Tuesday, April 28, 2015

वायरल की उलझनें

आजकल वायरल का मौसम है. इस वाक्य में ‘आजकल’  और ‘वायरल’  दोनों ही ध्यान देने योग्य हैं. आजकल को आप काफी लम्बा खींच लीजिए. और वायरल की परिभाषा का भी वह कर लीजिए जिसे भाषा शास्त्री अर्थ  विस्तार कहते हैं. अर्थ विस्तार यानि किसी शब्द का अर्थ पहले सीमित हो लेकिन धीरे-धीरे विस्तृत होकर काफी फैल जाए. एक अच्छा उदाहरण है स्याही. जैसा कि शब्द से ही  स्पष्ट है, जो स्याह हो वही स्याही. और आपको याद होगा कि पुराने  ज़माने में लिखाई के लिए काली स्याही का ही इस्तेमाल होता था. लेकिन इस शब्द का अर्थ विस्तार हुआ और लिखने के लिए काम आने वाला सारा लिक्विड, उसका रंग भले ही नीला-काला-पीला-हरा-लाल-बैंगनी  कोई भी  हो, स्याही नाम से ही जाना जाने लगा. और ऐसा ही मज़ेदार मामला वायरल का भी है. कुछ समय पहले तक वायरल का एक ही अर्थ, जिसका सम्बन्ध मौसमी बुखार से हुआ करता था,  हमें मालूम था. लेकिन इधर इस वायरल का प्रयोग बुखार के सन्दर्भ  में कम वीडियो के सन्दर्भ में अधिक होने लगा है. आए दिन कोई न कोई वीडियो वायरल हो जाता है. कभी-कभी ऑडियो भी हो जाता है. कार्टूंस भी हो जाते हैं! यानि कुछ भी वायरल हो सकता है.

अब देखिये ना, बहुत पुरानी बात नहीं है जब हॉलीवुड की एक एक्ट्रेस डकोटा जॉनसन  का एक वीडियो वायरल हुआ था. अंग्रेज़ी के एक कुख्यात-विख्यात उपन्यास ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ पर बनी और सैम टेलर जॉनसन द्वारा निर्देशित इसी नाम की फिल्म में एबे टेसफाय के गाये गाने ‘अर्नण्ड इट’ में इस बाला ने एक रस्सी के जाल में लटक कर हमारे अपने देश की पारो से भी आगे बढ़कर जो अदाएं और जलवे दिखाये उन्होंने इस वीडियो को वायरल होने में बड़ी मदद की. वैसे तो जिन्होंने यह उपन्यास पढ़ रखा है वे सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि डकोटा जॉनसन ने इस गाने में कैसा  कमाल दिखाया होगा, फिर भी अज्ञानियों के लिए  इतना संकेत काफी होगा कि सेमी न्यूड नर्तकों के बीच ‘सेमी’ के बिना ही उन्होंने अपना देह-दर्शन कराया है.

और बात जब वायरल की है तो क्या परदेश और क्या देश! इधर  अपने देश में भी एक एक्ट्रेस की कुछ तस्वीरों का वीडियो वायरल हो गया है. इस ताज़ा वीडियो के वायरल होने की बात करूं उससे पहले यह भी याद दिलाता चलूं कि हमारे अभिनेता-अभिनेत्रियों और वायरल का संग साथ कोई आज की बात नहीं है. करीना कपूर-शाहिद कपूर और अस्मिता पटेल-रिया सेन के लिपलॉक की तस्वीरों और वसुन्धरा कश्यप और उनके बॉयफ्रैण्ड की अंतरंग तस्वीरों तथा एक फिल्म के सेट पर ली गई श्रुति हसन की तस्वीर  के वायरल होने की  यादें आपके जेह्न में अभी भी सुरक्षित पड़ी होंगी.  अब इसी कड़ी में एक और एक्ट्रेस की तस्वीरें जुड़ गई हैं.

बॉलीवुड की फिल्म ‘शोर इन द सिटी’ में तुषार कपूर के साथ और सुपरहिट मराठी फिल्म ‘लय भारी’ में रितेश देशमुख के साथ दिखाई दीं  राधिका आप्टे की कुछ निर्वसन छवियां हाल ही में वॉट्सएप और सोशल मीडिया पर वायरल हुई हैं. ये राधिका आप्टे वही हैं जिन्होंने ‘वाह लाइफ हो तो ऐसी’ फिल्म में शाहिद कपूर के साथ डेब्यू किया था. कहा  जा रहा है कि राधिका का जो क्लिप वायरल हुआ है वह असल में अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित एक लघु फिल्म का महज़ कुछ सेकण्ड का अंश है और इस अंश में वे सामने से निर्वसन नज़र आ रही हैं. अनुराग  कश्यप  को यह कहते हुए उद्धृत किया  गया है कि यह फिल्म एक सत्य घटना से प्रेरित है और उनके लिए इस दृश्य को शूट करना बेहद चुनौतीपूर्ण था. अनुराग ने कहा है कि उन्होंने केवल महिला क्रू के साथ ही इस दृश्य को निहायत ही नॉन सेक्सुअल तरीके से शूट किया था.

इस पूरे प्रकरण में दो-तीन बातें गौर तलब हैं. अनुराग कश्यप का यह कहना है कि उन्होंने यह फिल्म इण्टरनेशनल मार्केट के लिए बनाई है और जो क्लिप लीक होकर वायरल हुई है वह उनके शूट किये गए फुटेज को न्यू यॉर्क में डिलीवर कर देने के बाद हुई है. अनुराग ने सन्देह ज़ाहिर  किया है कि इस लीक में कदाचित किसी भारतीय का हाथ है. अपने इस सन्देह को वज़नदार बनाने के लिए उन्होंने तर्क यह दिया है कि पश्चिम में तो इससे काफी ज़्यादा सेक्सुअल सामग्री उपलब्ध  रहती है इसलिए भला वे लोग क्यों इस बात को कोई तूल देंगे. अब आइये दूसरी बात पर. जानकारों का कहना है कि जो तस्वीरें वायरल  हुई हैं वे निजी तौर पर ली गई सेल्फी की हैं. और तीसरी बात यह कि खुद राधिका आप्टे ने अपने ट्विटर हैंडल पर इन तस्वीरों के खुद की होने से इंकार किया है.

यानि इस वायरल में तो बड़ी उलझनें  है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 अप्रेल, 2015 को वायरल की गुत्थी उलझाता सोशल वायरस शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.    

Tuesday, April 21, 2015

सुन्दर होने के फायदे और नुकसान

पिछले दिनों हमारे देश के नेताओं की ज़बान फिसलने के जो बहुत सारे मामले सामने आए उनमें से कई का सम्बन्ध रंग और रूप से भी था. हमारे देश में सामान्यत: गोरे रंग को सौन्दर्य  का  एक ज़रूरी घटक मान लिया जाता है, हालांकि दुनिया के और देशों में इसका उलट भी है. पश्चिमी देशों में जहां गोरा रंग आम है, सौन्दर्य में वृद्धि के लिए सूरज की तेज़ धूप की मदद से टैनिंग कर त्वचा को ताम्बई बना कर सुन्दरता की तरफ क़दम बढ़ाये जाते हैं. यही बात शरीर के दुबले और मोटे होने को लेकर भी है. दुनिया में अगर कहीं खाया पीया होना सुन्दरता का पर्याय माना जाता है और दुनिया के और बहुत सारे देशों के अनुकरण पर पिछले दिनों हमारे देश में भी साइज़ ज़ीरो के प्रति गहरे आकर्षण के भी हम सब गवाह रहे हैं.

सुन्दरता के घटक चाहे जो हों, इतना तै है कि आपका सौन्दर्य आपको बिना मांगे ही बहुत सारे फ़ायदे सुलभ करा देता है. अमरीका की उत्तर कैरोलिना विश्वविद्यालय की दो समाज मनोवैज्ञानिकों लिसा स्लैटरी वॉकर और टोन्या फ्रेवर्ट ने हाल ही में एक अध्ययन कर यह जाना कि व्यक्ति की सुन्दरता उसे बहुत सारे फायदे स्वत: दिला देती है. आप जिनके सम्पर्क में आते हैं वे अनजाने में ही यह मान लेते हैं कि अगर आप सुन्दर हैं तो आपमें कुछ अतिरिक्त प्रतिभा भी होगी ही.  इसे हमारे देश में प्रचलित सत्यं शिवम सुन्दरम  उक्ति के साथ भी मिलाकर देखा जा सकता है. वॉकर और फ्रेवर्ट ने अपने अध्ययन में पाया कि शिक्षण संस्थाओं में भी विद्यार्थियों  की सुन्दरता  उनके शिक्षकों पर सकारात्मक प्रभाव डालती है और अपने विद्यार्थियों का मूल्यांकन करते हुए वे सुदर्शन विद्यार्थियों के प्रति अधिक उदार रहते हैं.

और जब ये विद्यार्थी शिक्षण संस्थाओं से निकल कर रोज़गार के क्षेत्र में जाते हैं तो उनकी खूबसूरती वहां भी उनके लिए फायदेमन्द साबित होती है.  अधिक आकर्षक लोग कॉर्पोरेट जगत की सीढ़ियां ज़्यादा तेज़ी  से चढ़ते हैं और अधिक पैसा कमाते हैं. अमरीका में एमबीए स्नातकों पर किए गए एक अध्ययन से ज्ञात हुआ कि एक ही समूह में कम और ज़्यादा आकर्षक कार्मिकों के वेतन आदि में दस से पन्द्रह प्रतिशत का फर्क़ था, और इस तरह अधिक आकर्षक कार्मिक अपने पूरे सेवा काल में करीब डेढ करोड़ रुपये ज़्यादा कमाता है.

ज़्यादा और कम सुन्दर के बीच यह भेदभाव और भी बहुत सारी जगहों पर पाया गया. मसलन अदालतों में भी पाया गया कि सुन्दर व्यक्ति को अपेक्षाकृत  मुलायम दण्ड मिला और अगर वकील सुदर्शन था तो वह न्यायालय से अधिक अनुकूल फैसले  करवाने में कामयाब रहा. इन उदाहरणों से, जिनकी पुष्टि हमारे अपने अनुभवों से भी होती है यह माना जा सकता है कि अगर जीवन की अन्य बातें, मसलन आपकी अकादमिक योग्यता आदि समान हो तो आपके व्यक्तित्व का सौन्दर्य आपको कुछ अतिरिक्त फायदे पहुंचाने में सफल रहता है.

लेकिन इस तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है, जिसकी तरफ  सामन्यत: किसी का ध्यान नहीं जाता है. वॉकर और फ्रेवर्ट का अध्ययन ऐसे भी कुछ प्रकरण सामने लाता है जहां सुन्दरता फायदे की बजाय नुकसान का सौदा साबित होती है. इन प्रकरणों में कुछ में लिंग भेद है और कुछ सबके लिए एक जैसे हैं. ये मनोवैज्ञानिक बताती हैं कि कई बार जब किसी उच्च पद के लिए अधिकारी का चयन किया जाना होता है तो  अधिक सुन्दर प्रत्याशी को यह सोचकर छोड़ दिया जाता है कि वो शायद कठोर निर्णय ले पाने में कम सक्षम साबित हो. एक बहुत मनोरंजक बात इस अध्ययन में यह भी सामने आई कि जब चनयकर्ता और प्रत्याशी समान लिंग वाले यानि स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष होते हैं तो वहां चयनकर्ता का ईर्ष्या भाव अधिक आकर्षक प्रत्याशी के प्रतिकूल चला  जाता है. हमारे  यहां भी तो बाबा तुलसीदास कुछ ऐसी ही बात कह गए हैं कि मोहे न नारी नारी के रूपा. पश्चिम की एक ऑनलाइन डेटिंग साइट ओके क्यूपिड का अनुभव भी कुछ-कुछ इसी तर्ज़ पर है. इस साइट ने पाया कि जिन लोगों के प्रोफाइल पिक्चर्स एकदम बेदाग थे उनकी तुलना में उन्हें डेटिंग पार्टनर ज़्यादा आसानी से मिले जिनकी पिक्चर्स ऐसी बेदाग नहीं थी. बताया गया गया कि प्रत्याशियों की एकदम मुकम्मिल छवि से दूसरा पक्ष आतंकित हो जाता है और पहल करने में सकुचाने लगता है. 
इस अध्ययन की  सबसे मज़ेदार किंतु त्रासद बात तो यह है कि ज़्यादा सुन्दर लोगों को  इसलिए कम उम्दा चिकित्सा सुविधा मिल पाती है कि चिकित्सकगण भी उनके रोग को कम गम्भीरता से लेते हैं. शायद वे सुन्दरता को स्वास्थ्य का पर्याय मान बैठते हैं. इस तरह जब सुन्दरता के फायदे और नुकसान दोनों हमारे सामने हैं तो बहुत स्वाभाविक है कि हम यह सोचें कि हमें मदद किससे मिलती है सुन्दरता से, या उसके अभाव से? लेकिन यह सोचने से पहले यह भी तो जानना होगा कि सुन्दरता क्या है!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 अप्रेल 2015 को सुन्दर हैं तो जितने फायदे उतने नुकसान शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, April 14, 2015

समाज की दीवारों से टकराता सोशल मीडिया

समाज और इसके मीडिया यानी सोशल मीडिया में इन दिनों एक और  उफान आया हुआ है। हालांकि यह उफान अभी सोशल मीडिया की दीवारों से टकरा कर अपने जोर की आजमाइश ही कर रहा है, पर नई पीढ़ी की मानसिकता के बदलाव की तेज़ गति को देखते हुए लगता नहीं कि यह उफान उन दीवारों को तोड़ कर वास्तविक सोशल लाइफ तक पहुंचने में बहुत देर लगाएगा। दरअसल यह उफान बहुत सारे मुद्दों से बन कर अपनी गति पकड़ रहा है। अगर आप यह अनुमान लगा रहे हैं कि इन में पहला मुद्दा माई चॉइस वीडियो के जरिए दिए जा रहे संदेश का है, तो आपका अनुमान सही है। यह संदेश कई मायनों में आजादी की बात कर रहा है। वैसे हमारे समाज के कुछ विद्रोही लोग अर्से से इस आजादी का उपभोग करते और इसे सम्मान देते रहे हैं। देह को आधार बना कर बनाए गए इस वीडियो पर मिली-जुली  प्रतिक्रियाएं आई हैं, पर एक तथ्य यह भी है कि आधुनिकतम समाज का तमगा हासिल किए पश्चिम में भी अभी विवाहेतर संबधों को स्वीकृति का सम्मान नहीं दिया गया है। 


माई चॉइस को फाइनली माई चॉइस ही रहने दिया जाए तो बेहतर है। इसके बाद एक और मुद्दा है जिसे संसार भर की आधी आबादी  अपनी आधी उम्र तक झेलती है और जिसके बारे में लगभग सभी वयस्कों को पता होता है पर सार्वजनिक रूप से जिसकी चर्चा करना लगभग शर्मिंदगी वाला मामला माना जाता है। यह मुद्दा भी आजकल सोशल मीडिया की दीवारों से टकरा रहा है। महिलाओं के ‘उन दिनों’ का। हालांकि फेसबुक पर पिछले काफी समय से इस दौरान महिलाओं को होने वाली तकलीफों  और इसके प्रति सामाजिक नजरिए को कई महिलाओं ने अपनी कविताओं और अन्य पोस्ट्स के माध्यम से उठाया है। पर हाल ही में भारतीय मूल की एक कनाडाई लेखिका रूपी कौर  ने इस अनुभव से संबंधित एक फोटो इन्स्टाग्राम पर शेयर किया  लेकिन  इस साइट ने इस फोटो को  पॉलिसी विरुद्ध बता कर दो बार हटा दिया। इस पर रुपी कौर ने बहुत जायज सवाल उठाया कि आखिर इसमें शर्मिन्दगी की क्या बात है? और अंतत: साइट को भी रूपी कौर से क्षमा याचना करने और इस फोटो को फिर से स्वीकृति देने को विवश  होना पड़ा.


और इन बातों के बाद एक समाचार जिसने बरबस ही हमारे चेहरों पर एक मुस्कुराहट ला  दी। दरअसल समाचार ही कुछ ऐसा था कि यादों के कोठार से काफी कुछ निकल पड़ा। बात सत्तर के दशक के मध्य की है जब मैं नया-नया प्राध्यापक बन कर राज्य के एक मझोले कस्बे में पहुंचा था और अपने एक वरिष्ठ साथी की मेज़बानी का लुत्फ ले रहा था। एक दिन हम दोनों बाज़ार गए तो उन्होंने अन्य सारी खरीददारी कर चुकने के बाद उस दुकानदार से रहस्यपूर्ण अन्दाज़ में ‘चीज़’  भी देने का अनुरोध किया। सामान लेकर लौटते हुए मैंने अपनी बेवक़ूफी में उनसे पूछ लिया कि ‘चीज़’  जैसी चीज़ को उन्होंने इस तरह रहस्य भरे अन्दाज़ में क्यों मांगा? और तब उन्होंने घुमा फिराकर मुझे बताया कि चीज़ शब्द का प्रयोग असल में उन्होंने किस वस्तु के लिये किया था। उसके कुछ बरस बाद भी, जब सरकार की ‘हम दो हमारे दो’ नीति के उत्साहपूर्ण क्रियान्वयन के तहत विभिन्न सरकारी विभागों में वह चीज़ निशुल्क वितरण के लिए उपलब्ध कराई जाती थी तो हम अपने कॉलेज के बाबू से बिना संज्ञा का प्रयोग किए, सर्वनाम या संकेत की मदद से वह चीज़ मांगा करते थे। हममें से शायद ही कभी किसी ने नाम लेकर कहा हो कि मुझे यह चाहिये। अब इसे आप संस्कार कहें, संकोच कहें, शालीनता कहें, गोपनीयता कहें या और कुछ भी कहें. वस्तु स्थिति यही थी।


अब तक तो आप समझ ही गए  होंगे कि मैं किस ‘चीज़’  की बात कर रहा हूं। और यह प्रसंग मुझे याद आया इस बात से कि सरकार ने सरकारी उपक्रम से बन कर बिक रहे कंडोम की पैकेजिंग को सुधारने का निर्णय लिया है। वह भी उस दौर में जब उनके प्रतिद्वंद्वी पैकेजिंग और विज्ञापन में उससे कई गुना आगे निकल चुके हैं।  बहरहाल उदारीकरण से पहले के सरकारी सक्रियता के दौर में भी भारत की जनसंख्या को थामे रखने वाले उस ब्रांड को बचाने के लिए भी यदि अब सरकार कुछ करती है तो उसके लिए हमारी तो शुभकामनाएं ही हैं। पर क्या एक सरकारी उत्पाद विज्ञापन और पैकेजिंग के मामले में अपने व्यावसायिक प्रतिद्वन्दियों को टक्कर दे सकेगा?  मर्यादा के बन्धन आड़े नहीं आएंगे? लेकिन आप भी सोचिये कि  जिस देश में कामसूत्र लिखा गया, जहां खजुराहो तराशा गया और इन सबसे ऊपर जहां काम को भी उतना ही महत्वपूर्ण माना गया जितना धर्म, अर्थ और मोक्ष को माना गया, क्या वहां ऐसी कोई मज़बूरी होनी चाहिए
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 14 अप्रेल, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.