दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही है. जीवन पहले की तुलना में निरंतर अधिक
सुगम होता जा रहा है. यह बात अलग है कि उसे सुगम करने वाले साधनों को जुटाने के
लिए हमें अधिक श्रम और प्रयास करने पड़ रहे हैं जिनकी वजह से सुगमता का आनंद लेने
के अवकाश में कटौती भी होती जा रही है. कुछ समय पहले तक जिन चीज़ों और कामों के लिए
हमें खूब पापड़ बेलने पड़ते थे वे या उनमें से अधिकांश अब हमारे एक हल्के-से इशारे
पर होने लगे हैं. इन सब बातों के उदाहरण देकर मैं आपका कीमती वक़्त बर्बाद नहीं
करना चाहता. मैं तो आपके सोच को दूसरी तरफ ले जाना चाहता हूं.
हमारे सुख सुविधाओं को बढ़ाने
वाले इन साधनों के विस्तार में बाज़ार की बहुत बड़ी भूमिका है. असल में पूरा का पूरा
बाज़ार इसी मूल मंत्र पर फल फूल रहा है कि वो अपने उपभोक्ताओं के जीवन को कैसे और
अधिक सुगम बनाए. और इसी मूल मंत्र के इर्द गिर्द और बहुत सारी चीज़ें बड़े नामालूम
तरीकों से बहुत कुशलता के साथ बुन दी जाती हैं. मसलन सुविधा को बड़े सुनियोजित
लेकिन अदृश्य तरीकों से आपके स्टेटस के साथ जोड़ दिया जाता है. यह सब करने में
विज्ञापन की भूमिका तो होती ही है, आजकल अन्य अनेक माध्यम भी यह सब करने में जुटे नज़र आते हैं. बड़े और प्रभावी लोगों की
जीवन शैली की चर्चा करके बहुत सारे उत्पादों और ब्राण्डों की ज़रूरत कब और कैसे
आपके मन में जगा दी जाती है, आप खुद नहीं जान-समझ पाते हैं. अब उत्पाद ही नहीं
बेचे जाते, जीवन-शैली भी बेची जाती है और बेचने
से पहले उसे खरीदने की चाह भी आपके मन में उगाई जाती है.
इस सारे खेल में रोचक बात यह रहती है कि कैसे किसी चीज़ को पहले बेकार
या अनुपयोगी घोषित किया जाता है और फिर उसी को विण्टेज या दुर्लभ के
नाम पर महंगे मोल में बेच दिया जाता है. और इसी तरह जिसकी आपको ज़रूरत न हो उसे भी
आपकी ज़रूरत के रूप में स्थापित कर आपके मन में कृत्रिम अतृप्ति जगाकर एक अनुपयोगी
उत्पाद को भी मनचाहे दामों पर आपको बेच दिया जाता है. अगर कभी शांत चित्त से आप इस
सारे कारोबार को देखें तो बहुत रोचक चीज़ों की तरफ आपका ध्यान जाएगा.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब लोग लम्बी चिट्ठियां लिखकर अपनी भावनाओं
का इज़हार किया करते थे. फिर टेलीफोन आया
और आते ही उसने सुविधा का विस्तार करने के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में आपकी इज़्ज़त
में भी चार चांद लगा दिये. और फिर आया मोबाइल, यानि पूरी दुनिया आपकी मुट्ठी में. लेकिन मोबाइल
अपने साथ एक ब्राण्ड वैल्यू भी लेकर आया. आप किसी से बात कर पा रहे हैं, इससे भी
ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया कि आपके हाथ में जो हैण्ड सेट है वह किस ब्राण्ड का
और कितना महंगा है. और इसी के साथ
आहिस्ता-आहिस्ता उस हैण्ड सेट में और सुविधाएं भी जुड़ने लगीं और अब तो हाल यह है
कि मनुष्य से अधिक उसका मोबाइल स्मार्ट हो गया है. मोबाइल आया तो कुछ समय बाद एक कैमरा भी उसमें घुस गया. यहां तक तो ठीक. अब
शुरु होता है वो मज़ेदार खेल जिसकी बात मैं
करना चाहता हूं. मोबाइल में पीछे की तरफ वाला एक कैमरा अपर्याप्त लगा तो आगे भी एक कैमरा जोड़ दिया गया. और इसी
के बाद एक नई चीज़ हमारे जीवन में घुसी – सेल्फी! घुसी नहीं, घुसाई गई. अपने कैमरे
से अपना फोटो आप पहले भी ले सकते थे,
लेकिन बाकायदा विज्ञापन करके सेल्फी समर्थ मोबाइल बेचे जाने लगे. और जब सेल्फी आ
गई तो भला वेल्फी को आने से कौन रोक सकता था? वेल्फी यानि स्व-वीडियो. और जब सेल्फी-वेल्फी आई तो
उनमें मददगार बहुत सारे एप्स भी आए और एक डण्डी भी आ गई – सेफी स्टिक.
लेकिन हाल ही में इस सेल्फी-वेल्फी परिवार में जिस नए सदस्य का आगमन
हुआ है वो सबसे अधिक हास्यास्पद है. इस
सदस्य का नाम है बेल्फी. बेल्फी यानि अपनी खींची हुई अपने नितम्बों की छवि! कहा
जाता है कि किम कार्दाशियां, जिन्हें अपनी देह के इस भाग के प्रदर्शन में विशेष
रुचि रहती हैं इस नई प्रवृत्ति की मुख्य प्रेरिका
हैं. इस बेल्फी के लिए अलग से डण्डियां
भी बाज़ार में आने को हैं और उनकी
खूब बिक्री की सम्भावनाएं हैं. मैं बस यह सोच रहा हूं कि सेल्फी-वेल्फी-बेल्फी के
बाद कौन-सी ‘–फी’ की बारी है?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 20 जनवरी, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.