Tuesday, October 23, 2018

आसान नहीं है विदेशों में देशी नाम के साथ जीना और रहना!




लोगों के नामों का बहुत गहरा रिश्ता उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं से होता है और इसलिए बावज़ूद तमाम असुविधाओं के लोग ऐसे नामों को पसन्द करते हैं जो उन्हें उनकी जड़ों से जुड़ाव महसूस करवाएं. इधर जब से हमारी दुनिया एक वैश्विक गांव में तब्दील हुई है तबसे विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और औरों के लिए अपरिचित भाषिक संरचना वाले नाम अधिक  परेशानी का सबब भी बने हैं. लेकिन इस स्थिति का एक आयाम और भी है जिसकी तरफ प्राय: ध्यान नहीं गया है. इस आयाम को सामने लाई हैं भारतीय मूल की लेखिका और एक्टिविस्ट वैलेरी कौर. वैलेरी के परिजन तीन पीढ़ियों से अमरीका के कैलिफोर्निया में रह रहे हैं. वैलेरी दूसरी बार गर्भवती हुई हैं. वे अपने गर्भस्थ शिशु  के लिए एक उपयुक्त  नाम की तलाश में हैं. उनकी पहली संतान, जो एक बेटा है का नाम कवि है, क्योंकि बकौल वैलेरी कौर उनकी वंश परम्परा में कई नामी कवि  हो चुके हैं. जब वे अपनी इस अजन्मी बेटी के लिए ऐसा ही कोई उपयुक्त नाम खोज रही थीं तभी उनकी नज़र ट्विटर पर चल रही एक चर्चा पर पड़ी.


इस चर्चा के केन्द्र में है ‘डियर एबी’ नाम से विख्यात अमरीका की एक लोकप्रिय स्तम्भकार जेन फिलिप्स की यह सलाह कि लोगों को अपने बच्चों का विदेशी या ‘असामान्य’ नामकरण करने से बचना चाहिए. डियर एबी ने अपनी बात को स्पष्ट  करते हुए कहा है कि  विदेशी नाम न केवल उच्चारण  और हिज़्ज़ों के लिहाज़ से कठिन होते हैं, उनमें यह आशंका भी निहित होती है कि उस नामधारी को बाद में निर्दयतापूर्वक तंग किया जा सकता है. उन्होंने यह भी कहा कि हो सकता है कोई नाम अपनी मूल भाषा में बहुत खूबसूरत हो लेकिन विदेशी भाषा में वह अप्रिय अथवा कर्कश भी लग सकता है. डियर एबी की सलाह पर बहुत  नाराज़ होते हुए वैलेरी कौर ने कहा कि यह सलाह गुस्सा दिलाने और उनका असली रूप उजागर करने वाली है. असली रूप वाली बात को उन्होंने यह कहते हुए स्पष्ट किया कि एबी अभी भी उसी  पुराने  अमरीका से चिमटी हुई है जहां केवल श्वेत वर्ण और उससे जुड़ी चीज़ों को ही सामान्य और  सुन्दर माना जाता है तथा शेष सब विकृत और बेहूदा होता है. वैलेरी ने कहा कि वे और उनका जीवन साथी यही मानते हैं कि किसी बच्चे के नाम  के चयन में उच्चारण की सुगमता की बजाय यह देखा जाना चाहिए कि वह उसे अपनी जड़ों से कितना जोड़ता है. 

और जब बहस चल ही निकली तो यह स्वाभाविक था कि लोग पक्ष विपक्ष के दो खेमों में बंट गए. इस बात को तो सामान्यत: सभी स्वीकार करते हैं कि किसी भी देश के रहने वालों के लिए दूसरे देश के नामों का उच्चारण काफी दिक्कतें पैदा करता है, वे यह भी मानते हैं कि बहुत बार इसी वजह से नाम संक्षिप्त या विकृत भी हो जाते हैं.  पच्चीस वर्षीया मारवा बाल्कर बताती हैं कि अपनी नौकरी के पहले ही दिन उन्होंने अपने मैनेजर को अपने नाम के उच्चारण का सही तरीका समझा दिया, लेकिन फिर भी मैनेजर चाहता था कि वे कोई और नाम सुझा दे जिससे वो उन्हें पुकार सके. वे यह भी बताती हैं कि लोग प्राय: उनके नाम को संक्षिप्त कर मार्स या मार कर देते हैं. लेकिन फिर भी वे चाहती हैं कि लोग उनको उनके असल नाम से ही बुलाएं, भले ही ऐसा करते हुए उनसे कुछ भूल चूक क्यों न हो जाए! 

मारवा बाल्कर जैसा ही अनुभव एक लेखक आनंद गिरिधरदास को भी तब हुआ जब एक रेडियो होस्ट बार-बार उनके नाम का ग़लत उच्चारण करता रहा. इस पर आनंद ने पहले तो उसे सुधारने के प्रयास किये और अंतत: चिढ़कर यह पूछ ही लिया कि अगर आपको फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की या चाइकोव्स्की जैसे नामों का उच्चारण करने में कोई दिक्कत नहीं होती है तो फिर मेरे इस सरल नाम का ठीक से उच्चारण क्यों नहीं करते हैं? इस पर उस होस्ट का जवाब यह था कि क्योंकि  ये नाम बहुत प्रख्यात हैं इसलिए वो इनका ठीक उच्चारण कर लेता है. आनंद गिरिधरदास  उसके  इस तर्क से सहमत नहीं है. उनका कहना है कि असल बात यह नहीं, असल बात तो रंगभेद है. ये लोग प्रयत्नपूर्वक ही सही, गोरों के नामों का सही उच्चारण कर लेते हैं लेकिन जब हम अश्वेतों  की बारी आती है तो चाहते हैं कि हम उनकी सुविधा के लिए अपने नाम बदल लें! वैसे रंगभेद वाली बात में दम तो है. बहुत सारी शोधों के परिणाम भी यह बताते हैं कि जब किसी नौकरी के लिए प्राप्त आवेदन पत्रों की छंटाई की जाती है तो प्राय: ऐसे नाम वालों को प्राथमिकता मिलती है जिनसे उनके श्वेत होने का संकेत मिलता है. 
यानि नामों के चयन का मसला अनेक आयामी और बहुत उलझा हुआ है! 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 23 अक्टोबर, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.