Tuesday, August 26, 2014

क्या वाकई समय इस तरह बदला है?

इधर एक नई हिन्दी फिल्म का राजस्थानी गीत चर्चा में है. सोनम कपूर की आनेवाली फिल्म ‘खूबसूरत’  में म्यूज़िक कम्पोज़र स्नेहा खानवलकर ने सुनिधी  चौहान और  रेसमी सतीश से एक गाना गवाया है – अंजन की सीटी में.  यह गाना राजस्थान में पहले से काफी लोकप्रिय है. अस्सी के दशक में इसे दो मिर्ज़ा बहनें रेहाना और परवीन अलग-अलग गाकर लगभग अमर कर चुकी हैं. इस गाने की लोकप्रियता का यह आलम है कि आम तौर पर इसे लोकगीत माना जाता है, जबकि मूलत: यह जाने माने शायर इक़राम राजस्थानी की रचना है. इक़राम साहब का कहना है कि उन्होंने इसे अपने पिता की एक रचना से प्रेरित होकर लिखा था.

इक़राम राजस्थानी  के मूल गाने में एक ग्रामीण युवती का चित्रण है जो शायद पहली दफा रेल में बैठी है और उस अनुभव से अभिभूत है. गाने के पहले अंतरे में रेल के डिब्बे में चल रहे बिजली के पंखे का, दूसरे में चलती रेल के डिब्बे की खिड़की से दिखाई देने वाले बाहर के दृश्य का, और तीसरे में टोपी वाले टीटी का चित्रण है. गाने का चौथा और आखिरी अंतरा रेल के डिब्बे के ज़ोर के धचके से नायिका के औंधी होकर गिर जाने के वर्णन से हास्य का सृजन कर गाने को पूर्णता प्रदान करता है. कहना अनावश्यक है कि यह राजस्थान की एक ग्राम्य बाला के  रेल-अनुभव का  रोचक और रंजक चित्रण है, और यही शायद इसकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह भी है. 

लेकिन  अब नई फिल्म ‘खूबसूरत’  में जो गाना आया है,  स्वाभाविक ही है कि उसकी भाव-भूमि अलग है. लगभग साढ़े तीन दशकों में परिवर्तन तो हुए ही हैं. और अगर गाने को फिल्म में इस्तेमाल किया जाना है तो उन परिवर्तनों पर नज़र रखना भी ज़रूरी है.  तो, यह लोकप्रिय गाना फिल्म में आकर बदल गया  है. मूल गाने की पंक्ति ‘अंजन की सीटी में म्हारो मन डोलै’ अब ‘अंजन की सीटी में म्हारो बम डोलै’ के रूप में सुनाई देती है! मन की जगह बम. बी यू एम. शुद्ध हिन्दी में कहूं तो नितम्ब! पहले मन डोलता था, अब नितम्ब कम्पायमान होते हैं. मन में फौरन यह सवाल उठता है कि क्या पैंतीस सालों में हममें यह  बदलाव हुआ है कि गाने में मन की जगह बम आ जाए? और इसे यों भी कह सकता हूं कि क्या हमारा वो पाठक-श्रोता  जो साढ़े  तीन दशक पहले मन को समझ लेता था, अब उसकी समझ बदल कर बम तक जा पहुंची है? इसे समझ का उत्थान कहें या पतन? और सवाल यह भी कि बदलाव श्रोता की संवेदना में हुआ है  या फिल्मकार की संवेदना में?  

और बदलाव की यह बात सिर्फ मुखड़े पर ही  खत्म  नहीं हो जाती है. मैंने मूल गाने के चार अंतरों का जो परिचय दिया उसे ध्यान में रखते हुए  अब ज़रा इस नए गाने का पहला अंतरा देखिये: “फक-फक इंजन  बोल रहा है,  पटरी थर-थर कांपै/ कहां रुकेगी गाड़ी आकर मन ये मेरा पूछै/ इंजन आकर जुड़ जाए मुझसे खाऊं हिचकोलै...”   सुनिधी ने इसे किस तरह गाया है और सोनम ने कैसे इस पर नृत्य किया है, इन बातों को  अगर नज़र अन्दाज़ भी कर दें तो ये शब्द ही काफी कुछ कह देते हैं. मूल गाने की मासूमियत की जगह अब एक मांसल, बल्कि लगभग अश्लील सांकेतिकता ने ले ली है.  बहुत सम्भव है कि इस गाने का प्रयोग एक आइटम नम्बर के तौर पर हुआ हो और फिल्म बनाने वालों की निगाह टिकिट खिड़की पर रही हो, इसलिए मूल गाने को इस तरह से बदल दिया गया हो! और हां, यह तो कहना मैं भूल ही गया था कि मूल गाने का यह रूपांतर भी किसी और का नहीं, उन्हीं शायर का किया हुआ है.

यह गाना एक बार फिर हमें शिद्दत से अपने बदले वक़्त का एहसास कराता है. इस बात का एहसास कराता है कि ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चन्दा’ , ‘फूल तुम्हें भेजा है ख़त में’ ‘छिपा लो यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मन्दिर में लौ दिये की’ जैसे गानों और अभिव्यक्तियों का समय बीत चुका है. लेकिन क्या वाकई कोमलता का और सुरुचि का समय बीत चुका है? क्या वाकई इश्क़ कमीना हो गया है?  क्या वाकई  हम ‘पापा कहते थे बड़ा  नाम करेगा’ से चलकर डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी/ तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी/ साबुन की शक्ल में बेटा तू तो निकला केवल झाग/ झाग झाग….भाग डीके बोस भाग…….!’ तक आ पहुंचे हैं?  क्या सच्ची ‘अच्छी बातें कर ली बहुत,  अब करूंगा तेरे साथ गन्दी बात..गन्दी बात!’ वाला समय आ गया है?

मन की जगह बम सुनकर तो ऐसा ही लगता है!  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 26 अगस्त, 2014 को  वक़्त के साथ बदलते इंजन की सीटी के मायने शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 19, 2014

एक अनूठा बिज़नेस मॉडल और सरकारें

आज सुबह फेसबुक पर किसी ने मात्र एक मिनिट ग्यारह  सेकण्ड के  एक वीडियो का लिंक भेजा तो सहज जिज्ञासा वश उसे देख ही लिया. बहुत मज़ेदार,  लेकिन विचारोत्तेजक भी. कहा गया कि यह वीडियो मुम्बई की एक औरत की कहानी है. उसके अनूठे व्यवसाय की कहानी. रोज़ सुबह वो औरत अपनी चार गायों और थोड़ी-सी घास को लेकर उस जगह पर आती है. पुण्य करने के इच्छुक  लोग उस औरत से घास खरीदते हैं और पास ही बंधी हुई गायों के आगे डाल देते हैं. शाम होते-होते उस औरत की सारी घास  बिक जाती है, और उसी के साथ उसकी गायों का पेट भी भर जाता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. वे गायें जो दूध देती हैं, उसे  भी वो औरत बेच लेती है. तो यह है व्यापार का एक अनूठा मॉडल. अगर आप ध्यान से देखें तो इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है. मुम्बई जैसे महानगर में वो औरत चन्द लोगों को पुण्य करने का अवसर प्रदान कर रही है. उन्हें पुण्य करने के लिए घास खरीदने दूर नहीं जाना पड़ रहा. गाय और घास दोनों पास-पास. वह औरत कोई छल नहीं कर रही. किसी को धोखा नहीं  दे रही. दानियों को इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है कि वे गायें किसकी हैं? और इस तरह वो औरत अपने बहुत साधारण लेकिन अनूठे बिज़नेस सेंस से अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी चला रही है. हो सकता है आपको भी अपने आस-पास ऐसी ही कोई अनूठी कहानी मिल जाए!  

लेकिन इस वीडियो को देखते-देखते मेरा ध्यान एक और बात की तरफ चला गया. इस वीडियो को देखते-देखते मुझे खयाल आया कि सारी दुनिया की सरकारें भी तो इसी मॉडल पर चलती हैं! ज़रा सोचिये. सारा का सारा टैक्स हम देते हैं, और सरकारें इस बात का श्रेय लेती हैं कि उन्होंने हमारे लिए ये किया और वो किया. सड़कें बनवाई और अस्पताल चलाए! वेलफेयर स्टेट यानि कल्याणकारी राज्य! जब चाहा टैक्स लगा दिया और जितना चाहा उसे बढ़ा दिया. तर्क यह कि बिना टैक्स कोई भी योजना कैसे पूरी की जा सकती है! और आपने-हमने जो टैक्स दिया उससे सिर्फ हमारा-आपका ही भला नहीं हुआ! खुद सरकार का भी कम भला नहीं हुआ. सरकार यानि मंत्री, सांसद, विधायक और पूरा का पूरा सरकारी अमला. जो टैक्स आप हम देते हैं उसी में से वे खुद पर भी खर्च करते हैं और अच्छी खासी दरियादिली से खर्च करते हैं. उनके वेतन भत्ते, उनकी सारी सुख सुविधाएं, उनकी सुरक्षा, उनके घर-बार, उनकी हारी-बीमारी, उनकी देश-विदेश की यात्राएं, उनकी पेंशन सब कुछ उसी पैसे से तो होता है जो हम लोग बतौर टैक्स सरकार को देते हैं. है ना वही का वही मॉडल.

और जैसे इतना भी पर्याप्त नहीं है. हम पैसा देते हैं, और अगर हम प्रजातांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हों तो हम ही उन्हें चुनते हैं (चुनने का सारा खर्च भी हम ही उठाते हैं!), और अगर दूसरी व्यवस्था हो तो वे खुद को हम पर थोप लेते हैं, लेकिन हर व्यवस्था में यह दावा ज़रूर किया जाता है कि यह सब हमारी ही बेहतरी के लिए है. प्रजातंत्र में अपनी सरकार चुनने का अधिकार हमारे हाथों में सौंपना भी एक तरह से हम पर किया गया एक उपकार बताया जाता है. और अगर यह व्यवस्था न हो तो किसी महान परम्परा का निर्वाह बता कर उस भिन्न  व्यवस्था को  भी महिमा मण्डित किया जाता है. लेकिन ज़रा खुले मन से सोचिये कि क्या कोई भी सरकार अपनी जनता पर किया हुआ उपकार होती है? अगर वो किसी और स्रोत से वित्त पोषित होती तो मैं उसे उपकार मानने के बारे में सोचता. लेकिन जब वो मेरे ही संसाधनों से चलती है तो उसे उपकार के रूप में स्वीकार करने में मुझे तो संकोच होगा.  

असल में सरकारों ने, शायद यही बात उनके हित में हो, लम्बे समय से एक ऐसा माहौल बना रखा है कि सभी देशों की जनता उन्हें अपने हित में और अपरिहार्य मानने लगी  है. मुझे याद आता है कि कुछ समय पहले एक भारतीय साप्ताहिक पत्रिका ने एक कवर स्टोरी की थी  ‘डू वी रियली नीड अ गवर्नमेण्ट?’  क्या हमें वाकई  किसी सरकार की ज़रूरत है? यह सवाल आज फिर मेरे जेह्न में उठ रहा है.  इसलिए भी उठ रहा है दुनिया के बहुत सारे देशों में सरकारें अपने बहुत सारे काम निजी क्षेत्र को सौंपती जा रही हैं. ग्लोबल विलेज की अवधारणा का मूर्त होना विदेश नीति की ज़रूरत भी कम करता जा रहा है. और अगर सरकारें न हों तो शायद रक्षा महकमे की भी ज़रूरत न रहे! सभी जानते हैं कि लड़ती सरकारें हैं, जनता नहीं. तो  ऐसे में क्या उस औरत से कहा जा सकता है कि हमें तुमसे घास नहीं खरीदनी है?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 19 अगस्त, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, August 12, 2014

चौंको, जल्दी चौंको!

इधर राजकुमार हिरानी की नई फिल्म ‘पीके’  के लिए आमिर खान के एक पोस्टर को लेकर जो घमासान मचा हुआ है वह बड़ा दिलचस्प है. वैसे यह बात सभी जानते हैं कि आमिर खान हर बार कुछ ऐसा कर जाते हैं कि लोग चौंक पड़ते हैं, इसलिए नई फिल्म ‘पीके’  के इस पोस्टर को भी उसी  तरह लिया जाना चाहिए, लेकिन किसी को भी अपनी प्रतिक्रिया देने से भला कैसे रोका जा सकता है? वैसे यह पोस्टर है सीधा सादा. इसमें मिस्टर परफेक्ट एक रेल की पटरी के बीचों बीच अपनी आकर्षक देह को दिखाते हुए खड़े हैं. देह पर, जैसा मुहावरे की भाषा में कहा जाता है, एक धागा तक नहीं है. उन्होंने अधोवस्त्र धारण कर रखा है या नहीं, इस बारे में निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है. इसलिए नहीं कहा जा सकता है कि आमिर खान ने पुराने ज़माने वाला एक  कैसेट प्लेयर अपने दोनों हाथों में थाम रखा है. अब वे उसे हटायें तो पता चले कि उन्होंने किस ब्राण्ड का अण्डरवियर पहन रखा है, या वे अपनी बर्थडे पोशाक में ही हैं. ज़ाहिर है कि इस तस्वीर का कोई न कोई सम्बन्ध उस ‘पीके’  नामक फिल्म से ज़रूर होगा. क्या है यह जानने की उत्सुकता इस पोस्टर ने बढ़ा दी है.

वैसे, इस पोस्टर को देखकर सबसे पहले तो मुझे उस भले और भोले आदमी की याद आ गई जिसके बारे में हम अपने बचपन में खूब सुना करते थे. अरे वही भला और भोला आदमी जो एक ही फिल्म को बारहवीं या तेरहवीं दफा देखते हुए पकड़ा गया था और जिसने पूछने पर बताया था कि इस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें नायिका नदी पर स्नान करने जाती है और वह जैसे ही अपने कपड़े उतारने लगती है, कम्बख़्त ट्रेन बीच में आ जाती है. वह भला और भोला इंसान इस उम्मीद में उस फिल्म को बार-बार देखने जाता रहा कि कभी तो ट्रेन लेट होगी. लेकिन अब समय बहुत बदल गया है. भोलापन बीते ज़माने की बात  हो गया है. अब कोई इस  बात का इंतज़ार नहीं करने वाला कि कभी तो आमिर का हाथ दुखेगा और वो अपने कैसेट प्लेयर को नीचे रखेगा, या और कुछ नहीं तो उसकी बैट्री ही बदलने की ज़रूरत पड़ जाएगी, और तब अपने आप पता चल जाएगा कि कैसेट प्लेयर के पीछे क्या है!

इस पोस्टर पर जो शोर-शराबा  है, मुझे लगता है कि उसके मूल में यही मासूमियत का खो जाना है, वरना तो इसमें आपत्तिजनक जैसा कुछ भी नहीं है. इसमें कोई आपत्तिजनक नग्नता नहीं है. हां, हो सकता है कि रेल की पटरियों के बीच खड़ा रहना आपत्तिजनक और शायद ग़ैर कानूनी हो, लेकिन मेरे खयाल से इस एंगल से किसी ने भी इस  पोस्टर को नहीं देखा है. हुआ यह है कि शोर  करने वालों ने कल्पना कर ली है कि आमिर खान ने इस कैसेट प्लेयर को अपनी नग्नता के आवरण  के तौर पर इस्तेमाल किया है, यानि उन्होंने कल्पना कर ली है कि कैसेट प्लेयर के पीछे क्या है! इस बात पर क्या आपको जाकी रहनी भावना जैसी वाली बात याद नहीं आती? या याद तो आती है, लेकिन इस सन्दर्भ में नहीं आती. वो तो तभी याद आती है ना जब हमें लगता है कि किसी भले इंसान को बेवजह आरोपित किया जा रहा है. यहां मामला दूसरा है. हमने मान लिया है कि कोई फिल्मी शख़्स इस तरह खड़ा है तो ज़रूर कहीं पीछे से गुरदास मान की आवाज़ भी आ ही रही होगी – मामला गड़बड़ है!

मैं बात मासूमियत के खो जाने की कर रहा था. कभी आप इस पोस्टर  को किसी बहुत छोटे बच्चे को दिखा कर देखें. क्या उसकी प्रतिक्रिया वैसी ही होगी जैसी हममें से बहुतों की है? क्या वह भी इस पोस्टर को देखकर पूछेगा कि ये अंकल नंगू फंगू क्यों खड़े हैं? पक्की बात है कि वो ये सवाल नही पूछेगा क्योंकि उसकी मासूमियत अभी बरक़रार है. उसके मन में यह बात जमी हुई है कि इतने बड़े  अंकल ने कुछ न कुछ तो पहन ही रखा होगा, लेकिन वो कैसेट प्लेयर के पीछे  छिप गया है. एक और बात है. असल में जब हम किसी तस्वीर को देखते हैं तो सिर्फ उसी को नहीं देखते हैं. उसके साथ पूरा एक सन्दर्भ  हमारे मन में नेपथ्य में चलता है. यहां वही हो रहा है. देख तो हम तस्वीर को रहे हैं, लेकिन साथ में हमारा दिमाग हमें यह फीडबैक भी देता चल रहा है कि देखो ऐसी तस्वीर तुम्हें चौंकाने के लिए दिखाई जा रही है, इसलिए चौंको, जल्दी चौंको! (रघुवीर सहाय मुझे माफ़ करेंगे!) और हम चौंक जाते हैं! और यही उनकी कामयाबी है जिन्होंने हमें यह तस्वीर दिखाई है.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 अगस्त, 2014 को मिस्टर परफेक्ट का अनोखा अंदाज़, चौंको जल्दी चौंको शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, August 5, 2014

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी

हर आदमी में होते हैं    दस-बीस आदमी
 जिसको भी देखना  हो  कई बार देखना |
आज जाने क्यों निदा फाज़ली साहब का यह शे’र बहुत याद आ रहा है. क्या आपके साथ भी कभी ऐसा होता है कि बिना किसी बात के कोई बात याद आ जाए? और जब यह शे’र याद आ गया तो मुझे बहुत सारे ऐसे लोकप्रिय गायक याद आने लगे जिनकी लोकप्रियता उनके गाये बड़े हल्के, बल्कि चालू गानों की वजह से है, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता पता चला कि असल में तो वे बड़े संज़ीदा और गुणी गायक हैं. जब गुणी होने से  रोजी रोटी का जुगाड़ नहीं बैठा तो अपनी गाड़ी को दूसरी दिशा में ले जाने को विवश  हुए. कुछ ऐसा ही हाल हमारे  बहुत सारे कवियों का भी है. आज उनकी जो छिछोरी और लगभग अस्वीकार्य छवि बन गई है, वह कदाचित उनकी विवशता की देन है. अब इस बात पर तो बहस हो सकती है कि क्या वह विवशता वाकई विवशता थी, या अधिक वैभव पूर्ण जीवन की ललक उन्हें उस तरफ़  ले गई, लेकिन उनकी समझ, उनकी संवेदनशीलता और उनकी काबिलियत असंदिग्ध है. यह बात करते हुए मुझे अनायास काफी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है. अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध  तक  मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा. उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे.  बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन. दस-पन्द्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले. नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी,  सोम ठाकुर, संतोषानंद  आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपर  स्टार हुआ करते थे. अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे.

तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज हमारे शहर में आए. तब तक फिल्मों में भी वे काफी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे मेरा नाम जोकर, शर्मीली, प्रेम पुजारी, छुपा रुस्तम वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे. ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे कारवां गुज़र गया वगैरह में ही सारा समय बीत जाता और वे  नया कुछ तो कभी सुना ही नहीं पाते. मैं उनसे मिलने गया और बातों का सिलसिला कुछ ऐसा  चला कि मैं उनसे यह कह बैठा कि कवि सम्मेलनों में उनसे  फिल्मी गाने सुन कर मुझे बहुत निराशा होती है. और भी काफी कुछ कह दिया मैंने उनसे. उन्होंने बहुत धैर्य से मेरी बातें सुनी और फिर बड़ी शालीनता से मुझसे दो बातें कही. एक तो यह कि इन सब बातों से वे भी परिचित हैं, लेकिन यह उनकी मज़बूरी है कि जिन लोगों ने अच्छे  खासे पैसे देकर उन्हें बुलाया है, उन्हें वे खुश करें. और दूसरी यह कि उनके पास भी अच्छी और नई कविताएं हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कहां हैं? इसके जवाब में मैंने उनसे कहा कि सुनने वाले तो हैं लेकिन उनके पास आपको देने के लिए  बड़ी धन राशि  नहीं है. नीरज जी ने कहा कि अगर सच्चे कविता सुनने वाले मिलें तो वे बिना पैसे लिये भी उन्हें अपनी कविताएं सुनाने को तैयार हैं. उनके इस प्रस्ताव को मैंने तुरंत लपक  लिया और उन्हें अपने कॉलेज में काव्य पाठ के लिए ले गया. विद्यार्थियों से मैंने कहा कि नीरज जी बिना एक भी पैसा लिए हमारे यहां केवल इसलिए आए हैं कि हम उनसे सिर्फ और सिर्फ कविताएं सुनना चाहते हैं,  इसलिए आप उनसे कोई फरमाइश न करें. जो वे सुनाना चाहें वह सब उन्हें सुनाने दें. और आज मैं इस बात को याद करके चमत्कृत होता हूं कि नीरज जी ने लगभग दो घण्टे अपनी बेहतरीन  कविताएं सुनाईं, और मेरे विद्यार्थियों ने पूरी तल्लीनता और मुग्ध भाव से उन्हें सुना. इसके बाद मैंने ही नीरज जी  से अनुरोध किया कि हमारे विद्यार्थियों ने इतने मन से आपको सुना है, अब अगर आप इनकी पसन्द के दो एक गीत भी सुना दें तो बहुत मेहरबानी होगी. और नीरज जी की उदारता कि उन्होंने विद्यार्थियों की फरमाइश पर अपने सारे लोकप्रिय फिल्मी गीत भी एक-एक करके सुना दिए !  लेकिन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि ‘छुपे रुस्तम हैं हम क़यामत की नज़र रखते हैं’ और ‘ओ मेरी शर्मीली’  जैसे गाने लिखने और सुनाने वाले नीरज के भीतर एक कवि उदास और इस इंतज़ार में बैठा है कि कोई आए और उससे कुछ सुनने की इच्छा ज़ाहिर करे! शायद यही हाल आज के बहुत सारे लोकप्रिय कलाकारों का भी है. लेकिन उनकी सुनता कौन है?

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, दिनांक 05 अगस्त 2014 को हर आदमी में  छिपे होते हैं दस-बीस आदमी शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ.