पहले इस पत्र की बात कर ली जाए.
इलाहाबाद की इस संस्था अखिल भारतीय हिन्दी सेवी
संस्थान के प्रचार मंत्री और ‘ठेंगे
पर सब मार दिया’ जैसे विलक्षण नाम वाले
मासिक के सम्पादक मधुकर मिश्र जी ने अपने पत्र द्वारा मुझे सूचित किया मेरा "शुभ नाम संस्थान में ‘राष्ट्रभाषा-गौरव’ तथा ‘साहित्य-शिरोमणि’ मानद उपाधि के लिए प्रस्तावित” हुआ है. उन्होंने अपने पत्र में मुझे सलाह दी कि यदि
मुझे यह प्रस्ताव स्वीकार हो तो “संस्थान के नियमों का समय से पालन करते हुए” पंजीकरण
कराने की कृपा करूं. संस्थान का सम्बद्ध नियम
यह है कि “मानद उपाधि हेतु आमंत्रित साहित्यकार” मात्र
2100/- की राशि भेजे. पत्र प्राप्त करने वाले को
कोई असुविधा न हो इसलिए इस पत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि यह राशि (जिसे पंजीकरण राशि का सम्मानजनक नाम दिया गया है) मनी ऑर्डर
(या बैंक ड्राफ्ट) के ज़रिये भेजी जाए और यह भी कि राशि श्री राजकुमार शर्मा (जिनके
परिचय में बताया गया है कि वे “वर्चस्वी पत्रकार/ साहित्यकार/ सदगृहस्थ-संत” और ‘जागरण’ के प्रधान सम्पादक तथा ‘ठेंगे पर सब
मार दिया’ के सलाहकार सम्पादक हैं) के व्यक्तिगत नाम से ही भेजी जाए और यह भी कि “अध्यक्ष या संस्थान का उल्लेख न करें क्योंकि बैंक
अकाउण्ट राजकुमार शर्मा जी के शुभ नाम से है.”
मैंने महज़ विनोद के लिए यह बात
फेसबुक पर पोस्ट कर दी, तो स्वाभाविक ही है कि अनेक मित्रों की किसम-किसम की
प्रतिक्रियाएं भी वहां आईं. कुछेक मित्रों ने यह लिखा कि उन्हें भी ऐसा ही
प्रस्ताव मिला है, तो कुछेक ने चुटकियां भी लीं. लेकिन इसी सब के बीच अमरीका में
रह रहे हमारे एक मित्र ने मीडिया दरबार (mediadarbar.com) नामक एक वेबसाइट का एक लिंक भी पोस्ट कर दिया
जिसमें विस्तार से यह खबर छपी है कि “हिंदी और पंजाबी के प्रख्यात साहित्यकार और मीडिया विशेषज्ञ अमुक जी (नाम
जान-बूझकर नहीं दे रहा हूं –दुर्गा.) को
अखिल भारतीय हिंदी सेवी संस्थान, इलाहाबाद की ओर से राष्ट्र भाषा गौरव प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया
जाएगा. हिंदी सेवी संस्थान ने ‘उन’ के दो
दशक से ज्यादा समय में हिंदी साहित्य के प्रति किए कार्यों को देखते हुए उन्हें यह
सम्मान देने की घोषणा की है. संस्थान के
सचिव और संपादक मधुकर मिश्र के मुताबिक, हिंदी साहित्य में डा. अमुक जी के अमूल्य
योगदान को देखते हुए उन्हें इस राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित
करने का फैसला किया गया है.” कहना
अनावश्यक है कि इस ख़बर के स्रोत स्वयं सम्मानित साहित्यकार महोदय ही होंगे. यह
सम्भावना इस बात से भी पुष्ट होती है कि
इस समाचार में आगे उनकी अनेक उपलब्धियों
का बखान है. सम्मानित करने वाली संस्था के पास शायद ही वे तमाम जानकारियां
हों. इस तरह की संस्थाएं आपकी उपलब्धियों का लेखा-जोखा रखने की जहमत नहीं उठाया
करतीं. यह देखना बहुत मज़ेदार है कि जो
कृत्य हम सबको हास्यास्पद (या कहें अपमानजनक) लग रहा है उसी को डॉ अमुक जी ने अपने
सम्मान की तरह प्रचारित कर डाला है.
और यह सब पढ़ते हुए मुझे अपने ही शहर जयपुर
के एक और स्वनामधन्य तथाकथित लेखक की याद हो आई. असल में वे शिक्षा से जुड़े थे, मैनेजमेण्ट
के व्यक्ति थे, एक बड़े और नामी कॉलेज के
प्राचार्य थे, और खूब उत्साही थे. मेरे भूतकालिक प्रयोग का कोई बुरा अर्थ न लें.
वे स्वस्थ हैं, लेकिन बस आजकल उनकी सक्रियता कम हो गई है. नाम उनका इसलिए भी नहीं
ले रहा हूं कि अकादमिक क्षेत्रों में उनकी कोई पहचान नहीं है. उनके बारे में भी स्थानीय
स्तर के अखबारों में बहुत थोड़े-थोड़े अंतरालों से इस तरह के सम्मानों की ख़बरें छपती
रहती थीं. उन सम्मानों में आम तौर पर उन्हें भारत की, एशिया की या विश्व की महान
प्रतिभाओं/ लेखकों/शिक्षाशास्त्रियों आदि में शुमार किया जाना बताया जाता था. हम लोग जो इस तरह के सम्मानों की
हक़ीक़त से वाक़िफ थे, इन खबरों को पढ़कर
मुस्कुरा कर रह जाते थे. लेकिन एक बार, शुद्ध शरारत के भाव से मैंने उन्हें फोन कर
ऐसे ही किसी सम्मान पर जब बधाई दी तो उन्होंने जिस विनम्रता से मेरी बधाई को स्वीकार किया, उसका मैं कायल हुए बिना
नहीं रह सका. मुझे मानना पड़ा कि उन्हें इस सम्मान की सम्माननीयता में तनिक भी संशय
नहीं है.
और इन्हीं दो बातों से मेरी कुछ
पुरानी यादें ताज़ा हो आईं. बात शायद 1980 के आसपास की है. तब
मैं राजकीय महाविद्यालय, सिरोही में हिंदी पढ़ाता था. एक दिन डाक में एक लिफ़ाफ़ा आया. उसके भीतर रखे सुमुद्रित पत्र में लिखा था कि वह संस्था (या कम्पनी) देश की
विभिन्न क्षेत्रों की चुनी हुई प्रतिभाओं
की एक डाइरेक्टरी (निर्देशिका) प्रकाशित करने जा रही है और उसमें प्रकाशन
के लिए मेरे नाम का भी चयन किया गया है. मुझसे अपना विस्तृत परिचय और
प्रकाशनोपरांत उस डाइरेक्टरी को रियायती
मूल्य पर खरीदने के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर मांगे गए थे. उस पत्र के साथ एक
प्रारूप भी संलग्न था जिसमें मैं अपनी तरह
के अन्य विशेष योग्यता वाले मित्रों के नाम सुझा सकता था. और इसके बाद इस तरह के
पत्र आने का एक क्रम ही बन गया. धीरे-धीरे पता चला कि कॉलेज के अन्य साथियों के पास भी वैसे ही पत्र आते हैं. इन पत्रों में प्रकाशित होने वाली
डाइरेक्टरियों के शीर्षक बदलते थे, शेष सब कुछ अपरिवर्तित रहता था. एक दिन मुझे न जाने क्या सूझा कि उनके भेजे हुए प्रारूप में अपने
कॉलेज के सभी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों (यानि चपरासियों) के नाम भरकर भेज दिए. और
लीजिए! पन्द्रह दिन भी नहीं बीते होंगे कि मेरे कॉलेज के सारे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के नाम वे सफेद आकर्षक लिफाफे आ
पहुंचे जिनमें उन्हें यह सूचित किया गया था कि उनके नाम का चयन विश्व की
सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा के रूप में किया गया है. अभी मैंने अपने जिन स्थानीय मित्र
का ज़िक्र किया, वे इसी तरह की उपलब्धियों का ढिंढोरा बरसों तक पीटते रहे हैं.
जो लोग इस तरह के सम्मान- पुरस्कार आदि
बांटते (बेचते?) हैं उनका हित तो बहुत स्पष्ट है. यह उनके धन्धे का एक तरीका है.
सामान नहीं बेचा, सम्मान बेच लिया. बल्कि सामान में तो कुछ लागत भी लगती है,
सम्मान तो बिना लागत का माल है. बिना कुछ
खर्च किए कमाई हो जाए तो क्या बुरा है! मुझे लगता है कि जितने लोगों को वे इस तरह के
प्रस्ताव पत्र भेजते हैं, उनमें से अगर दस-बीस प्रतिशत लोग भी उनका प्रस्ताव
स्वीकार कर लेते होंगे (और इतने तो अवश्य ही करते होंगे) तो उनकी दुकान अच्छी तरह
चल जाती होगी. लेकिन मैं अक्सर यह सोचता हूं कि जिन लोगों में थोड़ी भी प्रतिभा है,
थोड़ी भी समझ है, और थोड़ा-भी आत्म सम्मान
है, वे भला इस तरह के प्रस्ताव क्यों स्वीकार करते होंगे? क्या उन्हें यह लगता है
कि उनके पास जितनी प्रतिभा है वो इतने से सम्मान के लिए भी नाकाफी है? वे जो भी
करते या रचते हैं उससे उन्हें कोई सम्मान नहीं मिलने वाला है. इसलिए चलो सम्मान
खरीद ही क्यों ना लिया जाए? किसे पता
चलेगा? उनकी समझ का स्तर शायद यही है कि वे सोचते हैं कि ऐसा सम्मान सिर्फ उन्हीं
को प्रस्तावित किया जा रहा है! और सम्मान बेचने वाले और उन जैसे खरीदने वाले के
अलावा किसी को इस सौदे की भनक भी नहीं लगेगी. और या फिर यह भी मुमकिन है कि वे
बहुत शातिर हों और यह मानते हों कि क्या फर्क़ पड़ेगा, अगर कुछ लोग इस सम्मान की हक़ीक़त
को जानते भी होंगे तो. सभी तो नहीं जानते होंगे! अगर अख़बार में सम्मान की
खबर हज़ार लोग पढ़ेंगे तो उनमें से आधे तो मान ही लेंगे कि सम्मान उनकी महानता की
वजह से मिला है. अगर इतने लोग भी उनको महान मान लेंगे तो उनका अहं तो संतुष्ट हो
ही जाएगा. शायद ऐसे ही लोगों के दम पर सम्मान बेचने वालों की दुकानदारी चलती रहती
है.
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medaidarbar.com पर और फिर दिनांक 08 अक्टोबर 2013 को जनसत्ता के 'समांतर' कॉलम में प्रकाशित टिप्पणी.