Tuesday, May 22, 2018

यह गिरावट भी स्वागत योग्य है!


कैसी अजब दुनिया है यह! इधर हम अपने देश में बढ़ती जा रही जनसंख्या से त्रस्त हैं, और उधर अमरीका में सन 2008 की कुख्यात महा मंदी के बाद उर्वरता दर (फर्टिलिटी रेट) घटने का जो सिलसिला शुरु हुआ वह अब तक नहीं रुका  है. इस बार तो लगातार दूसरे बरस इस दर में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज़ की गई है. वैसे निकट अतीत में 1958 से 1968 के बीच भी अमरीका में ऐसा ही हो चुका है. उर्वरता दर को किसी भी देश के जनसंख्या संतुलन को मापने का प्रामाणिक पैमाना माना जाता है. अगर दर बढ़ जाती है तो देश के ज़रूरी संसाधनों मसलन शिक्षा, मकान वगैरह की आपूर्ति प्रतिकूलत: प्रभावित होती  है, और घट जाती है तो काम करने वाली जन शक्ति घटने और काम न कर सकने वाली वृद्ध जनशक्ति बढ़ने लगती है. रूस और जापान में ऐसा ही हो रहा है. यहीं यह भी जान लीजिए कि उर्वरता दर की गणना इस आधार पर की  जाती है कि 15 से 44 वर्ष के बीच आयु वाली एक हज़ार स्त्रियां  कितने बच्चों को जन्म देती हैं. लेकिन बावज़ूद उर्वरता दर में हो रही सतत कमी के, फिलहाल अमरीका के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं है और इसके मूल में है सारी दुनिया के युवाओं का अमरीका  की तरफ आकर्षित होना. आप्रवासन की वजह से अमरीका उर्वरता दर की कमी के दुष्प्रभावों से बचा हुआ है.

सामान्यत: ऐसा माना जाता है कि जब कोई देश आर्थिक संकटों में घिर जाता है तो वहां उर्वरता दर इस वजह से कम होने लगती है कि लोग अच्छे दिनों के लौटने  तक संतानोत्पत्ति को स्थगित किये रहते हैं. जब आर्थिक संकट दूर हो जाता है तो उर्वरता दर भी पूर्ववत हो जाती है. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि अमरीका के मामले में यह सिद्धांत भी ग़लत साबित हुआ है. आर्थिक हालात सुधरने के बावज़ूद, एक 2014 के अपवाद को छोड़कर वहां उर्वरता दर घटती ही जा रही है. सम्बद्ध विशेषज्ञ इसे हमारे समय के  बहुत बड़े जनसंख्या  रहस्यों में से एक मानते हैं. यह रहस्य इस तरह और गहरा जाता है कि सन 2007 की तुलना में 2017 में वहां पांच लाख बच्चे कम पैदा हुए, बावज़ूद इस यथार्थ के कि इन दस बरसों में गर्भधारण करने के लिए  सर्वाधिक उपयुक्त उम्र वाली स्त्रियों की संख्या में सात प्रतिशत की वृद्धि हुई.

बावज़ूद इस बात के कि इसे एक रहस्य कहा गया है, इसे समझने के प्रयास भी कम नहीं हुए हैं. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि सामाजिक संरचना तेज़ी से बदल रही है. स्त्रियां ज़्यादा पढ़ लिख रही हैं, शादी करना स्थगित कर रही हैं और परिवार का आर्थिक दायित्व वहन करने की प्रमुख भूमिका निबाहने के लिए तत्पर होने लगी हैं. इस बात को आंकड़ों से भी प्रमाणित किया गया है. जहां पिछले दस बरस में कम उम्र की युवतियों के मां बनने में बहुत कमी आई है वहीं उम्र के चौथे दशक के मध्य तक जा पहुंची स्त्रियों के मां बनने की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है. अब हालत यह है हर पांच में से एक संतान पैंतीस बरस या इससे अधिक वय की स्त्री के यहां जन्म ले रही है. ज़ाहिर है कि ऐसा इस कारण हो रहा है कि आज की स्त्री यह मानने-समझने लगी है कि उससे पहले वाली पीढ़ी की  स्त्री जिस उम्र में मां बना करती थी वही उम्र उसके कैरियर के विकास के लिए सबसे ज़्यादा अहम है. आज उसका सारा ध्यान अपने कैरियर पर केंद्रित है और इस कारण वह मातृत्व  को अगले कुछ बरसों के लिए स्थगित करने लगी है.

उर्वरता दर में गिरावट के इस मामले में कुछ बातें ख़ास तौर पर ग़ौर  तलब हैं. एक तो यह कि यह गिरावट अल्पसंख्यक स्त्रियों के मामले में अन्यों की तुलना में बहुत ज़्यादा है. मसलन लातिन अमरीकी स्त्रियों में यह गिरावट सत्ताइस प्रतिशत तक दर्ज़ की गई है. इसी तरह अश्वेतों में जहां यह गिरावट ग्यारह प्रतिशत  दर्ज़ की गई वहीं श्वेतों में मात्र चार प्रतिशत की गिरावट लक्ष्य की गई. दूसरी बात यह कि उर्वरता दर में सर्वाधिक कमी सामान्यत: युवा स्त्रियों में देखी गई लेकिन पिछले बरस यह कमी तीस पार की स्त्रियों में भी देखी गई. इस पूरे प्रसंग का सर्वाधिक उजला पहलू यह है कि किशोरियों के मां बनने की दर में लगातार और तेज़ी से कमी हो रही है. यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि सन 2007 से अब तक इसमें पचपन प्रतिशत की कमी आ चुकी है. इतनी ही नहीं, 1991 में जब किशोरियों के मां बनने की दर सर्वाधिक  थी तब से अब तक अगर इस गिरावट को आंकें तो यह आंकड़ा सत्तर फीसदी तक जा पहुंचता है. तमाम दूसरी बातें, अपनी जगह, इस गिरावट का तो हम सबको खुले मन से स्वागत करना ही चाहिए.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 मई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 15, 2018

मशीन, कृत्रिम बुद्धि और मानवीय विवेक


हमारे समय का एक बड़ा यथार्थ यह भी है कि मनुष्य मनुष्य के बीच सम्पर्क घटता जा रहा है और मनुष्य की यंत्रों पर निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. पहले हम टेलीफोन का चोंगा उठाकर ऑपरेटर से नम्बर मांगते थे,  बैंक जाकर पैसे निकालते-जमा कराते थे, रेल्वे स्टेशन जाकर टिकिट खरीदते थे, बाज़ार में जाकर अपनी ज़रूरत का सामान देखते-परखते और फिर खरीदते थे.  अब इन सबका स्थान यांत्रिकता ने ले लिया है. हम स्मार्ट होते जा रहे हैं. पता नहीं स्मार्ट हम हो रहे हैं या स्मार्ट यंत्र हम पर हावी हो रहे हैं. लेकिन सारी दुनिया में स्मार्ट होने की जैसे होड़ मची हुई है. अमरीका के बारे में तो यह अनुमान लगाया गया है कि सन 2021 तक आते-आते वहां स्मार्ट उपकरणों की संख्या वहां के मनुष्यों से ज़्यादा हो जाएगी. अनुमान यह भी है कि उस समय तक कम से कम आधे अमरीकी घरों में एक स्मार्ट स्पीकर तो होगा ही जो घर वालों की आवाज़ सुनकर उसके अनुरूप संचालित होगा या घर को संचालित करेगा.


विभिन्न कम्पनियों द्वारा निर्मित इस तरह के स्मार्ट स्पीकर इन दिनों सारी दुनिया में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. ऐसा ही एक स्मार्ट स्पीकर मेरे पास भी है जिसे मैं कहता हूं कि मेरे  लिए पण्डित भीमसेन जोशी का जो भजे हरि को सदा बजाओ’,  तो मेरा वाक्य ख़त्म  होते-होते वह उसे बजाना शुरु कर देता है. मेरा यह स्पीकर और बहुत सारे काम करता है, जैसे वो मेरे बहुत सारे सवालों  के जवाब दे देता है, मुझे यह बता देता है कि मेरे शहर का तापमान क्या है या भूटान की आबादी कितनी है, वगैरह. वह ऐसे बहुत सारे अन्य काम भी  कर सकता है, जो फिलहाल मैंने उससे लेने शुरु नहीं किए हैं. जैसे वो मेरे कमरे की बत्तियां जला-बुझा सकता है, मेरे कहने पर किसी को फोन लगा सकता है, मेरे घर की सिक्योरिटी को बंद या चालू कर सकता है, वगैरह. इस स्पीकर की कीमत भी बहुत ज़्यादा नहीं है, इसलिए बहुत जल्दी यह हर घर में नज़र आने लगेगा, यह कल्पना की जा सकती है. इस तरह के उपकरण हमारी आवाज़ सुनकर उसके अनुसार संचालित होते हैं. कृत्रिम बुद्धि इनके मूल में होती है.

इधर पिछले दो बरसों से अमरीका और चीन में ज़ारी शोधों के जो परिणाम सामने आए हैं वे इस तरह के उपकरणों में निहित ख़तरों के प्रति हमें सावचेत करते हैं. इन शोधकर्ताओं ने यह बताया  है कि इन उपकरणों  को मूर्ख बनाकर इनका दुरुपयोग भी किया जा सकता है. क्योंकि ये उपकरण आवाज़ से संचालित होते हैं, शोधकर्ताओं ने किया यह कि आम गानों वगैरह के बीच कुछ अवांछित ध्वनि निर्देश डाल दिये. ये ध्वनि निर्देश ऐसे थे जिन्हें हम अपने कानों से सामान्यत: नहीं सुन पाते थे, लेकिन उपकरण न केवल उन्हें सुन पाए, उनके अनुसार संचालित भी हो गए. कल्पना कीजिए कि आप अपने उपकरण को किशोर कुमार का कोई गाना बजाने का निर्देश दें, और उस गाने के भीतर आपके घर का दरवाज़ा खोलने का निर्देश भी छिपा हो और गाना बजते समय वह दरवाज़ा खुल जाए तो? प्रयोग ये भी किए गए कि सामान्य संगीत के भीतर इस तरह के निर्देश डाल दिये गए कि वह गाना बजते ही प्रयोगकर्ता के कम्प्यूटर पर कोई अश्लील साइट खुल गई, या उसके फोन से किसी को अनुचित कॉल कर दिया गया. इस तरह के ख़तरों को इन शोधकर्ताओं ने डॉल्फिन अटैक का नाम दिया है. अमरीका में ऐसे भी प्रयोग किये गए जिनमें छिपे हुए संदेश वाला कोई गाना बजने पर उपयोगकर्ता की शॉपिंग लिस्ट में किसी ख़ास कम्पनी के कोई उत्पाद अपने आप जुड़ गए.

दरअसल इस तरह के उपकरणों की एक बड़ी सीमा यह है कि इनकी अधिकाधिक स्वीकार्यता के लिए इनकी निर्माता कम्पनियों के लिए यह बात बहुत ज़रूरी होती है कि इन्हें बहुत जटिल न बनाया जाए ताकि ये अधिकाधिक उपयोगकर्ताओं के लिए प्रयोग-सुलभ हों. और यही प्रयोग-सुलभता इन्हें असुरक्षित भी बना देती हैं. एक उदाहरण देखें. इन उपकरणों को इस तरह तैयार किया जाता है कि ये भिन्न-भिन्न उतार-चढ़ाव वाले ध्वनि  संकेतों को भी ग्रहण कर लें. शोधकर्ताओं ने इनके सामने एक वाक्य बोला: कोकेन नूडल्स. और जैसा उन्हें भय था, उपकरण ने समझा कि उसे कहा गया है – ओके गूगल. यह बात सर्वविदित  है कि यह वाक्य इस तरह की उपकरण व्यवस्था को जगाकर सक्रिय करने के लिए काम में लिया जाता है. बहुत स्वाभाविक है कि इनकी निर्माता कम्पनियां भी इस तरह के ख़तरों के प्रति पूरी तरह सजग हैं और वे हर सम्भव प्रयास कर रही हैं कि उनके बनाए उपकरणों का कोई ग़लत इस्तेमाल न कर सके. लेकिन हमें लगता है कि जहां तक विवेक का प्रश्न है, मशीन मनुष्य की बराबरी कभी नहीं कर पाएगी.

आपका क्या विचार  है?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 मई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 8, 2018

साहित्य के नोबेल पुरस्कार पर # मी टू की काली छाया

यह एक असामान्य बात है और इसने पूरी दुनिया के साहित्यिक समाज को चौंका  दिया है. स्वीडिश एकेडमी  ने घोषणा की है कि वर्ष 2018 के लिए दिया जाने वाला साहित्य का नोबेल पुरस्कार अब वर्ष 2019 के पुरस्कार के साथ ही प्रदान किया जाएगा. वैसे नोबेल पुरस्कारों के इतिहास में इससे पहले भी कई  दफा ऐसा हो चुका है कि किसी एक साल का  पुरस्कार उससे अगले साल के पुरस्कारों के साथ दिया गया. उदाहरण  के लिए अमरीकी नाटककार  यूजेन ओनील को उनका 1936 का पुरस्कार 1937 में दिया गया था.  1943 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार द्वितीय विश्वयुद्ध की वजह से स्थगित करना पड़ा था. इस बार स्वीडिश एकेडमी  को यह असामान्य फैसला यौन दुर्व्यवहार और वित्तीय घोटालों तथा गोपनीयता भंग करने के आरोपों के चलते करना पड़ा है. कहा जा रहा है कि जबसे पुरस्कार शुरु हुए यानि 1901 के बाद से चर्चा में आने वाला यह सबसे बड़ा और गम्भीर विवाद है.  नोबेल समिति ने भी यह कहते हुए स्वीडिश एकेडमी के इस फैसले  का स्वागत किया है कि सम्मानित संस्था के लिए यह मामला शर्मनाक है. नोबेल फाउण्डेशन ने अपने एक वक्तव्य में यहां तक कहा है कि स्वीडिश एकेडमी का यह फैसला स्थिति की गम्भीरता को रेखांकित करता है और उम्मीद ज़ाहिर की है कि इस फैसले से पुरस्कार की दीर्घकालीन प्रतिष्ठा  की रक्षा हो सकेगी.

पिछले कुछ समय से स्वीडन के प्रेस में फ्रेंच फोटोग्राफ़र जौं क्लोड अरनॉल्ट के कथित यौन दुराचार की खबरें सुर्खियों में थीं. पिछले साल नवम्बर में अठारह महिलाओं ने मी टूआंदोलन के माध्यम से अरनॉल्ट पर यौन हमलों व उत्पीड़न के आरोप लगाए थे. प्रोफेसर विट ब्रैट्स्ट्रोम जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्व ने तो यहां तक कहा है कि अर्नोल्ट ने एक दशक पहले स्वीडिश एकेडमी के एक समारोह में स्वीडन की क्राउन प्रिंसेस विक्टोरिया को भी ग़लत ढंग से स्पर्श किया था. कहा गया कि अरनॉल्ट ने ये दुष्कृत्य कई दफा एकेडमी के स्वामित्व वाले परिसरों में भी किए. अरनॉल्ट पर एकेडमी के कर्मचारियों व सदस्यों के रिश्तेदारों के साथ भी अवांछित यौन सम्बंध  बनाने के आरोप लगाए गए. अरनॉल्ट की पत्नी कवयित्री व लेखिका कटरीना फ्रोस्टेनसन हैं जो लम्बे समय से स्वीडिश एकेडमी की एक सदस्या रही हैं. अरनॉल्ट व उनकी पत्नी बहुत लम्बे अर्से तक स्टॉकहोम  में फॉर्म नाम का एक क्लब भी संचालित करते रहे हैं जहां नोबेल पुरस्कार विजेता एवम अन्य प्रतिष्ठित लेखकों कलाकारों आदि के रचना पाठ, प्रदर्शनियां व अन्य प्रदर्शन आयोजित होते रहे हैं. इस क्लब को एकेडमी से वित्तीय सहायता मिलती रही है. अरनॉल्ट दम्पती पर एक बड़ा आरोप यह भी लगाया गया है कि उन्होंने कम से कम सात नोबेल  पुरस्कार विजेताओं के नाम समय से पहले लीक किये. इन नामों में बॉब डिलन और हैरॉल्ड पिण्टर प्रमुख हैं. बहुत स्वाभाविक है कि अरनॉल्ट के वकील ने इन तमाम आरोपों का  खण्डन किया और कहा कि ये आरोप उनके मुवक्किल की छवि को नुकसान  पहुंचाने के इरादे से लगाए गए हैं.

इन तमाम आरोपों के बीच स्वीडिश एकेडमी की अठारह सदस्यीय  समिति ने मतदान कर अरनॉल्ट की पत्नी कटरीना फ्रोस्टेनसन को समिति से निकालने का फैसला कर लिया. उधर खुद कटरीना ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. एकेडमी की स्थायी सदस्या सारा डेनिअस ने कहा कि संस्थान ने कथित आरोपों के बाद अरनॉल्ट से भी अपने सम्बंध पूरी तरह तोड़ लिए हैं. डेनिअस समेत छह सदस्य भी अब तक इस समिति से इस्तीफा दे चुके हैं. लेकिन यहीं सारा प्रकरण एक रोचक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है. तकनीकी तौर पर स्वीडिश एकेडमी के सारे अठारह सदस्य ज़िंदगी भर के लिए नियुक्त किए जाते हैं और वे इस्तीफा भी नहीं दे सकते हैं. लेकिन हां, वे एकेडमी की बैठकों और उसके फैसलों में शामिल न होने का विकल्प ज़रूर चुन सकते हैं. इसी प्रावधान के चलते आज स्थिति यह है कि अठारह में से केवल दस सदस्य ही बचे हैं  जो सक्रिय हैं. लेकिन एकेडमी के प्रावधानों में यह बात भी शामिल है कि किसी नए सदस्य के चुनाव के लिए न्यूनतम सदस्य संख्या बारह है. इस तरह ये दस सदस्य कोई फैसला करने की हालत में भी नहीं हैं. इस गत्यवरोध को दूर करने के लिए एकेडमी के संरक्षक राजा कार्ल गुस्ताफ़ सोलहवें ने घोषणा की है कि वे नियमावली  में फेरबदल के मुद्दे पर गम्भीरता से विचार कर रहे हैं. उन्होंने संकेत दिया है कि नियमों में बदलाव कर सदस्यों को स्वेच्छा से पद त्याग की अनुमति दी जा सकती है.

वैसे स्वीडिश एकेडमी ने यह भी कहा है नोबेल पुरस्कार विजेता के चयन की प्रक्रिया काफी अग्रिम अवस्था में है और ज़ारी रहेगी, लेकिन विजेता की घोषणा होने में समय लगेगा. आशा की जानी चाहिए कि एकेडमी और नोबेल फाउण्डेशन की इस त्वरित कार्यवाही के कारण नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा बनी रह सकेगी.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 मई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 1, 2018

वहां लबों की आज़ादी पर अनगिनत पहरे हैं!


हममें से बहुतों के लिए इण्टरनेट की लगभग निशुल्क सुलभता आज के समय के सबसे बड़े वरदानों में से एक है. यह इस बात के बावज़ूद कि समय-समय पर इसकी सहायता से संचालित होने वाली बहुत सारी गतिविधियों, विशेषत: सोशल मीडिया के दुरुपयोग और दुष्प्रभावों की ख़बरें भी आकर हमें चिंतित कर जाती हैं. इधर हम अपने देश में एक नई प्रवृत्ति यह भी देख रहे हैं कि जैसे ही किसी शहर-कस्बे-गांव वगैरह में कोई दंगा-फसाद होता है, सरकार पहला काम वहां इण्टरनेट सेवाओं को बंद कर देने का करती है. कुछ लोगों को डिजिटल बनाए जा रहे भारत में यह काम विडम्बनापूर्ण लग सकता है, लेकिन प्रशासन को लगता है कि दुर्भावनापूर्ण ख़बरों और अफ़वाहों  को फैलने से रोकने के लिए यह प्रतिबंध  ज़रूरी है. वैसे इस माध्यम को लेकर बहसें भारत से बाहर, पश्चिम में भी कम नहीं हो रही हैं. इधर फ़ेसबुक के डेटा के दुरुपयोग  के बारे में आई ख़बरों ने वहां भी अच्छी खासी हलचल पैदा की है और विशेष रूप से अमरीकी समाज में कैम्ब्रिज एनेलिटिका जैसी कम्पनी द्वारा वहां के चुनावों में दखलंदाज़ी के प्रयासों को बहुत गम्भीरता से लिया गया है. लेकिन इन तमाम बातों के बावज़ूद पश्चिम में, और मोटे तौर पर भारत में भी, हर कोई इण्टरनेट की निर्बाध सुलभता के हक़ में नज़र आता है.

लेकिन हमारा ध्यान इस बात की तरफ़ शायद ही जाता हो कि हमारी इसी दुनिया में कम से कम एक महाद्वीप ऐसा है जहां के नागरिकों को हमारी तरह यह सुख मयस्सर नहीं है. यथार्थ तो यह है कि जहां भारत सहित दुनिया के कई देशों की सरकारें अभी इण्टरनेट के निर्बाध उपयोग को थोड़ा-सा सीमित करने का इरादा कभी-कभार प्रकट करती है (और इसके लिए भी उनकी आलोचना कम नहीं होती है!) वहीं तंज़ानिया और युगाण्डा जैसे अफ्रीकी देशों की सरकारें अपने देशों में पिछले कुछ समय से  व्यवस्था, स्थायित्व और उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिकता का नाम लेकर इण्टरनेट के इस्तेमाल पर काफी कड़े प्रतिबंध लगा चुकी हैं. हो सकता है यह बात पढ़ने में काफी कड़वी  लगे लेकिन सच यही है कि इन देशों की सरकारें इण्टरनेट की निशुल्क उपलब्धता पर वैसे कड़े प्रहार करके, जिनकी  हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, उसे करीब-करीब ध्वस्त कर चुकी है. उदाहरण के लिए आप तंज़ानिया को लीजिए. वहां की सरकार ने  एक नियम बनाया है कि हर ब्लॉगर को और यू ट्यूब चैनल्स जैसे विविध मंचों के एडमिनिस्ट्रेटरों को करीब नौ सौ डॉलर का शुल्क चुकाकर स्वयं को एक नियंत्रक अधिकारी के यहां पंजीकृत कराना होगा. वैसे तो  नौ सौ डॉलर की रकम कोई छोटी रकम नहीं है जिसे हर ब्लॉगर चुकाना चाहे या  चुका सके, सरकारी शिकंजा इतने पर ही नहीं रुकता है. वह यह भी चाहता है कि आवेदक अपने तमाम  शेयरहोल्डरों, शेयर पूंजी, स्टाफ की योग्यताओं, उनके लिए चलाए जाने प्रशिक्षण कार्यक्रमों आदि की पूरी जानकारी दे और इस आशय का प्रमाण पत्र भी प्रस्तुत करे कि उसके खिलाफ कोई टैक्स राशि बकाया नहीं है. बहुत स्पष्ट है कि यह सारा उपक्रम न केवल मुक्त विचार विमर्श और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने वाला है, अप्रत्यक्ष रूप से लोगों में भय भी जगाने वाला है. उन्हें लगता है कि सरकार इतनी सारी जानकारियां जुटाकर उनका न जाने कैसा इस्तेमाल कर ले. इसका परिणाम यह हुआ है कि तंज़ानिया  में गिने चुने ब्लॉगर हैं!

तंज़ानिया जैसा ही हाल  युगाण्डा का भी है. वहां के नागरिकों को अपने मोबाइल फोनों पर फ़ेसबुक, ट्विटर या वॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल करने के लिए हर दिन करीब दो पेंस का शुल्क अदा करना होता है. बकौल वहां के वित्त मंत्री जी, देश की सुरक्षा के निमित्त यह बहुत छोटी-सी राशि है. युगाण्डा के राष्ट्रपति का कहना है कि लोग सोशल मीडिया का प्रयोग गप्पबाज़ी के लिए करते हैं, इसलिए उनसे इतनी-सी धनराशि ले लेना कोई अनुचित  बात नहीं है. अपनी सदाशयता दर्शाने के लिए वे यह कहने से भी नहीं चूकते  कि मैं तो बहुत ही वाज़िब इंसान हूं और शैक्षिक, शोध अथवा संदर्भ के लिए इण्टरनेट के प्रयोग पर कभी कोई टैक्स आयद नहीं करूंगा. लेकिन तंज़ानिया की ही एक बेहद लोकप्रिय वेबसाइट के संचालक मेक्सेंस मेलो ने जो बताया, उससे इस कथन की निरर्थकता स्वत: सिद्ध हो जाती है. उनका कहना है कि उनके देश में अगर आप एक फ़ेसबुक पोस्ट भी लिखते हैं तो उस पर वे ही नियम कानून आयद होते हैं जो किसी किताब को लिखने वाले पर होते हैं. और इस तरह आपकी  अभिव्यक्ति की हर आज़ादी प्रतिबंधित है.

एक तरफ़ बाकी दुनिया है जो इस माध्यम की तमाम सीमाओं के बावज़ूद इस पर कोई भी प्रतिबंध लगाने के खिलाफ़ है और दूसरी तरफ यह दुनिया है जहां कोई आज़ादी है ही नहीं!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 मई, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.