हममें से ज़्यादातर लोग याददाश्त को अक्ल
या बुद्धि का पर्याय मान बैठते हैं और जिन्हें बहुत सारी छोटी-मोटी बातें याद होती हैं उन्हें देख
कर खुद के भुलक्कड़पन पर शर्मिंदा होते हैं. टेलीविज़न पर आने वाले बहुत सारे स्मृति आधारित प्रतियोगी
कार्यक्रमों में जब कोई प्रतिभागी फटाफट जवाब देता है तो हमें लगता है कि काश!
हमारी याददाश्त भी ऐसी ही होती! माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि जिसे जितनी ज़्यादा
चीज़ें याद है उसे उतना ही बेहतर माना जाता है. लेकिन इधर हाल में हुई कुछ
वैज्ञानिक शोधों ने इस माहौल को चुनौती दे डाली है. टोरण्टो विश्वविद्यालय के दो
शोधकर्ताओं पॉल फ्रैंकलैण्ड और ब्लैक रिचर्ड्स ने हाल में प्रकाशित अपने एक शोध
पत्र में यह कहकर सबको चौंका दिया है कि हमारा दिमाग़ बातों को भुलाने के लिए भी
सतत सक्रिय रहता है. उनका कहना है कि हमारी स्मृति व्यवस्था के लिए जितना महत्व
चीज़ों को याद रखने का है उतना ही महत्व उन्हें भुला देने का भी है. इन शोधकर्ताओं
के अनुसार, हमारे दिमाग में एक छोटा-सा तंत्र होता है जिसे
हिप्पोकैम्पस कहा जाता है. इसी में तमाम चीज़ें संग्रहित होती रहती हैं. लेकिन यह
तंत्र अपने आप सफाई करते हुए ग़ैर ज़रूरी चीज़ों को मिटा कर नई चीज़ों के लिए जगह
बनाता रहता है. रिचर्ड्स इस प्रक्रिया को इस कारण भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि ग़ैर
ज़रूरी चीज़ों की सफाई से हमें सही निर्णय करने में अधिक आसानी हो जाती है.
इन शोधकर्ताओं के अनुसार जैविक
दृष्टिकोण से इस बात को यों समझा जा सकता है कि आदि मानव को अपना अस्तित्व बनाए
रखने के लिए बहुत सारी चीज़ों को याद रखना होता था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का विकास
होता गया,
हमें
उनमें से बहुत सारी बातों को याद रखने की कोई ज़रूरत ही नहीं रही. तकनीक ने उन
चीज़ों को याद रखने का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया. हाल के जीवन से एक उदाहरण से भी यह
बात पुष्ट होती है. आज से पंद्रह बीस बरस
पहले हमें अपने नज़दीकी लोगों के फोन नम्बर मुंह ज़बानी याद रहा करते थे
लेकिन अब हमारा यह काम स्मार्ट फोन करने लगे हैं और हालत यह हो गई है कि हमें खुद
अपने फोन नम्बर भी याद नहीं होते हैं. लेकिन आज हम ऐसी बहुत सारी बातें याद रखने
लगे हैं जिन्हें याद रखने की अतीत में कोई ज़रूरत नहीं होती थी. इस तरह पुरानी
स्मृतियों ने विलुप्त होकर नई बातों के लिए जगह बना दी है. आज हम बजाय साढ़े तीन, सत्रह और उन्नीस
का पहाड़ा याद रखने के यह याद रखने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं कि कैलक्युलेटर को कैसे
इस्तेमाल किया जाए! बहुत सारी ग़ैर ज़रूरी सूचनाओं को अपने दिमाग़ में ठूंसे रखने की
बजाय हम यह याद रखना ज़्यादा उपयोगी समझते हैं कि कोई भी जानकारी पाने के लिए गूगल
का इस्तेमाल कैसे किया जाए!
इन शोधकर्ताओं पॉल फ्रैंकलैण्ड और ब्लैक रिचर्ड्स ने
अपने शोध पत्र में यह भी समझाया है कि हमारी स्मृति की सार्थकता इस बात में नहीं
है कि वह तमाम ज़रूरी-ग़ैर ज़रूरी सूचनाओं का भण्डारण करती जाए. उसकी सार्थकता तो इस
बात में है कि कैसे वह उपलब्ध ज़रूरी सूचनाओं का इस्तेमाल कर सही निर्णय करे. यानि
महत्व इस बात का है कि हमारा दिमाग़
अप्रासंगिक ब्यौरों को भुलाता चले और केवल उन बातों पर केंद्रित रहे जो वास्तविक
जीवन में हमें सही फैसले लेने में मददगार साबित हों. आप किसी से मिलें और बात करें
तो यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि उस व्यक्ति के बारे में हर बारीक से बारीक बात आपको
याद हो और उस बातचीत को आप शब्दश: दुहरा सकें. महत्व इस बात का है कि इस बातचीत के
ज़रूरी बिंदु आपको याद रह जाएं. सुखद बात यह है कि हमारे लिए यह सारा काम हमारा दिमाग़ अपने आप करता चलता है.
हमें यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि
चीज़ों को याद रखना जितना महत्वपूर्ण है उससे कम उन्हें भुला देना नहीं है. अनावश्यक
सूचनाओं की भीड़ को अपने दिमाग़ से हटाकर ही हम उसे बेहतर तरीके से काम करने के लिए
तैयार कर सकते हैं. लेकिन हां, अगर कोई ज़रूरी बातों को भी भूल जाया करता है, तो हो सकता है कि
वह किसी विकार अथवा रोग से ग्रस्त हो. और तब उसे ज़रूरी विशेषज्ञ सहायता लेने से
नहीं चूकना चाहिए. लेकिन सामान्यत: इन तीन बातों को ज़रूर याद रखा जाना चाहिए. एक: अच्छी स्मृति हमेशा उच्च बुद्धिमत्ता की पर्याय नहीं
होती है. दो: हमारे दिमाग़ की संरचना ही ऐसी है कि वह कुछ चीज़ों को भुलाता और कुछ
को याद रखता है, और तीन: भूलना भी बुद्धिमत्ता
का एक ज़रूरी हिस्सा है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 अगस्त, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.