएं तै थीं लेकिन उन सीमाओं को हटा लेने के कारण ही पॉल बिया 2011 में पुन: अपने पद पर निर्वाचित कर लिये गए. इस बरस अक्टोबर में वहां फिर से चुनाव होने हैं लेकिन अब तक तो पॉल बिया ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वे इस पद पर फिर निर्वाचित नहीं होना चाहेंगे.

पॉल बिया की सबसे अधिक आलोचना उनकी उस कार्यशैली की वजह से होती है जिसके कारण उन्हें अनुपस्थित राष्ट्रपति नाम से पुकारा जाने लगा है. यह बात याद की जाने लगी है कि अभी हाल ही में, दो बरस से भी अधिक समय के बाद उन्होंने अपनी पहली काबिना बैठक बुलाई है. इसके अलावा उनकी विदेश यात्राएं भी वहां खासी चर्चा और आलोचना का विषय बनी हुई हैं. बल्कि इन यात्राओं को लेकर तो वहां के सरकारी अख़बार कैमरून ट्रिब्यून और ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम एण्ड करप्शन रिपोर्टिंग नामक एक स्वतंत्र प्रोजेक्ट के बीच अच्छी खासी बहस हो चुकी है. इस प्रोजेक्ट ने विभिन्न समाचार पत्रों के हवाले से यह बात कही है कि राष्ट्रपति महोदय पिछले एक बरस में अपनी निजी यात्राओं पर करीब साठ दिन देश से बाहर रहे हैं. इस प्रोजेक्ट ने यह भी बताया है कि 2006 और 2009 में राष्ट्रपति महोदय एक तिहाई समय देश से बाहर रहे हैं. बताया गया कि विदेश में राष्ट्रपति महोदय जेनेवा के इण्टरकॉण्टीनेण्टल  होटल में समय व्यतीत करना पसंद करते हैं. जैसा कि इस तरह के सारे मामलों में होता है, कैमरून के सरकारी अखबार ने इन रिपोर्ट्स को चुनावी प्रोपोगैण्डा कहकर नकार दिया है.

पॉल बिया भले ही अपनी कुर्सी पर जमे बैठे हों, उनके देश के हालात कुछ ठीक नहीं हैं. सरकार बहुत निर्ममता से प्रतिपक्ष को कुचलने में जुटी है. विरोधियों की मीटिंग्स पर रोक लगा दी गई है और विपक्षी दलों  के नेताओं को जेलों में डाला जा रहा है. विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक प्रतिरोध पर पाबंदियां  आयद कर दी गई और सुरक्षा टुकड़ियों ने शिक्षकों की हड़ताल को अपने पैरों तले रौंद डाला है. बोको हरम से निबटने के नाम पर नागरिक अधिकारों का खुलकर हनन किया जा रहा है. पत्रकारों की आवाज़ को दबाने के अनगिनत मामले भी सामने आ रहे  हैं. ऐसे हालात में सभी की दिलचस्पी इस बात में होगी कि अक्टोबर में पॉल बिया फिर से राष्ट्रपति चुने जाते हैं या नहीं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 मार्च, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Friday, March 23, 2018

चाहे जो हो जाए हम सुप्रभात संदेश भेज कर ही मानेंगे!


अब तो यह बात प्रमाणित भी हो गई है कि जब बात गुड मैनर्स की हो रही हो तो इस गाने को याद कर लिया जाना चाहिए: “सबसे आगे होंगे हम हिंदुस्तानी!”  शादाब लाहौरी साहब ने क्या खूब लिखा था  कि “हज़ूर आपका भी एहतराम  करता चलूँ/ इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ” लेकिन हम तो उनके सोच से भी काफी आगे निकल आए हैं. अब हम किसी के नज़दीक से गुज़रने पर ही उसे सलाम नहीं करते हैं, खुद बड़े  सबेरे जाग कर लोगों के घर-घर जाकर अपना सलाम पेश  करने लगे हैं. बेशक यह करने के लिए हम अपने मोबाइल फोन और इण्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं. हममें से बहुत सारे लोग हर सुबह उठकर पहला काम अपने परिवार जन, दोस्तों और सामान्य जान पहचान वालों तक को भगवान, फूल पत्ती, उगते हुए सूर्य, किसी मासूम शिशु के प्यारे चेहरे या ऐसी ही किसी और तस्वीर के साथ सुप्रभात कहकर करते हैं. सुप्रभात कहने का यह उत्साह हममें इतना ज़्यादा है कि उन समूहों में घुसकर भी हम अभिवादन करने से बाज़ नहीं आते हैं जिनके एडमिन कई बार यह प्रार्थना कर चुके होते हैं कि कृपया यहां गुड मॉर्निंग के संदेश पोस्ट न करें! अगर मौका लग जाए तो हम ऐसे अशिष्ट एडमिन से जूझने में और उन्हें दो-चार सदाचारी उपदेश पिलाने में भी कोई संकोच नहीं करते हैं. आखिर शिष्टाचार भी कोई चीज़ होती है, साहब!

शिष्टाचार के प्रति हमारे इस लगाव पर प्रमाणीकरण की मुहर लगाई है गूगल ने. असल में हुआ यह कि जब गूगल वालों को यह बात पता चली कि इधर दुनिया भर में लोगों के स्मार्टफोन जल्दी-जल्दी फ्रीज़ होने लगे हैं, तो उन्होंने अपने शोधकर्ताओं को इसके कारण की पड़ताल करने का ज़िम्मा सौंपा. इन शोधकर्ताओं ने पाया कि इस समस्या के मूल में है भारतीयों का सुप्रभात  प्रेम! उन्होंने पाया कि इन शुभ कामना संदेशों की वजह से भारत में हर तीन में से एक स्मार्टफोन प्रयोगकर्ता के फोन की मेमोरी इतनी भर जाती है कि उसके बोझ तले वह फोन चीं बोल जाता है! अब ज़रा भारतीयों की इस संस्कारशीलता की तुलना संस्कारविहीन अमरीकियों से भी कर लीजिए. वहां हर दस में से एक फोन के साथ ही यह हादसा होता है! सुप्रभात को सलीके से, यानि किसी न किसी तस्वीर के साथ जोड़कर  कहने का भारतीयों का शौक इतना प्रबल है कि एक अमरीकी अखबार की पड़ताल के अनुसार पिछले पांच बरसों में गूगल पर गुड मॉर्निंग के साथ प्रयुक्त  की जा सकने वाली छवि की तलाश में दस गुना वृद्धि हुई है. ज़ाहिर है कि आपको या हमको सुबह-सुबह जो तस्वीरें मिलती हैं उनमें से ज़्यादातर  गूगल के भण्डार से ही निकाली गई होती हैं. वैसे इस मामले में पिंटरेस्ट नामक एक अन्य साइट भी पीछे नहीं रही है और वहां से भी सुप्रभात की तस्वीरें डाउनलोड करने वाले हिंदुस्तानियों की संख्या पिछले एक बरस में नौ गुना बढ़ी है.

सद्भावना या शिष्ट आचरण के प्रति हमारा यह अनुराग हर सुबह शाम अभिवादन करने तक ही सीमित नहीं है. हाल में वॉट्सएप वालों ने बताया है कि 2018 के पहले दिन हम भारतीयों ने 2000 करोड़ से भी ज़्यादा नव वर्ष शुभ कामना संदेशों का आदान-प्रदान किया.  यह संख्या दुनिया के किसी भी देश के निवासियों द्वारा उस दिन भेजे गए संदेशों से ज़्यादा थी. यहीं यह भी जान लें कि भारत में अकेले वॉट्सएप के 20 करोड़ सक्रिय प्रयोगकर्ता  हैं. वॉट्सएप के लिए यह संख्या इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण है कि इसी वजह से वे लोग भारतीयों की पसंद का विशेष ध्यान रखने लगे हैं और पिछले साल से तो उन्होंने ख़ास हमारे लिए एक ऐसा स्टेटस मैसेज जोड़ा है जिसके माध्यम से हम एक साथ अपने सभी सम्पर्कों को सुप्रभात कह सकते हैं! हम भारतीयों के शिष्टाचार निर्वहन के इस पुण्य कर्म में कम कीमत वाले स्मार्ट फोन्स और डेटा दरों में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण आई ज़बर्दस्त कमी की बहुत बड़ी भूमिका है.

शिष्टाचार के निर्वहन का यह उत्साह कुछ लोगों में इतना ज़्यादा है कि अगर दो-चार दिन आप उनके संदेशों का जवाब न दें तो वे फोन कर पूछ भी लेते हैं क्या आपको उनके संदेश नहीं मिल रहे हैं? जो आपसे ज़्यादा नज़दीकी महसूस करते हैं वे आपकी बेरुखी पर मुंह फुला लेने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करने में भी संकोच नहीं करते हैं. यहां यह बात भी याद आए बग़ैर नहीं रहेगी कि देश के एक शीर्षस्थ व्यक्तित्व ने पिछले दिनों सार्वजनिक  रूप से इस बात पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की थी कि जिन्हें वे हर सुबह सुप्रभात संदेश भेजते हैं उनमें से बहुत सारे उनके अभिवादन का जवाब तक देने की शालीनता नहीं बरतते हैं!

हमारे अपनों के फोन की मेमोरी चाहे जितनी जल्दी फुल और उनका फोन ठस्स हो जाए, हम गुड मॉर्निंग-गुड ईवनिंग कहना कैसे छोड़ सकते हैं?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत शुक्रवार, 23 मार्च, 2018 को इसी शीर्षक सेे प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, March 13, 2018

डॉक्टरों ने कहा- हमारी तनख़्वाह मत बढ़ाओ!


कनाडा के क्यूबेक प्रांत के सैंकड़ों डॉक्टरों और चिकित्सा कर्मियों ने अपनी सरकार को एक ज्ञापन देकर अपने बढ़े हुए वेतन का विरोध किया है और सरकार से अनुरोध किया है कि वह इस राशि का इस्तेमाल नर्सों के लिए तथा मरीज़ों को बेहतर चिकित्सा सुविधा देने के लिए करे. यह बात सर्वविदित है कि कनाडा में सरकार सभी नागरिकों को निशुल्क चिकित्सा सेवा प्रदान करती है. यह सुविधा मरीज़ की ज़रूरत पर आधारित होती है न कि उसकी खर्च करने की क्षमता पर. इसी फरवरी माह में वहां की सरकार ने अपने इस इलाके के मेडिकल स्पेशलिस्ट्स की तनख़्वाह में 1.4 प्रतिशत की वृद्धि करने की घोषणा की थी.

ऐसा माना जाता है कि क्यूबेक इलाके में डॉक्टरों को देश के अन्य इलाकों की तुलना में पहले ही ज़्यादा वेतन मिलता है. लेकिन इसी इलाके में नर्सों और अन्य चिकित्सा सेवकों की हालत बहुत बुरी है. इसी जनवरी में वहां की एक नर्स एमिली रिकार्ड की एक फेसबुक पोस्ट वायरल हुई थी जिसमें उसने अपनी नम आंखों की एक तस्वीर लगाते हुए बताया था कि उसे पूरी रात जागकर सत्तर मरीज़ों की देखभाल करनी पड़ी है और अब उसके पांव इतना दर्द कर रहे हैं कि वह सो भी नहीं पा रही है. उसने लिखा था कि वह अपने काम के बोझ से टूट चुकी है और उसे इस बात से शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि वो अपने मरीज़ों को कितनी कम सेवा दे पाती है. “हमारा स्वास्थ्य तंत्र बीमार और मरणासन्न है.” कल्पना की जा सकती है कि कितनी पीड़ा के साथ उसने यह लिखा होगा. कनाडा के नर्सिंग संघ ने भी सरकार पर ज़ोर डाला है कि वो यह सुनिश्चित करे कि एक नर्स को अधिकतम कितने मरीज़ों की देखभाल करनी है. क्यूबेक की नर्स यूनियन की अध्यक्ष नैंसी बेडार्ड का कहना था कि डॉक्टरों के लिए तो पैसों की कोई कमी नहीं होती है लेकिन मरीज़ों की देखभाल करने वाले औरों  की कोई परवाह नहीं की जाती है. 

नर्सों की इस व्यथा-कथा ने क्यूबेक के डॉक्टरों की अंतरात्मा को इस कदर झकझोरा कि उन्होंने एक ज्ञापन देकर अपनी सरकार से यह अनुरोध  कर दिया कि वह  उनके बढ़ाये हुए वेतन को निरस्त कर दे और इस तरह जो राशि बचे उसे बगैर स्वास्थ्य कर्मियों के कार्यभार को असह्य बनाए, क्यूबेक क्षेत्र के लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने में खर्च कर दे. अपने पत्र में उन्होंने लिखा है कि हमारी तनख़्वाहों में यह वृद्धि इसलिए और भी ज़्यादा आहत करने वाली है कि हमारी नर्सों, क्लर्कों और अन्य पेशेवरों को बहुत कठिन हालात में काम करना पड़ रहा है और हमारे मरीज़ों को हाल के वर्षों में की गई भीषण कटौतियों और सारी सत्ता के स्वास्थ्य मंत्रालय में केंद्रीकृत हो जाने की वजह से ज़रूरी सुविधाओं तक से वंचित रहना पड़ रहा है. इन तमाम कटौतियों का जिस एक बात पर कोई असर नहीं पड़ा है वो है हमारी तनख़्वाहें. और इसलिए इस वृद्धि को अभद्रबताते हुए उन्होंने लिखा, “हम क्यूबेक डॉक्टर यह अनुरोध कर रहे हैं कि चिकित्सकों को दी गई वेतन वृद्धि वापस ले ली जाए और इस तंत्र  के संसाधनों का बेहतर वितरण स्वास्थ्य कर्मियों की बेहतरी के लिए और क्यूबेक के नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराने के लिए किया जाए.”

यह प्रकरण हमारी आंखें खोल देने वाला है. इससे पता चलता है कि एक ज़िम्मेदार और सभ्य समाज का चेहरा कैसा होता है. क्यूबेक के डॉक्टर चाहते तो बिना कोई ना-नुकर किये अपनी बढ़ी हुई तनख़्वाहें स्वीकार कर सकते थे. लेकिन उनके इंसान होने के एहसास ने उन्हें यह न करने दिया. अपने से ज़्यादा फिक्र उन्हें अपने सहकर्मियों की थी कि उन्हें कम तनख़्वाह में ज़्यादा समय खटना पड़ता है. उन्होंने इस बात की भी फिक्र की कि उनके प्रांत के नागरिकों को सरकारी कटौती की वजह से उस ज़रूरी स्वास्थ्य सेवा से वंचित रहना पड़ रहा है जिसके वे हक़दार हैं.

लेकिन सब जगह सब कुछ अच्छा  ही नहीं होता है. डॉक्टरों की इस संवेदनशीलता पर झाड़ू फेरते हुए  कनाडा के चिकित्सा मंत्री ने अपने बयान में कहा कि अगर डॉक्टरों को लगता है कि उन्हें ज़्यादा तनख़्वाहें दी जा रही हैं तो वे उसे  टेबल पर ही छोड़ जाएं.  मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूं कि हम उस रकम का बेहतर इस्तेमाल कर लेंगे. डॉक्टरों की इस व्यथा पर टिप्पणी करते हुए कि नर्सों को बहुत कम वेतन मिल रहा है और रोगियों पर होने वाले खर्च में कटौतियां की जा रही हैं, मंत्री जी ने फरमाया कि हमारे पास तमाम ज़रूरतों के लिए पैसा है और हम समय पर सारी समस्याएं हल कर लेंगे.

यानि मंत्री तो कनाडा में भी वैसे ही हैं जैसे अपने देश में हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ डुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 मार्च, 2018 को 'कनाडा के डॉक्टरों ने लौटाया बढ़ा हुआ वेतन' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Friday, March 9, 2018

सवाल मानवीय सम्बंधों में तकनीक की घुसपैठ का

अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा निर्देशित 2016 की हिन्दी फिल्म पिंक में अमिताभ बच्चन का एक बेहद प्रभावशाली डायलॉग है: “नो मीन्स नो. ना सिर्फ़ एक शब्द नहीं, अपने आप में एक पूरा वाक्य है. इसे  किसी तर्क, स्पष्टीकरण, एक्स्प्लेनेशन या व्याख्या की ज़रूरत नहीं होती. ना का  मतलब ना ही होता है. माय क्लाएंट सेड नो युअर ऑनर!”  कहना  अनावश्यक है कि यहां चर्चा का संदर्भ स्त्री पुरुष के बीच का दैहिक सम्बंध है. इस  सम्बंध  को लेकर जितनी चर्चाएं और बहसें अपने देश में हुई हैं उनसे कम चर्चाएं परदेश में नहीं हुई हैं. इसी संदर्भ में यह जानना रोचक हो सकता है कि जहां भारत में ‘ना’ कहने के अधिकार को रेखांकित करना ज़रूरी समझा गया है, पश्चिम के कुछ देशों में इससे उलट ‘हां’ कहने के अधिकार को मान्यता प्रदान करने की भी ज़रूरत महसूस की जाने लगी थी. कई देशों के शैक्षिक संस्थानों में 1990 से ही यह नीति बनाई जाने लगी थी कि वहां के विद्यार्थी अंतरंग क्षणों के  इन सम्बंधों  की स्थापना के लिए बाकायदा मौखिक अनुमति प्रदान करें. एक अपेक्षाकृत उन्मुक्त और उदार देश स्वीडन में तो पिछली दिसम्बर में एक  ऐसा कानून बनाने का भी प्रस्ताव किया गया है जिसके तहत मौखिक स्वीकृति प्रदान करने के बाद ही कोई युगल दैहिक सम्पर्क स्थापित कर सकेगा. 

इसी प्रस्तावित कानून से प्रेरित होकर लीगल फ्लिंग नामक एक वेबसाइट ने एक ऐसा एप बनाकर उसका बीटा वर्ज़न  बाज़ार में उतारा है जो नज़दीक आने के इच्छुक दो व्यक्तियों को उनकी निकटता की सीमाएं निर्धारित करने के अनेक विकल्प प्रदान करता है. यह कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे आप किसी रेस्तरां में जाएं और मेन्यू देखकर यह चयन करें कि आपको क्या-क्या खाना-पीना है. फर्क इतना है कि यहां विकल्पों का चुनाव मेन्यू की बजाय एप में से किया जाना है. इस एप में किया गया चयन उन दो व्यक्तियों के बीच किये जाने वाले एक अनुबंध के समतुल्य होगा और उम्मीद की जाती है कि इस अनुबंध को वैधानिक मान्यता भी प्राप्त होती. एप यह भी सुविधा देगा कि इसे इस्तेमाल करने वाले पार्टनर्स किसी भी समय अपने चयन को संशोधित कर सकें या बदल सकें. 

इस एप की उपादेयता को लेकर बहसें शुरु हो गई हैं. लोग पूछने लगे हैं कि क्या वाकई कोई एप इतना कारगर हो सकता है कि वो दो मनुष्यों के बीच के अंतरंग क्षणों के क्रियाकलाप को प्रभावी  तौर पर नियंत्रित कर सके? इस सवाल का जवाब तकनीक और मानवीय सम्बंधों के मामलों के कुछ विशेषज्ञों ने देने  का प्रयास भी किया है. उनका कहना है कि यह एप सहमति को अंकित करने के मामले में तो कारगर साबित हो सकता है लेकिन क्षण भर में बदल जाने वाले मानवीय भावों के साथ तालमेल नहीं रख सकता. वे इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि किसी भी एप का प्रयोग पूर्व नियोजन की मांग करता है जबकि मनुष्य केवल अपने उस क्षण के मनोभाव ही अंकित कर सकेगा, वह खुद इस बात से अनभिज्ञ होगा कि अगले क्षण उसके मनोभाव क्या होंगे. इस एप के कुछ आलोचकों का तो यहां तक कहना है कि दैहिक  सम्पर्क के मामले में सहमति-असहमति का मामला एक मानवीय मुद्दा है और इसका समाधान किसी मशीनी  एप में तलाश करना पूरी तरह अव्यावहारिक है. एप का मज़ाक उड़ाते हुए ऐसे लोगों का कहना है कि ज़रा इस बेहूदगी की कल्पना कीजिए को एक दूसरे के निकट आने को तत्पर दो में से कोई एक यह कहे  कि  “ज़रा एक सेकण्ड रुकना, पहले मैं एप को अपडेट कर दूं!” 

लेकिन एप बनाने वाली कम्पनी लीगल फ्लिंग इन तमाम आलोचनाओं से तनिक भी विचलित नहीं है. उसे अपने एप की सीमाओं का भली भांति पता है, लेकिन वह इसे भविष्य की एक सशक्त सम्भावना के रूप में विकसित करने को तत्पर है. उसका सोच यह है कि चाहे एप पर ही सही, अगर कोई अपने मनोभाव व्यक्त करता या करती है बाद में किसी भी वजह से दूसरा पक्ष उन मनोभावों की अवहेलना करता या करती है तो आहत पक्ष अपनी शिकायत तो अंकित कर ही सकता है, और उस शिकायत पर यथा कानून कोई कार्यवाही होने की सम्भावना को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है. कम्पनी का यह भी कहना है कि नशे जैसी किसी असामान्य स्थिति में भी अगर कोई ग़लती से अपनी सहमति दे दे तो यह एप उसके बाद  अपनी सहमति को तुरंत वापस लेने का विकल्प प्रदान करता है. 

यह देखना बहुत रोचक होगा कि नाज़ुक मानवीय सम्बंधों के मामले में तकनीक आधारित एप कितना प्रभावी  और कितना निर्णायक साबित होता है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न   दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत गुरुवार, 08 मार्च,  2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Thursday, March 1, 2018

चीन में शवयात्राओं में होता है स्ट्रिपर्स का उत्तेजक डांस


तेज़ आवाज़ में बजता मादक-उत्तेजक संगीत, उस संगीत की धुन पर नाचतीं स्ट्रिपर्स और इनसे आनंदित सीटियां बजाते लोग. यह मंज़र कहां का हो सकता है?  आप कुछ सोच कर जवाब दें उससे पहले ही मैं बता दूं कि अगर यह दृश्य चीन का है तो ज़रूर किसी शव यात्रा है. जी हां, चीन के बाहरी हिस्सो और गांवों में शव यात्राओं में  स्ट्रिपर्स का अश्लील नाच आम बात है. अलबत्ता, यह भी बता देना उपयुक्त होगा कि वहां का प्रशासन एक बार फिर से इस परम्परा को रोकने के लिए तत्पर हुआ है, लेकिन लोगों का खयाल है कि उसे कामयाबी शायद ही मिले. मामला परम्पराओं का जो ठहरा. चीन के देहाती इलाकों में शोक जताने आए लोगों के मनोरंजन के लिए कलाकारों, गायकों, मसखरों और स्ट्रिपर्स को पैसे देकर बुलाने का रिवाज़ काफी समय से चला आ रहा है. वहां के एक विश्वविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर का कहना है कि चीन की कुछ स्थानीय परम्पराओं में उत्तेजक नृत्य को मृतक की उस आकांक्षा से जोड़कर देखा जाता है जिसके अनुसार वह वंश बढ़ाने का आशीर्वाद चाहता या चाहती है. लेकिन आम राय यही है कि अपने देश की ही तरह चीन में भी अंतिम संस्कार के समय ज़्यादा लोगों की उपस्थिति को मरने वाले के प्रति सम्मान का पैमाना माना जाता है  इस लिए उसके परिजन पैसे देकर इन लोगों को बुलाते हैं ताकि इनके आकर्षण में ही सही शवयात्रा में लोगों की भीड़ बढ़ जाए. ज़ाहिर है कि इस तरह के कलाकारों को बुलाने में खासा खर्चा होता है और यह खर्चा कर शोक ग्रस्त परिवार समाज में अपने वैभव का दिखावा करने में भी गर्व का अनुभव करता है. वैसे यह माना जाता है कि इस परम्परा की शुरुआत ताइवान से हुई है और वहां यह परम्परा आम है. वैसे ताइवान में भी बड़े शहरों में इसका चलन बहुत कम है लेकिन  शहरों के दूरस्थ तथा बाहरी हिस्सों में अभी भी इसे देखा जा सकता है. पिछले ही बरस ताइवान के दक्षिणी शहर  जियाजी में हुए एक अंतिम संस्कार में जीपों की छतों पर सवार करीब पचास पोल डांसर्स ने शिरकत की थी. यह जानना रोचक होगा कि वह एक नेता का अंतिम संस्कार था और उनके परिवार के अनुसार नेताजी की तमन्ना थी कि उनका अंतिम संस्कार रंगारंग हो!

अब चीन के संस्कृति मंत्रालय ने इस परम्परा को असभ्यबताते हुए घोषणा की है कि अगर कोई किसी के अंतिम संस्कार के समय लोगों के मनोरंजन के लिए किराए पर स्ट्रिपर्स को बुलाएगा  तो उसे कठोर दण्ड दिया जाएगा. वहां की सरकार विगत में भी ऐसा करती रही है. मसलन सन 2006 में जियांगसू प्रांत में एक किसान के अंतिम संस्कार के समय स्ट्रिपर्स की प्रस्तुति के बाद सरकार ने पांच लोगों को हिरासत में लिया था और सन 2015 में भी ऐसा ही होने की खबर सामने आने के बाद सरकार ने आयोजकों और कलाकारों को दण्ड दिया था. अब सरकार का ध्यान हेनन, एनख्वे, जियांगसू और खबे जैसे उन प्रांतों पर ख़ास तौर पर केंद्रित है जहां यह रस्म अधिक प्रचलित है.

सरकार के अलावा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने आठ करोड़ अस्सी लाख सदस्यों के लिए कुछ दिशा निर्देश ज़ारी किये हैं, हालांकि पार्टी के अनुसार ये निर्देश  भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान का हिस्सा है. चीन में शादी और मौत के मौकों पर सम्बद्ध परिवारों को कुछ नकद राशि देने का रिवाज़ है और अंतिम  संस्कार के समय जो धन राशि दी जाती है वह सांत्वना और शोक सम्बंधी खर्चों में मदद के तौर पर दी जाती है, लेकिन पार्टी का खयाल है कि ऐसा करने से अनावश्यक भव्यता का माहौल बनता है और बहुत सारे लोग इन मौकों का इस्तेमाल पैसा बनाने के लिए भी करते हैं, अत: इन पर नियंत्रण ज़रूरी है. पार्टी का यह भी विचार है कि छोटे गांवों में शादियां और अंतिम संस्कार के रस्मो-रिवाज़ कई दिनों तक चलते हैं और ये रोज़मर्रा के उत्पादन, जीवन, कामकाज,व्यवसाय, शिक्षण, यातायात आदि को बाधित करते हैं अत: उसने लोगों को सलाह दी है कि वे अपनी स्थानीय परम्पराओं का पालन आंख मूंदकर न करे. लेकिन पार्टी ने यह भी सावधानी बरती है कि उसके निर्देशों से लोगों की भावनाएं आहत न हो, अत: उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह परम्पराओं  पर पूरी तरह रोक नहीं लगाना चाहती है.

लेकिन ऐसी स्थितियों में जो प्रतिक्रियाएं अपेक्षित हैं वे ही चीन में भी हो रही हैं. वहां की जनता का एक वर्ग  इण्टरनेट और सोशल मीडिया पर इन प्रयासों और सलाहों पर अपने गुस्से और नाराज़गी का इज़हार कर रहा है. ऐसे लोगों का कहना है कि ये नियम अव्यावहारिक हैं और इनका पालन ज़्यादा ही कड़ाई से कराया जा रहा है! अब देखना है कि जीत परम्पराओं की होती है या सुधार की!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 फरवरी, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.