Thursday, June 29, 2017

किस्सा तलाक की देवी का

हर भाषा में ऐसे अनगिनत शब्द होते हैं, जिनका किसी भी दूसरी भाषा में ठीक-ठीक अनुवाद नामुमकिन होता है. अंग्रेज़ी भाषा का ऐसा ही एक शब्द है डीवा (Diva) जिसकी उत्पत्ति जिस इतालवी संज्ञा से हुई उसका  अर्थ हमारी देवी के निकट माना जा सकता है, लेकिन अंग्रेज़ी में जिसका प्रयोग गीत-संगीत, नृत्य, ऑपेरा, सिनेमा और पॉप संगीत की शीर्षस्थ महिला शख़्सियतों के लिए होने लगा. बाद में इस शब्द के साथ कुछ शरारती अर्थ-ध्वनियां भी जुड़ गईं और यह शब्द ठीक देवी जैसा पाक-साफ़ नहीं रह गया. इस शब्द की याद मुझे आई  इंग्लैण्ड की उनचास वर्षीया सुश्री वर्डाग के संदर्भ  में, जिन्हें डीवा ऑफ डिवॉर्स यानि तलाक की देवी कहा जाता है. इन सुश्री वर्डाग की काबिलियत का आलम यह है कि इनकी कानूनी फर्म की लंदन में अवस्थिति की वजह से लंदन को ही डिवॉर्स कैपिटल ऑफ द वर्ल्ड के रूप में जाना जाने लगा है. सुश्री वर्डाग की ख्याति अत्यधिक वैभवशाली व्यक्तियों को उनकी असफल वैवाहिक ज़िंदगी से मुक्ति और अधिकतम सम्भव हर्ज़ाना राशि दिलवाने के लिए है. कहा जाता है कि इनकी इस ख्याति के कारण पूरी दुनिया में जैसे ही किसी वैभव सम्पन्न युगल की शादी पर संकट के बादल मण्डराने लगते हैं, दोनों के बीच सुश्री वर्डाग के पास पहले पहुंचने की एक उन्मादपूर्ण स्पर्धा भी शुरु हो जाती है. दोनों की दिली तमन्ना होती है कि अदालत में सुश्री वर्डाग उसका प्रतिनिधित्व करे न कि उसके साथी का. और जब उनकी ख्याति इतनी है तो इस बात पर कोई आश्चर्य क्यों हो कि  उनकी फीस लगभग आठ सौ पाउण्ड (कर अतिरिक्त) प्रति घण्टा है और मात्र बारह बरस  पहले शुरु हुई उनकी फर्म वर्डाग्ज़ की सालाना आय एक करोड़ पाउण्ड आंकी जाती है.

इन सुश्री वर्डाग का जन्म ऑक्सफोर्ड में  एक अंग्रेज़ मां और पाकिस्तानी पिता के घर हुआ, लेकिन जब वे बहुत छोटी थीं तभी उनके पिता उन लोगों को छोड़ कर पाकिस्तान जा बसे और उनका लालन-पालन अकेले उनकी मां ने किया. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्डाग ने लंदन में वित्तीय और वाणिज्यिक कानून के क्षेत्र में काम करना शुरु किया और उसमें काफी सफल भी रहीं.  वर्ष 2000 में उनके कैरियर  में एक बड़ा मोड़ तब आया जब उन्हें खुद अपने तलाक का मुकदमा लड़ना पड़ा, और इसमें रोचक बात यह रही कि यह मुकदमा लड़ने वाले उनके वकील ने भी बाकायदा सपारिश्रमिक  उनकी सेवाएं लीं. और तभी उन्हें महसूस हुआ कि भले ही वित्तीय कानून बौद्धिक रूप से बेहद दिलचस्प हों, पारिवारिक कानून का क्षेत्र भी उनसे कम रोचक नहीं होता है. बल्कि यहां तो आप व्यक्तियों के निजी जीवन में आ रही मुश्क़िलों के लिए, उनकी ज़मीन-जायदादों और व्यापारों को बचाने के लिए तथा इस बात के लिए कि उनके सम्पर्क उनके बच्चों  के साथ बने रहें - इन  आधारभूत बातों के लिए  लड़ते हैं. और इस एहसास के बाद सन 2005 में उन्होंने वित्तीय और वाणिज्यिक कानून का काम छोड़ अपने घर के ही एक कमरे से पारिवारिक कानून की प्रैक्टिस शुरु कर दी. शुरुआत में उनके पास एक भी मुवक्किल नहीं था और तीन बच्चों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी उन पर थी. वर्डाग ने अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत द्रुत गति से नेटवर्किंग की. जहां भी मौका मिलता वे पहुंच जातीं  और अपना परिचय देतीं. और तभी उन्हें अपनी पहली मुवक्किल मिली, जिसके बच्चे भी उनके बच्चों वाले स्कूल में थे. उसे वे अच्छी भरणपोषण राशि दिलवा पाईं तो उनका नाम हुआ, और उनके पास और केस आने लगे. आज स्थिति यह है कि उनके पांच ऑफिसों में कुल पचपन वकील काम करते हैं. भले ही उनकी कम्पनी के सारे मुकदमे इंग्लैण्ड की अदालतों में चलते हों, खुद सुश्री वर्डाग  पिछले दो बरसों से दुबई में रहने लगी हैं. इसके पीछे भी उनकी नेटवर्किंग ही है. वे मध्यपूर्व के बेहद अमीर भावी मुवक्किलों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं.

इतनी कामयाबी की एक परिणति ईर्ष्याओं  और आलोचनाओं में होना अस्वाभाविक नहीं है. उनके आलोचकों का कहना है कि वे आत्म  प्रचार पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देती हैं और अपने  मुकदमे लड़ते समय अत्यधिक आक्रामक हो जाती हैं. इसका जवाब देते हुए वर्डाग कहती हैं कि सामान्यत:  मैं दूसरे  पक्ष के साथ बहुत विनम्रता के साथ पेश आती हूं, लेकिन मुकदमेबाजी के वक़्त मैं खूंखार  हो उठती हूं. हो सकता है कि कुछ लोगों को एक औरत का यह रूप न भाता हो!

सुश्री  वर्डाग जानती हैं कि उन्हें डीवा कहा जाता है. लेकिन ज़रा उनकी यह बात भी  तो सुनें: “आप भले ही मेरे लिए डीवा का प्रयोग अपमानजनक अर्थों में करते हों, मैं तो इसे एक कॉम्प्लीमेण्ट  की तरह लेती हूं. डीवा का मतलब होता है वो जो बेबाक हो, जिसके इरादे पक्के हों और जो रंगीन और तड़क भड़क से भरपूर हो!” 
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जयपुर से प्रकशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 जून, 2017 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 20, 2017

हम सबकी दुआएं तुम्हारे साथ हैं, कल्याणी!

उसका नाम कल्याणी है, कल्याणी सरकार. वैसे यह उसका विवाह पूर्व का नाम है. अब वह कल्याणी  मण्डल है. पश्चिमी बंगाल के नादिया ज़िले के एक बहुत छोटे गांव की इस 32 वर्षीया युवती के जीवन में कुछ भी तो असाधारण नहीं है, फिर भी उसकी चर्चा हो रही है. बचपन में पढ़ना चाहती थी लेकिन ज़िंदगी के हालात कुछ ऐसे बने कि आठवीं कक्षा में आते-आते स्कूल को अलविदा कहना पड़ गया. सपना यह देखती थी कि पढ़-लिख कर सरकारी नौकरी करने लगेगी, लेकिन ऐसे सपनों का चकनाचूर हो जाना अपने यहां आम है. मां-बाप ने जैसे-तैसे उसकी शादी की और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गए. हर आम हिंदुस्तानी युवती की तरह कल्याणी ने भी अपने हालात को मौन भाव से स्वीकार कर लिया. संयुक्त परिवार था. घर की बहू के लिए कामों की कोई कमी थोड़े ही होती है. दिन तो  घर के काम-काज निबटाने में ही बीत जाता. खुद के बारे में सोचने का कभी मौका  ही नहीं मिला. और इसी बीच वे दो से तीन भी हो गए. बेटा बिप्लब आहिस्ता-आहिस्ता बड़ा होने लगा तो कल्याणी के मन में दबा हुआ सपना भी जैसे अंगड़ाई  लेने लगा. उस सपने को खाद-पानी दिया उसके पति बलराम ने.

दोनों ने अपने गांव के रबींद्र मुक्त विद्यालय में नाम लिखवा लिया. बल्कि सच तो यह है कि कल्याणी का साथ देने के लिए पति बलराम ने भी स्कूल में अपना नामांकन करवाया. इसलिए कि कल्याणी को अजीब न लगे. यह बात अलग है कि बलराम अपनी रोजी-रोटी के संघर्ष के बीच पढ़ाई के लिए समुचित समय नहीं निकाल पाया. भले ही उसके पास गांव में थोड़ी-सी ज़मीन है, घर का काम चलाने के लिए तो उसे दूसरों के खेतों में मज़दूरी करनी ही पड़ती है. खुद कल्याणी भी घर  में बकरियां पालती है. इस तरह दोनों के अनथक श्रम से बमुश्क़िल सात हज़ार रुपये जुट पाते हैं. इतने में जैसे-तैसे उनके परिवार का  काम  चल जाता है.  और हां, यह बताना तो भूल ही गया कि उनकी बेटा बिप्लब भी सत्रह बरस का हो गया है और वह भी पढ़ रहा है.

लेकिन जो बात  बतानी थी वह तो छूटी  ही जा रही है. कल्याणी की चर्चा इस बात के लिए हो रही है कि इस बरस उसने अपने पति और बेटे के साथ बारहवीं की परीक्षा दी, और न केवल दी, उसमें कामयाबी भी हासिल की. यह एक अनूठी घटना थी जिसमें पति, पत्नी और बेटे तीनों ने एक साथ एक परीक्षा दी, और तीन में से दो इस परीक्षा में सफल भी हुए. बलराम की नाकामयाबी की वजह बताना अनावश्यक है. कल्याणी का  कहना है कि उसके पति को भला पढ़ाई का समय ही कहां मिल पाता था, लेकिन उसका इरादा है कि वह अपने पति को अगले बरस फिर परीक्षा देने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करेगी. खुद कल्याणी को भी परीक्षा में कोई  भारी सफलता नहीं मिली है. उसे भी  मात्र 44% अंक प्राप्त हुए हैं और वह अपनी इस सीमित कामयाबी से अनभिज्ञ भी नहीं है. एक इण्टरव्यू में उसने कहा भी है कि उसे ज़्यादा खुशी तो तब होती  जब उसने इस परीक्षा में टॉप किया होता.

कल्याणी और बलराम के बेटे बिप्लब को इस परीक्षा में 47% अंक प्राप्त हुए हैं. उसका कहना है उसे अपने मां-बाप पर गर्व है, हालांकि वह संकोच के साथ यह भी बता देता है कि शुरु-शुरु में अपने मां-बाप के साथ एक ही कक्षा में बैठते हुए उसे अटपटा भी लगता था. लेकिन उन लोगों  ने बड़ी जल्दी अपने दोस्त भी बना लिये थे. और इसके बाद, थोड़ी शरारत के साथ वह यह कहना भी नहीं भूलता है कि सबसे अच्छी बात तो यह थी उसके मां-बाप बहुत ही कम कक्षाओं में उपस्थित हो सके. वह  यह भी बताता है कि कुछ विषयों में तो उसकी मां और उसके बीच बड़ी स्वस्थ प्रतिस्पर्धा भी रही. हंसते हुए वह बताता है कि अंग्रेज़ी में तो हम दोनों ही कमज़ोर थे.

लेकिन सबसे  ख़ास बात तो वह है जो कल्याणी ने कही है. यहां आप एक जीवट वाली भारतीय स्त्री का स्वर साफ़ सुन सकते हैं.  उसने कहा है कि शुरु-शुरु में तो लगा था कि मुझे जो कुछ करना है वह मैं कर चुकी हूं. अब भला और क्या करना है? लेकिन अब जब मेरी इतनी चर्चा हो गई है तो मुझे लग रहा है कि मुझे भी थम नहीं जाना चाहिए. अब मेरी इच्छा है कि मैं कॉलेज भी जाऊं. क्या पता किसी दिन सरकारी नौकरी पाने का मेरा सपना भी पूरा हो जाए!

कल्याणी, हम सबकी दुआएं तुम्हारे साथ है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 20 जून, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 13, 2017

चार देशों में स्त्री की हैसियत का पैना विश्लेषण

पाउलिना पॉरिज़्कोवा एक जानी-मानी सुपर मॉडल रही हैं और उनका उपन्यास अ मॉडल समरखूब पढ़ा गया है. भारत में उनकी अधिक चर्चा नहीं हुई है, लेकिन मुझे हाल में उनका एक लेख पढ़ने को मिला और उसे पढ़ते हुए लगा कि इसके सार को अपने पाठकों के साथ साझा किया ही जाना चाहिए. इस छोटे-से लेख में उन्होंने बहुत ही कुशलता से साथ दुनिया के अनेक देशों में स्त्री की हैसियत को बयान कर दिया है.

पाउलिना मूलत: चेकोस्लोवाकिया की रहने वाली हैं, जहां स्त्री की हैसियत एक दासी जैसी है. दिन भर मेहनत मजदूरी, और शाम को घर लौट कर घर का सारा काम, पति की सेवा और उसके बाद भी उपेक्षा  और अपमान. लेकिन मात्र नौ बरस की  उम्र में जब उन्हें स्वीडन जाना  पड़ा तो वहां उन्हें एक नई ही दुनिया देखने को मिली. स्कूल में उन्हें एक लड़के ने इस बिना पर थोड़ा सताया कि वे एक आप्रवासी हैं, तो तुरंत ही उनकी एक दोस्त ने, जो कद-काठी में बहुत छोटी थी, जम कर उस लड़के की कुटम्मस कर डाली. पाउलिना के लिए यह बात  कल्पनातीत थी  लेकिन उन्हें इस बात से और अधिक आश्चर्य हुआ कि उनकी कक्षा में किसी को भी यह बात असामान्य नहीं लगी. इस एक घटना से उन्हें यह बात समझ में आ गई कि स्वीडन में उनकी हैसियत किसी लड़के से कमतर नहीं है. यह जैसे उनके जीवन का पहला पाठ था. फिर तो उनका ध्यान इस बात पर भी गया कि स्वीडन में घर का काम भी स्त्री-पुरुष मिल-जुल कर करते थे. खुद उनके पिता भी घर की सफाई और खाना पकाने का काम निस्संकोच करने लगे थे. वैसे इसकी एक वजह यह भी थी कि तब तक वे अपनी चेकोस्लोवाकियन  पत्नी को तलाक देकर एक स्वीडिश स्त्री को जीवन साथी बना चुके थे.

पाउलिना हाई स्कूल में पहुंची तो उन्होंने नोटिस किया कि लड़के लड़कियों की तरफ आकर्षित होते हैं, उनके निकट आना चाहते हैं, लेकिन निर्णायक  हैसियत लड़कियों की है. वे चाहें तो उनके अनुरोध को स्वीकार करें, चाहे तो अस्वीकार. और इस एहसास ने खुद उन्हें अपनी निगाहों में ताकतवर बनाया. वहां हाल यह था कि कि अगर कोई लड़की किसी लड़के का प्रणय प्रस्ताव स्वीकार कर लेती तो वह लड़का ईर्ष्या का पात्र बन जाता और इस बात का उत्सव मनाया जाता. लड़की को कोई बुरी निगाह से नहीं देखता था. पाउलिना लिखती हैं कि स्कूल की नर्स बग़ैर कोई सवाल पूछे  मांगने पर गर्भ निरोधक दे दिया करती थी और स्कूल में दी जाने वाली सेक्स एजूकेशन की वजह से वे यौन रोगों और अवांछित गर्भधारण के बारे में काफी कुछ जान गई थीं. सबसे बड़ी बात यह कि उन्हें यह समझ में आ गया था कि स्त्रियां न केवल वह सब कुछ कर सकती हैं जो पुरुष कर सकते हैं, वे ऐसा भी कुछ कर सकती हैं जो पुरुष कभी नहीं कर सकता. वे मां बन सकती हैं. और इस एहसास ने उन्हें महसूस करा दिया कि स्त्रियां पुरुषों से अधिक सामर्थ्य रखती हैं.

लेकिन जब पंद्रह की होने पर वे मॉडलिंग के लिए पेरिस  गईं तो उनका ध्यान इस बात पर गया कि वहां पुरुषों  का बर्ताव स्त्रियों के प्रति कितना भिन्न है! वे आगे बढ़कर स्त्रियों के लिए दरवाज़े खोलते हैं, उनकी डिनर का बिल चुकाने को तत्पर रहते हैं, और कुल मिलाकर यह एहसास कराने की भरसक कोशिश करते हैं कि स्त्रियां बेहद नाज़ुक और इतनी बेवकूफ होती हैं कि वे खुद का खयाल नहीं रख सकती हैं. यहां आकर पाउलिन को खुशी नहीं हुई. लगा जैसे उनके पास जो ताकत थी, उसे ढक दिया गया है! और फिर अठारह की होने पर वे अमरीका जा पहुंचती हैं, एक अमरीकी से उन्हें प्रेम हो जाता है. वहां के बारे में अब तक की उनकी धारणाएं तेज़ी से बदलने लगती हैं. वे एक चिकित्सिका के पास जाती हैं तो वो उनकी देह के बारे में बड़े संकोच से बात करती है. और वहीं उन्हें यह एहसास होता है कि अमरीका में स्त्री की देह पर खुद उसके सिवा सबका हक़ है. उसकी यौनिकता पर उसके पति का हक़ है, खुद अपने बारे में उसकी राय पर उसका नहीं उसके सोशल सर्कल का हक़ है, और उसके गर्भाशय पर सरकार का हक़ है. सब चाहते हैं कि वो एक मां का, एक प्रेमिका का और बहुत कम वेतन पर एक कामकाजी औरत का किरदार निभाये और साथ ही छरहरी और युवा भी बनी रहे. पाउलिना बहुत अर्थपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहती है कि अमरीका में स्त्री को कहा तो यह जाता है कि तुम सब कुछ कर सकती  हो, लेकिन जब वो ऐसा करने की कोशिश  करती है तो उसे धराशायी कर दिया जाता है! और यह सब देख कर उन्हें लगता है कि जिस फेमिनिस्ट शब्द को वे भूल चुकी थीं, उसे फिर से याद कर लेना ज़रूरी है!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 जून, 2017 को फेमिनिज़्म की कसौटी  पर पश्चिमी  देश शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 6, 2017

खाइये मन भाता, पहनिए जग भाता

चाहता कोई नहीं है कि विवाद खड़ा हो, लेकिन अनायास ऐसा कुछ हो जाता है कि चाय  के प्याले में तूफ़ान आ जाता है. जो लोग राजनीति की दुनिया में हैं, हो  सकता है कि वे कभी-कभार जान-बूझकर भी विवादास्पद कुछ कह या कर देते हों, मुझे नहीं लगता कि संस्थान भी ऐसा ही करते होंगे. अब हाल का यह प्रसंग लीजिए जो घटित तो सुदूर बेल्जियम में हुआ है लेकिन जिसकी चर्चा सारी दुनिया में हो रही है. मुझे पूरा विश्वास है कि इस घटना का सूत्रपात जहां से हुआ वहां किसी की मंशा कोई विवाद खड़ा करने की नहीं रही होगी. आइये, पहले घटना जान लें.

बेल्जियम की ब्रसेल्स फ्री यूनिवर्सिटी के मेडिकल स्नातकों का दीक्षांत समारोह होने वाला था. सामान्यत: सारी दुनिया में दीक्षांत समारोह का कोई न कोई  ड्रेस कोड होता है, और उसे यथासुविधा बदला भी जाता है, जैसे अपने देश में कई जगहों पर काले गाउन की बजाय भारतीय वेशभूषा प्रचलन में आई है. लेकिन ब्रसेल्स  की इस यूनिवर्सिटी ने अपने नव स्नातकों को एक ई मेल भेजा जिसमें ऐसा कुछ कह दिया गया कि किसी ने क्षुब्ध होकर उस ई मेल को फेसबुक पर साझा कर दिया, और उसके बाद तो ऐसे मामलों में जो होना है वही हुआ. एक से एक तीखे बयान, उपहासात्मक टिप्पणियां, गुस्से की अभिव्यक्तियां वगैरह-वगैरह. ऐसा क्या था उस ई मेल में? उसमें जो कहा गया था उसका सरल-सा अनुवाद यह हो सकता है कि “सौंदर्यात्मक  दृष्टि से यह उपयुक्त होगा कि इस अवसर पर पुरुष एक उम्दा सूट पहन कर आएं, और युवतियां  स्कर्ट के साथ ऐसी ड्रेस पहनें जिसकी नेकलाइन नाइस रिवीलिंगहो.”  यह बात बहुत दिलचस्प लग सकती है कि भारत में जहां हम लोग आम तौर पर पश्चिमी दुनिया के देशों  को वेशभूषा के मामले में खासा उदार और उन्मुक्त मानते हैं, वहां भी इस मेल को सहजता से नहीं लिया गया. इतना ज़्यादा हो हल्ला मचा कि अंतत: इस मेल को भेजने वाली फैकल्टी ऑफ मेडिसिन को इस आशय का एक बयान ज़ारी कर कि इस मेल में युवा स्नातकों के लिए  वेशभूषा के जो निर्देश दिये गए हैं वे उन मूल्यों के विरुद्ध हैं जिनका निर्वहन इस  विश्वविद्यालय और फैकल्टी द्वारा किया जाता है, क्षमा याचना करनी पड़ी. वैसे  इस मेल में भी कह दिया गया था कि महिलाओं के लिए इस सलाह को मानना ज़रूरी नहीं है. एक बहुत रोचक बात बाद में उजागर हुई और वह यह कि यह मेल विश्वविद्यालय के उस सचिवालय द्वारा ज़ारी किया गया था जिसमें केवल महिलाएं काम करती हैं!

चलिये, इस विवाद का तो पटाक्षेप हो गया, लेकिन बात निकलती  है तो दूर तक जाए बग़ैर नहीं रहती है. इस विवाद की चर्चा करते हुए अनायास मुझे पैरिस में हुए एक ताज़ा सर्वे का ध्यान आ रहा है. फ्रांस की राजधानी में स्थित पैरिस-सॉर्बॉन यूनिवर्सिटी की एक शोधकर्ता डॉ सेवाग कर्टेशियन ने वहां होने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेस में प्रस्तुत करने के लिए जो परिणाम जुटाये हैं वे खासे चौंकाने वाले हैं. उन्होंने कुछ महिलाओं को चुना और फिर उनमें से हरेक की दो तस्वीरें एक एक सौ भावी नियोक्ताओं को भेजीं. एक तस्वीर में उन्हें सामान्य वेशभूषा में दिखाया गया तो दूसरी में वैसी वेशभूषा में जिसका ज़िक्र बेल्जियम के इस विवाद के संदर्भ  में हो चुका है.  यह पाया गया कि बिक्री विभाग की नौकरियों के लिए सामान्य की तुलना में लो-कट ड्रेस वाली युवतियों को 62 इण्टरव्यू कॉल्स ज़्यादा मिले.  और अधिक चौंकाने वाली बात तो यह कि अकाउण्टेंसी विषयक कामकाज के लिए यह फासला 68 कॉल्स का रहा. यहीं यह भी बता दूं कि दोनों मामलों में युवतियों की योग्यता समान थी, यानि यह अंतर सिर्फ उनकी वेशभूषा के कारण आया. डॉ कर्टेशियन ने ठीक  ही कहा है कि काम चाहे जैसा हो, चाहे वो ग्राहकों के साथ सम्पर्क  कर बिक्री करने का हो या कार्यालय में बैठकर हिसाब-किताब करने का, उदार वेशभूषा वालों को अधिक सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. कर्टेशियन का कहना है कि ये परिणाम बहुत चौंकाने वाले और नकारात्मक भले  हों, आश्चर्यजनक तो फिर भी नहीं हैं. वे मानती हैं कि इस क्षेत्र में और अधिक रिसर्च की ज़रूरत है. और जिस कॉन्फ्रेस में प्रस्तुत करने के लिए  वे इन परिणामों तक पहुंची हैं उसमें भी विभिन्न विशेषज्ञ और नीति निर्माता यही विमर्श करने वाले हैं कि हम जैसे दिखाई देते हैं उसकी क्या-क्या परिणतियां होती हैं! 

अपने देश में प्राय: वेशभूषा को लेकर कोई न कोई विवाद होता रहता है. हाल में जब कुछ सरकारों ने अपने कर्मचारियों को यह निर्देश दिया कि वे कार्यालय में जी न्स और टी शर्ट जैसी अनौपचारिक  वेशभूषा में न आएं, तो बहुतों को यह बात नागवार गुज़री. ऊपर उल्लिखित दोनों प्रसंग यह बताने को पर्याप्त हैं कि पहनने-ओढ़ने को लेकर केवल हम ही संवेदनशील नहीं हैं!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 जून, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.